अध्याय १३
युगान्तर के पर्व में
पिछले अध्यायमें हमने देखा कि भारतीय कालगणनाका विचार कितना सुदूर भूतकालतक जाता है। इस अध्यायमें हम जानेंगे कि वर्तमान महायुगके विषयमें हमें क्या क्या जानकारियाँ प्राप्त हैं। भविष्यकालके लिये हमें कैसी नीतियाँ बनानी पडेंगी। युग परिवर्तनमें क्या सावधानियाँ बरतकर हम लाभान्वित हो सकते हैं या न बरतनेसे विकासकी राहमें पीछे फेंके जा सकते हैं। ध्यान रहे कि अतिप्राचीन घटनाओंका वर्णन केवल भारतके परिप्रेक्ष्यमें है क्योंकि अन्य सभी संस्कृतियाँ विनष्ट हो चुकी हैं।
सत्य युगमें राष्ट्रकी परिकल्पना तो उदित हो चुकी थी लेकिन राजा और राज्यकी परिकल्पना अभी दूर थी | आगका आविष्कार हो चुका था, और भाषाका भी | आँकडोंके गणितका ज्ञान था तो वर्णमाला तथा लेखन कलाका भी | मनुष्य अपने आविष्कारोंसे नए नए आयाम छू रहा था | कृषि और पशुपालन दैनंदिन व्यवहार बन चुके थे। कृषि संस्कृतिका विस्तार हो रहा था | ज्ञान और विज्ञानकी साधना हो रही थी |
मनुष्य यद्यपि समाज में रहने लगा था फिर भी वह ग्रामजीवन और खेती पर ही पूरी तरह निर्भर नही था | अभी भी वन- जंगल उसे प्रिय थे, वनचर बन कर रहना उसे आता था। ज्ञान साधना के लिये अनगिनत नए आयाम अभी खोजने बाकी थे | जो ज्ञान मिला उसकी सिद्धता, फिर प्रचार, प्रसार और समाज के लिये उपयोगिता - सारे एक सूत्रबद्ध कार्यक्रम थे जिनसे ज्ञानको उपजीविकाका साधन बनाया जाता ।
वनोंके बीच गुरूकुलमे रहकर ही ज्ञानसाधना चलती। बडे बडे ज्ञानी ऋषि बच्चोंको गुरूकुलमें लाकर रखते। उनसे ज्ञान साधना करवाते। उनके भोजन, आवास का प्रबन्ध करते थे तो उनसे काम भी करवाते थे और इसी प्रक्रियामें उनको कौशल्यशिक्षा देते थे। जिस ऋषिके आश्रममे भारी संख्यामे विद्यार्थी हों उन्हें कुलगुरू कहा जाता। इस संबोधनका प्रयोग महाभारतमें भी हुआ है |
विभिन्न व्यवसायोंके ज्ञानका प्रसार भी हो रहा था | खेती, पशुसंवर्धन, शस्त्रास्त्रोंकी खोज व निर्माण हो रहे थे | आरोग्यलाभ और परिरक्षाके लिये आयुर्वेद फैल रहा था | द्रुतगामी वाहन ढूँढे जा रहे थे | शंकरजीके लिये नंदी, दुर्गाके लिये सिंह, विष्णुके लिये गरूड, यमके लिये भैंसा, इन्द्रका ऐरावत हाथी, कार्तिकेयके लिये मयूर, गणेशका मूषक, लक्ष्मीका उल्लू और सूर्यका घोडा - ये सारे किस बातका संकेत देते हैं? इसकी कल्पना तो आज की जा सकती है लेकिन तथ्य समझना मुश्किल ही है। फिर भी वायुवेगसे चलने वाला, और ऐसी गतिके लिये पृथ्वीसे चार अंगुल ऊपर ही ऊपर चलनेवाला इंद्रका रथ था जिसका सारथ्य मातली किया करता था | उससे भी आगेकी शताब्दियोंमें आकाश मार्गसे विचरण करनेवाला पुष्पक विमान कुबेरके पास था जिसे बादमें रावणने छीन लिया। रामायणकी कथा देखें तो इसी विमानसे राम लंकासे अयोध्या आये और फिर विमानको विभीषण वापस लंका ले गया |
इससे कई गुना प्रभावी क्षमता थी नारदके पास - वे मनके वेगसे चलते थे। जिस पल जहाँ चाहा, पहुँच गये | इतना ही नही, आवश्यक हुआ तो वे औरोंको भी अपने साथ ले ला सकते थे | एक ऐसे ही प्रसंगमें वे एक राजा तथा उसकी विवाह योग्य कन्या रेवतीके वरके लिये पूछताछ करने उन्हें ब्रह्मदेवके पास ले गए। ब्रह्मदेवने वापस लौटाते हुए कहा कि यहाँ ह्रह्मलोकमें तुम कुछ ही पल रहे लेकिन जबतक वापस लौटोगे तो युग बदल चुका होगा, और पृथ्वीपर रेवतीके अनुरूप वर भी मिल जायेगा - बलराम |
सारांशमें तीव्र गति वाहनोंकी खोज, खगोल शास्त्र, अंतरिक्ष शास्त्र इत्यादि विषय उस युगमें ज्ञात थे। भौतिक जगत् की विषय वस्तुओंके साथ साथ जीवन और मृत्युसे संबंधित विचार और चर्चाएँ भी खूब होती थीं और विभिन्न मतोंका आदान प्रदान होता था | जीवन, मृत्यू क्या है? आत्मा और चैतन्य क्या है? मरणोपरान्त मनुष्य का क्या होता है यह भी कौतुहलका विषय था | सत्य और अमृतत्वका कहीं न कहीं कोई गहरा रिश्ता है लेकिन वह क्या रिश्ता है यह चर्चा बारंबार हुई है तथा इन चर्चाओंको भविष्यके लिये लेखाबद्ध किया गया। हमारा मत है कि यह चर्चा ही उपनिषद हैं। इनमें सत्यकी महिमाको और उसीके द्वारा ज्ञानके दर्शनको वारंवार समझाया गया है।
कठोपनिषदमें यम नचिकेत संवादसे मृत्यूके परे के ज्ञानकी झलक मिलती है। पिताने कह दिया - जा मैंने तुझे यमको दानमें दिया, तो नचिकेत उठकर यमके घर पर पहुँचा और चूँकि यम कहीं बाहर गया हुआ था, तो नचिकेत तीन दिन भूखा प्यासा बैठा रहा। यह प्रसंग बताता है कि यम कोई पहुँचसे परे व्यक्ति नही था। आगे भी सावित्रीकी कथा या कुंती द्वारा यमको पाचारण करके उससे युधिष्ठिर जैसा पुत्र प्राप्त करना इसी बातका संकेत देते है |
नचिकेत कथामें यम लौटा तो यम-पत्नी ने कहा - एक ब्राह्मण अपने द्वार पर तीन दिन-रात भूखा प्यासा बैठा रहा - पहले उसे कुछ देकर शांत करो वरना उसका कोप हुआ तो अपना बडा नुकसान होगा | यम नचिकेतसे तीन वर मॉगनेको कहता है | पहले दो वरोंसे नचिकेत अपने पिताका खोया हुआ प्रेम और पृथ्वीके सुख मॉगता है लेकिन तीसरे वरसे वह जानना चाहता है कि मृत्युके बाद क्या होता है | इस माँगसे उसे परावृत्त करने के लिये यम उसे स्वर्गसुख और अमरत्व भी देना चाहता है लेकिन नचिकेत अड जाता है | यदि तुम मुझे अमरत्व और स्वर्ग देनेकी बात करते हो तो इसका अर्थ हुआ कि यह ज्ञान उनसे श्रेष्ठ है | इस संवादसे संकेत मिलता है कि मरणोपरान्तका अस्तित्व अमरत्वसे कुछ अलग है और श्रेष्ठ भी है | यम प्रसन्न होकर नचिकेतको बताता है कि यज्ञकी अग्नि कैसे सिध्द करी जाती है और उस यज्ञसे सत्यकी प्राप्ति और फिर उस सत्यसे मृत्युके परे होनेवाले गूढ रहस्योंका ज्ञान कैसे प्राप्त किया जाता है |
दूसरी कथा है सत्यकाम जाबालीकी - जिसमें सत्यकामके आचरण और सत्यव्रतसे प्रसन्न होकर स्वयं अग्नि हंसका रुप धरकर उसके पास आया और उसे चार बार ब्रह्मज्ञानका उपदेश दिया | उसका वर्णन यों है “सुन आज मैं तुम्हें सत्यका प्रथम पाद बताता हूँ” | फिर एक एक करके सत्यके द्वितीय पाद, तृतीय पाद और चतुर्थ पाद बताये | यहाँ भी सत्यको ही ब्रह्मज्ञान बताया है |
इसी प्रकार त्रिलोकोंके पार अंतरिक्षमें जो सात लोक होनेकी बात की गई है उसमें सबसे श्रेष्ठ और सबसे तेजोमय लोकका नाम सत्यलोक ही है | ईशावास्योपनिषद में इसी ज्ञानके लिये विद्या और पृथ्वीतलके भौतिक ज्ञानोंके लिये अविज्ञा शब्दका प्रयोग करते हुए दोनोंको एक सा महत्वपूर्ण बताया है - “जानकार व्यक्ति विद्या और अविद्या दोनोंको पूरी तरह समझ लेता है, फिर अविद्याकी सहायतासे मृत्युको तैरकर - उससे पार होकर, अगला प्रवास आरंभ करता है, और उस रास्ते चलते हुए परा विद्याकी सहायतासे अमृतत्वका प्राशन करता है” | इसीसे ईशावास्यमें प्रार्थना है “सत्यधर्माय दृष्टये - मैं सत्यधर्मको देखूँ” और माण्डूक्योपनिषद की प्रार्थना है - “सत्यमेव जयते नानृतम् - सत्यकी ही विजय होती है, असत्यकी कभी नही ”.
इस सत्ययुगमें गणितशास्त्रकी पढाई काफी प्रगत थी। खासकर कालगणनाका शास्त्र। पृथ्वीपर कालगणना अलग थी और ब्रह्मलोककी अलग थी। इसीलिये रेवतीकी कथामें वर्णन है कि जब ब्रह्मलोकका एक दिन पूरा होता है तो उतने समयमें पृथ्वीपर सैकडों वर्ष निकल जाते है। उनका भी गणित दीर्घतमस् ऋषिके सूक्तोंमें मिलता है |
कई बार वर्णन आता है कि विविध देवता और असुरोंने कई कई सौ वर्ष तपश्चर्या की। पार्वतीने शंकरको पानेके लिये एक सहस्त्र वर्ष तपस्या की। अगर ये सारे वर्णन सुसंगत हों तो उनका संबंध निश्चित ही अन्तरिक्षके इन अलग अलग लोकोंसे होगा।
काल गणनाका एक अति विस्तृत आयाम हमारे ऋषि मुनियोंने दिया है जो हमने पिछले अध्यायमें देखी। इस गणितसे ब्रह्मदेवकी आयुके ५० वर्ष बीत चुके हैं। उसीसे ब्रह्माण्डकी आयु नापनी हो तो वह लगभग १५५ गेगा वर्ष हो चुकी है। पृथ्वीकी आयु भी २ अरब वर्षके आसपास है। आधुनिक विज्ञान इसे ४.५ अरबके आसपास बताता है। इस प्रकार दोनों कालगणनाओंकी रेंज एक जैसी ही दीखती है।
सत्य युगमें ज्ञानके नये आयामोंकी खोज और विस्तार और उससे समाज उपयोगी पद्धतियाँ विकसित करना ही प्रमुख ध्येय था। इसके बाद आये त्रेतायुगमें राजा और राज्यकी परिकल्पनाका उदय हुआ | ज्ञानका विस्तार हो ही रहा था | अब उसमें नगर रचना, वास्तुशास्त्र, भवन निर्माण, शिल्प जैसे व्यावहारिक जीवनमें उपयोगी शास्त्र जुडने लगे | ज्ञानसे सृजन और उससे संपत्तिका रक्षण महत्त्वपूर्ण हुआ | तब शस्त्र निर्माणका महत्त्व बढ गया | इसी कालमें धनुर्वेद का उदय हुआ | आग्नेयास्त्र, पर्जन्यास्त्र, वज्र, सुदर्शन चक्र, ब्रह्मास्त्र, महेंद्रास्त्र जैसे शक्तिशाली अस्त्र और शस्त्रोंका निर्माण हुआ | समाजकी रक्षा करने के लिये और समाज व्यवस्थाके लिये राजे - रजवाडोंकी प्रथा चल पडी | उन्हें सेना रखनेकी जरूरत पडी | सेनाका खर्चा चलाने के लिये कर वसूलनेकी प्रथा भी चली | खेती योग्य जमीन पर स्वामित्वकी प्रथा भी चल पडी | उत्पादन पर भी कर लगा | यह सब कुछ संभालनेका जिम्मा क्षत्रियोंके कंधों पर पडा |
ज्ञान साधनाके लिये ब्राह्मणोंका मान-सम्मान और आदर कायम रहा | लेकिन नेतृत्व अब क्षत्रियोंके पास आ गया | महत्त्वपूर्ण मुद्दों पर ब्राह्मणों की राय ली जाती थी | ब्रह्मदंड का मान अब भी राजदण्ड से अधिक था। लेकिन ब्रह्मदण्ड और राजगुरू दोनोंका काम किसी निमित्त ही होता था | रोजमर्राकी व्यवस्थाके लिये राजा ही प्रमाण था | एक विश्वास फैल गया कि राजाके रूपमें स्वयं विष्णु विराजते हैं |
संपत्तिके निर्माण के लिये कई प्रकारके तंत्रज्ञान और उससे जुडे व्यवसायोंकी आवश्यकता होती है | भवन निर्माणके लिये धातुशास्त्रका अध्ययन चाहिये लेकिन साथमें कुशल लुहार, बढई चाहिये | इसी तरह अन्य कई शास्त्रोंकी पढाई के साथ कुशल बुनकर, रंगरेज, ग्वाला, जुलाहा, गडेरिया, चमार, शिल्पकार इत्यादि भी चाहिये | आयुर्वेदमें भी स्वस्थ वृत्तमें वर्णित यम - नियम, संयम, उचित आहार इत्यादि सिद्धान्त पीछे छूट गये और दवाइयाँ बनानेका महत्त्व बढा क्यों कि युद्धमें घायल हुए लोगोंके शीघ्र स्वास्थ्य लाभके लिये वह अधिक जरूरी था | पशुवैद्यक इतना प्रगत हुआ कि सहदेव, नकुल और भीम स्वयं राजपुत्र होते हुए भी क्रमश: गाय, घोडे और हाथियोंकी अच्छी प्रजातियोंके संवर्द्घनमें निष्णात थे | रथोंका निर्माण, सारथ्य, नौका निर्माण, रास्ते, तालाब और नहर बनाना आदि शास्त्र भी प्रगत थे | कथाके अनुसार भगीरथने तो गंगाको ही स्वर्गसे पृथ्वी पर उतार दिया | व्यवहारके दृष्टिकोणसे भी जिस तरहसे पश्चिम वाहिनी गंगाका विशाल प्रवाह मुड कर गंगा पूर्व वाहिनी हो गई है, उससे अनुमान लगाया जा सकता है कि धरण बनानेका शास्त्र भी प्रगत रहा होगा | एक अन्य कथानुसार रामने तो समुद्रमें ही पुल बंधवा लिया |
ईंट, सिक्के, आईने, धातु शिल्प इत्यादि नये व्यवसाय उदय होने लगे | सत्ययुगमें कृषि शास्त्र तो विस्तृत हो चुका था | द्वापरमें आते आते हस्तकला और हस्त - उद्योगों की संख्या ऐसी बढी कि वर्णाश्रम व्यवस्था का उदय हुआ | ज्ञान साधन और ज्ञान प्रचार करे सो ब्राह्मण, राज्य और युद्ध करे सो क्षत्रिय, कृषि, गोरक्षा और वाणिज्य करे सो वैश्य और हस्त-उद्योग, उत्पादन, सेवा तथा देखभाल करे सो शूद्र इस प्रकार वर्ण व्यवस्था बनी | लेकिन यह वर्णभेद जन्मसे नही बल्कि गुण और कर्मों से था | भगवद्गीता में स्वयं श्रीकृष्णने कहा कि चातुर्वण्यं मया सृष्टं, गुणकर्मविभागश: | और यह सच भी था क्यों कि विष्णुको क्षत्रिय, परंतु उसके पुत्र ब्रह्मदेवको ब्राह्मण कहा गया | शंकर वर्णों से परे है लेकिन उसके पुत्र कार्तिकेय क्षत्रिय तो गणेश ब्राह्मण कहलाये | अश्विनीकुमार तथा धन्वन्तरी के वर्ण की बाबत कुछ उपलब्ध नही है | विश्वामित्र पहले क्षत्रिय थे फिर ब्रह्मर्षि कहलाये | लेकिन इन गिने चुने उदाहरणोंको छोड दें तो अगले सैकडों वर्षोंमे ऐसा उदाहरण देखनेको नही मिलता जिसमें मनुष्यके जन्मजात वर्णसे अलग गुणों और कर्मोंके अनुरूप उसका परिचय अन्य वर्णीय किया गया हो।
त्रेता के बाद आये द्वापर युग में राज्य की संकल्पना अपने चरम पर थी | महाभारत युद्ध भी द्वापर के अंतिम चरण में घटा है | महाभारत युद्ध में पृथ्वी के प्रायः सभी राजे और क्षत्रिय योद्धा मारे गये। युद्धके बाद कोई उल्लेखनीय राज्यव्यवस्था न होते हुए भी समाजव्यवस्था कैसे टिक पाई और नियम-कानून टिकाये रखने के लिये उस जमाने के समाज शास्त्रियों ने क्या किया? गुणकर्म आधारित वर्णव्यवस्था कैसी बदली? एक संभावना यह है कि यदि गुरुकुलोंका प्रमाण घटा हो तो नये बच्चोंने अपने पैतृक व्यवसायमें ही कौशल्य शिक्षा पूरी की हो। लेकिन इसके विपरीत अंगरेजोंके आरंभिक कालमें गांवगांवमें गुरुकुल व शिक्षाव्यवस्था होनेके प्रमाण मिलते हैं। ये सारी चर्चा किन्हीं ग्रंथके प्रमाणसे होनेकी आवश्यकता है।
इसके बाद आया कलियुग। युगाब्द पंचांगको प्रमाण मानें तो कलिकालके लगभग ५१०० वर्ष बीत चुके हैं| लेकिन हमारे सामने केवल पिछले दो-अढाई हजार वर्षोंका इतिहास ही है जिसपर पुनर्विचारकी और बाकीपर हमारे इतिहासकारोंको बडा काम करनेकी आवश्यकता है। इस कालमें गणराज्यों की कल्पना उदित हुई जिसमें लोगोंके एकत्रित सोच विचारसे राज्य व्यवस्था चलानेकी बात थी | भारतमें यह परम्परा २५०० वर्ष पहले चली और फिर खंडित हो गई | लेकिन लगभग ५०० वर्ष पहले पश्चिमी देशोंमे लोकतंत्रकी परिकल्पनाने अच्छी तरह जड पकड ली और अब संसारके कई देशोंमे यही राज्य यंत्रणा है। जहाँ नही है, उस देशको मानवी विकासकी दृष्टि से कम आँका जाता है।
इसका अर्थ हुआ कि त्रेता और द्वापर युग में राजा नामक जो संकल्पना उदित हुई वह कलियुग के इस दौर में कालबाह्य हो रही है | कलियुगारंभके ढाई-तीन हजार वर्ष बाद बुद्धका जन्म और उस दौरान ग्रीक विद्वानोंका उदय आदिकी जानकारी मिलती है। तबसे यूरोपीय देशोंसे भारतके संबंधोंका लेखाजोखा उपलब्ध है।
चौदहवीं सदीसे पहले पश्चिमी देशोंके साथ भारतका व्यापार खुष्कीके व समुद्रके रास्ते होता रहा है। भारतमें नौकाशास्त्र भी प्रगत था। चौदहवीं सदिसे पश्चिमी देशोंने भी अपना नौका उद्योग आरंभ किया। समुद्री रास्तोंसे व्यापार बढने लगा। सिंदबादकी साहसी समुद्री यात्राकी कथाओंको अरेबियन नाइट्स कथासंग्रह में एक सम्माननीय स्थान प्राप्त था। इंग्लंड, स्पेन, पोर्तुगाल, डेन्मार्क, फ्रान्स आदि देशोंमें समुद्र यात्राएँ, सागरी मार्गोंके नक्शे बनाना, उच्च कोटि की नौकाएँ बनाना और नौसेना की टुकडियाँ तैयार रखना महत्त्वपूर्ण बात हो गई। भारतपर आक्रमणोंका सिलसिला भी आरंभ हो गया था।
उन दिनों खुष्कीके रास्ते भारतसे यूरोपमें लाया जानेवाला माल उच्च कोटीका हुआ करता था | उसमें कपडा, रेशम, मोती, मूँगे, बेशकीमती नगीने, जवाहरात, मसाले, औषधी वनस्पतियाँ आदि प्रधान थे | परन्तु ऐसा लगता है मानों ज्ञान, अन्वेषणा और शस्त्रास्त्रोंके प्रति सतर्कता शिथिल हो रही थी। तभी तो तोप-बन्दूकें आदि बनानेका कार्य यूरोपतक सीमित रहा जबकि भारत केवल खरीदार रह गया। नौका बनानेके प्रगत तंत्रज्ञान होते हुए भी लूटका अर्थकारण ना करनेके कारण हमारे व्यापारी क्रमशः असावधान होते गये और लडाकू जहाज रखना भी भूल गये। उधर यूरोपीय देशोंने समुद्री लूटमारके क्षेत्रमें भी प्रवीणता बना ली।
युद्ध शास्त्रमें अब युरोपीय देशोंके पास कुशलतासे बने शस्त्र, तोप, बन्दूक आदि थे। तलवार और तीरोंके दिन बीते नही थे लेकिन अब तोपें भी साथमें आ गईं, उनके पीछे पीछे बन्दूकें भी। इस प्रकार शस्त्रनिर्माण एक ऐसा बडा उद्योग बना कि आज भी वह संसारके प्रमुख उद्योंगोमें एक है |
वास्को-द-गामा ने मुहिम उठाई कि वह यूरोपसे भारत आनेका समुद्री मार्ग खोजकर उसके नक्शे बनाएगा। समुद्रके रास्ते भारत पहुँचनेवाला वह पहला व्यक्ती था। उसके बाद कोलंबस भी चल पडा भारतकी खोजमे और उसने ढूँढ लिया एक नया प्रदेश जिसका नाम पडा अमरीका | इस प्रदेशमें खनिज संपत्ति प्रचुरतासे थी जिसका उपयोग आगे चलकर शस्त्र निर्माणके लिये होता रहा |
इस प्रकार युरोपीय देशोंसे समुद्रके रास्ते बडी बडी व्यापारी संस्थाएँ भारतमें आने लगीं | इधर हमने स्वयं ही अपने आप पर निर्बन्ध लाद लिये और समुद्रको लांघना धर्म निषिद्ध करार दे दिया | आश्चर्य होता है कि जिस संस्कृतीमें पृथ्वी प्रदक्षिणाकी बात कही गई, वसुधैव कुटुम्बकम् की बात की गई, समुद्रको लांघकर लंकामें प्रवेश करने वाला मारूती पूजनीय हो गया, उसी देशमें समुद्र यात्राको कब क्यों और कैसे धर्म निषिद्ध कहा गया?
अठारहवीं और उन्नीसवीं सदी एक अलग महत्त्व रखती है | इन दो सौ वर्षोंमें विज्ञानकी प्रगति अभूतपर्व गति से हुई। उसके साथ आई उद्योग-जगतकी क्रान्तिका महत्त्व इसलिये है कि इसने हस्त उद्योगोंकी छुट्टी कर दी और मशीनों द्वारा असेंब्ली लाइन पर एक साँचेमें ढले सैंकडों उत्पादन बनने लगे |
यही समय था जब शस्त्र और नौसेना रखने वाले देशोंने अन्य देशोंपर अपना राज जमा लिया | उधर लोकतंत्र की जडें भी मजबूत हो रही थीं | अतएव बीसवीं सदि में जिन जिन देशों ने स्वतंत्रता की लडाई लडीं, उन सभी ने लोकतंत्र के आदर्शों पर, खास कर तीन आदर्शोंपर – न्याय, समता, और बन्धुता पर जोर दिया। यही कारण है कि आज इतने अधिक देशोंने लोकतंत्रको अपनाया | इस नई राज्यव्यवस्थामें सेनाकी आमने सामने लडाईयाँ, भूभाग जीतना आदि अवधारणाएँ भी पीछे छूटने लगीं। वायुसेना और बमके आविष्कारके कारण लडाइयोंमें एक नया आयाम आ गया | इन सारी वैश्विक घटनाओंसे भारत अछूता बचे यह संभव नही था।
आक्रमणके बजाय व्यापारी संबंध बढानेका सिलसिला आता जाता रहा है। मुगल शासन कालमें अंग्रेज, फ्रान्सिसी, डच, पुर्तगाली लोगोंने अपने व्यापारी केंद्र भारतमें बना लिये थे जिसके लिये उन्हें मुगल शासकोंने मंजूरीयाँ दी थी। हालमें चीन भी व्यापार और आर्थिक सहायताकी आडमें देशोंको अपने वशमें कर रहा है। इस प्रकार जहाँ त्रेता और द्वापर युगमें राज्य जीतना प्रमुख लक्ष्य था उसकी जगह कलियुगमें व्यापार जीतना लक्ष्य बन गया |
आज राजे महाराजाओंकी अपेक्षा उत्पादनमे अग्रगण्य उद्यमी, व्यावसायिक कंपनियाँ अधिक महत्त्वपूर्ण हैं। जिसे हम सर्विस सेक्टर कहते हैं, जैसे बँकिंग, कम्प्यूटर्स, आवागमन, मोबाइल, इंटरनेट- आदि सेवाएँ देने वाले सेक्टर्स आगे आने लगे हैं | अर्थात् अब ब्रह्मदण्ड या राजदण्ड का नही बल्कि अर्थदण्डका युग चल रहा है। और आगे इसके सेवाकारी (सेवाभावी नही) युगमें बदलनेकी संभावना भी खूब है |
सारांश यह कि जैसे जैसे युग बदलते गए - सत्यसे त्रेता, फिर द्वापर और कलियुग आया वैसे वैसे वर्णोंका महत्त्व भी बदलने लगा - पहले ज्ञानप्रसार, फिर राजसत्ता, फिर व्यापार और फिर विभिन्न सेवाएँ देनेके कार्यकलाप अधिक प्रभावी होते गये |
आर्थिक संपत्ति की माप करने के लिये कभी कृषि- जमीन और पशुधन - जैसे गोधन, अश्वधन और हाथी - प्रमाणभूत थे। लेकिन औद्योगिक क्रान्तिके बाद जैसे जैसे मशीनसे वस्तुएँ बनने लगीं और उनका उत्पादन मनुष्यकी हाथकी बनी वस्तुओंकी तुलनामें हजारो - लाखों गुना अधिक बढ गया, वैसे वैसे उद्योग और उद्यमी अर्थात् जिसे हम सेकंडरी सेक्टर ऑफ प्रॉडक्शन कहते हैं, उसका महत्त्व बढ गया | फिर व्यापार बढा, तो टर्शियरी सेक्टर अर्थात् सर्विस सेक्टर का महत्त्व बढा |
जो चार पुरूषार्थ बताये गये - अर्थात् धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, उनमेंसे काम अर्थात् उपभोगका महत्त्व कलियुगमें अत्यधिक बढ गया। हम अधिकसे अधिक उपभोगवादी हो रहे हैं। हालाँकि काम भी एक पुरूषार्थ है - इससे यशलाभ, कर्मफलप्राप्तिकी संतुष्टि आदि मिलते हैं। इसीसे कलात्मकताको प्रश्रय मिलता है। फिर भी उपभोगवाद की अति हो जाती है तो सर्वनाश हो जाता है | इसका उदाहरण महाभारतमे मिलता है | जब युद्ध समाप्त हुआ तो पृथ्वीके प्राय: सभी राजे और राज्य नष्ट हो चुके थे। हस्तिनापुरसे दूर द्वारकामें यदुवंशी राजाओंने युद्धमें भाग नही लिया था | अब वे निश्चिंत थे | अगले कई वर्षोंमें कोई युद्ध नही आने वाला था | उन्हें क्षत्रियोचित पराक्रम दिखानेकी कोई गरज नही आने वाली थी | वे भोगकी तरफ मुडे | क्रीडा, द्यूत और शराब, इन्हींमे ऐसे डूबे कि आखिर आपसमें ही लडकर यदुवंशके सारे क्षत्रियोंका नाश हुआ |
आज के युगमें अर्थव्यवहारको अत्यधिक महत्त्व है और इसका आरंभ अठारहवीं सदीमें जो औद्योगिक क्रान्ति आई वहाँसे है | पहले उत्पादन और व्यापार विकेंद्रित थे लेकिन औद्योगिक क्रान्ति ने दिखा दिया कि वे केंद्रित तरीके से भी किये जा सकते हैं | इक्कीसवीं सदिमें हम केंद्रित और विकेंद्रित दोनों व्यवस्थाओंको तौल सकते हैं। विकेंद्रित व्यवस्था सर्वसमावेशक होती है। वह अधिक टिकाऊ भी होती है - दीर्घकालीन होती है। लेकिन केंद्रित व्यवस्थामें हजारों गुना अधिक उत्पादनक्षमता होती हैं | इसीलिये उसके आगे-पीछेके ताने-बाने भी उसी तरह बुनने पडते हैं। यदि एक फलोंका जूस बनानेकी फॅक्टरी हो तो उसे रोजाना अमुक टन फल, इतना पानी, इतनी बिजली, इतने खरीदार भी चाहिये - उन्हें आकर्षित करनेको ऍडव्हर्टाइजमेंट भी चाहिये | ऐसे समय कई बार नैतिक, अनैतिकका विचार भी दूर रखना पडता है | यदि अमरीकामें शस्त्र बनाने फॅक्टरियाँ हैं, और उन्हें चलना हैं तो जरूरी है कि संसारमें कोई न कोई दो देश युद्धकी स्थितीमें हों और उन्हें शस्त्र खरीदनेकी जरूरत बनी रहे | या जब कोई कंपनी लाखों युनिट इन्सुलिन बनानेवाली फॅक्टरी चलाती है तो जरूरी हो जाता है कि लोगोंको डायबिटीज रोग होता रहे।
औद्योगिक क्रान्ति आई तो उसमें उतरनेवाले लोगोंको नए हुनर, नए तरीके सीखनेकी आवश्यकता पडी | इसी प्रकार आजका युग जो टर्शियरी सेक्टरका युग है, इसके लिये आवश्यक हुनर भी कुछ अलग तरहके हैं। जैसे - फाइनान्सियल मेनेजमेंट, कम्प्यूटर्स, फिल्में बनाना, इव्हेंट मॅनेजमेंट, आर्टिफिशल इंटेलिजन्स, ये ऐसे हुनर हैं जो खेती करने या प्रॉडक्शन इंजिनियरिंगसे नितान्त भिन्न है |
हमें तीन नए सेक्टर्स दीखते हैं जो सर्विस सेक्टरसे भी अधिक महत्त्वपूर्ण हो रहे हैं | चाहें तो हम उन्हें चतुर्थ, पंचम और षष्ठ सेक्टर कह सकते है | एक है इन्फ्रास्ट्रक्चरका सेक्टर - जैसे नए रास्ते, नए मकान, नई ओएफसी केबलकी लाइनें इत्यादि | दूसरा है इन्फार्मेशन टेक्नॉलॉजीका सेक्टर | इसे भले ही सर्विस सेक्टरमें माना जाता था पर अब इसे अपना अलग दर्जा दिया जाये इतना इसका स्वरूप बदल रहा है | तीसरा अति महत्त्वपूर्ण सेक्टर है RD - HRD का | अर्थात् रिसर्च और उसके साथ ह्यूमन रिसोर्स डेव्हलपमेंट। हुनर अर्थात् कौशल्यकी शिक्षा, पेटंट, इन्टलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट, आदि अब एक नये सेक्टरके रूपमें आगे आ रहे हैं | शायद इन्हींके कारण भविष्यकाल युगान्तर घटेगा |
औद्यागिक क्रान्तिने एक नए युग को जन्म दिया था| इसी प्रकार बिजली और उससे अधिक बल्बकी खोजने एक नया युग ला दिया | एडीसनने बल्बका सफल निर्माण किया, उससे पहले तेल जला कर उजाला किया जाता था | उसकी सीमाएँ थीं | रात्रीपर अंधेरेका साम्राज्य हुआ करता था | बहुत कम जगहों पर ही रातमें कोई व्यवहार चल पाते | लेकिन अब चौबीस घंटे काममें लगाये जा सकते हैं | बल्बके आविष्कारके साथ साथ रात्रीकी अपनी एक अलग संस्कृति बन गई जो दिनकी संस्कृतिसे अलग लेकिन उतनी ही कर्मशील है | इसी प्रकार रेडियो, टीव्ही, मोबाईलों ने अलग क्रान्ति लाई है | टिश्यु कल्चर और क्लोनिंगसे एक नई क्रान्ति आ रही है|
नये आविष्कारोंके इस युगमें भारतीय मेधा हमें कहाँ दीखती है? आज भारतमें लगभग सौ करोडऔर बाहरके देशोंमें पांच करोड हिंदू हैं। इनकी बुद्धिका डंका तो विश्वमें बज रहा है परन्तु मेधा, जो आविष्कारके लिये चाहिये, वह कहीं नही दीखती। देशमें भी शोधकार्य नहीके बराबर हो रहे हैं। कौशल्य वर्धापन भी किसी कॉलेज या युनिवर्सिटीकी ओरसे सर्टिफिकेटके रूपमें वितरित होता है, प्रत्यक्षतः नही हो पाता।
युगान्तर केवल आविष्कारसे या क्रान्तिसे नही होता। जब उस आविष्कारके कारण समाजमें आवश्यक कौशल्य और जीवन मूल्य दोनों बदलते हैं और समाज व्यवस्था बदलती है, तब युगान्तर होता है। इसके लिये आवश्यक है कि मूल्योंकी चर्चा होती रहे। हमें देशमें आविष्कारक मेधा और मूल्यचर्चा दोनोंका ध्याान रखना होगा।
एक बडे ही महत्वका प्रश्न उठता है कि क्या हमारे देशमें मेधावी छात्रोंका अविरत सिलसिला गुरुकुल प्रणालीके कारण था -- अपनी डीएनए में रची-बसी भाषाओंके कारण था और आज जब हम अपनी भाषाओंसे विमुख हो रहे हैं, तो वह मेधाविता भी हमसे दूर जा रही है? हम इस चर्चाकी ओर जितनी जल्दी मुडेंगे और शिक्षाव्यवस्थापनमें विभिन्न प्रयोगोंको बढावा देंगे उतनी ही जल्दी उत्तर पानेकी संभावना बढेगी।
युगान्तरके पर्वमें वर्ण व्यवस्था, अर्थ व्यवस्था, कौशल्य प्रबंधन (स्किल मॅनेजमेंट), राज्य व्यवस्था इन सबको कसौटी पर चढना पडता है और यदि वे खरे उतरे, तभी टिक पाते हैं | यदि नही टिक पाये तो अराजककी स्थिती निर्माण होती है जो कई समाजों और सभ्यताओंको मिटा जाती है | कुछेक सभ्यताएँ किसी खास गुणके आसरेसे टिक पाती हैं | आवश्यक है कि ऐसी टिकनेवाली और डूबनेवाली सभ्यताओंका लेखा जोखा हम रख सकें | इसीलिये नये शोधकार्य और उसपर आधारित नया कौशल्य विकास इन दोनोंका महत्त्व समझना होगा।
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