Sunday, July 18, 2021

अध्याय २३ अंधश्रद्धा शब्दका बवाल

 

अध्याय २३

अंधश्रद्धा शब्दका बवाल


अंधश्रद्धा एक स्वतःविरोधी -- self contradictory शब्द है संस्कृत भाषाकी विशेषता है कि किसी भी शब्दका सही अर्थ जाननेके लिए हम उसकी व्युत्पत्तितक पहुंच सकते हैं-- अर्थात उन मूल शब्दोंतक जिनसे हमारे शब्दकी उत्पत्ति हुई। व्युत्पत्तिका अर्थ है उत्पत्तिके संबंधमें विशेष जानकारी।

हम पीछे देख चुके हैं कि श्रद्धा शब्द भी दो शब्दोंके जुडनेसे बना है श्रत्का अर्थ सत्य लिया जाता है और धा सूचित करता है धारणको। तो श्रद्धा शब्दका गठन ही इस प्रकार हुआ है कि उसमें सत्य अंतर्निहित है अब जिसके साथ सत्य शब्द जुड़ा हो वहां अंधका भाव ही नहीं सकता अतः हम अंधके साथ सत्यको नहीं जोड़ सकते वह स्वयं ही स्वयंका विरोधी शब्द बनता है।

इस प्रकार हम देखते हैं कि संस्कृत भाषाकी शब्द रचनाके नियमोंके अनुसार संस्कृत अथवा उससे उत्पन्न किसी भी भारतीय भाषामें अंधश्रद्धा जैसा कोई शब्द नहीं हो सकता है जब हम अपने पुरातन ग्रंथोंको देखते हैं तो कहीं भी अंधश्रद्धा शब्दका प्रयोग हम नहीं पाते हैं प्रश्न उठता है कि यह शब्द आया कहांसे इसका एक संभावित उत्तर है कि यह शब्द बीसवीं सदीमें कभी भारतमें आयातित हुआ होगा इस विचारका भी कारण है बीसवीं सदीके आते-आते भारतमें अंग्रेजी भाषाकी पढ़ाई और विशेषकर उच्च शिक्षाका माध्यम अंग्रेजी हो गया था समाजमें प्रतिष्ठा और सम्मान वही लोग पा सकते थे जो अंग्रेजी जानते हों, अंग्रेजी बोलते हों और अंग्रेजीके शब्दोंकी व्याख्या करनेमें पंडित हों। तो अपनी बात कहनेके लिए विद्वान पंडितोंने अक्सर अंग्रेजी भाषाका आश्रय लेना प्रारंभ किया। अंग्रेजीमें दो शब्द आते हैं फेथ और ट्रस्ट ट्रस्ट शब्द सामान्यतया दो व्यक्तियोंके बीचका संबंध बताता है जबकि फेथ शब्द किसी बड़े व्यक्तित्वके लिए अथवा ऐसे वस्तुके लिए व्यक्त होता है जिसके लिये पूर्वसंचित ज्ञान होनेकी आवश्यकता नहीं होती उदाहरणस्वरूप यह कह सकते हैं कि हमें ईश्वरके दयालु होनेमें फेथ है हम नहीं कहते कि हमें ईश्वरके दयालु होनेमें ट्रस्ट है लेकिन हाँ, किसी व्यक्तिकी ईमानदारीपर हम ट्रस्ट करते हैं, फेथ नही।

तो भारतके इन पंडितोंने सोचा कि अंग्रेजी शब्द फेथके लिए भारतीय शब्द श्रद्धा प्रयुक्त हो सकता है उन्होंने श्रद्धा शब्दकी व्यापकता समझनेका प्रयास नही किया, बस प्रचारमें गया कि फेथ ही श्रद्धा है। फेथके साथ अंग्रेजी भाषाका दूसरा शब्द है ब्लाइंड फेथ अर्थात् कोई प्रश्न पूछे बिना किया जानेवाला फेथ। वैसे चीरफाडकर देखा जाय तो फेथ शब्दमें भी प्रश्न पूछनेका अधिकार नकारा गया है -- फिर भी अंगरेजीमें यह द्विरुक्तिपूर्ण शब्द भी है -- ब्लाइंड फेथ। तो विद्वानोंने संस्कृत अथवा भारतीय भाषाओंके लिये नया शब्द गढ़ा - अंधश्रद्धा इस शब्दकी एंट्रीके साथ ही एक नई फॅशन चल पड़ी कि भारतमें चली रही कई परंपराओंको समझे बिना अंधश्रद्धा कहकर ठुकराया जाये। यह फॅशन भी स्वयंके लिए सोशल सम्मानकी व्यवस्था करनेके लिये अच्छा तरीका था एक दो कारण और भी थे। लेकिन कुल नतीजा यह रहा कि अंधश्रद्धा केवल अनुवादका शब्द नही रहा वरन उसके माध्यमसे एक अलग सामाजिक व राजनैतिक मानसिकता भी प्रसारित होने लगी।

अंग्रेज शासक आरंभसे ही भारतीय परंपराओंके विषयमें साशंक थे उनकी दृष्टिमें भारत एक सपेरों और जादूटोना करनेवाला देश था। यहांकी धार्मि परंपराओंसे उन्हें इसलिये आपत्ति थी कि उनकी दृष्टिमें यह पागा परंपराएं थी। अति पुरातन तीसरी सदिमें तब ख्रिश्चन बन चुके रोमनोंने अपने साम्राज्यके विस्तारके दौरान पहले बलाढ्य ग्रीस अनंतर यूरोपीय ट्राइब्जको हराकर उनकी ऐसी तमाम परंपराओंको नकारा था, जिसमें प्रकृतिपूजा अथवा मूर्तिपूजा हो। ऐसे कई हजार गुरु इत्यादि मार दिये गये थे जो ग्रीक मंदिरोंमें अथवा पुस्तकालयोंमें शिक्षाका काम करते थे।

"अंधश्रद्धा"- इस बवालवाले शब्दकी सटीक उपज समझनेके लिये हम चलते हैं - १७५७ में, जब प्लासीकी लडाई जीतकर अंगरोजोंने भारतमें पैर पसारना आरंभ किया। भारतकी प्रकृतिपूजा, व मूर्तिपूजा उनके लिये गँवारपन था जिसे सदियों पहले रोमन सम्राटोंने यूरोपसे निकाल बाहर किया था। उन्हें यहाँकी हर धार्मिक बातपर दिक्कत थी और उन बातोंको ही वे भारतियोंकी हारका कारण मानकर उनपर हंसते थे। यहाँकी कोई बडाई उन्हें स्वीकार्य नही थी।

उस दौरान विश्वभरमें चेचक महामारीका बडा प्रकोप था। हर वर्ष युरोपमें लगभग ४,००,००० लोग मर रहे थे (विकिपीडिया देखें)। भारतमें भी इसका प्रकोप था और ब्रिटिश सैनिक इससे मर सकते थे। अंगरेजोंने देखा कि भारतवासी तो चेचकको शीतलामाता कहते हैं, मंदिरोंमें पूजते हैं। और तो और, काशीके कई गुरुकुलोंके शिष्य हर वसंत ऋतुमें गाँव गाँव जाकर बच्चोंको शीतलामाईका प्रसाद बाँटते हैं। यह प्रसाद वास्तवमें एक बहुत ही अधिक नियमपूर्वक विकसित की गई टीकाकरणकी पद्धति थी (इस विषयमें मेरा एक विस्तृत लेख “शीतला माताके प्रसंगसे” देखा जा सकता है)। माननीय धरमपालजी की लिखी पुस्तक "१८ वीं शताब्दीमें भारतमें विज्ञान एवं तंत्रज्ञान" में धरमपालजी ने दो उद्धरण दिये हैं -- पहला आर. कोल्ट द्वारा ओलिवर कोल्ट को, १० फरवरी १७३१ को लिखे पत्रका संदर्भ है जिसमें बंगालके टीकाकरण पद्धतिका विवरण दिया है। यह वही काशी गुरुकुलोंद्वारा चलाई पद्धति है। दूसरा उल्लेख एक विस्तृत भाषण का है जो डॉ. जॉन झेड. हालवेल ने, लंदनके कॉलेज ऑफ फिजीशियन के पदाधिकारी और सदस्योंके सम्मुख, वर्ष १७६७ में दिया है। भाषण का विषय था ‘भारत में चेचक की परंपरागत टीकाकरण पध्दति’। इससे पता चलता है कि प्लासीकी लडाईके पहले और उसके तुरंत बाद भी ब्रिटेनके किसी किसी भागमें भारतीय टीकाकरणकी पद्धति तथा कई अन्य पद्धतियोंके विषयमें उत्सुकता थी और वे उन्हें अवैज्ञानिक नही मानते थे।

लेकिन अधिकतर अंगरेज, चाहे वे भारतमें रह रहे अंगरेज शासक हों या इंग्लंडवासी अंगरेज हों, उन्हें इस पद्धतिपर कोई विश्वास नही था और दूसरी ओर चेचक महामारीका डर भी था। ऐसेमें जब १८०२ में जेनरने गायके चेचकसे वैक्सीन बनाई तो अंगरेजोंके लिये वही पत्थरकी लकीर बन गई। उसे भारतमें लागू करनेके लिये यहाँकी पद्धतिको पूरी तरह ध्वस्त करना आवश्यक था। अंगरेजोंने पहले भी कई प्रकारकी भारतीय उपचार पद्धतियोंको नये नये उभर रहे यूरोपीय मेडिकल शास्त्रके प्रचारमें बाधक जाना था जैसे आँखके उपचार, पीलीया, सर्पविष, इत्यादि। लेकिन चेचक एक महामारी थी और उसकी रोकथाममें श्रद्धाकी भी बडी भूमिका थी। उस श्रद्धाकी मानसिकताको भी ध्वस्त करना अंगरेजोंने आवश्यक समझा। इसी कारण चेचकके इलाजकी पद्धतिको अवांछित घोषित किया गया, इस विधीमें प्रयुक्त होनेवाले चेचकके भारतीय वैक्सीनको रखना या उसे बच्चोंपर लागू करना दंडनीय अपराध घोषित हुआ। साथ ही उस कालकी सारी पढाईकी पुस्तकों, सामाजिक लेखों आदिमें यह नया शब्द प्रचलित हुआ "अंधश्रद्धा"। अंगरेजोंको विश्वास था कि इस शब्दके प्रयोगसे किसी भी भारतीयकी श्रद्धापर आघात किया जा सकता है। उसमें आत्मग्लानि, अपराधबोध और अपनी पुरातनतापर लज्जाका भाव उत्पन्न किया जा सकता है।

हमारे प्राचीन वाङ्मयमें अंधश्रद्धा शब्द नही मिलता क्योंकि श्रद्धा शब्दको हमने सत्यके साथ, प्रकाशके साथ, ईश्वरके साथ, जोडकर समझा है। उससे भिन्न शब्द अश्रद्धा या तामसी श्रद्धा तो मिल जायेंगे लेकिन अंधश्रद्धा नही मिलेगा। अंगरेजीमें श्रद्धाके लिये अनुवाद है फेथ लेकिन श्रद्धा शब्दकी व्याप्ति और उससे प्रकट होनेवाले भावोंकी तुलनामें फेथ शब्दका अर्थ या व्याप्ति अत्यंत संकुचित है। इसलिये उनकी भाषामें ब्लाइंड फेथ जैसा शब्द हो सकता है। भारतमें अंधश्रद्धा शब्द बना ही था चेचककी रोकथामकी भारतीय पद्धतिकी तुलनामें जेनरकी पद्धतिको आगे लानेके लिये। उन्नीसवीं सदिके अंगरेजी लेखोंमें हमें अक्सर वर्णन मिलता है कि भारतीय कितने अंधश्रद्ध व अकृतज्ञ हैं जो जेनरसाहबके द्वारा दयालुतापूर्वक उपलब्ध कराये गये आविष्कार एवं टीकेको ठुकराते हैं।

मैं यह नही कहती कि सारी भारतीय परंपराएँ सही थीं -- कुछ कालबाह्य भी हो रही थीं। लेकिन उनके आधारसे तमाम परंपराओंको, पूरी संस्कृतिको नकारना एक जाल बिछाने जैसा था और कई भारतीय विद्वान इस जालमें फंसते हुए हम देख सकते हैं

इस प्रकार अंधविश्वास या अंधश्रद्धा शब्द रूढ हुए और भारतीयोंके मनमें कुंठा उत्पन्न करनेके लिये उनका उपयोग होने लगा तभी बीसवीं सदिके दौरान प्रचारमें आये नये कम्युनिजमके सिद्धान्तने धर्म शब्दपर भी प्रहार किया तो कम्युनिजमके सिद्धान्तसे आकर्षित भारतीय विचारकोंने भी धर्म शब्दका तथा उससे जुडी सभी संकल्पनाओंका विरोध आरंभ किया।

कुल मिलाकर भारतके भाषा-व्याकरणके अनुसार श्रद्धाके साथ अंध शब्द नहीं जोड़ा जा सकता क्योंकि श्रद्धा शब्दमें सत्य अंतर्निहित होता है लगभग यही बात विश्वास शब्दके साथ भी है इसी कारण हम अपने ग्रंथोंमें अंधविश्वास जैसा शब्द भी नहीं पाते

इक्कीसवीं सदिमें हमें इन बातोंकी कुछ समझ आने लगी है तो इस परिप्रेक्ष्यमें अंधश्रद्धा शब्दको सिरेसे नकारना होगा अश्रद्धा अंधश्रद्धाका अंतर समझना पडेगा। वह चर्चा अगले अध्यायमें करेंगे।

अंधश्रद्धा शब्दके प्रचलित अर्थमें कई विषय उठाये जाते हैं जिनपर वर्तमान विचारक अंधश्रद्धाका कारण देते हुए आक्षेप लगाते हैं। उन आक्षेपोंकी सत्यासत्यता का परीक्षण भी आवश्यक है।

. मूर्तिपूजा, अनुष्ठान, सोलह संस्कार इत्यादिको अंधश्रद्धा बताया जाता है। कबीरका दोहा है पाहन पूजै हरि मिले तो मैं पूजूँ पहाड-- वह तो अक्सर पाठ्यक्रममें डाला जाता है। वही कबीर जब रामके प्रति दास्यभावकी भक्ति ही प्रकट करते हैं तब कहते हैं --

''कबीर कुता रामका मुतिया मेरा नांऊ। गलै रामकी जेवड़ि, जित खैंचे तिऊ जांऊ।।

- मैं तो रामके पालतू कुत्तेसमान हूँ, गलेमें भक्तिकी डोरी डाल रखी है - जहाँ राम ले जावै उधरही खींचा चला जाता हूँ। अन्यत्र कबीर रामको अपना प्रियतम बताते हुए कहते हैं -

हरि मोरा पींव मैं हरिकी बहुरिया, राम बडे मैं छुटक लहुरिया।

लेकिन कबीर जैसे श्रेष्ठ संतकी दुहाई देकर मूर्तिपूजाको गलत बतानेवाले कबीरके इस सगुण भक्तिकी चर्चा प्रायः नही करते।

. मनःशांतिपर आक्षेप – वर्तमान युगमें यांत्रिक व तंत्रज्ञानकी अभूतपूर्व प्रगति हुई है। इसीके साथ व्यक्तियोंके बीच अंतर बढा है। आत्मीयता घट रही है और मानसिक तनाव बढता जा रहा है। मनुष्य ऐसे गुरुकी आशामें होता है जो उसे सही राह दिखाये। लेकिन पैसा ही जिनका लक्ष्य है ऐसे कई चतुर इसीका फायदा उठाते हुए स्वयंको गुरुसमान जताकर इसका बिझिनेस बना लेते हैं। उनका ज्ञान या साधनाका स्तर श्रद्धाके लायक न होते हुए भी अपनी चतुराईसे वे लोगोंको फांसनेमें सफल हो जाते हैं। इन्हें पहचानकर इनका विरोध होना आवश्यक है। गौरसे देखें तो अपनी चतुराईसे अन्य लोगोंके तनावकालमें उन्हें फांसनेका काम केवल गुरुका चोगा पहननेवाले व्यक्ति ही करते हों ऐसा नही है। लेकिन अंधश्रद्धा निर्मूलनका बीडा उठाये लोग कई बार गुरुओंकी आडमें पूरे हिंदू धर्मपर ही आक्षेप लगाते हैं। कई बार धर्मान्तरणको सही ठहरानेके लिये भी इस प्रकारके दुष्प्रचारका सहारा लिया जाता है।

कई डॉक्टर, सायकियाट्रिस्ट या बडे अस्पताल भी आशा व विश्वास दिलाकर तनावग्रस्त क्लायंटोंकी लूट करते हैं। इस श्रेणीके लोगोंने अंगरेजी शिक्षाप्रणालीमें कुछ वर्ष बिताकर कोई डिग्री हासिल की होती है। अतः उन्हें कानूनकी ओरसे एक अवधारणा और एक इम्युनिटी मिली है। अवधारणा यह कि वे अपने क्लायंटको सदा चर्चापूर्वक और सच्ची दवाई ही देंग, इम्युनिटी यह कि उनकी दवादारुके बाद यदि क्लायंटका कुछ भी नुकसान होता है तो इसके लिये वे जिम्मेदार नही माने जायेंगे। लेकिन यदि कोई अंगरेजी शिक्षाप्रणालीका सर्टिफिकेट लिये बिना ही उपचार कर रहा हो उसे बेइमान या ढोंगी कहनेका हक सबको है औौर उसकी कृतिको अंधश्रद्धा बताकर उसपर अंगरेजोंके जमानेमें बने कानूनोंकी सहायतासे कारवाई करना उचित माना गया है।

ज्ञातव्य है कि योग, ध्यान, जूते पहनकर खाना न खाना जैसे शुचिताके नियम, घरेलू औषधियाँ आदिकी कम या अधिक जानकारी पिछले सहस्रों वर्षोंकी परंपराके कारण प्रायः हर भारतीयको है - ये बातें किसी न किसीकी आजमाई होनेके कारण सामान्य भारतीय इसपर प्रश्नचिह्न नही लगाता। लेकिन इसका विरोध करनेवाली अंधश्रद्धा-निर्मूलन लॉबीके पीछे केवल मेडिकल पढाई करनेवाले नही हैं, बल्कि वे सारी संस्थाएँ भी हैं जो उन्हें प्रशिक्षण देती हैं। अर्थात इस शिक्षाका व्यापार जिनके हाथमें है। इस प्रकार अर्थार्जनके उद्देश्यसे चलनेवाली एक बडी प्रणाली अंधश्रद्धा का आक्षेप लगाकर अपना व्यापार बचानेकी योजना भी चलाते हैं।

. गरीब वर्गके तांत्रिक या अल्पशिक्षित लोगोंके सही इरादे या सही ज्ञानको भी हेय दृष्टसे देखकर उनकी ठिठोली करनेकी प्रथा भी चल पडी है -- यह केवल उनकी गरीबीके कारण होता है। इसका एक उदाहरण कोरोनाकालमें दिखा। कई टीवी चॅनेलोंने यह दृश्य दिखाया जब गांवोंके अस्पतालोंमें खाटोंकी कमी होनेपर गांवके ही कुछ लोगोंने पेडोंके नीचे खाटें लगाकर और डालीसे सलाइन बॉटलें लटकाकर लोगोंको सलाइन देना आरंभ किया था। इसपर सरकार तथा यह व्यवस्था उपलब्ध करानेवालोंको भरपूर क्रिटिसाइज किया गया। लेकिन किसीने उन बीमारोंको यह नही पूछा कि इस प्रकार जानका बचना और अस्पतालमें इलाजके अभावमें जान जाना -- इसमेंसे वे किसे उचित मानते हैं। क्रिटिसिजमका एक ही कारण था कि व्यवस्था करनेवाले गरीब थे और वे डॉक्टरोंके अहंकारमें सेंध लगा रहे थे।

. हालमें यह फॅशन बन गया है कि हिंदुओंके उत्सवोंको किसी भी प्रकारसे पर्यावरणनाशक बताकर उत्सव मनानेवाले हिंदुओंको लज्जित किया जाय -- यथा होली जलाना या कुंभके अवसरपर लाखों लोगोंद्वारा नदीस्नान करना। इस आक्षेपको झेलनेवाले प्रायः अपनेपर लज्जित होकर चुप रहना पसंज करते हैं औऱ अन्यत्र चल रही ऐसी ही बुराइयोंपर उनका ध्यान नही जाता न वे उन्हें रोकनेका हौसला रखते हैं। कोरोनाकालमें ही यह दिखा कि उत्सवके एक दिनके लिये मंदिरोंमें होनेवाली भीडके लिये तो श्रद्धालुओंको लताडा गया लेकिन प्रत्येक दिन शराबकी दुकानपर लगनेवाली भीडपर सरकारसहित किसीको आपत्ति नही थी।

इसी प्रकार अन्य उदाहरण दिये जा सकते हैं जब ज्योतिष, आयुर्वेद आदिको कोसते हुए हिंदू धर्मकी निन्दा करी जाती है या नारीवाद, समतावाद, वैज्ञानिकता आदिका हवाला देकर हिंदुओंपर अंधश्रद्धाका आक्षेप लगाया जाता है। एक तरहसे प्रचलित अर्थवाली अंधश्रद्धा वास्तवमें जितनी आक्षेपार्ह है उससे कहीं अधिक उसका उपयोग हिंदू धर्मकी बदनामीके लिये किया जा रहा है। इसके पीछे कई छिपे उद्देश्य बी होते हैं जिनके प्रति हमें सचेत रहना चाहिये।



------------------------------- शब्द २०६० पन्ने ७ ----------- कुल पन्ने 153-------------------------

No comments:

Post a Comment