अष्टांगयोग
योग के आठ अङ्ग हैं :*
*१. यम*
*२. नियम*
*३. आसन*
*४. प्राणायाम*
*५. प्रत्याहार*
*६. धारणा*
*७. ध्यान*
*८. समाधि*
*♦️योग का जो प्रथम अङ्ग ' यम ' है , उसके पांँच विभाग हैं :*
*१. अहिंसा*
*२. सत्य*
*३.अस्तेय*
*४. ब्रह्मचर्य*
*५. अपरिग्रह*
*🔲यम के पांँच विभागों की परिभाषाएंँ :*
*१ . अहिंसा -* शरीर , वाणी तथा मन से सब काल में समस्त प्राणियों के साथ वैरभाव ( द्वेष ) छोड़कर प्रेमपूर्वक व्यवहार करना ' अहिंसा ' कहलाती है
*२ . सत्य -* जैसा देखा हुआ , सुना हुआ , पढ़ा हुआ , अनुमान किया हुआ ज्ञान मन में है , वैसा ही वाणी से बोलना और शरीर से आचरण में लाना ' सत्य ' कहलाता है ।
*३ अस्तेय -* किसी वस्तु के स्वामी की आज्ञा के बिना उस वस्तु को न तो शरीर से लेना , न लेने के लिये किसी को वाणी से कहना और न ही मन में लेने की इच्छा करना ' अस्तेय ' कहलाता है ।
*४ . बह्मचर्य -* मन तथा इन्द्रियों पर संयम करके वीर्य आदि शारीरिक शक्तियों की रक्षा करना , वेदादि सत्य शास्रों को पढ़ना तथा ईश्वर की उपासना करना ' ब्रह्मचर्य' कहलाता है ।
*५ . अपरिग्रह -* हानिकारक एवं अनावश्यक वस्तुओं का तथा हानिकारक एवं अनावश्यक विचारों का संग्रह न करना ' अपरिग्रह कहलाता है ।
कर्तव्य अकर्तव्य ५५
नियम - शौच संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर प्रणिधान - कर्तव्य
यम – अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, इंद्रियसंयम - न कर्तव्य
भारतीय संस्कृतिमें वारंवार यह विचार हुआ कि आनेवाली पीढीयाँ सुसंस्कारित बनीं रहे। शिक्षाव्यवस्थामें, गुरुकुलोंमें यह व्यवस्था थी जिसमें विद्यार्थीकी मेधा, ज्ञान, कौशल्य एवं संस्कारोंपर विशेष ध्यान दिया जाता था। ये संस्कार क्या हों इसपर विभिन्न ग्रंथोंमें वर्णन है। यहाँ हम मुख्यतः पतंंजली मुनिद्वारा व्याख्यायित संस्कारोंकी चर्चा करेंगे।
पातंजल योगसूत्र नामक ग्रंथका उद्देश मनुष्यको योगकी ओर प्रवृत्त करते हुए समाधिकी अवस्था तक ले जाना है। यह अतीव आनंदकी अवस्था कही जाती है। वैसे भी देखा जाय तो मनुष्यकी सर्वाधिक चाह आनन्द प्राप्तिकी ही होती है। भृगू उपनिषदमें पंचकोषका वर्णन है। मनुष्यको सबसे पहले अन्नसे तृप्ति होती है और वह आनन्दित होता है, अतः पहला सूत्र कहा गया अन्नैव ब्रह्मः। उसके आगे प्राणोंके समुचित संचारसे भी आनन्दकी अनुभूति होती है। फिर मनकी एकाग्रतासे और किसी ज्ञानविशेष की प्राप्तिसे आनन्द प्राप्त होता है। अतएव क्रमशः प्राणको फिर मनको फिर विज्ञानको ब्रह्म कहा गया। अन्तिम पडावपर साधकको समझ आता है कि आनन्द ही ब्रह्म है। इसप्रकार स्थूल अन्नसे आरंभ कर सूक्ष्मसे सूक्ष्मतर कोषके भेदको समझकर ब्रह्मकी प्राप्ति होती है। समाधि या मोक्षकी संकल्पना इसी आनन्दके साथ जुडी है। परब्रह्मको भी सच्चिदानंद अर्थात् सत्, चित और आनन्दका एकात्म कहा जाता है।
समाधिकी अवस्थाको पाना सहज-सरल नही है। पतंजली मुनिने इसके लिये आठ प्रकारके अभ्यास बतलाये - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान व समाधि। उनमेंसे यमके सिवा अन्य सभी अभ्यास व्यक्तिको स्वयंको प्रभावित करते हैं लेकिन जो पांच यम बताये हैं वे समाजके प्रति व्यक्तिके व्यवहारको बखानते हैं।
अष्टांग योग का दूसरा अंग “नियम”
महर्षि पतंजलिके योगसूत्रका दूसरा चरण नियम है। जिस प्रकारसे यम दुखों से छूटना है, उसी प्रकार से नियम का अर्थ है विशेष रूप से दु:खों से छूटना। यम का सम्बन्ध मुख्य रूप से अन्यों के साथ है और नियम का सम्बन्ध मुख्य रूप से वैयक्तिक जीवन के साथ है। विशेष रूप से स्वयं को दुःखों से छुड़ाने वाला होने से इसे नियम कहतें हैं।
पहला चरण यम जहां मन को शांति देता है, वहीं दूसरा चरण नियम हमें पवित्र बनाता है। योग मार्ग पर चलने के लिए आत्मशांति के साथ मन, कर्म, वचन की पवित्रता भी आवश्यक है। नियम के पालन से हमारे आचरण, विचार और व्यवहार पवित्र होते हैं।
नियम के पांच अंग
महर्षि पातंजलि के योग सूत्र में नियम के पांच अंग बताए गए हैं- शौचसन्तोषतप: स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमा:। (योगदर्शन- २/३२)अर्थात- पवित्रता, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरकी भक्ति यही नियम हैं।योग मार्ग की सिद्धिके लिए हमारे आचार-विचार पवित्र होना चाहिए। शरीर और विचारोंकी शुद्धिके साथ संतोष का गुण आवश्यक है। तभी हम शास्त्रों के ज्ञान से ईश्वर की भक्ति की साधना में सफल हो सकते हैं। धर्मग्रंथोंमें कही गई पवित्रता का अर्थ सभी तरह की शुद्धता से है। जैसे शरीर की शुद्धता स्नान से, व्यवहार और आचरण की शुद्धता त्याग से, सही तरीके से कमाए धन से प्राप्त सात्विक भोजन से आहार की शुद्धता रहती है। इसी तरह दुर्गुणों से बचकर हम मन को शुद्ध रखते हैं। घमंड, ममता, राग-द्वेष, ईष्र्या, भय, काम-क्रोध आदि दुर्गुण हैं।संतोष- संतोष का अर्थ है हर स्थिति में प्रसन्न रहना। दु:ख हो या सुख, लाभ हो या हानि, मान हो या अपमान, कैसी भी परिस्थिति हो, हमें समान रूप से प्रसन्न रहना चाहिए।तप- तप का मतलब है लगन। अपने लक्ष्य को पाने के लिए संयमपूर्वक जीना। व्रत-उपवास करना तप कहलाता है, जिनसे हमारे अंदर लगन पैदा होती है।
स्वाध्याय- स्वाध्याय का अर्थ है हम शास्त्रों के अध्ययन से ज्ञान प्राप्त करें तथा जप, स्त्रोतपाठ आदि से ईश्वर का स्मरण करें। ईश्वर प्रणिधानका अर्थ है हम ईश्वर के अनुकूल ही कर्म करें। अर्थात हमारा प्रत्येक कार्य ईश्वर के लिए और ईश्वर के अनुकूल ही हो। ऊपर बताए गए नियम की इन पांच बातों को जीवन में उतारने से योग मार्ग की दूसरी अवस्था प्राप्त हो जाती है।
नियम सिखाते हैं हम पवित्र रहें। यह पवित्रता सिर्फ तन की न हो, मन की भी हो। हम संतोष रखें अर्थात सुख-दु:ख में समान रहें। तप हमें संयम सिखाता है तो स्वाध्याय हमें अध्ययन की ओर प्रेरित करता है। जब हम अध्ययन करेंगे तो हमें ज्ञान होगा और अंत में ईश्वर के अनुकूल कार्य करने की प्रेरणा मिलेगी।
१. शौच:
शौच का अर्थ है पवित्रता। शौच दो प्रकार का होता है, बाह्य शौच एवं आभ्यन्तर शौच।
बाह्य शौच मिट्टी, साबुन, जल आदि द्वारा शरीरके अंगों, साधना स्थल व वस्त्र आदिकी शुद्धि करना, सात्विक आहारसे मन को पवित्र रखना, यौगिक क्रियाओं द्वारा शरीर को निरोगी रखना बाह्य शौच है।
आभ्यन्तर शौच आंतरिक शुद्धिका साधन है। मनकी भीतरी नकारात्मक आदतोंका परिष्कार करके उनकी जगह पवित्र विचारोंको अपनाना, राग-द्वेष आदि विकारोंकी जगह मैत्री, करुणा, मुदिता व उपेक्षा का पालन करना आभ्यन्तर शौच है।
पवित्रताके सन्दर्भ में कहा भी है:
सर्वेषामेव शोचनामर्थशौचम् परम स्मृतम्।
योSर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः।। (मनु स्मृति ५. १०३)
अर्थात सभी शुद्धियोंमें धनकी शुद्वि बड़ी मानी गयी है। जो धनमें शुद्ध है, वही शुद्ध है न की मिटटी – पानीसे शुद्ध व्यक्ति।
२. संतोष
हमारे पास जो साधन उपलब्ध हैं, उनसे अधिककी इच्छा न करना संतोष है। संतोषका प्रश्न केवल भौतिक पदार्थोंके विषय में ही उठाया जाता है। आध्यात्मिक स्तर पर संतोष की आवश्यकता नहीं होती। भौतिक पदार्थों की चाहका क्षीण पड़ जाना ही संतोष कहलाता है। इसके बाद साधक इच्छाओं से मुक्त हो जाता है। संतोष ही सुखों का मूल है जबकि असंतोष से केवल दु:ख मिलते हैं।
संतोषमूलम हि सुखम् (मनु स्मृति ४. १२)
अर्थात सुखका मूलकारण संतोष है।
वेद व्यास के मत में सन्निहितसाधनात् अधिकस्य अनुपादिता
अर्थात जो हमारे निकट है, जो हमारे पास उपलब्ध है, उससे अधिककी इच्छा न रखना ये संतोष है।
३. तप:
जिस प्रकार घुड़सवारीमें माहिर घुड़सवार बिगड़ैल घोड़ोंको भी काबू कर लेता है, उसी प्रकार साधनासे शरीर, प्राण, इन्द्रियों और मनको नियंत्रित कर लेना तप कहलाता है। हमारी ऊर्जा हर पल शरीरसे बाहरकी ओर बहती है। ऊर्जाके ऐसे प्रवाहको रोक कर उसका संचय करना और उसे ऊर्ध्वगति प्रदान करना ही तप है। भूख-प्यास, गर्मी-सर्दी मान-अपमान आदि द्वन्द्वोंको सहन करना तप है। तपके बिना योग भी सिद्ध नहीं होता।
न अतपस्विनो योग: सिध्यति
अर्थात अतपस्वी व्यक्तिको योगकी सिद्धि नहीं होती अर्थात् ऐसा व्यक्ति ईश्वरके दर्शन नहीं कर सकता ।
४. स्वाध्याय -- इसमें साधक अन्तर्मुखी होकर अपने चित्त और उसमें निहित विचारोंका अध्ययन करता है। पवित्र पावन ओउम् का जप तथा मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त करने वाले शास्त्रों, वेदों, उपनिषदों, गीता आदि का अध्ययन करना स्वाध्याय कहलाता है। इसमें ‘स्व’ का अध्ययन किया जाता है अर्थात् यह जाननेका प्रयास किया जाता है कि ‘मैं कौन हूँ।’
स्वाध्यायः प्रणवादिपवित्राणाम् जपो मोक्षशास्त्राध्ययनम् वा
अर्थात प्रणव आदि पवित्र वचनों-मन्त्रोंका जप करना व मोक्ष विषयक ग्रंथोंका पढ़ना स्वाध्याय कहलाता है। महऋषि पतंजलि भी कहते हैं की
तज्जपस्तदर्थ भावनम्
अर्थात प्रभुका जप करो तो अर्थकी भावनाके साथ।
५. ईश्वर प्रणिधान
ईश्वरके प्रति श्रद्धा, प्रेम, समर्पण एवं भक्ति ही ईश्वर प्रणिधान है। शरीर, इन्द्रिय मन, प्राण, अंत:करण आदिसे किए जाने वाले सभी कर्मों और उनके फलों (परिणाम) को ईश्वरको अर्पित कर देना ईश्वर प्रणिधान कहलाता है।
महर्षि वेद व्यास लिखते हैं
सर्वक्रियाणाम् परमगुरावर्पणम् तत्फलसंयासो वा
अर्थात जो कुछ भी हम करते हैं, हर कार्यको, हर क्रियाको परम गुरु ईश्वरके प्रति समर्पित कर दो।
योगका अर्थ है-मिलना ।
जिस साधना द्वारा आत्माका परमात्मासे मिलना हो सकता है, उसे योग कहा जाता है । जीवकी सबसे बड़ी सफलता यह है कि वह ईश्वरको प्राप्त कर ले, छोटेसे बड़ा बनने के लिए, अपूर्णसे पूर्ण होनेके लिए, बन्धसे मुक्त होनेके लिए, वह अतीतकालसे प्रयत्न करता आ रहा है, चौरासी लक्ष योनियोंको पार करता हुआ इतना आगे बढ़ा आया है, वह यात्रा ईश्वरसे मिलनेके लिए है, बिछड़ा हुआ अपनी स्नेहमयी माताको ढूँढ़ रहा है, उसकी गोदीमें बैठनेके लिए छटपटा रहा है। उस स्वर्गीय मिलनकी साधना योग है और उधर बढ़नेका सबसे साफ, सीधा, सरल जो रास्त है, उसीका नाम राजयोग है ।
महर्षि पतंजलिने इस योगको आठ भागोंमें विभाजन किया है। योगदर्शनके पाद 2 का 29 वाँ सूत्र है कि
यम, नियम, आसन, प्राणायाम,प्रत्याहार धारणा और समाधि योगके यह आठ अंग हैं ।
योग-दर्शन के पाद 2 सूत्र 30 में यमके सम्बन्धमें बताया गया है अहिंसा सत्यास्तेय ब्रह्मचय्यार्परिग्रहा यमाः। अर्थात् अहिंसा,सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यह पाँच यम है।
यम के पाँच प्रकार हैं- (1) अहिंसा (2) सत्य (3) अस्तेय (4) ब्रह्मचर्य और (5) अपरिग्रह
(1) अहिंसा
साधारण रीतिसे दुःख न देने को अहिंसा कहते हैं । हिंसाका अर्थ है मारना, दुःख देना ।ऐसे कार्य जिनके द्वारा किसी को शारीरिक या मानसिक कष्ट पहुँचता हो हिंसा कहलाते हैं, इसलिए उनका करना अहिंसा व्रत पालन करने वाले के लिए त्याज्य है । महात्मा गाँधी के मतानुसार कुविचार भी हिंसा है, उतावलापन हिंसा है, मिथ्याभाषण हिंसा है, द्वेष हिंसा है, किसीका बुरा चाहना हिंसा है, जिसकी दुनियाको जरूरत है उस पर कब्जा रखना भी हिंसा है। इसके अतिरिक्त किसी को मारना,कटुवचन बोलना, दिल दुःखाना, कष्ट देना तो हिंसा है ही। इन सबसे बचना अहिंसा पालन कहा जायेगा ।
सामान्य प्रकार से उपरोक्त पंक्तियों में अहिंसा का विवेचन हो गया पर यह अधूरा और असमाधान कारक है। कोई व्यक्ति लोगों के सम्पर्क से बिल्कुल दूर रहे और बैठे-बैठे भोजन वस्त्र की पूरी सुविधाएँ प्राप्त करता रहे तो शायद किसी हद तक ऐसी अहिंसा का पालन कर सके, पूर्ण रीति से तो तब भी नहीं कर सकता क्योंकि साँस लेने में अनेक जीव मरेंगे, पानी पीने में सूक्ष्म जल-जन्तुओं की हत्या होगी,पैर रखने में, लेटने में कुछ न कुछ जीव कुचलेंगे, शरीर और वस्त्र शुद्ध रखने में जुयें आदि मरेंगे, पेट में कभी-कभी कृमि पड़ जाते हैं, मल त्यागने पर उनकी मृत्यु हो जायेगी। स्थूल हिंसा से कुछ हद तक बच जाने पर भी उस एकान्त सेवी से पूरी अहिंसा का पालन नहीं हो सकता। तक क्या किया जाय? क्या आत्म हत्या कर लें? या योग मार्ग की पहली ही सीढ़ी पर चढ़ना असम्भव समझ कर निराश हो बैठें?
केवल शब्दार्थ से ही अहिंसा का भाव नहीं ढूँढ़ा जा सकता, इसके लिए योगिराज कृष्ण द्वारा अर्जुन को दी हुई व्यवहारिक शिक्षाका आश्रय लेना पड़ेगा । अर्जुन देखता है कि युद्धमें इतनी अपार सेना की हत्या होगी, इतने मनुष्य मारे जायेंगे, यह हिंसा है इससे मुझे भारी पातक लगेगा, वह धनुष बाण रख कर रथ के पिछले भाग में जा बैठता है और कहता है कि, हे अच्युत! मैं थोड़े से राज्य लोभ के लिए इतना बड़ा पाप न करूँगा, इस युद्ध में मैं प्रवृति न होऊँगा । भगवान कृष्ण ने अर्जुन की इस शंका का समाधान करते हुए गीता के अठारह अध्यायोंमें योग का उपदेश दिया, उन्होंने अनेक तर्क,प्रमाण, सिद्धान्त और दृष्टिकोणोंसे उसे यह भली प्रकार समझा दिया कि कष्ट न देने मात्र को अहिंसा नहीं कहते, दुष्टों, दुराचारियों, अन्यायी, अत्याचारियों को, पापी और पाजियों को मार डालना भी अहिंसा है । जिस हिंसासे अहिंसा का जन्म होता, जिस लड़ाईसे शान्ति की स्थापना होती है, जिस पापसे पुण्य का उद्भव होता है, उसमें कुछ भी अनुचित या अधर्म नहीं है ।
कृष्ण ने अर्जुन से कहा इस मोटी बुद्धि को छोड़ और सूक्ष्म दृष्टि से विचार कर, अहिंसा की प्रतिष्ठा इसलिए नहीं है कि उससे किसी जीव का कष्ट कम होता है, कष्ट होना न होना कोई विशेष महत्त्व की बात नहीं है, क्योंकि शरीरों का तो नित्य ही नाश होता है और आत्मा अमर है, इसलिए मारने न मारने में हिंसा-अहिंसा नहीं है । अहिंसाका तात्पर्य है द्वेष रहित होना । निजी राग द्वेषसे प्रेरित होकर संसार के हित-अनहित का विचार किए बिना जो कार्य किए जाते हैं वे पूर्ण हैं । यदि लोक कल्याणके लिए, धर्म की वृद्धि के लिए किसी को मारना पड़े या हिंसा करनी पड़े तो उसमें दोष नहीं हैं । अर्जुन ने भगवान के वचनों का भली प्रकार मनन किया और जब उसकी समझ में अहिंसा का वास्तविक तात्पर्य आ गया तो महाभारत में जुट पड़ा । अठारह अक्षौहिणी सेना का संहार हुआ तो भी अर्जुन को कुछ पाप न लगा ।
एक आप्त वचन है कि वैदिक हिंसा, हिंसा न भवति अर्थात विवेकपूर्वक की हुई हिंसा नहीं है । जिह्वा की चाटुकारिता के लोभ में निरपराध और उपयोगी पशु-पक्षियों का माँस खाने के लिए उनकी गरदन पर छुरी चलाना पातक है । अपने अनुचित स्वार्थ की साधना के लिए निर्दोष व्यक्तियों को दुःख देना हिंसा है । किन्तु निःस्वार्थ भाव से लोक-कल्याण के लिए तथा उसी प्राणी के उपकार के लिए यदि उसे कष्ट दिया जाय तो वह हिंसा नहीं वरन् अहिंसा ही होगी ।
डॉक्टर निःस्वार्थ भाव से रोगी की वास्तविक सेवा के लिए फोड़े की चीरता है, एक न्यायमूर्त जज समाज की व्यवस्था कायम रखने के लिए डाकू का फाँसी की सजा का हुक्म देता है एक धर्म प्रचारक अपने जिज्ञासु साधक को आत्म-कल्याण के लिए तपस्या के कष्टकर मार्ग में प्रवृत्त करता है । मोटी दृष्टि से देखा जाय तो वह सब हिंसा जैसा प्रतीत होता है पर असल में यह सच्ची अहिंसा है । गुण्डे बदमाशों को क्षमा कर देने वाला, हरामखोरों को दान देने वाला, दुष्टता को सहन करने वाला, देखने में अहिंसक सा प्रतीत होता है पर असल में वह घोर पातक, हिंसक, हत्यारा है । वह एक प्रकार से अनजाने में दुष्टता की जहरीली बेल को सींचकर दुनिया के लिए प्राण घातक फल उत्पन्न करने में सहायक बनता है, ऐसी अहिंसा को जड़ बुद्धि अज्ञानी की अहिंसा कह सकते हैं ।
पातंजलि योग दर्शन के पाद 2 सूत्र 35 में कहा गया है कि अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ बैर त्यागः अर्थात अहिंसा की साधना से उस योगी के निकट मन में से बैर भाव निकल जाता है । बैर-भाव, द्वेष, प्रतिशोध की दृष्टि से किसी के चित्त को दुःखाना या शरीर को कष्ट देना सर्वथा अनुचित है, इस हिंसा से सावधानी के साथ बचना चाहिए । अहिंसक का अर्थ है प्रेम का पुजारी, दुर्भावना से रहित । सद्भावना और विवेक बुद्धि से यदि किसी को कष्ट देना आवश्यक जान पड़े तो अहिंसा की मर्यादा के अन्तर्गत उसी गुंजायश है । अहिंसक को बैर-भाव छोड़ना होता है, क्रोध पर काबू करना होता है, निजी हानि-लाभ की अपेक्षा कुछ ऊँचा उठना पड़ता है, उदार, निष्पक्ष और न्यायमूर्त बनना पड़ता है, तब उस दृष्टिकोण से जरा भी निर्णय किया जाय वह अहिंसा ही होगी । परमार्थ के लिए की हुई हिंसा को किसी भी प्रकार अहिंसा से कम नहीं ठहराया जा सकता है ।
महात्मा गाँधी का कथन है कि-अहिंसा से हम जगत को मित्र बनाना सीखाते हैं, ईश्वर की-सत्य की महिमा अधिकाधिक जान पड़ती है, संकट सहते हुए भी शांति और सुख में वृद्धि होती है, हमारा साहस-हिम्मत बढ़ती है । हम कर्तव्य-अकर्तव्य का विचार सीखते हैं । अभिमान दूर होता है, नम्रता बढ़ती है । परिग्रह सहज ही कम होता है और देह के अन्दर भरा हुआ मैल रोज कम होता जाता है । अहिंसा कायरों का नहीं वीरों का धर्म है । बैर त्याग कर, प्रेम भावना को ,आत्मीयता को, प्रमुख स्थान देते हुए, बुराई का मुकाबला करना अहिंसा है । बहादुरी, निर्भीकता, स्पष्टता, सत्यनिष्ठा,इस हद तक बढ़ा लेना कि तीर तलवार उसके आगे तुच्छ जान पड़ें, अहिंसा की साधना है । शरीर की नश्वरता को समझते हुए, उसके न रहने का अवसर आने पर विचलित न होना अहिंसा है । अहिंसक की दृष्टि दूसरों को सुख देने की होती है, अधर्म और अज्ञान को हटाने से ही दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति हो सकती है । अहिंसा का पुजारी अपने और दूसरे के अधर्म और अज्ञान को हटाने का अविचल भाव से प्रबलतम प्रयत्न करता है जिससे सच्चा और स्थायी सुख प्राप्त हो, इस महान कार्य के लिए यदि अपने को या दूसरों को कुछ कष्ट सहना भी पड़े तो उसे उचित समझकर अहिंसक उसके लिए सदा तैयार ही रहता है ।
(2) सत्य :
मोटे तौर से जो बात जैसी सुनी है उसे वैसी ही कहना सत्य कहा जाता है । किन्तु सत्य की यह परिभाषा बहुत ही अपूर्ण और असमाधानकारक है । सत्य एक अत्यन्त विस्तीर्ण और व्यापक तत्व है । वह सृष्टि निर्माण के आधार स्तम्भों में सब से प्रधान है । सत्य भाषण उस महान सत्य का एक अत्यन्त छोटा अणु है, इतना छोटा जितना समुद्र के मुकाबले में पानी की एक बूँद ।
सत्य बोलना चाहिए, पर सत्य बोलने से पहले सत्य की व्यापकता और उसके तत्व ज्ञान को जान लेना चाहिए, क्योंकि देश, काल और पात्र के भेद से बात को तोड़-मरोड़ कर या अलंकारिक भाषा में कहना पड़ता है । धर्म ग्रन्थों में मामूली से कर्मकाण्ड़ के फल बहुत ही बढ़ा-चढ़ा कर लिखे गए हैं । जैसे गंगा स्नान से सात जन्मों के पाप नष्ट होना, व्रत, उपवास रखने से स्वर्ग मिलना, गौ दान से वैतरणी तर जाना, मूर्ति पूजा से मुक्ति प्राप्त होना, यह सब बातें तत्व ज्ञान दृष्टि से असत्य हैं, क्योंकि इन कमर्काण्ड़ों से मन में पवित्रता का संचार होना और बुद्धि को कर्म की ओर झुकना तो समझ में आता है, पर यह समझ में नहीं आता कि इतनी सी मामूली क्रियाओं का इतना बड़ा फल जैसे महान साधनों की क्या आवश्यकता रहती? टेक सेर मुक्ति का बाजार गर्म रहता ।
अब प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या वह धर्म ग्रन्थ झूठे हैं? क्या उन ग्रन्थों के रचयिता महानुभवों ने असत्य भाषण किया है? नहीं उनके कथन में भी रत्ती भर झूठ नहीं है और न उन्होंने किसी स्वार्थ बुद्धि से असत्य भाषण किया है । उन्होंने एक विशेष श्रेणी के, सत्य बुद्धि के, अविश्श्वासी, आलसी और लालची व्यक्तियों को उनकी मनोभूमि परखते हुए एक खास तरीके से अलंकारिक भाषा में समझाया है । ऐसा करना अमुक श्रेणी के व्यक्तियों के लिए आवश्यक था, इसलिए धर्म ग्रन्थों का वह आदेश एक सीमा में सत्य ही है ।
बच्चे के फोड़े पर मरहम पट्टी करते हुए डॉक्टर उसे दिलासा देता है । बच्चे! डरो मत, जरा भी तकलीफ न होगी । बच्चा उसकी बात पर विश्वास कर लेता है, किन्तु डॉक्टर की बात झूठी निकलती है । मरहम पट्टी के वक्त बच्चों को काफी तकलीफ होती है, वह सोचता है कि डॉक्टर झूठा है, उसने मेरे साथ असत्य भाषण किया परन्तु असल में वह झूठ बोलता नहीं है ।
अध्यापक बच्चों को पाठ पढ़ाते हैं, गणित सिखते हैं, समझाने के लिए उन्हें ऐसे उदाहरण देने पड़ते हैं, जो अवास्तविक और असत्य होते हैं, फिर भी अध्यापक को झूठा नहीं कहा जाता ।
जिन्हें मानसिक रोग हो जाते हैं या भूत-प्रेत लगने का बहम हो जाता है, उनका तान्त्रिक या मनोवैज्ञानिक उपचार इस प्रकार करना पड़ता है जिससे पीड़ित का बहम निकल जाय । भूत लगने पर भूतहे ढ़ंग से उसे अच्छा किया जाता है, यदि बहम बता दिया जाय तो रोगी का मन न भरेगा और उसका कष्ट न मिटेगा । तान्त्रिक और मनोविज्ञान के उपचार में प्रायः नब्बे फीसदी झूठ बोलकर रोगी को अच्छा करना पड़ता है, परन्तु वह सब झूठ की श्रेणी में नहीं ठहराया जाता ।
राजनीति में अनेक बार झूठ को सच सिद्ध किया जाता है । दुष्टों से अपना बचाव करने के लिए झूठ बोला जा सकता है । दम्पति अपने गुप्त सहवास को प्रकट नहीं करते । आर्थिक व्यापारिक या अन्य ऐसे ही भेदों को प्रायः सच-सच नहीं बताया जाता ।
कई बार सत्य बोलना भी निषिद्ध होता है । काने को काना और लँगड़ा को लँगड़ा कहकर सम्बोधन करना कोई सत्य भाषण थोड़े ही है । फौजी गुप्त भेदों को प्रकट कर देने वाला अथवा दुश्मन को अपने देश की सच्ची सूचना देने वाला अपराधी समझा जाता है और कानून से उसे कठोर सजा मिलती है । भागी हुई गाय का पता कसाई को बता देना क्या सत्य भाषण हुआ?
इस प्रकार बोलने में ही सत्य को सर्वादित कर देना एक बहुत बड़ा भ्रम है, जिसमें अविवेकी व्यक्ति ही उलझे रह सकते हैं । सच तो यह है कि लोक-कल्याण के लिए देश, काल और पात्र का ध्यान रखते हुए नग्न सत्य की अपेक्षा अलंकारिक सत्य भाषण से ही काम, लेना पड़ता है । जिस वचन से दूसरों की भलाई होती हो, सन्मार्ग के लिए प्रोत्साहन मिलता हो, वह सत्य है । कई बार हीन चरित्र वालों की झूठी प्रशंसा करने पर वे एक प्रकार की लोक लाज में बँध जाते हैं और सम्मोहन विद्या के अनुसार अपने को सचमुच प्रशंसनीय अनुभव करते हुए निश्चयपूवर्क प्रशंसा योग्य बन जाते हैं । ऐसा असत्य भाषण सत्य कहा जायेगा । किसी व्यक्ति के दोषों को खोल-खोल कर उससे कहा जाय तो वह अपने को निराश, पराजित और पतित अनुभव करता हुआ वैसा ही बन जाता है । ऐसा सत्य, असत्य से भी बढ़कर निन्दनीय है ।
भाषण सम्बन्धी सत्य की परिभाषा होनी चाहिए कि जिससे लोक-हित हो वह सत्य और जिससे अहित हो वह असत्य है । मित्र धर्म का विवेचन करती हुई रामायण उपदेश देती है कि-गुण प्रकटै अवगुणहिं दुरावा वहाँ दुराव को असत्य को, धर्म माना गया है । आपका भाषण कितना सत्य है, कितना असत्य, इसकी परीक्षा इस कसौटी पर कीजिए कि इससे संसार का कितना हित और कितना अहित होता है? सद्भावनाओं की उन्नति होती है या अवनति, सद्विचारों का विकास होता है या विनाश । पवित्र उद्देश्य के साथ निःस्वार्थ भाव से परोपकार के लिए बोला हुआ असत्य भी सत्य है और बुरी नीयत से, स्वार्थ के वशीभूत होकर पर पीड़ा के लिए बोला गया सत्य भी असत्य है । इस मर्म को भलीभाँति समझकर गिरह में बाँध लेना चाहिए ।
वास्तविक और व्यापक सत्य ऊँची वस्तु है । वह भाषण का नहीं, वरन् पहचानने का विषय है । समस्त तत्वज्ञानी उसी महान तत्व की अपनी-अपनी दृष्टि के अनुसार व्याख्या कर रहे हैं । विश्व की रंगस्थली, उसमें नाचने वाली कठपूतलियाँ, नचाने वाला तन्त्री तत्वतः क्या है, इसका उद्देश्य और कार्य-कारण क्या है, इस भूल-भुलैयों के खेल का दरवाजा कहाँ है, यह बाजीगरी विद्या कहाँ से और क्योंकर संचालित होती है? इसका मर्म सत्य का शोध है । ईश्वर, जीव, प्रकृति के सम्बन्ध में जानकारी प्राप्त करके अपने को भ्रम-बन्धनों से बचाते हुए परम पद प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ना मनुष्य जीवन का ध्रुव सत्य है । उसी सत्य के प्राप्त करने के लिए हमारा निरन्तर उद्योग होना चाहिए ।
भगवान वेद व्यास ने योगदर्शन 2/38 का भाष्य करते हुए सत्य की विवेचना इस प्रकार की है-
परत्र स्वबोध संक्रान्तये बागुप्ता सा यदि वञ्चिता भरान्ता व प्रतिपत्ति बन्ध्या वा भवेदिति । एथ सवर्भूतोपकराथर् प्रवृत्ता, त भूतोपघाताय । यदि चैवमय्यभिधीयमाना भूतोपघात परैवस्यान्न सत्यं भवेत् पापमेव भवेत् ।
अर्थात-सत्य वह है चाहे वह ठगी, भ्रम, प्रतिपत्ति बन्ध्या युक्त हो अथवा रहित । तो प्राणिमात्र के उपकारार्थ प्रयुक्त किया जाय न कि किसी प्राणी के अनिष्ट के लिए । यदि सत्यतापूर्वक कही गई यथार्थ बात से प्राणियों का अहित होता है-तो वह सत्य नहीं । प्रत्युत सत्याभाष ही है और ऐसा सत्य भाषण असत्य में परिणत होकर पाप कारक बन जाता है । जैसे कसाई के पूछने पर कि-गाय इधर गई है? यदि हाँ में उत्तर दिया जाय तो यह सत्य प्रतीत होने पर भी सत्य नहीं, प्रत्युत प्राणी घातक है । अन्य उपाय न रहने पर विवेकपूर्वक सत्कार्य के लिए असत्य भाषण करना भी सत्य ही है ।
महाभारत ने सत्य की मीमाँसा इस प्रकार की है-
न तत्व वचन सत्यं, न तत्व वचनं मृषा ।
यद्भूत हितमत्यन्तम् तत्सयमिति कथ्यते॥
अथार्त्-बात को ज्यों को त्यों कह देना सत्य नहीं है और न बात को ज्यों की त्यों कह देना असत्य है । जिसमें प्रणियों का अधिक हित होता है, वही सत्य है ।
सत्य को वाणी का एक विशेषण बना देना उस महातत्व को अपमानित करना हैं । सत्य बोलना मामूली बात है जिसमें आवश्यकतानुसार हेर-फेर भी किया जा सकता है । सत्य को ढूँढ़ना, वास्तविकता का पता लगाना और जो-जो बात सच्ची प्रतीत हो उस पर प्राण देकर भी दृढ़ रहना, यह सत्य परायण है । यम की दूसरी सीढ़ी सत्य बोलना नहीं, सत्य परायण होना है । योग मार्ग के अभ्यासी के सत्यवादी होने की अपेक्षा सत्य परायण होने को साहस, निर्भीकता और ईमानदारी के साथ करना चाहिए ।
(3) अस्तेय :
चोरी न करना अस्तेय को यही संक्षिप्त अर्थ है, पराई चीज को बिना उसकी आज्ञा के गुप्त रूप से ले लेने को चोरी कहते हैं । दूसरे की कमाई का अनुचित रूप से अपहरण करना चोरी है,जिस वस्तु पर न्यायतःअपना स्वत्व नहीं है उसे उसके स्वामी की बिना जानकारी में या बलात्कारपूर्वक ले लेना स्तेय है, इससे बचना अस्तेय कहा जायेगा ।
पराई चीज को बिना उसकी स्वीकृति के ले लेना यह चोरी का मोटा अर्थ है । पशुओं का दूध, भेड़ के बाल, मक्खियों का शहद, यह पराई चीज भी हैं और उनकी स्वीकृति के बिना भी ली जाती हैं । पिता की कमाई हुई जायदाद पराई है यदि पिता न चाहते हों तो भी उनके बाद उस सम्पत्ति का अधिकार पुत्र को ही प्राप्त होगा । अपराधी से अदालत जुर्माना वसूल करती है, राज्याधिकारी आयकर,चुँगी आदि वसूल करते हैं, वह रकमें पराई हैं और मालिक इच्छापूर्वक भी नहीं देते तो भी वह चोरी नहीं है । (1) पराई चीज और(2) बिना आज्ञा इन दो ही तत्वों के आधार पर स्तेय का ठीक-ठीक निर्णय नहीं हो सकता । मान लीजिए कि व्यक्ति दबाव के कारण किसी वस्तु को देने के लिए तैयार किया जाता है और वह लाचारी में आज्ञा दे देता है तो क्या वह अस्तेय हो गया? कोई व्यक्ति अपने पास दूसरे की अमानत जमा किए हुए है किन्तु अब नीयत बिगड़ जाने से उस पर अपनी मालिकी बताता है ओर असली मालिक को उसे लौटाने से इन्कार करता है, क्या उससे वह अमानत बलपूर्वक न लौटानी चाहिए । क्या वर्तमान समय में पराई चीज दिखाई पड़ने के कारण और बेइमानी से आज्ञा न मिलने के कारण उस अमानत को छोड़ बैठना चाहिए?
मोटे मौर पर स्तेय और अस्तेय की विवेचना करने पर बहुत भ्रम हो सकता है । बहुत बार ऐसा होता है कि वह वस्तु पराई भी नहीं है और आज्ञा का भी प्रश्न नहीं उठता तो भी वह चोरी हो जाती है । जैसे एक दुकानदार अपने बाँट कम रखता है, पलड़ों में पासंग रखता है या कम तोलता है, दुकान में रखी हुई चीजें पराई नहीं है और उनमें से इतनी निकाल लेने या कम देने के लिए किसी से आज्ञा लेने की भी जरूरत नहीं है । सेर भर (1 सेर=933 ग्राम) के स्थान पर उसने पन्द्रह छटांक (1 छटांक=58 ग्राम) चीज दी, वह एक छटांक जो बचाया गया है, शाब्दिक परिभाषा के अनुसार वह चोरी में शुमार नहीं होता तो भी वास्तव में वह चोरी ही है । दर्जी लोग सिलाई में कपड़ा बचाते हैं, धोबी कपड़ों को कई दिन घसीटकर पहनते हैं, चक्की वाले आटा बचाते हैं, नौकर आठ पैसे की चीज मँगाने पर सात पैसे की लाकर देते हैं, असली मालिक को इन चोरियों का पता नहीं लग पाता, इस ओर अधिक ध्यान भी नहीं जाता तो भी इनकी गणना चोरी में ही होगी, मालिक को अपनी हानि का पता न चले और गुप्त या अप्रत्यक्ष रूप से कोई चुपके-चुपके कुछ करता रहे तो भले ही वह प्रकट न होने पाये पर होगी वह चोरी ही ।
कर्तव्य की चोरी अपने ढंग की बड़ी गहत चोरी है । मजदूरी तय करके जितना समय या जैसा काम करने का ठहराव किया गया है उसमें कभी करना, आलस्य करना, जो चुराना , बेगार भुगतना आजकल मामुली बात हो गई है पर यह ठीक वैसी ही चोरी है जैसे किसी का ताला तोड़कर माल असबाब ले जाना । विश्वसनीय गुप्त कार्य को करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर लेकर उसका भेद प्रकट कर देना, किसी की कृति को बनाना, अनाधिकार चेष्टा करना चोरी है । अपने फर्जों को अदा न करना, आश्रितों की उपेक्षा करके स्वयं विशेष सुविधाएँ भोगना, यह भी उसी सीमा में आता है जैसे-बच्चों से छिपाकर कोई चीज खाते हैं । पड़ी हुई चीज मिले तो उसके मालिक की तलाश कर उस तक पहुँचानी चाहिए,सब पर प्रकट कर देना चाहिए या मालिक का पता न चले तो अधिकारी संस्था को सौंप देना चाहिए । यदि ऐसा न किया जाय और वह वस्तु अपने पास चुपचाप रखली जाय तो वह भी चोरी है, न करने योग्य कार्य के लिए, अग्राह्य वस्तु के लिए, मन ललचाना, इसी श्रेणी का कार्य है ।
अपना नियत कर्तव्य करने के बदले में पुरस्कार माँगना, न करने योग्य कार्य को करने के लिए भेंट लेना यह दोनों प्रकार की रिश्वतें चोरी ही तो हैं । रिश्वतों का किस कदर बाजार गर्म है यह किसी से छिपा नहीं है, जिसको जिस काम के लिए नियत किया गया है वह उसी काम को करने के लिए अपना हक माँगता है, रिश्वत हक कहलाने लगी है । यह किसी विशेष कृपा के लिए नहीं वरन् ठीक तरह भलमनसाहत से काम पूरा कर देने के लिए हक माँगा जाता है यदि न दिया जाय तो ऐसी अड़चनें डाली जाती हैं जिनको सहन करना मध्यमवृत्ति के मनुष्य के लिए बड़ा कठिन होता है । अधिक हक देने पर तो न करने योग्य कामों को हँसी खुशी से कर देते हैं । जिन लोगों से न्याय और सद्व्यवहार की आशा की जानी चाहिए वहाँ रिश्वत ने हक का रूप धारण कर लिया है, चोरी को सीनाजोरी की जुर्रत हो गई है । यह हरकतें अब बन्द होनी चाहिए ।
अस्तेय का वास्तविक तात्पर्य है-अपना वास्तविक हक खाना धर्म पूर्वक जो वस्तु जितनी मात्रा में अपने को मिलनी चाहिए उसे उतनी ही मात्रा में लाना, पूरा एवज चुकाकर किसी वस्तु को ग्रहण करने का ध्यान रखा जाय तो चोरी से सहज ही छुटकारा मिल सकता है । जो कुछ आपको मिल रहा है उसके बारे में विचार कीजिए कि क्या वास्तव में इस वस्तु पर मेरा धर्म पूर्वक हक है? किसी दूसरे का भाग तो नहीं खा रहा हूँ? जितनी मुझे मिलनी चाहिए उससे अधिक कर रहा हूँ? अपने कर्तव्य में कमी तो नहीं ला रहा हूँ? जिनको देना चाहिए उनको दिए बिना तो नहीं ले रहा हूँ? इन पाँच प्रश्नों की कसौटी पर यदि अपनी प्राप्त वस्तु को कस लिया जाय तो यह मालूम हो सकता है कि इसमें चोरी तो नहीं है या चोरी का कितना अंश है । किसी का ताला तोड़कर या जेब काटकर कुछ तो चोरी है ही, साथ ही कर्तव्य में त्रुटि रखना और हक से अधिक लेना भी चोरी है । इन चोरियों से बचते हुए अपनी पसीने की कमाई पर निर्भर रहना चाहिए ।
स्वयं चोरी से बचना तो आवश्यक है ही, साथ ही दूसरों को भी बचाना चाहिए, कम से कम चोरी में सहयोग करना तो बन्द कर ही देना चाहिए । रिश्वत देकर यदि कोई काम बनता हो, और न देने से हानि हो तो उस हानि को ही सहन करना चाहिए, क्योंकि पशु हत्या में जैसे काटने वाले, बेचने वाले, खाने वाले, पकाने वाले सबको पाप लगता है वैसे ही चोरी के काम में किसी प्रकार मदद करने या चोरी की हिम्मत बढ़ने देने से अपने को भी पाप का भागी होना पड़ता है । यदि अपना या किसी दूसरे का हक कोई दुष्ट दुरात्मा बलात्कारपूर्वक अपहरण करता हो तो उसके विरुद्ध संघर्ष करना चाहिए ताकि विश्व परिवार में से चोरी और अनीति की थोड़ी-बहुत मात्रा कम हो । स्वयं चोरी न करना और न दूसरों को करने देना यह एक ही अस्तेय धर्म के दो अंग हैं, योग मार्ग के साधक को दोनों ओर उसी प्रकार ध्यान रखना चाहिए जैसे साइकिल चलाने वाला दोनों पैरों को समान रूप से घुमाता है ।
(4) ब्रह्मचर्य :
आमतौर से ब्रह्मचर्य का अर्थ वीर्य पात न करना समझ जाता है । जो व्यक्ति स्त्री सम्पर्क से बचते हैं, उन्हें ब्रह्मचारी कहा जाता है । यह आधा अर्थ हुआ, आधा अभी शेष है । ब्रह्म का अर्थ है परमात्मा में आचरण करना जीवन लक्ष में तन्मय हो जाना, सत्य की शोध में सब ओर चित्त हटाकर जुट पड़ना, ब्रह्म का ही आचरण है । इसके साधनों में वीयर्पात न करना भी एक है ।
महात्मा गाँधी ने इस सम्बन्ध में बहुत ही उत्तम कहा है-ब्रह्मचर्य का मूल अर्थ सब याद रखें । ब्रह्मचर्य अर्थात ब्रह्म की-सत्य की शोध में चर्या अर्थात तत्सम्बन्धी आचार ।
इस मूल अर्थ से सर्वेईन्द्रिय संयम का विशेष अर्थ निकलता है सिर्फ जननेन्द्रिय संयम के अधूरे अर्थ को तो हम भुला ही दें । जननेन्द्रिय निरोध को ही ब्रह्मचर्य का पालन माना गया है । मेरी राय में यह अधूरी और खोटी व्याख्या है । विषय मात्र का निरोध ही ब्रह्मचर्य है । जो और इन्द्रियों को जहाँ तहाँ भटकने देकर केवल एक ही इन्द्री को रोकने का प्रयत्न करता है, वह निष्फल प्रयत्न करता है । कान से विकार की बातें सुनना, आँख से विकार उत्पन्न करने वाली वस्तु देखना, जीभ से विकारोत्तेजक वस्तु चखना, हाथ से विकारों को भड़काने वाली चीज को छूना और साथ ही जननेन्द्रिय को रोकने का प्रयत्न करना, यह तो आग में हाथ डालकर जलने से बचने का प्रयत्न करने के समान हुआ । इसीलिए जो जननेन्द्रिय को रोकने को निश्चय करे उसे पहल ही से प्रयत्न इन्द्री को उस इन्द्रियों के विकारों से रोकने का निश्चय कर ही लिया जाना चाहिए ।
मैंने सदा से यह अनुभव किया है कि ब्रह्मचर्य की संकुचित व्याख्या से नुकसान हुआ है । मेरा तो यह निश्चित मत है और अनुभव है कि यदि हम सब इन्द्रियों को एक साथ वश में कर लें तो जननेन्द्रियों को वश में करने को प्रयत्न शीघ्र ही सफल हो सकता है, तभी उसमें सफलता प्राप्त की जा सकती है । इसमें मुख्य स्वाद इन्द्री है । मेरा अपना अनुभव तो यह है कि यदि अस्वाद व्रत का भलीभाँति पालन किया जाय तो जननेन्द्री का संयम बिल्कुल आसान हो जाय । स्वाद की दृष्टि से किसी वस्तु को न खाकर आवश्यकता के विचार से लेना अस्वाद है ।
ब्रह्मचर्य का पालन मन, वचन और काया से होना चाहिए । हमने गीता में पढ़ा है कि जो शरीर को काबू में रखता हुआ जान पड़ता है पर मन से विकार को पोषण किया करता है वह मूढ़,मिथ्याचारी है । मन को विकारपूर्ण रहने देकर शरीर को दबाने की कोशिश करना हानि कारक है । जहाँ मन है वहाँ अन्त को शरीर भी घिसटे बिना नहीं रहता । यहाँ एक भेद समझ लेना जरूरी है । मन को विकार वश होने देना एक बात है और मन का अपने आप अनिच्छा से बलात् विकार को प्राप्त होना या होते रहना दूसरी बात है । इस विकार में यदि हम सहायक न बनें तो आखिर जीत हमारी ही है । हम प्रतिपल यह अनुभव करते हैं कि शरीर तो काबू में रहता है पर मन नहीं रहता । इसलिए शरीर को तुरन्त ही वश में करके मन को वश में करने की रोज कोशिश करने से हम अपने कर्तव्य का पालन करते हैं-कर चुकते हैं । वीर्य का उपयोग तो शारीरिक और मानसिक शक्ति को बढ़ाने में है । विषय भोग में उसका उपयोग करना, उसका अति दुरुपयोग है, इसके कारण वह कई रोगों को मूल बन जाता है ।
जीवनोद्देश्य की पूर्ति में, सत्कामो द्वारा ईश्वर को प्रसन्न करने के प्रयत्न में, ब्रह्म भावना की चर्या में तन्मयता प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों को संयम अत्यन्त आवश्यक है । जिसकी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषय में दौड़ी फिरती हैं, उसका चित्त एक स्थान पर ठहर नहीं सकता और न उच्च उद्देश्यों में दिलचस्पी ले सकता है । दीर्घ जीवन, निरोगता, शरीर की पुष्टता, सुड़ौलता, बलबुद्धि, तेज, बुद्धि की प्रखरता आदि शारीरिक लाभों की नीव इन्द्रिय संयम के ऊपर रखी होती है, शक्तियों का खर्च भोगों में न होगा तो उसके द्वारा शरीर और मस्तिष्क बलवान हो सकेगा अन्यथा जिस प्रकार फूटे हुए दीपक में से तेल चूता रहता है तो वह अधिक समय तक अधिक प्रकाश के साथ न जल सकेगा, जिस वृक्ष की जड़ों में कीड़े या दीमक लग रहे हों वह निर्बल और अल्पजीवी ही होगा यही बात मनुष्य की है । असंयम के कारण इन्द्रिय भोगों में जिसकी शक्ति अधिक मात्रा में खर्च होती रहती है, वह न तो शरीरिक दृष्टि से निरोग,बलवान एवं दीर्घजीवी हो सकता है और न मानसिक दृष्टि से ही मेधावी, मनस्वी एवं प्रभावशाली हो सकता है, फिर ब्रह्म के आचरण में रत होना तो दूर की बात है ।
इन्द्रिय संयम का तात्पर्य है, विवेक के साथ मर्यादा के अन्तर्गत इन्द्रियों का उपयोग होना । इन्द्रियों के आधीन अपने को इतना अधिक नहीं होना चाहिए कि भोगेच्छा को रोका न जा सके या रोकने में बहुत आदत डालनी चाहिए कि इन्द्रियों की इच्छा को जब चाहे तब आसानी से रोक सकें और भोग सामने हो तो भी उसे छोड़ सकें । कहने को पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं पर वास्तव में दो का ही संयम करना है । नाक, कान, आँख के भोग तो कभी-कभी और कम मात्रा में मिलते हैं, इसलिए उनकी अधिक चाट नहीं होती और न उनमें इतनी प्रबलता ही होती है । जिन पर काबू पाना है, वह हैं-स्वाद और कामवासना । जीभ के चटोरपन की प्रेरणा से किसी भी वस्तु को खाने से इन्कार कर देना चाहिए । चटपटे, मीठे,खारी, खट्टे, चिकने पदार्थों को देखकर चटोरे मनुष्यों के मुँह में पानी भर आता है, इस वृत्ति को रोकना चाहिए ।
जब इस प्रकार मन चल रहा हो तो हठात् उस वस्तु को न खाने की प्रतिज्ञा करनी चाहिए और दृढ़तापूर्वक उसका पालन करना चाहिए । कुछ समय के लिए बीच-बीच में कुछ समय तक नमक और मीठा छोड़ने का प्रयोग करते रहना चाहिए जो वस्तु आवश्यक और लाभदायक हो उसे स्वाद रहित होते हुए भी सेवन करना चाहिए । इसी प्रकार गृहस्थ होते हुए भी कभी-कभी कुछ समय के लिए ब्रह्मचर्य से रहने के व्रत उन्हें पूरा करते रहना चाहिए । अन्य स्त्रियों को बहिन या पुत्री की दृष्टि से देखना चाहिए । कुदृष्टि के उत्पन्न होते ही अपना एक कान ऐंठ कर अपने आप जोर से चपत लगानी चाहिए । गन्दी पुस्तकों से, तस्वीरों से और संगीत से बचना चाहिए । इस प्रकार धीरे-धीरे स्वाद और कामवासना पर विजय प्राप्त की जा सकती है । किसी बात को पूरा करने के लिए मनुष्य दृढ़ प्रतिज्ञा हो जाय और प्रयत्न बराबर जारी रखें तो कोई कारण नहीं कि उसमें सफलता प्राप्त न हो ।
(5) अपरिग्रह :
इसे अनासक्ति भी कहते हैं अर्थात किसी भी विचार, वस्तु और व्यक्ति के प्रति मोह न रखना ही अपरिग्रह है। कुछ लोगों में संग्रह करने की प्रवृत्ति होती है, जिससे मन में भी व्यर्थ की बातें या चीजें संग्रहित होने लगती हैं। इससे मन में संकुचन पैदा होता है। इससे कृपणता या कंजूसी का जन्म होता है। आसक्ति से ही आदतों का जन्म भी होता है। मन, वचन और कर्म से इस प्रवृत्ति को त्यागना ही अपरिग्रही होना है।
अंतत: : उक्त पाँच 'यम' कहे गए है यह अष्टांग योग का पहला चरण है। यम को ही विभिन्न धर्मों ने अपने-अपने तरीके से समझाया है किंतु योग इसे समाधि तक पहुँचने की पहली सीढ़ी मानता है। यह उसी तरह है जिस तरह की प्राथमिक स्कूल में दाखिला लिया जाता है। निश्चित ही इसे साधना कठिन जान पड़ता है किंतु सिर्फ उन लोगों के लिए जिन्होंने जमाने की हवा के साथ बहकर अपना स्वाभाविक स्वभाव खो दिया है।
संसार को सहजता और प्रसन्नता से भोगने के लिए अपरिग्रह की भावना होना जरूरी है। इसे सामान्य भाषा में लोग त्याग की भावना समझते हैं, लेकिन यह त्याग से अलग है।
अपरिग्रह को साधने से व्यक्ति के व्यक्तित्व में निखार आ जाता है साथ ही वह शारीरिक और मानसिक रोग से स्वत: ही छूट जाता है। अपरिग्रह की भावना रखने वालों को किसी भी प्रकार का संताप नहीं सताता और उसे संसार एक सफर की तरह सुहाना लगता है। सफर में बहुत से खयाल, फूल-कांटे और दृश्य आते-जाते रहते हैं, लेकिन उनके प्रति आसक्ति रखने वाले दुखी हो जाते हैं और यह दुख आगे के सफर के सुहाने नजारों को नजरअंदाज करता जाता है।
अपरिग्रह का अर्थ है किसी भी विचार, व्यक्ति या वस्तु के प्रति आसक्ति नहीं रखना या मोह नहीं रखना ही अपरिग्रह है। जो व्यक्ति निरपेक्ष भाव से जीता है वह शरीर, मन और मस्तिष्क के आधे से ज्यादा संकट को दूर भगा देता है। जब व्यक्ति किसी से मोह रखता है तो मोह रखने की आदत के चलते यह मोह चिंता में बदल जाता है और चिंता से सभी तरह की समस्याओं का जन्म होने लगता है।
वैज्ञानिक कहते हैं कि 70 प्रतिशत से अधिक रोग व्यक्ति की खराब मानसिकता के कारण होते हैं। योग मानता है कि रोगों की उत्पत्ति की शुरुआत मन और मस्तिष्क में ही होती है। यही जानकर योग सर्वप्रथम यम और नियम द्वारा व्यक्ति के मन और मस्तिष्क को ही ठीक करने की सलाह देता है।
योग और आयुर्वेद में भाव और भावना का बहुत महत्व है। यदि अच्छे भाव दशा से जहर भी पीया तो अमृत बन जाएगा।
अपरिग्रह के बारे में महावीर स्वामी के उपदेश-
चित्तमंतमचित्तं वा परिगिज्झ किसामवि।
अन्नं वा अणुजाणाइ एव्रं दुक्खाण मुच्चइ॥
परिग्रह पर महावीर स्वामी कहते हैं जो आदमी खुद सजीव या निर्जीव चीजों का संग्रह करता है, दूसरों से ऐसा संग्रह कराता है या दूसरों को ऐसा संग्रह करने की सम्मति देता है, उसका दुःख से कभी भी छुटकारा नहीं हो सकता।
सवत्थुवहिणा बुद्धा संरक्खणपरिग्गहे।
अवि अप्पणो वि देहम्मि नाऽऽयरंति ममाइयं॥
ज्ञानी लोग कपड़ा, पात्र आदि किसी भी चीज में ममता नहीं रखते, यहाँ तक कि शरीर में भी नहीं।
धणधन्नपेसवग्गेसु परिग्गह विवज्जणं।
सव्वारंभ-परिच्चाओ निम्ममत्तं सुदुक्करं॥
धन-धान्य, नौकर-चाकर आदि के परिग्रह का त्याग करना चाहिए। सभी प्रकार की प्रवृत्तियों को छोड़ना और ममता से रहित होकर रहना बड़ा कठिन है।
जहा लाहो तहा लोहो लाहा लोहो पवड्ढई।
दोमासकयं कज्जं कोडीए वि न निट्ठियं॥
ज्यों-ज्यों लाभ होता है, त्यों-त्यों लोभ भी बढ़ता है। 'जिमि प्रति लाभ लोभ अधिकाई।' पहले केवल दो मासा सोने की जरूरत थी, बाद में वह बढ़ते-बढ़ते करोड़ों तक पहुँच गई, फिर भी पूरी न पड़ी!
जानिए क्या है सन्यास
ऋषियों ने घर-बार, धन-सम्पत्ति व रिस्ते-नाते त्याग कर सन्यासी आश्रम के वरण को सर्वोत्कृष्ट बतलाया है। शास्त्र भी इसे जीवन की सर्वोच्च अवस्था बतलाते हैं। जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए इस अवस्था तक पहुँचना अनिवार्य है।परन्तु क्या वे सभी लोग जो सन्यासी वेश धारण कर लते हैं, जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को प्राप्त कर पाते हैं कि नहीं। वे कौन से लाभ है जो सन्यासी जीवन में ही प्राप्त हो सकते हैं, अन्य किसी आश्रम में नहीं।
सन्यास लेने या देने की चीज नहीं है। यह एक मानसिक भाव है, जिसके प्रति आकर्षण परमात्मा की कृपा से ही प्राप्त होता है। दीक्षा, आचरण के नियम, वेशभूषा, विधि आदि सम्प्रदाय या आश्रम विशेष या गुरु विशेष के होते है; पर संन्यास में इसकी कोई उपयोगिता नहीं है।
जब किसी भावनात्मक चोट से या स्वयं की विचार शक्ति से भौतिक जगत से मोह टूटता है, तो व्यक्ति स्वयं और स्वयं के जीवन का कारण तलाशने लगता है। सन्यास का प्रारंभ यहाँ से होता है। इसके लिए कोई नियम नहीं है। विधियाँ और नियम भौतिक साधनाओं के लिए होते है। सन्यास पूर्णतया भावनात्मक ज्ञानमार्ग है, जो विचार शक्ति, तर्क शक्ति, मनन शक्ति के द्वारा भौतिकता का बेध कर अंतिम सत्य तक पहुँचाता है।
श्री कृष्ण ने इसका एक सरल मार्ग बताया है। सब कुछ करो, पर उससे ‘राग’ मत रखो। स्वतंत्र होकर अपने और जगत के सत्य को जानने का प्रयत्न करो। गुरु का मार्ग निर्देशन और उपदेश सन्यास रुपी उपलब्धि का ईंधन होता है। पर यह सभी भाव प्रधान तर्क प्रधान होते है। विधि प्रधान नहीं।
इस संसार में कोई किसी के लिए प्रिय नहीं होता। सभी अपने ही लिए प्रिय होते है। यहाँ कुछ भी शाश्वत नहीं। न तो जीवन, न ही जीवन के सुख। हम नहीं जानते कि हम क्या है? कहाँ से आते है, कहाँ चले जाते है। इस सत्य को जानने के लिए प्रयत्नशील होना ही सन्यास धारण करना है। न तो कपिल को किसी ने दीक्षा दी थी, न ही शंकराचार्य को या आदिनाथ को। जो आचरण, नियम, व्रत के कठोर बन्धनों में बंधा है, वह सन्यासी कैसा? वह तो पाशबद्ध अज्ञानी है। स्मरण रखे। श्री कृष्ण से बड़ा सन्यासी कोई नहीं था और राजा जनक जैसे लोगों को भी महान सन्यासी कहा जाता है।
भारतीय परंपरा के अनुसार जब कोई व्यक्ति सन्यास लेता है तो वह अपना नाम त्याग करता है - गृहस्थ की वेषभूषा त्याग करता है - पत्नी-बच्चों का तथा समस्त पारिवारिक सम्बन्धों का त्याग करता है - धन-संपत्ति का त्याग करता है - अपनी दैहिक विषय वासनाओं का त्याग करता है - अपने पद या पदवी का त्याग करता है - गृह का त्याग करता है - निरन्तर चलायमान रह कर देशाटन करता हुआ - ज्ञानार्जन करता हुआ - ज्ञान वितरित करता हुआ - भिक्षाटन से जीवन यापन करता है - इत्यादि इत्यादि लक्षणों को एक सन्यासी के गुण अथवा कर्तव्य माने गये हैं |
यह तो सभी जानते हैं कि प्रबुद्ध और विवेकी पुरुष चाहे किसी भी आश्रम में रहे, अपनी इच्छाओं को संयमित अवश्य कर लेता है। उसका अपने शरीर, इन्द्रियों तथा मन पर पूरा नियंत्रण रहता है। वह बडी निष्ठापूर्वक सत्य का अनुसंधान भी करता है। ठीक इसके विपरीत एक कमजोर मानसिकता वाला व्यक्ति सन्यासी वेश में भी इधर-उधर भटकते हुए व्यर्थ ही समय गंवाता रहता है। इससे न ही उसे स्वयं कोई लाभ मिलता है और न ही समाज को। उसका पूरा जीवन ही आलस्य, प्रमाद तथा भयभीत मानसिकता के साथ व्यतीत होता है। फिर ऐसा निकृष्ट जीवन जीने वाला व्यक्ति जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकता है। यह सत्य है कि एक गृहस्थ दिव्य शुचिता का इतनी अच्छी तरह पालन नहीं कर पाता जितना कोई सन्यासी नगरों की आपा-धापी व शोरगुल से दूर वनांचल के सुरम्य वातावरण में कर सकता है। किन्तु ऐसे भी साधक कम नहीं हैं जो जगत् में रहते हुए भी निर्लिप्त बने रहते हैं। वे शरीर में रहते हुए भी उससे ऊपर उठकर आत्मानन्द में मग्न रहते है। ब्रह्म चिन्तन में लीन रहते हुए वे भौतिक आवश्यकताओं के प्रति उदासीन हो जाते हैं। शरीर व इन्द्रियों से ऊपर उठने के कारण तथा सांसारिक आकर्षणों से विमुख होने से संसारी लोग उन्हें बडे आश्चर्य से देखते हैं। कई बार तो समाज के भौतिक परिवेष में ऐसे साधक अलग-थलग पड जाते हैं। लोग उन्हें जगत् के लिये अयोग्य मानकर उपेक्षा भी करने लगते हैं। ऐसे निष्ठावान साधकों को, यदि वे सचमुच विवेक व वैराग्य से युक्त तथा ज्ञान निष्ठा से सम्पन्न हैं, अवश्य ही अपना घरबार छोडकर प्राकृतिक सौन्दर्य से परिपूर्ण एकान्त आश्रम या मठ में चले जाना चाहिये। शान्त व पवित्र वातावरण से साधना में बहुत सहायता मिलती है।
परन्तु केवल इस डर से वनों की ओर भाग जाना कि कहीं भौतिक आकर्षण उन्हें फँसा न ले, कायरता के अतिरिक्त कुछ नहीं है। यह पलायन है, सन्यास नहीं। यह उसी प्रकार है जैसे शिकारी के डर से हिरन जंगल में भाग जाते हैं। वास्तव में वीर पुरुष तो वे हैं जो प्रबल भावोद्वेगों के बावजूद दृढता से सन्मार्ग पर चलते रहते हैं। इसलिये कहा भी गया है-
" विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीरा:"
मन की कमजोरी के कारण भागना एक बात है और दृढतापूर्वक प्रयास करते हुए अपने आपको खतरों से बचाना भिन्न बात हैं आग का स्पर्श जलायेगा अवश्य और विषैले सर्प भी काटेंगे जरूर। इसी प्रकार इन्द्रिय विषयों के बीच रहकर विकृति से बचना कैसे सम्भव है? विषय सुख का आकर्षण किसी को नहीं छोडता फिर चाहे वह सन्यासी हो या गृहस्थ।
स्थिर व निर्मल मन वाले व्यक्तियों की भौतिक सुखों के जाल में फँसने की उतनी ही सम्भावना रहती है जितनी कि अज्ञानी व मूर्ख लोगों की। फिर प्रश्न उठता है कि दोनों म अन्तर क्या है? क्या मन को स्थिर व परिष्कृत करने के लिये शास्त्रों में वर्णित साधनायें अर्थहीन हैं? गीता में ' स्थित प्रज्ञ' के लक्षण बहुत विस्तार से बताये गये हैं। क्या इसकी कोई उपयोगिता नहीं है? जब हम इन सभी प्रश्नों पर विचार करते हैं तो यह निष्कर्ष निकलता है कि विषय वस्तुओं में आकर्षित करने का गुण स्वाभाविक है। इसे बदला नहीं जा सकता। जैसे कपडे को घडा नही बनाया जा सकता उसी प्रकार यदि विषय सुख बन्धन का कारण है तो फिर उन्हें मुक्ति का हेतु कदापि नहीं बनाया जा सकता। इसलिये विषय वस्तुओं के लक्षण को समझना और उससे अपने आपको बचाये रखना, दोनों बहुत आवश्यक है।
सच्चा महात्मा वही है जिसने सांसारिक सुखों को विष के समान त्याग दिया है। विवेक द्वारा उत्पन्न वैराग्य के फलस्वरूप जिसकी इच्छायें समाप्त हो गई हैं तथा वह सतत् आत्मस्वरूप के आनन्द में मग्न रहता है। ऐसे आत्मज्ञानी पुरुष चाहे जहाँ और जिस अवस्था में रहें, वह सर्वत्र उसी एक आत्मस्वरूप के दर्शन करता रहता है। उसे फिर न तो कोई आकर्षण लुभा पाता है और न कोई बन्धन बाँध सकता है। यदि किसी साधक का मन उत्तेजनाओं और प्रलोभनों के मध्य भी शान्त व स्थिर बना रहता है तो वह निश्चित ही दूसरे साधारण व्यक्तिय से भिन्न होगा और इससे कोई फर्क नहीं पडेगा कि वह घर-परिवार में रह रहा है या वन में। ऐसा साधक सदैव प्रसन्नचित, निर्भय और अविचल रहता है। इस स्थिति को प्राप्त साधक ही समाधि के योग्य हैं। कभी जब इस स्थिति को प्राप्त साधक किन्हीं कारणों से अवरुद्ध हो जाता है, तो वह अगले जन्म में प्रारम्भ से ही इन सद्गुणों से सम्पन्न रहता है और घर पर रहते हुए भी शीघ्र ही समाधि अवस्था तक पहुँच जाता है। ऐसे साधकों को गीता में "योगभ्रष्ट" की संज्ञा दी गई है, अर्थात् वह साधक जो योग के कठिन मार्ग में कहीं भटक गया हो। ऐसे कुछ साधक आत्मसाक्षात्कार के लिये परिस्थितियों की अनुकूलता पाकर सन्यास आश्रम का वरण कर लेते हैं। सन्यास ग्रहण करने के पीछे उनका मुख्य उद्देश्य सत्य के मार्ग पर आगे बढना व अनावश्यक अवरोधों तथा आकर्षणों से अपने आपको सुरक्षित करना होता है।
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