पितर क्या हैं
रघोत्तम शुक्ल।
श्राद्धका अर्थ श्रद्धासे है, जो धर्मका आधार है। माता पार्वती और शिवको ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहा गया है। पितृ-पक्ष हमें अपने पितरोंके प्रति श्रद्धा व्यक्त करनेका अवसर प्रदान करता है। हिंदू धर्ममें मान्यता है कि मानव शरीर तीन स्तरोंवाला है। ऊपरसे दृश्यमान देह स्थूल शरीर है। इसके अंदर सूक्ष्म शरीर है, जिसमें पांच कर्मेंद्रियां, पांच ज्ञानेंद्रियां, पंच प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान समान), पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश, वायु) के अपंचीकृत रूप, अंत:करण चतुष्टय (मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार), अविद्या, काम और कर्म होते हैं। इसीके अंदर कारण शरीर होता है, जिसमें सत, रज, तम तीन गुण होते हैं। यहीं आत्मा विद्यमान है। मृत्यु होनेपर सूक्ष्म और कारण शरीरको लेकर आत्मा स्थूल शरीरको त्याग देता है।
मान्यता है कि यह शरीर वायवीय या इच्छामय है और मोक्ष पर्यंत शरीर बदलता रहता है। दो जन्मोंके बीचमें जीव इसी रूपमें अपनी पूर्ववर्ती देहके अनुरूप पहचाना जाता है। मरणोपरांत जीव कर्मानुसार कभी तत्काल पुनर्जन्म, कभी एक निश्चित कालतक स्वर्गादि उच्च या नरकादि निम्न लोकोंमें सुख-दुख भोगकर पुन: जन्म लेता है। अधिक अतृप्त जीव प्रबल इच्छाशक्तिके चलते यदाकदा स्थूलत: अपने अस्तित्वका आभास करा देते हैं। उचित समय बीतनेपर ये पितृलोकमें निवास करते हैं। ‘तैतरीय ब्राह्मण’ ग्रंथके अनुसार, भूलोक और अंतरिक्षके ऊपर पितृलोककी स्थिति है।
पौराणिक ग्रंथोंके अनुसार, देव, पितृ, प्रेत आदि सभी सूक्ष्म देहधारी भोगयोनिमें हैं, कर्मयोनिमें नहीं। उनमें आशीर्वाद, वरदान देनेकी असीम क्षमता है, किंतु स्वयंकी तृप्तिके लिए वे स्थूल देह धारियोंके तर्पण पर निर्भर हैं। महाभारतमें पितरोंको ‘देवतानां च देवता’ कहा गया है, क्योंकि देव तो सबके होते हैं, पितृ अपने वंशजोंके हित साधक। पितरोंको संतुष्ट करनेके लिए श्राद्ध यानी पिंडदान व तर्पण आवश्यक माना गया है। गोस्वामी तुलसीदास कहते हैं :
तरपन होम करैं विधि नाना। विप्र जेवांइ देहिं बहु दाना।।
श्राद्ध का अर्थ श्रद्धा से है, जो धर्म का आधार है। कहा गया है :
‘श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। बिनु महि गंध कि पावहि कोई।।’
माता पार्वती और शिव ‘श्रद्धा विश्वास रूपिणौ’ कहे गए हैं। हमारे धर्म ग्रंथोंमें पितृगणको तृप्त करने हेतु एक पखवारा अलगसे निश्चित है। यह भाद्रपद पूर्णिमासे क्वारकी अमावस्यातक होता है। जिस तिथिको, जिसका जो पितृ दिवंगत हुआ हो, उस तिथिको उसका श्राद्ध किया जाता है। तीन पिंड दिए जाते हैं- परबाबा, बाबा और पिता। इन्हें भूमिपर कुश बिछाकर अर्पण करते हैं। मुख दक्षिणकी ओर करना चाहिए।
‘श्राद्ध प्रकाश’ व अन्यान्य ग्रंथोंमें इनके विधि-विधानका वर्णन है। इनके अनुसार, चंद्रमामें जो केंद्र स्थान है, उस स्थानके ऊपरके भागमें, जो रश्मि ऊपरकी ओर जाती है, उसके साथ पितृप्राण व्याप्त रहता है। कृष्ण पक्षकी प्रतिपदामें मध्याह्नके समय जो रश्मि ऊपरकी ओर जाती है, वह इस समय १५ दिनको पृथ्वीकी ओर हो जाती है, जब चंद्रमा ध्रुवसे दक्षिण ‘विश्वजित’ तारेकी ओर जाता है, तभीसे चंद्र चक्र तिरछा होने लगता है। तब ऊपरके भागमें जो पितृप्राण रहता है, वह पृथ्वीपर आ जाता है और अपने परिवारमें घूमता है।
मान्यता है कि उस समय उसके नामसे उसका पुत्र या परिवार तर्पण या जौ, चावलका जो पिंड देता है, उसमेंसे अंश लेकर चंद्रलोकमें अंभप्राणको ऋण चुका देता है। इसीलिए इसे पितृपक्ष कहते हैं। मालूम हो कि हर प्राणीपर जन्मसे तीन ऋण होते हैं - देव, पितृ और ऋषि ऋण। पितृऋणकी पूर्ति पितृयज्ञ यानी श्राद्धसे होती है। इस रश्मिका नाम ‘श्रद्धा’ भी कहा गया है। चूंकि यह रश्मि मध्याह्नमें आती है, अत: श्राद्ध कर्म हेतु मध्याह्नसे अपराह्न यानी १२ से ३ के बीचका समय ही श्रेयस्कर माना जाता है, जिसे ‘कुतुप’ काल कहते हैं।
‘वराह पुराण’ के अध्याय १९० के अनुसार, चारों वर्णोंके लोग श्राद्धके अधिकारी हैं। माना जाता है कि जलाशयमें जाकर एक बूंद जल भी पितरोंको श्रद्धासे अर्पित कर दें, तो वे तुष्ट होकर आशीर्वाद दे देते हैं। वराह पुराण कहता है यदि व्यक्ति साधनहीन है और कहीं वन प्रदेशमें है, तो दोनों हाथ उठाकर पितरोंको अपनी स्थिति बताकर श्रद्धा समर्पण कर दे, तब भी वे प्रसन्न होकर आशीष दे देते हैं। वशिष्ठ सूत्र और नारद पुराणके अनुसार, गयामें श्राद्धका बहुत महत्व है। स्कंद पुराणानुसार बदरिकाश्रमकी ‘गरुड़ शिला’ पर किया गया पिंडदान गयाके ही बराबर माना जाता है। श्राद्धमें श्रद्धाका सर्वाधिक महत्व है। यदि इसे पूरी श्रद्धाके साथ नहीं किया जाता तो इसे करना निरर्थक है।
न तत्र वीरा जायन्ते नारोगो न शतायुष:।
न च श्रेयोऽधिगच्छन्ति यत्र श्राद्धविवर्जितम।।
[लेखक आध्यात्मिक विषयों के अध्येता हैं]
गतांक से आगे
यह श्रद्धा चारों वेदों, छह शास्त्र आदिसे सिद्ध है।
पितर व श्राद्ध
वैसे हो सके, तो उनसे देव स्तरका सहयोग प्राप्त करके जीवनको अधिक समृद्ध, सार्थक एवं सफल बनाया जा सकता है।
दिव्य प्रेतात्मासे कभी-कभी किन्हीं-किन्हींका सीधा संबंध उनके पूर्वजन्मोंके स्नेह सद्भावके आधारपर हो जाता है। कई बार वे उपयुक्त सत्पात्रोंको अनायास ही सहज उदारतावश सहायता करने लगते हैं। अतः ऐसा भी संभव है कि कोई व्यक्ति अपने आपको साधना द्वारा प्रेतात्माओंका कृपा पात्र बना ले और अपने साथ अदृश्य सहायकोंका अनुग्रह जोड़कर अपनी शक्तिको असामान्य बना ले एवं महत्त्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त करनेका पथ-प्रशस्त करें। पितरोंके अनेक वर्ग हैं और देवसत्ताओंकी ही तरह उनके क्रियाकलापोंके क्षेत्र भी भिन्न-भिन्न हैं। प्रत्यक्ष मार्गदर्शन, गूढ़ संकेत, दिव्य प्रेरणाएं तथा आकस्मिक सहायताएं उनसे उपलब्ध होती हैं। विपत्तिसे त्राण पाने, सन्मार्गपर अग्रसर होने और मानवीयताके क्षेत्र को विस्तृत करने, सामाजिक प्रगतिका पथ प्रशस्त करनेमें उनके दिव्य-अनुदान देवी वरदान बनकर सामने आ सकते हैं। सूक्ष्म शक्तियोंके रूपमे वैसे भी वे क्रियाशील रहते ही हैं और अनीति-अत्याचार-अन्यायके क्रमको आकस्मिक अप्रत्याशित रीतिसे उलट देनेकी चमत्कारी प्रक्रिया कई बार उनके अनुग्रहसे ही संपन्न हुआ करती है। ऐसे श्रेष्ठ पितर सचमुच श्रद्धा-भाजन हैं। इस संदर्भमें एक नया पक्ष और भी है। वह यह है कि जीव सत्ता अपनी संकल्प शक्तिका एक स्वतंत्र घेरा बनाकर खड़ा कर देती है और जीवको अन्य जन्म मिलने पर भी वह संकल्प सत्ता उसका कुछ प्राणांश लेकर अपनी एक स्वतंत्र इकाई बना लेती है। और इस प्रकार बनी रहती है, मानो कोई दीर्घजीवी प्रेत ही बनकर खड़ा हो गया हो।
--बनवारीलाल से
अनिरुद्ध जोशी -- वेदोंमे पितर
वेदानुसार यज्ञ 5 प्रकार के होते हैं-1. ब्रह्म यज्ञ, 2. देवयज्ञ, 3. पितृयज्ञ, 4. वैश्वदेव यज्ञ, 5. अतिथि यज्ञ।
उक्त 5 यज्ञोंको पुराणों और अन्य ग्रंथोंमें विस्तार दिया गया है। उक्त 5 यज्ञोंमें से ही एक यज्ञ है पितृयज्ञ। इसे पुराणमें श्राद्ध कर्मकी संज्ञा देकर विस्तार दिया गया है।
वेदोंमें पितृयज्ञके संपूर्ण कर्मकांडके सांकेतिक प्रमाण मिलते हैं लेकिन वह स्पष्ट नहीं है। वेद पितरोंकी बात तो करते हैं लेकिन उनके श्राद्धकर्म करनेको लेकर अस्पष्टता है। वेदमें अधिकतर जगह यज्ञका ही वर्णन मिलता है।
'हे अग्नि! हमारे श्रेष्ठ सनातन यज्ञको संपन्न करने वाले पितरोंने जैसे देहांत होनेपर श्रेष्ठ ऐश्वर्य वाले स्वर्गको प्राप्त किया है, वैसे ही यज्ञोंमें इन ऋचाओंका पाठ करते हुए और समस्त साधनोंसे यज्ञ करते हुए हम भी उसी ऐश्वर्यवान स्वर्गको प्राप्त करें।' -यजुर्वेद
यजुर्वेदमें कहा गया है कि शरीर छोड़नेके पश्चात जिन्होंने तप-ध्यान किया है, वे ब्रह्मलोक चले जाते हैं अर्थात ब्रह्मलीन हो जाते हैं। कुछ सत्कर्म करने वाले भक्तजन स्वर्ग चले जाते हैं। स्वर्ग अर्थात वे देव बन जाते हैं। राक्षसी कर्म करने वाले कुछ प्रेत योनिमें बहुत कालतक भटकते रहते हैं और कुछ पुन: धरतीपर जन्म ले लेते हैं। जन्म लेने वालोंमें भी जरूरी नहीं कि वे मनुष्य योनिमें ही जन्म लें।पुनः जन्म लेनेपर विगत जन्मकी कोई प्रत्यक्ष स्मृति उनके पास नही होती।
विद्वानोंके अनुसार वेदमें अधिकतर जगह सत्य और श्रद्धासे किए गए कर्म श्राद्ध और जिस कर्मसे माता-पिता और आचार्य तृप्त हो, वह तर्पण है । वेदोंमें श्राद्धको पितृयज्ञ कहा गया है। यह श्राद्ध-तर्पण हमारे पूर्वजों, माता-पिता और आचार्यके प्रति सम्मानका भाव है। यह पितृयज्ञ संपन्न होता है संतानोत्पत्ति और संतानकी सही शिक्षा-दीक्षासे। इसीसे 'पितृ ऋण' भी चुकता होता है।
अथर्ववेदमें श्राद्ध कर्म करनेका उल्लेख विस्तारसे मिलता है।
अहमेवास्म्यमावास्या... समगच्छन्त सर्वे।। -अथर्व 7/79/2
अर्थात सूर्य-चन्द्र दोनों अमा साथ-साथ बसते हों, वह तिथि अमावस्या मैं हूं। मुझमें सब साध्यगण, पितृविशेष और इन्द्र प्रभृति देवता इकट्ठे होते हैं।
परा यात पितर... अधा मासि पुनरायात नो गृहान्...।। -अथर्व18/4/63
अर्थात हे सोमपानकर्ता पितृगण! आप अपने पितृलोकके गंभीर असाध्य पितृयाण मार्गोंसे अपने लोकको जाएं। मासकी पूर्णता पर अमावस्याके दिन हविष्यका सेवन करनेके लिए हमारे घरोंमें आप पुन: आएं। हे पितृगण! आप ही हमें उत्तम प्रजा और श्रेष्ठ संतति प्रदान करनेमें सक्षम हैं।
आश्विन माहमें पितृपक्षके बारेमें वेदका कथन है:-
सर्वास्ता अव रुन्धे स्वर्ग: षष्ट्यां शरत्सु निधिपा अभीच्छात्।। -अथर्व 12/3/41
शरद ऋतुमें छठी संक्रांति कन्यार्कमें जो अभीप्सित वस्तुएं पितरोंको प्रदान की जाती हैं, वे सब स्वर्गको देने वाली होती हैं।
ये न: पितु: पितरो ये पितामहा... तेभ्य: पितृभ्यो नमसा विधेम।। -अथर्व 18/2/49
अर्थात पितृ, पितामह और प्रपितामहोंको हम श्राद्धसे तृप्त करते हैं और नमन करते हुए उनकी पूजा-अर्चना करते हैं।
इस प्रकार वेदोंमें पितृयज्ञके संपूर्ण विधानकी महत्ता और दिव्यताका वर्णन मिलता है। आगे चलकर पुराण और संस्मृतियोंमें वेद आधारित श्राद्धकर्मकी विधि को चार तरहसे संपन्न करना बताया गया। ये कर्म हैं- हवन, पिंडदान, तर्पण और ब्राह्मण भोजन।
पितृयज्ञके अन्य प्रकार इस तरह हैं:-
नित्य- यह श्राद्धके दिनोंमें मृतकके निधनकी तिथि पर किया जाता है।
नैमित्तिक- किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे पुत्र जन्म पर मृतकको याद कर किया जाता है।
काम्य- यह श्राद्ध किसी विशेष मनौतीके लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्रमें किया जाता है।
अत: यह सिद्ध हुआ कि वेद अनुसार भी श्राद्ध कर्म किया जाता है लेकिन वेद और पुराण दोनोंकी रीति और विधि थोड़ी भिन्न है।
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