Sunday, July 18, 2021

कोहम् से सोहम् तक सलिल गेवालीकी पुस्तकके लिये लिखी भूमिका

 

GEWALI की पुस्तक के लिये लिखी भूमिका 

कोहम् से सोहम् तक

कोटि कोटि वर्षोंपूर्व कभी इस ब्रह्माण्डमें पृथ्वी नामक एक नया ग्रह बनता है और सूर्यमालिकामें अपनी कालक्रमणा करने लगता है। इसके लाखों वर्षोंपश्चात् किसी समय यहाँ जीवसृष्टिका उदय होता है उस अपरिमित जीवसृष्टिका एक जीव है मानव अन्य सजीवोंमें प्रकट होनेवाले उसी चैतन्यकी धरोहर लिये। लेकिन वैचारिक क्षमतामें शायद उन सबसे कई युग, कई योजन आगे। यही मानव विचार करता है और पूछता है --

क्या मेरा यह चैतन्य जीवसृष्टिके साथ अवतरित हुआ या कि वह ब्रह्माण्डमें पहलेसेही विचरण करता था ?

मानवकी विचार-क्षमतासे आरंभ होती है इस प्रकारके प्रश्नोंकी मालिका। पहला स्वाभाविक प्रश्न है कोsहम् -- मैं कौन हूँ और इसका अन्तिम सत्यात्मक उत्तर है सोsहम् -- मैं वही हूँ।

वही याने कौन ?और मैं कौन से आरंभकर मैं वही हूँ इस ज्ञान तक पहुँचनेकी कालगणना कितनी लम्बी है ? उस ज्ञानतक पहुँचने के लिये कितनी अधिक वैचारिक प्रगल्भता चाहिये ? भारतीय दर्शन बताता है कि मैं कौन से आरंभ होनेवाला यह प्रवास विचारोंसे प्रेरित तो है परन्तु इसकी समाप्ति विचारोंसे नही बल्कि अनुभूतिसे होती है। भारतीय संस्कृति बताती है कि अनुभूति पानेे लिये गुरू ही आधार है -- प्रथम गुरु स्वयं श्री

शिव हैं। इसी लिये गुरुकी महिमा है -- गुरुर्साक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।

यह अनुभूति जब एक व्यक्तिकी थाती बन जाती है तब क्या वह वैश्विक भी हो जाती है ? क्या वह सार्वजनिक साझा की जा सकती है ? नही। हर मनुष्यको अपनी यात्रा स्वयं करनी है -- प्रश्नसे विचार तक और विचारसे अनुभूति तक -- लेकिन हाँ, एक गुरु जो अनुभूति तक पहुँच चुका है, वह साधकको राहकी कठिनाईय़ाँ और पडाव (विरामस्थल) बता सकता है, आरंभमें हाथ पकडकर थोडी दूर चला सकता है। और यदि गुरु समर्थ हो तो साधकको अनुभूति की कगार तक ले जा सकता है। लेकिन जो अन्तिम सत्य जानना है उसके लिये साधकको स्वयं ही पूरे प्रयास लगाकर वहाँ पहुँचना पडता है। वह चैतन्य जो सभी जीवोंमें विराजमान है, यह उस चैतन्य का गुण है कि साधकको अनुभूतितक प्रेरित करता रहे। लेकिन इस राहके पडाव भी लगभग अनन्त हैं। सामान्य जीव कुछको पार कर ही लेता है। और उसी कालमें वैचारिक प्रगल्भता बढती चलती है जो स्वाभाविक रूपसे आधिभौतिक उँचाइयाँ भी देती है जैसे संगीत, गणित, खगोल, निसर्ग, राज्यशास्त्र इत्यादि।

इस प्रकारका दर्शन भारतमें उदित हुआ। उसे पूर्णता आते आते भी सहस्त्रों वर्ष लग गये। उसके विषयमें भगवद्गीता का कथन -- कालेनेs महता योगो नष्टः परंतप कि हे परंतप, कालके प्रतापसे वह योग नष्ट हो गया था (और मैं आज पुनः उसे उजागर कर तुम्हें बता रहा हूँ) क्या वह एक ही बार नष्ट हुआ या कई कई बार हुआ? जो भी हो, लेकिन वह दर्शन और जीवात्माके सोsहम् तक पहुँचनेके पडावोंका जो वर्णन अलग-अलग अनुभूति-सिद्ध पुरुषोंने किया है, वही पूरे भारतवर्षकी थाती है --वही हमारी संस्कृति है। पर इस बातको वही समझेंगे जो इसे गुनेंगे।

वह थाती भारतीय संस्कृतिके इस प्रदीर्घ प्रवासमें वह टिकी रही। ज्ञान भले ही विलुप्त होता रहा हो, परन्तु संस्कृति बनी रही। लेकिन क्या आज यह विलुप्तिके कगारपर है? यदि हाँ, तो कितना समय है अपने पास कि इसकी फिसलनको रोक सकें और इसे पुनः दृढमूल करें?

लेकिन उससे पहला प्रश्न यह आता है कि क्या संस्कृति आधुनिकताके विरुद्ध होती है? क्या भारतीय संस्कृति आधुनिकता की विरोधी है ? वह आधुनिकता जिसकी चाहना हम सबको है। क्या भारतीय संस्कृतिके नष्ट होनेसे ही भारतके लिये आधुनिकता और विकासके द्वार खुलेंगे ? वैसा विकास चिरस्थायी होगा या हमारी संस्कृतिकी नींवपर रचा गया विकास चिरंतन होगा?

यह प्रश्न आज हम सबके मननका विषषय होना चाहिये।

जिज्ञासाकी बात उठी तो एक सूत्रमें कहा गया -- अथातो ब्रह्मजिज्ञासा... उस ब्रह्मको जानना, अनुभूत करना -- एक तरहसे पा लेना और उसीमें एकरूप हो जाना यह चरम जिज्ञासा भारतीय मनीषियोंके मनको तडपाती रही है।

शतपथ ब्राह्मण ग्रंथके ऋषि याज्ञवलक्यने इस विषयमें समझाया है ‘सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्यंः’ (शतपथ ब्राह्मण ---१७) अर्थात जो मनुष्य सत्यके आचरण स्वरूप व्रतको करते हैं वे देव कहाते हैं और जो असत्यका आचरण करते हैं, उनको मनुष्य कहते हैं। इसलिए देवताओं द्वारा बताई वेदवर्णित विधिसे यज्ञादि किया तो उसमें ऋत् अर्थात सत्यका भाव होगा और उसमें श्रद्धाका औचित्य रहेगा।




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