Sunday, July 18, 2021

अध्याय २ राष्ट्रनिर्माणमें तत्त्वदर्शनका महत्व

 

अध्याय २

राष्ट्रनिर्माणमें तत्त्वदर्शनका महत्व


किसी भी राष्ट्रका चरित्र उसके तत्त्वदर्शन या फिलॉसफीसे तय होता है। इस बातको विस्तारसे समझनेकी आवश्यकता है।

तत्त्व का अर्थ है सार, मूल कारण, यथार्थ या वास्तविकता। तत्त्वदर्शन का अर्थ है यथार्थको जानना। जानना नहीं बल्कि देखना। यह देखना भी एक अनूठा अर्थ लिए हुए है। तत्व शब्दका उपयोग हम प्रायः विचारोंके संबंधमें करते हैं ना कि पदार्थके संबंधमें। ऊपरी तौर पर देखा जाए तो विचारोंका मंथन बुद्धिके स्तर पर होता है। तो फिर यह दृष्टिगोचर कैसे? दर्शन कैसे? किसका दर्शन? लेकिन इसका भी उत्तर है। साधनाके कारण विचार, ज्ञान या सत्य स्वयं मूर्त रूप लेकर मनुष्यके सामने जाते हैं और साधक उन्हें देख पाता है। इसी तथ्यको दर्शानेके लिए दर्शन शब्दका प्रयोग होता है। अर्थात भारतीय परंपराके अनुसार तत्त्वका बोध केवल विचारके स्तर पर सीमित नहीं है वरन मन, ह्रदय, अनुभूति आदिके स्तरपर उसका प्रकटन होता है। अंतःचक्षुसे उसका दर्शन होता है। अध्यात्मिक प्रगतिके लिये ज्ञान अत्यावश्यक है और उसे अनुभूतिके स्तरपर देख पाना भी उतना ही महत्वपूर्ण है।

इंग्लिश भाषी शब्द फिलॉसफीका अर्थ है love of wisdom जो एनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका में बताया गया है। उसमें आगे लिखा है --Philosophy is the rational, abstract, and methodical consideration of reality as a whole or of fundamental dimensions of human existence and experience. Philosophical inquiry is a central element in the intellectual history of many civilizations. इस अंतिम वाक्य का अर्थ है कि सभ्यताओंका वैचारिक इतिहास उनकी फिलासफीकी प्रगतिके आधारसे जाना जा सकता है-- वैचारिक इतिहासके केंद्रमें फिलॉसफी अर्थात जिज्ञासा - love of wisdom - ही काम करती है।

इस प्रकार हम पाते हैं कि जहां पश्चिमी अर्थ या अवधारणा वैचारिकताकी सीढी पर सीमित है वहीं भारतीय तत्त्वदर्शनमें वैचारिकता एवं अनुभूति दोनों ही अनुस्यूत हैं। इस विचारपर जो व्यक्ति श्रद्धा रखेगा वही व्यक्ति अनुभूतिके स्तरपर तत्वके दर्शन करनेका प्रयास करेगा और इस प्रकार प्रयास करने वालोंमेंसे कोई कोई ही तत्वको देख पाएगा। यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः (गीता अ ७ ) तो कुल मिलाकर भारतीय परंपरामें तत्त्वका दर्शन पानेके लिए पहली सीढ़ी है श्रद्धासहित वैचारिकता और दूसरी सीढी है साधना। तीसरा पड़ाव है अनुभूति, तो चौथा पड़ाव है ज्ञानकी प्राप्ति। तो श्रद्धापूर्ण विचारसे आचरण, आचरणसे साधना, साधनासे ज्ञान इस प्रकार एक कड़ी बन जाती है। इन सोपानोंपर चलते हुए समाजका हर व्यक्ति जो ज्ञान संचित करता है वह उस समाजके विचारोंमें प्रतिबिंबित होता है। विचारोंकी स्वतंत्रता सबको है, विचारोंको व्यक्त करनेकी स्वतंत्रता भी सबको है। लेकिन अगर कई व्यक्तियोंके विचार एक जैसे हैं, उनमे आपसमें टकराव नहीं है, तो उन विचारोंके संबलसे राष्ट्रकी समृद्धि अधिक वेगवान होती है।

इसीलिए हमारे देशमें राष्ट्रके लिये जितने भी विचार हुए, जहां समाजके भलेकी बात कही गई वहां सबसे पहला निर्देश है अभेद- यह आदेश कि आप लोग मिल जुल कर रहो। चाहे वह "समानी व आकूति:” का मंत्र हो या फिर "संगच्छध्वम्" या फिर "सहनाववतु" का। ये सारे मंत्र, सारी ऋचाएं हमें समाज जीवनमें एकत्रित होनेका, संगठन बनाए रखनेका, आपसी मेलजोल बढ़ाए रखनेकादेश देते हैं। वे हमें बारंबार यह बताते हैं कि इस प्रकार मिल जुल कर रहनेसे, समष्टिमें श्रद्धा रखनेसे ही मानव समुदाय एकत्रित रूपसे समृद्धि को पा सकता है। हमारे ग्रंथ और नियमावलियाँ यह भी बताती हैं कि चरित्र निर्माणमें किन मूल्योंका पालन करनेसे हमारी एकात्मता बढेगी और वे मूल्य वास्तवमें हमारे चरित्रमें किस प्रकार उतारे जायें।

इसी कारण भारतको दृढतासे टिकाये रखनेके लिये भारतीय तत्वदर्शनको समझना आवश्यक है। यदि आजकी शिक्षा प्रणालीमें भारतीय दर्शन नही पढाया जाता हो तो उसे वापससे शिक्षाप्रणालीमें लाना भी आवश्यक है। विचारणीय बात है कि शिक्षामें दर्शनके महत्वको अंगरेज समझ पा रहे थे इसी कारण जब उन्होंने गुरुकुल बंद करवाकर शिक्षा व्यवस्थापन अपने हाथमें लिया तो महीविद्यालयीन स्तरपर पढाये जानेवाले दर्शन विषयके लिये यह नियम रखा कि भारतीय दर्शन विषयकी पढाई अंगरेजीमें होगी, उसमें पश्चिमी फिलॉसफीको पढाया जायगा और orthodox Hindu philosophical systems से भारतियोंको उबारनेका प्रयास किया जायगा। इस प्रकार भारतीय दर्शनको पश्चिमी चष्मेसे देखनेका फॅशन चल पडा।

तबसे अबतक कई विद्वान यह लिख चुके हैं कि कैसे अंगरेजी माध्यमसे फिलॉसफी पढ पानेके कारण उन्हें भारतीय फिलॉसफीकी कमजोरियाँ समझ आईं इत्यादि। लेकिन अब धीरे धीरे हमारे अकादमीवाले समझने लगे हैं कि हमारी शिक्षाप्रणालीमें समग्र भारतीय दर्शनकी पढाईका अभाव भारतकी सांस्कृतिक चिरंतनताके लिये सबसे बडा संकट है। राष्ट्रीय चरित्र निर्माणहेतु हमें भारतीय दर्शनकी पढाई मनोयोगसे और अन्वेक्षणापूर्ण करनी होगी, साथ ही उसकी मूल शब्दावली व मूल भाषाके साथ करनी होगी न कि अनुवादसे। इसकी चर्चा आगे भी करेंगे।

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