Friday, July 23, 2021

श्रद्धा एवं राष्ट्रधर्म अनुक्रम

 भूमिका -- किं कर्तव्यम् -- किमर्थम्

अनुक्रम

खंड  श्रद्धा

. श्रद्धा एवं राष्ट्रधर्म

. राष्ट्रनिर्माणमें तत्वदर्शनका महत्व

सनातन धर्म

भगवद्गीतामें श्रद्धा

ऋग्वेदादिमें श्रद्धा

. देवोपासना

श्रद्धा और विज्ञान

श्रद्धाके आयाम

समाजमें श्रद्धाका उदय

खंड  राष्ट्रधर्म

१०श्रद्धासंस्कारोंके विषय

११उत्पत्ति विज्ञान

१२काल संकल्पना

१३युगान्तरके पर्वमें

१४राष्ट्रकी अवधारणामें वाणीशब्द व भाषाका महत्व

१५ग्रंथसंपदा

१६राष्ट्रचेतनाके आयाम

१७लक्ष्मी और अलक्ष्मी

१८न्यायव्यवस्थाका अधिष्ठान

१९. संन्यास अतिथि इत्यादि

२०गुरुपरंपराउपासनामूर्तिपूजा

खंड ३ अंधश्रद्धाकी समीक्षा

२१पश्चिमी संस्कृति श्रद्धाके विषयमें क्या कहती है

२२अश्रद्धा व तामसी श्रद्धा

२३अंधश्रद्धा शब्दका बवाल

२४अंधश्रद्धाका और एक शब्दका बवाल

२५बेमानी होता कम्युनिजम

खण्ड  संकट  भविष्य

२६संकटके कगारपर भारतीयता

२७सेक्यूलरतासे भ्रमित होनेका संकट

२८भाषाई प्रभुसत्तापर संकट

२९. अर्थकारणका दुश्चक्र

३०इकोसिस्टमपर गहराता संकट

उपसंहार

Sunday, July 18, 2021

जपकी महिमा

 

जपकी महिमा

तंत्र ग्रंथों में तो यहां तक कहा गया है कि तीन , तीन , तीन ह्रींकार, दो हकार, दो सकार तथा ईकार युक्त पंचदशी को जो जपता है, वह स्वयं ब्रह्मरूप होता है। वास्तव में जब श्रद्धा, भक्तिभाव और विधि के संयोग से मंत्राक्षर अंतर्देश में प्रवेश करके एक दिव्य स्पंदन करने लगते हैं, तो उस स्पंदन से जन्म-जन्मांतर के पाप-ताप धुल जाते हैं तथा जीव की प्रसुप्त चेतना जागृत हो उठती है और जापक मंत्रार्थ के साक्षात्कार से कृतकृत्य हो जाता है।

मंत्र एवं तंत्र शास्त्र में जप की महिमा का उल्लेख किया गया है। वाचिक, उपांशु और मानस-मुख्यतः इन तीन प्रकार के जप के बारे में बताया गया है। जो ऊंचे नीचे स्वर से युक्त तथा स्पष्ट और अस्पष्ट पदों तथा अक्षरों के साथ मंत्र का वाणी द्वारा उच्चारण करता है, उसका यह जप ‘वाचिक’ कहलाता है। जिस जप में केवल जिह्वा मात्र हिलती है अथवा इतने धीमे स्वर में अक्षर का उच्चारण होता है, ताकि किसी के कान में पड़ने पर भी कुछ सुनाई दे, वह जप ‘उपांशु’ है तथा जिस जप में अक्षर पंक्ति का, एक वर्ण से दूसरे वर्ण का, एक पद से दूसरे पद का तथा शब्द और अर्थ का मन के द्वारा बारंबार चिंतन होता है, वह जप ‘मानस’ कहलाता है। वाचिक जप से एक सौ गुना उपांशु और फलदायी मानस जप है। गौतमीय तंत्र में कहा गया है कि केवल वर्णों के रूप में जो मंत्र की स्थिति है, वह तो उसकी जड़ता अथवा पशुता है। सुषुम्ना के द्वारा उच्चारित होने पर उसमें शक्ति का संचार होता है। ऐसी भावना करनी चाहिए कि मंत्र का एकेक अक्षर चिच्छक्ति से ओत-प्रोत है और परम अमृत स्वरूप चिदाकाश में उसकी स्थिति है। मन, देवता, प्राण की एकात्मता ही जप का ध्येय है। जहां अन्य यज्ञों में अनेक प्रकार की बाहरी तैयारी और साधनों की आवश्यकता होती है, वहां जप में केवल सात्विक भाव, तन्मयता और एकाग्रता की आवश्यकता रहती है। मन को एकाग्र करके जप और इष्टदेव के ध्यान में लगाना ही जप की प्रक्रिया है। जप की ध्वनि से, नाद से मन और इंद्रियों का आकर्षण होता है। जप से मनुष्य के विचार संयत हो जाते हैं। बार-बार उसके मुख से एक विशेष प्रकार के नाद के उच्चारण का मन-मस्तिष्क पर निरंतर प्रभाव पड़ता है। मस्तिष्क के कोषों में उनका प्रभाव पड़ता है, संस्कार जमता है तथा प्रभाव अंकित होता है। साधक के संस्कार इष्टदेव के रूप-गुण के अनुसार बनने लगते हैं। जप करते-करते साधक अपने इष्टदेव के ध्यान में इतना तल्लीन हो जाता है कि उसकी आत्मा इष्टदेवता के रूप में लीन हो जाती है, उस समय साधक समाधि की अवस्था में पहुंच जाता है। ह्रीं और श्रीं अत्यंत व्यापक बीज मंत्र हैं और प्रायः प्रत्येक शैव और शाक्त मंत्र में इनका उपयोग होता है। साधारणतः ह्रीं को महामाया बीज और श्रीं को महाश्री बीज कहते हैं, किंतु यह भी महामाया भगवती त्रिपुरसुंदरी का ही एक सौम्य रूप है।