Tuesday, July 6, 2021

श्रद्धा और राष्ट्रधर्म -- भूमिका

 श्रद्धा और राष्ट्रधर्म

भूमिका

किं कर्तव्यं - किमर्थम्


मनुष्य श्रद्धामय है। यह उसका सहजस्वभाव है। बिना श्रद्धाके मनुष्य मिलना संभव नही है। यदि वह नास्तिक भी हुआ तो भी "ईश्वर नही है" इस विचारको वह हमेशा पकडे रहता है। ये उसकी एकप्रकारसे श्रद्धा ही हुई।

"कल सुबह मुझे फिरसे जाग आयेगी" ये श्रद्धा हो तभी मनुष्य आज सो सकता है। नही तो उसका सोना भी दुःश्वार हो जायेगा। अगर किसीने उसकी श्रद्धाको डगमगाया तो वह स्वयं डगमगा जायेगा।

श्रद्धा कुएँके मेंढककी भी हो सकती है, या "अहं ब्रह्मास्मि" कहनेवालेकी भी हो सकती है।

इसीलिये गीता कहती है --

सत्त्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः॥

अर्थात मनुष्य स्वभावसे ही श्रद्धावान है। जैसी जिसकी श्रद्धा होती है, वैसाही वह मनुष्य होता है। जैसी श्रद्धा वैसा ही मनुष्यका अंतःकरण।

श्रद्धा शब्दके साथ उसी भावको व्यक्त करनेवाले अथवा पुष्ट करनेवाले कई अन्य शब्द हैं जिनका ध्यान रखना उचित है। आस्था, निष्ठा, समर्पण, विश्वास, आदर, प्रेम, निर्मत्सर और भक्तिके भाव भी श्रद्धाके साथ अनायास जुड जाते हैं। ये सारे सत्यं शिवं सुन्दरं की भी पुष्टि करते हैं।

जिस प्रकार एक व्यक्तिमें श्रद्धा होती है उसी प्रकार समाजकी श्रद्धा होती है और राष्ट्रकी भी एक श्रद्धा होती है। जिस राष्ट्रकी श्रद्धा जैसी हो वह राष्ट्र वैसा ही बनेगा। सहस्रों वर्षोंसे भारत राष्ट्रने यह श्रद्धा बनाए रखी कि मनुष्य समाजमें मनुष्यका मूल चरित्र लुटेरोंका नहीं है, वरन आपसी सद्भाव, मैत्री, करुणा आदि भावनाएं ही मनुष्यका मूलस्वभाव है जो उसे समाजोन्मुख बनाता है। इसी प्रकार सत्य और ज्ञानकी अन्वेषणा भी मनुष्यका मूलस्वभाव है जो राष्ट्रको अभ्युदयकी ओर ले चलता है। इसी श्रद्धाके अनुरूप भारतका शिक्षा-चिंतन, इतिहास व चरित्र बना जिसके प्रमाण हमारे ग्रंथोंमें तथा आजतक चली आ रही परंपरा व मान्यताओंमें देखे जा सकते हैं।

ऐसी श्रद्धाके कारण भारतीय समाजकी मार्गदर्शक नियमावली बनी जिसमें सत्य, अहिंसा, ब्रम्हचर्य, राष्ट्रप्रेम, शौर्य, दक्षता, न्यायभावना, दान, अस्तेय, संतोष, अपरिग्रह, निरंतर अभ्यास, शुचितापूर्ण व्यापार, व्यवस्थापन, कौशल्य, कलात्मकता और ईश्वरप्रणिधान इत्यादि गुणोंको उत्तम माना गया। उन गुणोंका संस्कार मनुष्यमें हो सके इस प्रकारकी समाज व्यवस्था बनानेका प्रयास भारतवर्षमें वारंवार किया गया। इस श्रद्धासे किया गया कि सर्वे भवन्तु सुखिनः यही हमारी नित्य प्रार्थना रहे और उस उद्देश्यकी प्राप्तिमें सदैव जुटे रहनेका संबल इन गुणोंके आधारसे मिलता रहे।

इस पुस्तककी भूमिका लिखते हुए स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि श्रद्धा और राष्ट्रधर्म जैसे विषयपर पुस्तक क्यों लिखी जाए, उसका प्रयोजन क्या है? अंधश्रद्धा क्या है? वह हमारे लिये अवांछित क्यों है? उसकी चर्चा क्यों हो? तो उत्तरमें हमें सर्वप्रथम समझना है कि एक राष्ट्र या समाजकी सोच उसके तत्त्वदर्शनसे जानी जा सकती है। भारत राष्ट्रकी श्रद्धा जिन मूल्योंपर थी क्या वे मूल्य उसके दर्शनमें झलकते थे? क्या है भारतका दर्शन? क्या वह इस आधुनिक कालमें समसामायिक है?

उससे महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि हम भविष्यके भारत राष्ट्रको किस प्रकार बनाना चाहते हैं। आनेवाली पीढ़ियां क्या संस्कार लेकर आएँ और कितनी पीढ़ियोंतक यह संस्कार निरंतरतासे चलने चाहिए? इसके लिए सबसे पहले हमें निश्चित करना होगा कि हमारी अगली पीढ़ियोंकी श्रद्धा किन बातोंमें हो। फिर प्रश्न उठेगा कि वैसी श्रद्धा राष्ट्रके नागरिकोंकी बनी रहे इसके लिए जो भी समाज व्यवस्था आवश्यक है क्या वह आज हमारे पास है? और यदि नहीं है तो हम उसका निर्माण कैसे कर सकते हैं? इन प्रश्नोंके उत्तरके हेतु भी हमें अतीतमें झांककर देखना होगा कि सहस्त्रों वर्षोंतक हमारे समाजका दर्शन कैसा रहा, नीतिनियम किस प्रकार टिकें रहें, जनमानस इन्हें सहजभाव व आनन्दसे स्वीकारे, इसके लिये किस स्तरके प्रयास और व्यवस्थाएँ की गईं? खण्ड एक व दो में हम इन सारे प्रश्नोंका उत्तर खोजेंगे।

क्या कभी समाजपर बिखरावका संकट भी आया या आगे आ सकता है? हमें उन संकटोंके प्रति सावधान रहना होगा जो राष्ट्र व समाजके अस्तित्वको डिगा सकते हैं। वर्तमानमें ऐसे कई संकटोंकी भनक हमें मिलती है। उदाहरणके स्वरूप अंधश्रद्धा शब्दके रूपमें दीखता संकट।

मेरे विचारमें श्रद्धा और अंधश्रद्धाके बीचके अंतरको स्पष्टतासे उजागर करनेका प्रयोजन इस पुस्तकका नहीं है, वरन संकटोंके प्रति दक्ष रहनेका, सावधानताका प्रयोजन है। पुस्तकका मुख्य उद्देश्य यह जानना है कि अपने राष्ट्रको, राष्ट्रकी अगली पीढ़ियोंको, हम किन विचारोंसे, किस प्रकारकी श्रद्धासे संस्कारित रखना चाहते हैं, किन संकटोंके प्रति सावधान करना चाहते हैं और उसके लिए हम कौनसे प्रयास करें! श्रद्धापूर्वक संभाले गये मूल्योंका पुनःप्रतिपादन व दृढता चाहिये या नही?

इस पुस्तकको लिखते हुए हम दोनों लेखकोंने वारंवार चर्चा की है और अन्य ग्रंथों, अन्य लेखकोंके विचारोंको भी समझा है। उन सबके प्रति हम आभारी हैं। ऐसे मूलभूत विषयोंपर पुस्तकें लिखवाकर भारतीय जनताके लिये उन्हें उपलब्ध करानेका शिवधनुष्य पुनरुत्थान विद्यापीठने उठाया है, उनके प्रति अभिनंदन व आभार।

-- लीना मेहेंदळे

वर्षप्रतिपदा शक १९४३

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