Sunday, July 18, 2021

अध्याय १५ श्रद्धाके विषय – ग्रंथसंपदा

 अध्याय १५

श्रद्धाके विषय – ग्रंथसंपदा

भारतीय भाषाओंमें वाङ्मयकी विपुलता है और उसमें संसारका कोई भी विषय अछूता नही है। सृष्टिज्ञान, गणित, खगोलविज्ञान, संगीत, शरीरशास्त्र आदि अनेकानेक विषय हैं जिनपर संस्कृत एवं भारतीय भाषाओंमें अद्भुत वाङ्मय उपलब्ध है। संसारके प्रथम ग्रंथके रूपमें ऋग्वेद प्रतिष्ठित है जिसमे दशसहस्रसे अधिक मंत्र (ऋचाएँ) हैं। उससे बडे उपलब्ध ग्रंथ केवल महाभारत एवं रामायण हैं। संसारकी किसी भी अन्य भाषाका कोई भी ग्रंथ इनके दशांश भी नही है। संस्कृतके अलावा लगभग २००० वर्ष पुरानी पाली एवं प्राकृत भाषाएँ जो आजकर बोलचालसे लुप्त हैं परन्तु जिनका अध्ययन-अध्यापन अभी भी पंडितोंद्वारा निरंतर चल रहा है, उनमें कई सहस्र ग्रंथ हैं। इनके अन्य वर्तमानमें प्रचलित सभी भारतीय भाषाओंमें और लोकभाषाओंमें भी विपुल ग्रंथरचना है।

हमारे अति विशिष्टग्रंथ है वेद, इतिहास ग्रंथ व धर्मग्रंथ

मुख्य ग्रंथ वेद जिन्हें मंत्र भी कहा जाता है और संहिता अर्थात ब्राह्मण, आरण्यक एवं उपनिषद, मिलकर वेद कहलाते हैं। इनकी व्याख्या हेतु षट् दर्शन व षट् वेदांग है।

  • षट् दर्शन -- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, पूर्व मीमांसा, उत्तर मीमांसा

  • षट् वेदांग -- व्याकरण, निरुक्त, शिक्षा, कल्प, ज्योतिष, छंद

इतिहास ग्रंथ – रामायण, महाभारत, पुराण

धर्मशास्त्र मुख्यरूपसे स्मृतिग्रंथ हैं। इसके अतिरिक्त रामायण, महाभारत, पुराण आदि भी हमारे धार्मिक ग्रंथ हैं जिनमें धर्म के तत्वों का प्रतिपादन रोचक, प्रभावकारी ढंग से तथा उदाहरणों (तथ्यों) सहित किया गया है।

धर्मशास्त्र शब्द की व्याख्या शास्त्र शब्दसे होती है। इसके दो अर्थ हैं। एक अर्थ है कि जो आज्ञा दे कि यह करो यह मत करे वह शास्त्र है दूसरा अर्थ है कि जो किसी वस्तुके स्वरूपको ठीक-ठीक समझा दे अर्थात जो सत्यका ज्ञान कराये वह शास्त्र है अतः जिन ग्रंथोमें धर्म यानी कर्तव्यकर्म करनेकी विस्तृत रूपसे आज्ञा दी गयी है अथवा धर्मके विषयमें विस्तृत चर्चा हुई हैं उन्हें धर्मशास्त्र कहा गया है। वैदिक धर्मकी विस्तृत चर्चा स्मृतिग्रंथ, रामायण, महाभारत, पुराण आदिमें हुई हैकहा जाता है कि धर्मशास्त्रके लिखने वाले प्रथम पुरूष ब्रह्माजी हैं जिन्होने एक लाख श्लोंकों वाला धर्मशास्त्र लिखा था। किन्तु उनके वह सभी शास्त्र अब उपलब्ध नहीं हैं।

जैसै श्रुति शब्दसे वेद का बोध होता है, वैसे ही स्मृति शब्दसे धर्मशास्त्र का। इसका नाम स्मृति इसलिये पडा क्योंकि यह ऋषियों द्वारा स्मृति (स्मरण) करके लिखे गये है। श्रुति के शब्द, अर्थ और उच्चारण तीनों ब्रह्मा आदि ऋषियोंके अन्तःकरणमें स्वयं प्रगट हुए हैं, परन्तु स्मृतियोंमें केवल अर्थ प्रगट हुए हैं परन्तु शब्द और उसके उच्चारण ऋषियों द्वारा निर्मित हैं।

ऋषियों द्वारा प्रणीत स्मृति ग्रन्थ अनेक हैं और उनके नाम ऋषियों के नामों पर ही आधारित हैं। कुछ स्मृति ग्रन्थ इस प्रकार हैं- 1. मनु-स्मृति, 2. याज्ञवल्यक्य-स्मृति, 3. गौतम-स्मृति, 4. नारद-स्मृति, 5.हारीत- स्मृति, 6 वसिष्ठ-स्मृति, 7.लघुशंख-स्मृति, 8. शंख-स्मृति, 9. लिखित- स्मृति, 10. शंखलिखित-स्मृति, 11. आपस्तम्ब-स्मृति, 12. पराशर-स्मृति, 13. अत्रि-स्मृति, 14. पुलस्त्य-स्मृति, 15. दालभ्य-स्मृति, 16. देवल- स्मृति, 17. वाधूल- स्मृति, 18. कपिल- स्मृति, 19. शातातप-स्मृति,

20. यम-स्मृति, 21. लघुयम-स्मृति, 22. ब्रहद्यम-स्मृति, 23. बुध-स्मृति, 24. विश्वमित्र- स्मृति, 25. मार्कण्डेय-स्मृति, 26. व्यास-स्मृति, 27. बृहस्पति-स्मृति, 28.विष्णु-स्मृति।

कई धर्मशास्त्र सूत्ररूपमें अर्थात निःसंशय सटीक संक्षिप्त शब्दोंका चयन और तात्पर्यसे पूर्ण। कुछ विशेष प्रसिद्ध एवं मान्य धर्मसूत्र इस प्रकार हैं- 1. गौतम धर्मसुत्र, 2. आपस्तम्ब धर्मसूत्र, 3. वसिष्ठ धर्मसूत्र, 4. बोधायन धर्मसूत्र 5. हिरण्यकेशी धर्मसूत्र, 6. हारीत धर्मसूत्र, 7 वैखानस धर्मसूत्र, 8. शंख धर्मसूत्र।

इनका विवेचन करनेहेतु भाष्य, टीकाएँ, व्याख्याएँ एवं निबन्ध आदि लिखे हैं जिनके बिना इनका सही अर्थ नही जाना जा सकता। इनमें से कुछ प्रमुख अचार्यों के नाम इस प्रकार हैं- 1. मेधातिथि, 2. विज्ञानेश्वर की याज्ञवल्वक्यस्मृति पर मिताक्षर नाम की टीका, 3 जीमूतवाहनका दायभाग (सम्पत्ति का बँटवारा), 4. शूलपणिकाके दो ग्रंथ स्मृति विवेक और श्राद्ध विवेक, 5. रघुनन्दन का स्मृतितत्व, 6. चण्डेश्वर का विवाद- रत्नाकर ओर राजनीति रत्नाकर, 7. वाचस्पति का विवाद- चिन्तामणि, 8. देवण्ण भट्ट की स्मृति चन्द्रिका, 9. नन्दपण्डित की दत्तकमीमांस, 10. नीलकण्ठ भट्ट का व्यवहारमयूख (यह कानून सम्बन्धी ग्रन्थ है,) 11. श्रीदत्त उपाध्याय का श्राद्दकल्प और समय प्रदीप 12, हेमाद्री का चतुर्वर्ग चिन्तामणि , यह प्राचीन धार्मिक व्रतों, उपासनाओं तथा आचारों का विश्वकोश है) और पुरूषार्थ चिन्तामणि, 13 माधवाचार्य का पराशर माधव 14. नारायण भट्ट का अन्त्येष्टि पद्धति, त्रिस्थली सेतू और प्रयोगरत्न, 15. मित्रमिश्र का वीरमित्रोदय 16. जगन्नाथ तर्क पन्चानन का विवादार्णव, 17. हलायुध, 18. पारिजात, 19. गोविन्दराज, 20. जीमूतवाहन, 21 अपरार्क, 22. नृसिंह प्रसाद, 23. नागोजिभट्ट।

सामान्यता धर्मशास्त्रों में तीन प्रधान विषयोंपर विवेचन हुआ है- आचार, व्यव्हार, और प्रायश्चित्त। इन तीनोंके अन्तर्गत विषय यों हैं --

आचार- इसके अन्तर्गत आते हैः वर्णधर्म (ब्राह्ण, क्षत्रिय, वैश्य, तथा शूद्र) आश्रमधर्म (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास), सामान्य धर्म, विशेष धर्म, आपद्धर्म, गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि तक के सब संस्कार, दिनचर्या, पन्चमहायज्ञ, भक्ष्याभक्ष्य विचार, भोजन- विधि, शयन- विधि, स्वाध्याय यज्ञ- यागादि, इष्टापूर्त ,श्राद्ध सदाचार, शौचाचार, अशौच (जननाशौच, मरणशौच), मोक्षधर्म एवं अध्यात्मज्ञान, परम्परा तथा रीतिरिवाज आदि का विवेचन।

2. . व्यव्हार- वर्तमान परिप्रेक्ष्य में इसे कानून पद से संबोधित किया जाता है जिसके अन्तर्गत आजकल के फौजदारी और दीवानी के सभी कानून आते हैं। अतः इसके अन्तर्गत आते हैं- दण्ड और इसके प्रकार, साक्षी ( गवाह) और इसके प्रकार, शपथ, न्याय, न्याकर्ता के गुण, न्याय- निर्णय का ढंग, सीमा- विवाद का निर्णय, सम्पत्ति का विभाजन, दाय (समपत्ति) के अधिकारी ,दाय का अंश, स्त्रीधन, पुत्रों के भेद, दत्तक पुत्र मीमांसा, राजनीति, राजा (शासक) तथा मंत्री के गुण तथा उनके कर्तव्य आदि। आते हैं।

3. प्रायश्चित्त- इस खण्ड में कर्तव्य- कर्मो तथा सामाजिक कृत्यों के न करने अथवा उनकी अवहेलना करने से जो पाप होते हैं, उनके प्रायश्चित्त का विधान है। इसके ही अन्तर्गत अग्नि-शुद्धि, कर्मविपाक (कर्मफल), शुद्धितत्व, पाप-पुण्य, तीर्थ- व्रत, दान आदि आते हैं।

भारतीय संस्कृतिके दो महान ऐतिहासिक ग्रन्थ महाभारत और रामायण धर्म सम्बन्धी चर्चाएँ, व्याख्याएँ, विश्लेषण, उपदेश आदिसे भरपूर हैं अतः ये दोनों ग्रन्थ भी धर्मके उपादान माने जाते हैंमहाभारतके धर्मविश्लेषणपरक पर्व हैं मोक्षधर्म, दानधर्म, आश्रम-धर्म, आपद्धर्म, उपवास, तीर्थ, दान, दायभाग, प्रायश्चित्त, भक्ष्याभक्ष्य, राजनीति, उद्योगपर्व, शान्तिपर्व, विवाह, अनुशासनपर्व, श्राद्धधर्म, आदि। इसी प्रकार रामायण, पुराण आदि भी धर्मशास्त्र से ओत-प्रोत हैं।

वेद, इतिहास और धर्मग्रंथ तीनोंही अति प्राचीन कालमें लिखे गये हैं। जैसा हम कालगणनाके संदर्भमें देख चुके हैंं, सत्ययुगका कालखण्ड आजसे लगभग चार लाख वर्ष पहले कहा जाता है। महाभारतकी रचनाको भी कलिकालकी मानें तो युगाब्द गणनाके अनुसार यह पांच हजार वर्षसे भी पुरातन घटना है। महाभारतके पश्चात पुराणलेखनकी परंपरा चलती रही। इन्हीं पांच हजार वर्षोंमें गणित, खगोलशास्त्र, अर्थशास्त्र, ज्योतिष आदि विषयोंपर ग्रंथलेखन हुआ। आदि शंकराचार्य तथा आचार्य परंपरामें आये विद्वानोंने विपुल ग्रंथरचना की है। तक्षशिला अथवा नालंदाके ग्रंथभंडारके वर्णनोंसे साथ ही परदेशी यात्री जैसे मेगास्थनीज या फाहियान आदिके वर्णनसे इसका पता चलता है। ललितलेखनकी परंपरामें कालिदास, माघ, भास, भवभूति, बाणभट्ट, हर्ष, आदि नाम आते हैं। साथ ही पाली प्राकृत, तत्पश्चात तेलगु, मराठी, तमिल, कन्नड, अवधी, व्रज, मैथिली आदि भाषाओंमें अद्भुत ग्रंथरचना हुई।

यहाँसे हम सीधे आते हैं वर्तमान और भविष्यपर। आजका युग निःसंदेह इंटरनेटका युग है। विश्वके सभी देशोंमें यह होड़ लगी हुई है कि किस प्रकार उनके देशमें रचित ग्रंथ संपदाको डिजिटल फॉर्ममें डालकर इंटरनेटपर रखा जाए ताकि वह विश्व भरमें कहींसे कहींभी पढ़नेके लिए उपलब्ध हो। इनको इस प्रकारके फॉर्मेटमें रखना पडता है कि उनकी खोज सर्च इंजनों द्वारा करी जा सके और विषय या संक्षिप्त वर्णन बताकर ही हम अपना मनचाही जानकारीहेतु कोई भी ग्रंथ खंगाल सकें। इस क्रममें भारतीय भाषाएं और विशेषकर संस्कृतमें रचित ग्रंथ भंडार अत्यंत पीछे हैं। अंग्रेजी भाषाके तथा विश्वकी अन्य भाषाओंके जो ग्रंथ इंटरनेट पर उपलब्ध हैं उनकी तुलनामें संस्कृत अथवा भारतीय भाषामें लिखित ग्रंथोंकी इंटरनेटपर उपस्थिति एक लाखवें हिस्सेसे भी कम है। इंटरनेटपर जो भी ग्रंथ डाले जाते हैं उनका फॉर्मेट यथासंभव चित्र रूपमें ना होकर पढ़ने लायक तथा त्रुटियोंको संशोधित करने लायक फॉर्मेट होना चाहिए। ऐसा करनेसे ही उन्हें इंटरनेटपर विषय अथवा अन्य थोड़ीसी जानकारी देकर खोजा जा सकता है। भारतीय भाषाओंके साथ दूसरी दिक्कत है कि बहुतांश ग्रंथ चित्ररूपमें इंटरनेट पर डाले जा रहे हैं और उन्हें खोजना कठिन हो जाता है। इन दोनों कारणोंसे भारतीय भाषाएं इंटरनेटपर काफी पीछे हैं ऐसा दृश्य दीखता है। इसमें परिश्रमपूर्वक सुधार करना आवश्यक है।

हमें यह भी समझना होगा कि किसी भाषामें जब भी नई ग्रंथ रचना होती है, तो उनसे उस भाषाकी जीवंतता बढ़ती है। उसमें प्राण फूँके जाते हैं। तभी वह भाषा सुदूर भविष्यके ज्ञानके लिए संबल बन पाती है। आज भारतमें ऐसी मानसिकता है कि जिस किसी आधुनिक विषयकी पढ़ाई अंग्रेजीके माध्यमसे करी जा सकती हो, उस विषयपर भारतीय भाषाओंमें पुस्तक लिखना मूर्खता समझा जा रहा है। अतः निकट भविष्यमें ही हमें देखनेको मिलेगा कि भारतीय भाषाओंमें ज्ञानकी पुस्तकें नहींके बराबर होंगी। भारतीय भाषाओंका वर्तमान कालीन ज्ञानसे कोई संबंध नहीं रहेगा और ये सारी भाषाएं उसी प्रकार मृत हो जाएंगी जैसे एक जमानेमें अत्यंत प्रगत ग्रीक एवं लैटिन भाषाएं हुआ करती थीं। इस संकटसे हम तभी बच पाएंगे जब अपनी भाषाओंमें संचित ज्ञान भंडारके प्रति और अपनी भाषाओंको जीवन्त रखनेमें हमारी श्रद्धा होगी।

------------------------शब्द १३९० – पन्ने ५ -------- कुल पन्ने १०३---------------------

No comments:

Post a Comment