Sunday, July 18, 2021

अध्याय ५ ऋग्वेदादिमें श्रद्धा

 अध्याय

ऋग्वेदादिमें श्रद्धा

हमारे चारों वेदोंमें और उपनिषदोंमें श्रद्धाका वर्णन है, स्तुति है और समाजके लिये इसका महत्व बताया गया है। निर्विवादरूपसे वेदोंमें श्रद्धाको सत्यके साथ जोडा गया है। व्युत्पत्तिशास्त्रसे भी श्रत् अर्थात् सत् को धारण करनेवाली श्रद्धा है। ऋग्वेद विश्वका प्रथम ज्ञान अभिलेख है। इसमें श्रद्धाको स्वयं देवताका पद दिया है। अन्य देवता भी इस श्रद्धादेवताकी श्रद्धा करते हैं।

श्रद्धा को सुमतिदायिनी, कामायनी, कात्यायनी बताकर उसकी उपासना की गई है। वैदिक ऋचा में कहा गया है, हे परमप्रिये श्रद्धे, तेरी कृपासे मैं ऐसा व्यवहार करूं, जिससे संसारका उपकार हो सके। हे सुमतिदायिनी श्रद्धे, मैं जो कुछ आहुति, दान व बलिदान करूं, उसे उपयोगी और सर्वहितकारिणी बनाना। हे कामायनी श्रद्धे, मेरी अनासक्त कामना है कि मेरे कृत्योंसे दान और बलिदानकी प्रेरणा उदित होती रहे। हृदयसे जब श्रद्धाकी उपासना होती है, तब अनंत ऐश्वर्य अनायास ही प्राप्त होने लगते हैं।
ऋग्वेदके दशम मंडलका १५१ वाँ सूक्त पांच ऋचाओंका श्रद्धा सूक्त है। इसकी रिषिका श्रद्धा कामायनी है, छन्द अनुष्टुप है तथा देवता स्वयं श्रद्धा। देवता अर्थात प्रकृति की दिव्य शक्ति। यहां श्रद्धा केवल अंतःकरणका स्वीकारभाव नहीं है अपितु प्रकृतिके चराचरमें वर्तमान एक अंतरंग दिव्यता है।

श्रद्धा सूक्तमें श्रद्धाका आवाहन देवीके रूपमें करते हुए मंत्रोंमें कहा है कि वह हमारे हृदयमें श्रद्धा उत्पन्न करे। यजुर्वेद एवं तैत्तिरीय ब्राह्मण में भी इसी सूक्तको दोहराया गया है। इस सूक्तके अनुसार श्रद्धासे ही मनुष्यकी उन्नति हो सकती है। श्रद्धासे ही मनुष्य सर्वविध पदार्थोंको प्राप्त कर सकता है। इसी कारण श्रद्धाका आवाहन किया गया है।
पहला मंत्र श्रद्धाका महत्त्व बताता है।

श्रद्धायाग्निः समिध्यते श्रद्धया हूयते हविः।

श्रद्धां भगस्य मूर्धनि वचसा वेदयामसि ।।

श्रद्धासे अग्नि जलाई जाती है। श्रद्धासे उसमें आहुति डाली जाती है। ऐश्वर्यके मूर्धा पर विराजमान उस श्रद्धाको हम अपनी वाणीसे घोषित करते हैं, व्यक्ति–व्यक्ति को जनाते हैं।
यहाँ ऋषि प्रकृतिकी कार्यवाहीको यज्ञकी तरह संचालित देखते हैं। अग्नि है प्रकृतिकी विराट शक्ति जिसे ऋषियोंने सूर्यमें देखा, जलमें देखा, वनो-उपवनोंकी काष्ठ लकड़ियोंमें भी देखा। मनुष्य अग्नि जलाते भी थे, लेकिन यज्ञकी अग्नि एक अलग भावबोध जगाती है। कहा है - यज्ञकी अग्नि श्रद्धासे ही प्रज्ज्वलित करी जा सकती है और श्रद्धासे ही यज्ञके हवनमें समिधा डाली जाती है। ऋषिका जताना चाहती हैं कि श्रद्धा हो तो यज्ञकी जरूरत ही क्या है?

श्रद्धा से ही अग्निहोत्र की अग्नि प्रदीप्त होती है, आत्माग्नि भी प्रदीप्त होती है, श्रद्धा से ही हविकी आहुति यज्ञमें दी जाती है। श्रद्धा समस्त कल्याणकारी कार्योंके शीर्षस्थान पर विराजमान है। श्रद्धाके बिना कुछ भी प्राप्त नहीं होता।

योगशास्त्रके अनुसार किसी भी वस्तुको सिद्ध करनेके लिए आगम प्रमाण अर्थात मंत्रद्रष्टा ऋषि द्वारा उद्घोषित वेद मंत्रका प्रमाण देना आवश्यक है, अन्यथा वह वस्तु या वह विचार आदि मिथ्या है श्रद्धाके विषयमें इस मंत्रका प्रमाण बताता है कि ‘श्रद्धया अग्निः समिध्यते’। अनादि कालसे श्रद्धापूर्वक वेदमें वर्णित विधिसे अग्नि प्रदीप्त की जाती रही है यथावत् अग्निहोत्र पद्धतिसे हव्य, घृत, सामग्री आदि द्रव्योंको भलीभांति होमा जाता है। अर्थात अग्निमें दान किया जाता है।

मंत्रमें पुनः कहा कि यह श्रद्धा भगके या ऐश्वर्यके मूर्धनि अर्थात शिरोभागपर स्थित है। यह सत्यधारणा अनादिकालसे चली रही है। यह बात हम वचसा अर्थात अपनी वाणी भाषणद्वारा " वेदयामसि" अर्थात लोगोंको जताते हैं।

श्रद्धया अग्निः समिध्यते। यानी श्रद्धासे ऐसी अग्नि प्रदीप्त होती है, जो मनुष्यको प्रेम, रस, आनंद और अमृत प्रदान कर उसका लोक-परलोक सफल बनाती है। श्रद्धा ही वृद्धजनों, माता-पिता, गुरुके प्रति कर्तव्यपालन करने, मातृभूमिके लिए प्राणोत्सर्ग करने, समाज व धर्मकी सेवामें संलग्न होनेकी प्रेरणाका स्रोत है। यहाँ अग्नि एक रूपक है जो अंतःकरणमें उठनेवाली उत्सर्गकी अभिलाषाका द्योतक है। यह श्रद्धा अनादि एवं अविनाशी है।

दूसरा मंत्र श्रद्धासे अभ्युदय प्राप्तिके लिये है --
प्रियं श्रद्धे ददत: प्रियं श्रद्धे दिदासत:
प्रियं भोजेषु यज्वस्विदं उदितं कृधि 2

हे श्रद्धे, दाताके लिये हितकर अभीष्ट फलको दो। हे श्रद्धे, दान देनेकी जो इच्छा करता है उसका भी प्रिय करो। भोगैश्वर्य प्राप्त करनेके इच्छुकोंके भी प्रार्थित फल प्रदान करो।
हे श्रद्धे ! तू देनेवालेका प्रिय कर, कल्याण कर, भला कर हे श्रद्धे ! तू देनेकी इच्छा–विचार–संकल्प करनेवालेका प्रिय कर, भला कर हे श्रद्धे ! तू भोजोंमें, यज्ञोंमें मेरा प्रिय कर, कल्याण कर, भला कर। और इस प्रकार समाजका अभ्युदय कर।

शास्त्रकारोंने एकमतसे कहा है कि श्रद्धापूर्वक किया गया कर्म, दिया गया दान, आदि ही सफल होते है। अश्रद्धासे किया हुआ कर्म या दान निष्फल हो जाता है और वह असत् कहलाता है। श्रद्धाके बिना किए हुए यज्ञयाग, दान, तपश्चर्या, कर्म इत्यादि सभी निष्फल या व्यर्थ हो जाते हैं। ऐसा करनेवालेको ना तो इस लोकमें और ना ही परलोकमें कोई सिद्धि मिलती है। लेकिन श्रद्धापूर्वक दान देनेवालेका और लेनेवालेका भी भला ही होता है।

उपनिषदोंमें भी कहा गया है श्रद्धयादयम् अर्थात श्रद्धापूर्वक ही देना चाहिए। श्रद्धालुके प्रति श्रद्धापूर्वक जो कुछ दिया जाता है उसे दान कहते हैं। दानकी प्रेरणाएँ दो होती हैं, एक श्रद्धा और दूसरी दया। गरीब असहाय व्यक्तियोंको दान देनेकी प्रेरणा दयासे उत्पन्न होती है किंतु श्रद्धाकी प्रेरणासे सामर्थवान व्यक्तिको देनेकी भावना पैदा होती है।

समाजसेवा परोपकार और विद्यादानद्वारा मानव समुदायकी ज्ञानवृद्धिमें लीन पुरुषोंके अभावकी पूर्ति तत्परतासे करना ही उपयोगी बात है। वह कार्य समाजके ठीक पेटमें जाता है और समाजके सभी अंगोंको पुष्ट करता है। अतः जो व्यक्ति स्वयं आगे आकर समाजसेवा या विद्यादान नही कर पाते उनके लिये उचित है कि वे ऐसा करनेवालोंके अभावकी पूर्ति दानके द्वारा करें।

तीसरे सूक्तमें श्रद्धासे जीवनोत्थान बताया गया है।
यथा देवा असुरेषु श्रद्धामुग्रेषु चक्रिरे
एवं भोजेषु यज्वसु अस्माकमुदितं कृधि 3

जिस प्रकार देवोंने असुरोंको परास्त करनेके लिये उग्र श्रद्धासे यह निश्चय किया कि इन असुरोंको नष्ट करना ही चाहिये और श्रद्धायुक्त होनेके कारण वे वैसा कर पाये, उसी प्रकार हमारे ये जो श्रद्धालु याज्ञिक एवं भोगार्थी है इनके लिये भी हे श्रद्धे, तुम इच्छित भोगोंको प्रदान करो।

हमारे शूरवीर प्राणरक्षक क्षत्रियोंकी श्रद्धा होनी चाहिये कि उन्हें समाजको दुष्ट शक्तियोंसे बचाना है। इस श्रद्धाके कारण ही वे वीरश्री दिखाते हुए असुरोंका नाश कर पाते हैं और देवजन कहलाते हैं। जिस प्रकार साधारण जन इन देवताओंपर विश्वास भरोसा रखते हैं, ऐसे ही हे श्रद्धे, तुम भोजों और यज्ञोंमें अभीष्ट फल देकर हमारा उदय करो।
चौथे सूक्तमें श्रद्धासे संकल्पकी सिद्धि बताई गई है --
श्रद्धां देवा यजमाना वायुगोपा उपासते
श्रद्धां हृदय्ययाकूत्या श्रद्धया विन्दते वसु 4

बलवान वायुसे रक्षण पाते हुए देवजन और यजमान श्रद्धाकी उपासना करते हैं वे अन्त:करणसे संकल्पपूर्वक श्रद्धाको उपासते है। उपासनाके फलस्वरूप वसु अर्थात ऐश्वर्य प्राप्त होता है।

पांचवें सूक्तमें श्रद्धामय रहनेहेतु प्रार्थना है -
श्रद्धां प्रातर्हवामहे श्रद्धां मध्यंदिनं परि
श्रद्धां सूर्यस्य निम्रुचि श्रद्धे श्रद्धापयेह : ॥५॥
अर्थात् हम प्रात: श्रद्धा का आह्वान करते हैं, हम मध्याह्न कालमें श्रद्धाका सब ओरसे आह्वान करते हैं, हम सूर्यास्त समयमें श्रद्धाका आह्वान करते हैं। हे श्रद्धे ! तू इस मानव जीवनमें हमें श्रद्धामय बना। हे श्रद्धादेवि, हमें प्रातःकाल श्रद्धामय रो हम मध्याह्नमें श्रद्धायुक्त रहें। सायंकाल श्रद्धावान रहें और रात्रिमें भी श्रद्धायुक्त हों। जीवनके प्रत्येक कार्यमें और प्रत्येक क्षणमें हम श्रद्धाको धारण किए रहें। हे श्रद्धादेवि, इस संसारमें हमें श्रद्धावान बनाइये।

यहाँ जो कहा गया है-- श्रद्धे श्रद्धापयेह नः -- यह श्रद्धासे श्रद्धा मांगना बड़ा रोचक विवरण है। श्रद्धा आस्तिकताके रूपमें प्रकृतिमें उपस्थित है, हम सबके अस्तित्वमें हैऋषि इसी श्रद्धाका आवाहन, उपासन, स्मरण और पुरश्चरण करते हैं।

ऋग्वेदके अतिरिक्त सामवेद तथा यजुर्वेदमें भी श्रद्धाको संबोधित करते हुए सूत्र कहे गये हैं।

सामवेद

. पूर्ण समर्पण
अधाहीन्द्र गिर्वण उप त्वा काम ईमहे ससृग्महे।
उदेव ग्मन्त उदभिः।।
जिस प्रकार जलोंका सम्पर्क करनेसे, जलको स्पर्श करनेसे, जलसे तर हो जाते हैं। उसी प्रकार जब हम श्रद्धायुक्त वाणीसे सेवनीय परमात्माका याचनारूप स्पर्श करते हैं तब अभीष्ट कामनाका भी अनायास स्पर्श हो जाता है अर्थात् कामना तत्काल ही पूरी होती है
. प्र इन्द्रो महे तु ऊर्मि बिभ्रदर्षसि
अभि देवाँ अयास्य:
हे परमेश्वर! विद्वान उपासकों याज्ञिकोंको तू सर्वतः प्राप्त होकर धनधान्य दिलाता है। श्रद्धाके कारण हमारे अंतःकरणमें तरंग या लहरसी धारण करता हुआ उच्च भावको प्राप्त होता है। अर्थात् परमात्माकी कृपा पानेसे उत्पन्न हुआ आनन्द उपासकोंके हृदयमें लहर सी उठाता है और वह उच्च भावको प्राप्त होता है।

अथर्ववेदका मंत्र १९-६४-१ कहता है -

अग्ने॑ स॒मिध॒माहा॑र्षं बृह॒ते जा॒तवे॑दसे। स मे॑ श्र॒द्धां च॑ मे॒धां च॑ जा॒तवे॑दाः॒ प्र य॑च्छतु ॥

अर्थात् हे जातवेद, तुम्हें बढानेहेतु मैं यह समिधा लाया हूँ इससे संतुष्ट होकर तुम हमारी श्रद्धा व मेधा दोनोंको बढाओ। मनुष्य भौतिक अग्निको प्रज्वलित करके हवन करे। श्रद्धा एवं मेधा बढ़ावें और श्रद्धापूर्वक परमात्माकी भक्तिको अपने हृदयमें स्थापित करे प्रकारान्तरसे यह भी कह सकते हैं कि श्रद्धापूर्वक अग्निहोत्र करनेसे श्रद्धा और मेधा दोनों बढते हैं।

अथर्व --२१ कहता है -- श्रद्धा प्राणः श्रद्धा ही मनुष्यका प्राण है। श्रद्धाविहीन मनुष्यको निष्प्राण या निर्जीव समझना चाहिए।

यजुर्वेद

श्रद्धा देवानधिवस्ते श्रद्धा विश्वमिदं जगत्

श्रद्धां कामस्य मातरम् हविषा वर्धयामसि ।।

मंत्र १९-७७ का प्रमाण है -- सत्यै श्रद्धाम् अर्थात सत्यनिष्ठ पुरुषोंमें विद्यमान जो सत्य है, उस सत्यको धारण कराने वाली श्रद्धाको परमेश्वर धारण करता है।

यजुर्वेद १९.३० का वचन है -- श्रद्धया सत्यम् आप्यते। श्रद्धासे सत्यकी प्राप्ति होती है।

गीतामें श्रद्धाको मुक्तिका, ज्ञानप्राप्तिका और जीवनसाधनाका आधार कहा है। इसकी चर्चा हम कर चुके हैं।

सत्य को निश्चयपूर्वक जानकर, उसे दृढ़ता के साथ धारण करना श्रद्धा है। सत्य धारणा अथवा निष्ठा के साथ, अभीष्ट की साधना में लगे रहना श्रद्धा है। आत्मविश्वास के साथ साध्य की साधना में जुट जाना श्रद्धा है। हृदयसंकल्प के साथ लक्ष्य की ओर प्रवृत्त रहना श्रद्धा है। हृदय की गहन भावना के साथ साधना करना श्रद्धा है।

देव श्रद्धा द्वारा ही देवत्व को प्राप्त होते हैं। यज्ञानुष्ठानी श्रद्धा द्वारा ही यज्ञफल {सुखैश्वर्य} प्राप्त करते हैं। यज्ञशील श्रद्धा द्वारा ही श्रेष्ठतम कर्मों की साध में निरत रहते हैं। वीर श्रद्धा द्वारा ही विजयलाभ करते हैं। योगी भी श्रद्धा द्वारा ही योगसाधना में सिद्धि प्राप्त करते हैं। हृदयसंकल्प में ही श्रद्धा का निवास है। वस्तुतः हृदय की भावना ही श्रद्धा है।


संदर्भ पं बनवारी चतुर्वेदी तथा डॉ.शोभा अग्रवाल का लेखन एवं गायत्री परिवार के लेख

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