अध्याय १८
न्यायव्यवस्थाका तत्वज्ञान और श्रद्धा
सामाजिक जीवनमें न्यायभावना अत्यावश्यक है। यह ऐसी भावना है जो हम समाजसे अपने लिये, अपनी सुरक्षा और प्रगति हेतु चाहते हैं। जो समाजका नेतृत्व करते हैं उन्हें दूसरोंको भरोसा दिलाना पडता है कि वे न्यायको सर्वोपरि रखकरही निर्णय लेंगे -- ऐसा भरोसा ना दिला पानेपर उनका नेतृत्व स्वीकारा नही जायेगा। न्यायका अधिष्ठान ना होनेपर समाजमें असंतुष्टि छाई रहेगी। जब हम समाजमें श्रद्धाकी चर्चा करते हैं और विशेषकर सामाजिक अभ्युदयके प्रति सबके मनमें श्रद्धा होनेकी कामना करते हैं तो न्यायसंस्थके प्रति श्रद्धाके हेतु न्यायसंस्थाके व्यवहार औचित्यपूर्ण होना अत्यावश्यक हो जाता है।
“ न्यायका अधिष्ठान ’’ जिसे हम मोटे तौरपर लीगल फिलॉसफी कह सकते हैं, वह विषय हमारी वर्तमान शिक्षाप्रणालीमें पढाया नही जाता. परंतु कोई भी नया कानून बनाते समय इस प्रश्नका विचार अवश्य करना पडता है कि उस कानूनका न्यायिक-सामाजिक अधिष्ठान क्या है। यह अधिष्ठान उस उस कानूनके आमुख अर्थात Preamble में प्रतिबिंबित होता है। इसी कारण विधीकी पढाईमें अधिष्ठान नामक एक विशेष विषयका अ्ंतर्भाव होना आवश्यक है। इसके बिना आज हमारे विद्यार्थियोंकी न्यायके प्रति सही निष्ठा नही बन पाती - वे न्यायके तत्वज्ञानको नही समझते, न्याय उनके संस्कारका भाग नही बनता।
विधी शिक्षामें अधिष्ठान और ज्यूरिसप्रूडन्स यो दो अलग विषय समझने पडेंगे। वैसे तो हमारे देशमें विधि विषयकी सिलेबसमें ज्यूरिसप्रूडन्स नामक एक विषय भी होता है। लेकिन जूरिसप्रूडेंस और अधिष्ठान इन दोनोंमें बहुत अंतर है। जूरिसप्रूडेंस विषयके अंतर्गत विभिन्न देशोंमें कानून बनानेके इतिहास, कानूनका शास्त्र, नियमावली, कानूनी धाराओंकी समग्रता इत्यादिका विचार किया जाता है। लेकिन जब हम न्यायिक अधिष्ठानकी बात करते हैं, तो हम शास्त्र या इतिहाससे ऊपर कुछ गहन प्रश्नोंकी बात करते हैं यथा कानून क्यों बनाना पड़ता है, कानून की रखवाली कैसे होती है, उसकी उपयोगिता कैसे देखी जाती है कैसे बढ़ाई जाती है, और कालगतिके कारण उसमें क्या बदलाव आवश्यक होते हैं। इन बदलावोंके लिए आवश्यक शर्तें या आवश्यक चर्चा इत्यादि कौन करता है। ये सभी प्रश्न फिलॉसफी विषयके अंतर्गत आते हैं लेकिन दुर्भाग्यसे इन प्रश्नोंकी बाबत हमें ना तो कानूनकी शिक्षामें पढ़ाया जाता है और ना ही फिलॉसफीकी शिक्षामें। हमारे यहां कहा गया है कि कोई भी कार्य करते समय वहां भगवानका अधिष्ठान होना चाहिए भगवत गीतामें भी किसी कार्यके लिए अधिष्ठान, कर्ता, करण, प्रयत्न तथा दैव इन पांचको आवश्यक माना गया है, जिसमें सबसे प्रथम स्थानपर अधिष्ठान है। इसी प्रकार कानून बननेके लिए भी अधिष्ठानकी आवश्यकता होती है।
आइए देखें कि कानून क्यों बनाते हैं। कानूनकी सर्वप्रथम उत्पत्ति कैसे हुई? मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। आदि कालमें गुहामें रहने वाला मानव यह समझ गया कि अकेले रहनेकी अपेक्षा अगर वह एक समूह बना कर रहे तो उसके फायदे अच्छे होते हैं। सबसे बड़ा लाभ यह है कि एक व्यक्तिके द्वारा प्राप्त ज्ञान तीव्र वेगसे और अच्छे ढंगसे दूसरोंतक पहुंचाया जा सकता है। इससे ज्ञानका प्रसार बढ़ता है, उसीके साथ-साथ कलागुणोंका प्रसार, संचय किए गए धन समृद्धि का उपयोग इत्यादि बातें भी सामाजिक समूह बनानेके कारण सुकर होती हैं। इस प्रकार पहले समूहकी रचना हुई। समूहसे समाजतकका प्रवास मानव जातिकी उन्नति एवं समृद्धिका प्रवास है। मनुष्यने यह जाना कि कुछ खास गुण अगर समूहके प्रत्येक व्यक्तिमें संस्कारित किए जाएं, अंकुरित किए जाएं, तो समाजकी उन्नति अधिक गतिसे होगी। उदाहरण स्वरूप सत्यवादिता जिसके कारण ज्ञानका प्रसार अधिक गतिसे होता है और समाजमें सुव्यवस्था बनी रहती है। अतिथिसत्कारका गुण जिस कारण समाजके प्रत्येक व्यक्तिकी अन्न सुरक्षा सुनिश्चित की जाती है। यह सारे गुण शिक्षा एवं संस्कारके माध्यमसे लोगोंके मनमें उतारे जाते हैं। लेकिन ऐसा कोई भी गुण समाजका स्वभाव बन जाए, समाजके व्यक्तियोंका स्वभाव बन जाए, उनके स्वभावमें उतरे इसके लिए भी सैकड़ों वर्षोके कालकी आवश्यकता हो सकती है। इसी प्रकार जब कोई समाज इन गुणोंको धारण कर लेता है तब समाजसे उन गुणोंको नष्ट करना भी उतना ही अधिक समय ले लेता है। अर्थात दीर्घकालिक आचरणके कारण और कई पीढ़ियोंके संस्कारके कारण जो गुण समाजमें उतरते हैं वे उतना ही अधिक चिरस्थाई होते हैं और उन गुणोंके कारण समाजमें अपने आप एक प्रकारका डिसिप्लिन निर्माण होता है।
कई बार परिस्थितियां ऐसी होती हैं जब समाजके नेता यह सोचते हैं कि कोई गुण समाजमें अल्पकालमें ही उतरना आवश्यक है। उसके लिए हम सैकड़ों वर्षोकी प्रतीक्षा नहीं कर सकते। तो ऐसा गुण समाजमें तत्काल प्रभावसे उतर सके इसके लिए नियमोंकी रचना करनी पड़ती है और उन्हें कानूनका रूप दिया जाता है। उस उस कालमें राज्य शासन चलानेका नेतृत्व जिसके कंधे पर होगा वह इस प्रकार कानून बनाकर समाजके अंदर उन गुणोंको उतारनेका प्रयास करेगा, जिसके लिये कानूनके अभावमें कई वर्ष लग जायेंगे। इसीलिए यह कहा जाता है कि जब कोई भी कानून समाजके नॉर्मल जीवनका अंग बन जाता है, समाजका गुण बन जाता है, तब उस कानूनकी आवश्यकता नहीं होती क्योंकि समाज स्वयं ही उसका पालन करता है। किसी कानूनकी सफलताका मापदण्ड है कि वह संस्कार बन जाये और उस कानूनकी आवश्यकता ही न रहे।
कानून बनानेका दूसरा मंतव्य या उद्देश्य भी है। कानून तोड़नेवाले व्यक्तिको अगर सजा देनी है,, दंड देना है, तो दंडकी घोषणा करने वाले व्यक्तिके पास ऐसा नैतिक अधिकार होना आवश्यक है। अन्यथा ऐसा दंड विधान समाजमान्य नहीं हो सकता है क्योंकि तब जिसकी लाठी उसकी भैंस वाला कानून ही लागू होगा। इसीलिए जब कानून बनाया जाता है तो यह भी बताना पड़ता है कि उसके भंग होने पर सजा क्या होगी और सजा सुनानेका अधिकार किसे होगा। जिन्हें इस प्रकार अधिकार दिया जाता है उन्हें यह याद रखना पड़ेगा कि अधिकार उनके पास स्वयंभू रीति से नहीं आया है बल्कि समाजने उन्हें उस प्रकारका अधिकार दिया है अर्थात यह समाजकी ओरसे प्रदत्त अधिकार (Delegated Power) उनके पास आया है।
हमारी विधि की पढ़ाईमें लीगल फिलॉसफी या अधिष्ठानकी बात क्यों उठनी चाहिए इसके लिये कुछ केस स्टडीज गिनानेके पश्चात मैं सर्वाधिक महत्वपूर्ण कारण पर आती हूँ। अधिष्ठानका विषय पढाईमें हो तो विद्यार्थियोंको विभिन्न केसेससे जुडे नीति व नियमोंकी अवधारणाएँ -- सही या गलत – समझमें आनी लगती हैं वरना एक बार पढाई समाप्त कर वकीलीमें लगनेके पश्चात तो क्वचित ही किसीको इन बातोंकी फुरसत मिलती है।
१. प्रायः हम कोर्टकी भाषा व भूमिका पढते हैं “It has been brought to our notice” -- अर्थात जबतक कोई गुहार लगानेवाला ना हो तबतक कोर्ट या पुलिस या प्रशासन अंधी बनी बैठी रहती है। जिसने गुहार लगाई, कई बार उसे ही दौडधूप कर अपनी बात सिद्ध करनी पडती है, अन्य सभी मानों भूल जाते हैं कि यदि इसके प्रति अपराध करनेवाला आज बच गया तो कल वह आपपर ही कोई अपराध कर सकता है। तो इस दोषके निवारणकी चर्चा पाठ्यक्रममें लानेके लिये अधिष्ठानका विषय होना चाहिये।
२. प्रायः अपराधकी हर घटनामें आईपीसीकी कई धाराएं लगती हैं जिनमेंसे कुछ गंभीर और कुछ सरल या हल्की सजावाली होती हैं। सरल धाराओंकी जांच अत्यंत कम समयमें पूरी कर कमसे कम उस अपराधकी सजा तत्काल दिलाई जाय तो समाजपर कानूनका अंकुश प्रभावी रहेगा। लेकिन जो बड़ी सजा वाली धारा होती है उसकी जांचमें काफी समय लग जाता है और कई बार जाँच संतोषजनक नहीं हो पाती। फिर सारी धाराओंकी एक साथ ही सुनवाई होती है। उस दौरान छोटी धाराओं से ध्यान हट जाता है। केस भी लम्बी खींचती है। पूरे समय अपराधी खुलेआम घूमता है और समाजमें अपना भय फैला व दबदबा फैलाकर रखता है। कई केसोंमें जमानतपर बाहर घूम रहा अपराधी गवाहोंकी हत्याएं भी करता है ताकि उसका पहला गुनाह साबित न हो सके। तो इस नियमको बदलकर क्या हम ऐसा नियम ला सकते हैं जिसमें एक ही घटनाक्रममें घटने वाले छोटे गुनाहोंको तत्काल रुपसे सुनवाई कर साबित हुआ तो सजा भी तत्काल आरंभ कराई जाए और उसी दौरान बड़े गुनाहकी जांच होती रहे। आजके नियमोंमें यह बदलाव किया जाए या ना किया जाए इसकी चर्चा ही आज नहीं हो पाती क्योंकि इसे पढ़ाईका विषय नही बनाया गया। यदि ऐसी अधिकाधिक चर्चाएँ कॉलेजमें केस स्टडीके रूपमें हों तो बड़ी संख्यामें विद्यार्थियोंका ध्यान इस ओर खींचा जा सकेगा। इससे युवा वर्गके साथ समाजके गुण दोषोंकी चर्चाका सिलसिला चल पडेगा। इस प्रकारकी बहुचर्चित कुछ केसोंमें तो बीससे तीस वर्षतक सुनवाई पूरी नही हो पाई और तबतक या वर्तमानमें भी आरोपी निर्दोष ही कहे गये हैं यथा BMW केसमें नंदा, शराबके नशेमें गाडी चलाते हुए फुटपाथपर सो रहे लोगोंको कुचलकर वध करनेका आरोपी सलमान खान अथवा राजस्थानमें चिंकारा हत्या प्रकरणमें सलमान खान तथा कई बॉलीवुडके सितारे इत्यादि। सर्वाधिक चर्चित मुंबईपर पाकिस्तानी आतंकी हमलेके आरोपी अजमल कसाबपर भी मुकदमा इतना लम्बा खींचा और उसे फांसी देनेमें भी इतना समय लगा कि उतने अन्तरालमें कुछ अनुचित होनेका डर हमेशा बना रहा।
३. लगभग दो सौ वर्षपूर्व अंगरेजोंने इंडियन एव्हिडन्स ऍक्ट बनाया जो स्वतंत्र भारतमें जसका तस लागू किया है। इसमें किसी साक्ष्यदाताको कोर्टमें बुलाने हेतु समन्स भेजा जाता है। एक जागरूक व्यक्ति कहेगा कि यदि मेरी साक्ष्य अपराधकी निश्चिती होनेमें सहायक है तो कोर्ट मुझे सम्मानके साथ बुलाये। मान लिया कि अंगरेजोंसे भारतियोंको सम्मानकी उम्मीद नही थी। लेकिन आज भी इस समनकी भाषा वैसी ही अहंकारी संवेदनाशून्य और धमकियोंभरी है। तो साक्ष्य देकर समाजमें सुव्यवस्थाको बढावा देनेवाले व्यक्तिसे किस प्रकारकी भाषाका प्रयोग हो, यह प्रश्न कहाँ पढाया जाता है?
४. जेसिका लाल खूनके केसमें सेशन जजने कहा था कि इस इन्वेस्टिगेशनमें पुलिसने जानबूझकर कमजोर कड़ियां छोड़ी हुई हैं। इसलिए मेरे सामने जो आरोपी है उसके गुनाहोंकी समझ पा लेनेके पश्चात भी हुए भी उसे निर्विवाद रूपसे गुनहगार घोषित करना संभव नहीं है। जांचकी त्रुटियोंके बीच उसे निरपराध ही कहना पडेगा। इसी तरहके जजमेंट और भी कई आये। जनमतके आक्रोशके अंतर्गत जेसिका लाल प्रकरणकी दोबारा जांच करवाई गई, केसको दोबारा सुना गया और अंततः दोषियोंको सजा भी हुई। लेकिन ऐसा हर बार नहीं होता। इसलिए इस बातकी चर्चा हमारी युवा पीढीके साथ हमारे पाठ्यक्रममें होनी चाहिए कि पुलिस यंत्रणा किस प्रकार जांच करती है, जांचमें कमियां कैसे आती हैं और उन्हें दूर करनेकी क्या व्यवस्था हो। पुलिस किस प्रकार कार्य करती है कैसे दबाव पुलिसपर होते हैं इत्यादि। कानूनी अधिष्ठानका विषय पाठ्यक्रममें लानेपर ऐसी केस स्टडीज चर्चामें आती रहेंगी।
न्यायदानका मूल उद्दिष्ट क्या है या किसी कानूनका मूल उद्दिष्ट क्या होता है? हम प्रायः देखते हैं कि जब किसी परिस्थितीमें योग्य कानूनके अभावमें पूरी तरह न्याय मिलना असंभव या कठिन लगता हो तो उस केसमें सुप्रीम कोर्टका दिया गया निर्णयही कानून मानकर प्रशासन अपने व्यवहार चलाये और सरकार यथाशीघ्र ऐसा समग्र कानून बनाये जो वैसी परिस्थितियोंमें न्याय दिला सके। इस तत्वके अनुसार कई केसोंमें सुप्रीम कोर्टके निर्णय दिये जाते हैं जो समग्र कानूनके बननेतक कानूनका काम करते हैं। लेकिन उनसे पूर्ण न्याय होनेलायक सुधार नही हो पाता है।
हमारे देशकी वर्तमान न्यायप्रणाली ब्रिटिशोंद्वारा लाई गई है। इसका सबसे अनिष्ट भाग यह है कि वकीलोंकी निष्ठा सत्यके प्रति न होकर अपने क्लायंटके प्रति होती है और इसे न्यायोचित कहा गया है। ऐसे वकील क्या वाकई न्यायकी प्रतिष्ठा रखनेमें समर्थ कहे जा सकते हैं? कोर्टकी दीवारपर लिखा होता है सत्यमेव जयते और वकीलका चॅलेंज होता है कि मेरे रहते सत्यको विजयी नही होने दूँगा। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि भारतीय वकील व न्याय व्यवस्था अंगरेजोंकी विकसित की गई प्रणालीसे चलती है न कि भारतीय मूल्योंसे। इससे तत्काल हानि यह होती है कि केसका निर्णय देरसे आता है, अपराधीके पास धन हो तो उसके छूटनेकी संभावना बढती है। सबसे बडा प्रश्न यह है कि वकील व न्यायाधीश भी इसी समाजका अंग हैं और समाजमें अपराधी तत्व बढनेसे आनेवाला संकट उनके लिये भी उतना ही प्रासंगिक है। चरितार्थके लोभमें वकील इसे भी भूल जाते हैं। इसकी चर्चा केवल अधिष्ठान विषयके अंतर्गत हो सकती है। भारतीय मूल्य कहते हैं कि प्रायश्चित्तसे पाप धुलते हैं इसलिये यदि क्लायंट दोषी हो और यह बात वकीलके संज्ञानमें आये तो वकील केवल इतनी सहायता करे कि सजा कम हो, वह भी तब यदि आरोपीको अपने कृत्यपर पछतावा हो। तो अधिष्ठान विषय पढाईमें लाये बिना यह चर्चा कहाँ हो सकेगी?
वास्तव यह है कि अंगरेजोंद्वारा भारतमें जमाई गई तीनों पद्धतियाँ - स्वास्थ्यकी, शिक्षाकी और न्यायकी - इन तीनोंका उपयोग आज रोजगार बढानेके रूपमें मिल रहा है लेकिन उनसे न देशको सही तरीकेसे आरोग्यलाभ होता है न शिक्षालाभ न न्यायलाभ। इन तीनों पद्धतियोंपर पुनर्विचारकी आवश्यकता है। लेकिन वह तभी संभव है जब हम उनके द्वारा बिछाये आर्थिक जालको समझें और उसे तोडनेकी पहल करें। आगे संकटोंकी चर्चामें यह विषय लिया गया है।
कुछ इसी संदर्भसे सुप्रीम कोर्टके द्वारा 1992 में उन्नीकृष्णन नामक एक विद्यार्थिनिके केसमें दिये गये निर्णयकी चर्चा महत्वपूर्ण है। उन दिनों प्राइवेट शिक्षा संस्थाओंमें कॅपिटेशन फी के नामसे बडी मात्रामें बिना रसीदके लाखों रुपये फीस के लिये वसूले जाते थे। शिक्षण सम्राट नामक शब्द प्रचलित हो गया था। ऐसी व्यवस्थाके विरुद्ध निर्णय देते हुए तथा उन्नीकृष्णनका उच्च इंजिनियरिंग शिक्षा पानेका संवैधानिक अधिकार मान्य करते हुए सुप्रीम कोर्टने महत्वका निर्देश देते हुए सुनिश्चित किया कि अधिक फीस देकर प्रवेश लेनेवाले प्रत्येक विद्यार्थीके साथ संस्था मेरिटवाले एक विद्यार्थीको सरकारी फीसपर प्रवेश दे। अर्थात एक धनी विद्यार्थीके पीछे एक गुणी विद्यार्थीको भी अधिक फीसका बोझा उठाये बिना पढनेकी सुविधा हो। इसका कारण बताया कि यदि ऐसा नही किया गया तो समाजमें एक अनीतिकारक संकेत जाता है कि धनके आगे गुणोंका मोल तुच्छ है। इसी तत्वको आगे बढाते हुए कुछ अन्य निर्देश भी दिये। दुर्भाग्यसे इस केसकी चर्चा समाजमें नहीके बराबर हुई। कालान्तरमें अन्य रास्तोंसे और धनकी सत्ताके बलपर जब शिक्षणसम्राटोंने इस निर्देशसे छुटकारा पानेके लिये फिरसे कोर्टके दरवाजे खटखटाये तो सरकारने इन सम्राटोंके पक्षमें मत देकर पहले निर्देशको व्यर्थ कर दिया।
ऐसेमें महत्वका प्रश्न उठता है कि हमें अपनी अगली पीढी कैसी चाहिये? क्या युवावर्गके मनमें पढाई करते समय यह आश्वस्ति नही होनी चाहिये कि यदि उसने लगन व परिश्रमसे पढाई की तो उसकी निर्धनता उसकी उच्च शिक्षामें बाधक नही बनेगी। मेरे देखनेमें ऐसे लाखों मेधावी विद्यार्थी हैं जो सुप्रीम कोर्टके उन निर्देशोंके कारण १९९२से २००४ के बीच १२ वर्षके कालमें भ्रष्टाचारके रास्ते जाये बगैर अपनी मेरिटके कारण अच्छे कॉलेजोंमें अच्छी शिक्षा पा सके और एक सही संस्कार उनके मनमें पनपा कि समाजमें बुध्दिमत्ता हो तो भ्रष्टाचारको स्वीकारे बिना भी उन्नति हो सकती हो।
लेकिन २००४ के बाद जो विद्यार्थी फिर एक बार उच्च शिक्षाके लिये भ्रष्टाचारके रास्ते मोटी फीस देनेको मजबूर हुए हैं वे समाजके प्रति मनमें कितना आक्रोश व क्रोध लेकर चल रहे हैं उसकी कल्पना या चर्चा कहीं नही होती। तो क्या हम ऐसी आक्रोशभरी अगली पीढियाँ चाहते हैं?
समाजकी कई पीढियोंपर अच्छे या बुरे संस्कार बननेमें हमारी न्यायव्यवस्थाकी भी बडी भूमिका है। इस बातपर यदि हम ध्यान नही देते तो अच्छे संस्कार कर सकनेवाली एक प्रभावी प्रणालीको हम खो देते हैं। यही कारण है कि न्यायसंस्थाके अधिष्ठानकी पढाई हमारे पाठ्यक्रममें होनी चाहिये। न्याय व श्रद्दाके संबंधको भी उसमें शामिल करना चाहिये।
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