Sunday, July 18, 2021

अध्याय ९ समाजमें श्रद्धाका उदय

 

अध्याय ९

समाजमें श्रद्धाका उदय


श्रद्धा मानव जीवनकी नींव है। जिस तरह सूर्यके बिना दिन नहीं होता, आंखोंके बिना देखा नहीं जाता, कानोंके बिना सुना नहीं जा सकता, उसी प्रकार श्रद्धाके बिना जीवनमें गति नहीं हो सकती। जिस प्रकार दीपकके प्रज्वलित रहनेके लिए स्नेह आवश्यक है उसी प्रकार जीवनके लिए श्रद्धा आवश्यक है।

श्रद्धाका आधार क्या होता है? हमारी श्रद्धाका उदय होता है किसी महत्वपूर्ण व्यक्तिसे। जब हम किसी व्यक्तिमें जनसाधारणसे अधिक विशेष गुण या शक्तिका दर्शन करते हैं तो उसके प्रति एक आनंदयुक्त आकर्षण पैदा होता है। यही आकर्षण हमें उस व्यक्तिके महत्वको स्वीकार करनेके लिये बाध्य करता है। उसके प्रति एक पूज्य भाव भी पैदा करता है। श्रद्धाकी प्रक्रिया यहाँसे आरंभ होती है। ये विशेष गुण क्या हो सकते हैं? प्रतिभा, शक्ति, साधन संपन्नता, ज्ञान, दृढनिश्चय, न्यायबुद्धि, धन ये सभी हमें उस व्यक्तिके महत्वको स्वीकार करनेहेतु बाध्य करते हैं। किंतु यह कोई निश्चित नहीं है कि इनसे समाज का भला ही होगा। प्रतिभा वान व्यक्ति भी समाज का शोषण कर सकता है, उसे हानि पहुंचा सकता है। शक्तिशाली होकर भी मनुष्य गुंडे दुष्ट दुराचारी हो सकता है साधन संपन्न व्यक्ति भी बुराई और समाज को हानि पहुंचाने वाले कार्य कर सकता है। अतएव ऐसे गुण जब सामाजिक हितमें बाधा बनते हैं तब उनसे उत्पन्न होनेवाले आकर्षणको श्रद्धा नही कह सकते। तामसी श्रद्धा मनुष्यकी श्रद्धाका आधार नहीं होने चाहिये।

ऐसे प्रतिभासंपन्न व्यक्ति उन व्यक्तियोंके लिए आदरका केंद्र हो सकते हैं जो वैसेही विशंष गुण पाना चाहता है।। परंतु यदि वे सभी समाजके लिए हितकर ना होने के कारण हमारी श्रद्धा का सही आधार नहीं हो सकते। उल्टे ऐसे लोगों के प्रति आदरयुक्त होकर उन्हें प्रोत्साहन देना, उनके द्वारा किये गये गई पाप कर्मों का भागी बनना है। अर्थात जब उपरोक्त गुण उस गुणीको सत्कर्म सदाचार सहित सज्जनताकी ओर ले जाते हैं तभी वे हमारी श्रद्धा का उपयुक्त आधार हो सकते हैं। तब इनका प्रयोग मनुष्य मात्रकी भलाईके हेतु किया जाता है। इनसे सामाजिक स्थिति, समाजमें संस्कारोंको बल मिलता है।

श्रद्धाका आधार व्यक्तिके गुण और कर्म ही होते हैं। इसलिए जिन कर्मोंकी प्रेरणासे श्रद्धा उत्पन्न होती है उन्हें धर्मकी संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार व्याख्यायित धर्मसे मनुष्य समाजकी स्थिति समृद्धि होती है। संक्षेपमें धर्मवान व्यक्ति हमारी श्रद्धाका केंद्र होता है। श्रद्धालु और श्रद्धेयके बीचमें यह धर्मकार्य ही मुख्य हेतु होता है।

सज्जनता, शील और इन से प्रेरित ऐसे सत्कर्म जिन्हें दूसरे शब्दोंमें धर्म कहा जा सकता है यही संसारके सभी जन समुदायोंमें प्रतिष्ठित हैं और इनसे समाज के नियम व्यवस्था स्थितिमें सहयोग मिलता है। यही हमारी श्रद्धा के सच्चे आधार हो सकते हैं। इस प्रकार हम श्रद्धाके दो आयाम देखते हैं। एक ओर श्रद्धा मनुष्यके निजी जीवनका आधार बनती है या प्रेरणाका काम करती है या जीवनके रहस्योंको उद्घाटित करते हुए मुक्ति प्रदान करती है। दूसरी ओर वह एक महत्वपूर्ण सामाजिक कर्तव्य भी है। सदाचारी शीलवान धार्मिक व्यक्तिके प्रति यदि हम श्रद्धा नहीं रखते तो हम कर्तव्य का पालन नहीं करते। किसीको भला त्यागपूर्ण काम करते देखकर, यदि हमारे मनसे धन्यवाद प्रसन्नताके भाव प्रकट नही होते हैं तो हम अपने समाजके लिए जड़ पत्थरकी तरह हैं। हम उसके लिए किसी काम के नहीं।

अस्तु श्रद्धा एक सामाजिक उत्तरदायित्व भी है जिससे धर्मको बल मिलता है और सज्जनताको जीवन। जिस तरह वृक्षको हरा भरा रखनेके लिए उसे सींचते रहना आवश्यक है उसी तरह समाजको शुभ कर्मोंसे युक्त और धर्ममें रखनेहेतु उसे श्रद्धासे सींचते रहना आवश्यक है। श्रद्धा एक सामाजिक भावना, एक सामाजिक उत्तरदायित्व है। यह एक ऐसी आनंद पूर्ण कृतज्ञता है जो एक प्रतिनिधिके रूपमें हम समाजके सम्मुख प्रकट करते हैं। श्रद्धा में लेने देने की कोई बात नहीं होती यह है। यह जनसामान्यका धर्म है कि जब कोई व्यक्ति सामाजिक जीवनके लिए उपयोगी होता है तो श्रद्धाके द्वारा हम उसका सत्प्रभाव कई गुना बढाते हैं। इससे हम केवल अपना भला ही नहीं करते वरन समाज का भी बहुत बड़ा साधन करते हैं। एक सदाचारी धर्मवान व्यक्ति स्वभावसे अपने आसपास प्रसन्नता और आनंदकी उपस्थिति देखना चाहता है और हम अपने श्रद्धा प्रकट करके अपना आनंद और प्रसन्नता व्यक्त करते हैं। इससे श्रद्धेयका उत्साह बढ़ता है, उसे अपनी सामर्थ्यका ज्ञान होता है। इससे समाजमें शील, सदाचार धर्मको प्रोत्साहन मिलता है जो कि समाजकी सुरक्षाके लिए भी आवश्यक है।

श्रद्धा कहनेकी या प्रचार करनेकी वस्तु नहीं है। अपने मनमें किसीके प्रति श्रद्धा रखकर बहुत दूर रहते हुए भी उसके महत्वको समाजमें प्रतिष्ठा देनेमें हम सहायक हो सकते हैं। श्रद्धाका आधार गुण और कर्म होते हैं उसके गुणोंको और धर्मको हम अपनी श्रद्धासे बल देते हैं। यह भी दो प्रकारसे होता है। एक तो स्वयं उसकी तरह आचरण करके और दूसरा उसका समाजमें प्रचार करके। यह ढोल पीटकर कहनेकी आवश्यकता नहीं होती कि मैं अमुकके प्रति श्रद्धा रखता हूं। श्रद्धाका मूल आधार है दूसरेके महत्वको स्वीकार करना। किसी भी क्षेत्रमें दूसरे व्यक्तिकी विशेषताओंसे प्रभावित होकर हम उसे महत्व देते हैं तो ऐसी दशामें अपना आपा भुलाना पड़ता है, विनम्र होना पडता है, अहंकारको छोडना पडता है। लेकिन जिन लोगोंमें स्वार्थ और संकीर्णता भरी रहती हैं उन्हें अपनी ही बढ़ाई अच्छी लगती है और अपने सिवा किसी अन्यका महत्व नहीं सुहाता। ऐसे स्वार्थी और अभिमानी लोगोंमें श्रद्धाकी भावना उत्पन्न नहीं होती। वह अपने संकीर्णताके कारण दूसरोंके अच्छे कार्य और जीवनके यथार्थका मूल्यांकन नहीं कर सकते।

जिसका सब कुछ छूट गया है, जो जीवनसे निराश हो चुके हैं उनके लिए श्रद्धा सांत्वना अवलंबन देती है। प्रत्येक समर्थ व्यक्ति भी अपने आपमें अपूर्ण होता है। उसे भी किसी अवलंबनकी आवश्यकता होती है। अन्यसे प्राप्त श्रद्धा मनुष्यका शुद्ध अवलंबन होती है। उसमें ऐसा विश्वास उत्पन्न होता है जिससे उसकी कार्यवाही शुभम हो जाता है। श्रद्धालुका जीवन भी सरल हो जाता है, उसके जीवनके ताप शीतल हो जाते हैं, कठिनाइयां निष्प्रभ हो जाती हैं। जिन लोगोंका जीवन श्रद्धा रहित होता है उनके जीवनमें सुगम पंथ बंद ही रहते हैं, उन्हें कठिनाइयों और कंटकाकीर्ण मार्ग पर ही चलना होता है। जो श्रद्धाको पा लेते हैं उनके लिए कठिन और असंभव कुछ भी नहीं रखता।

श्रद्धा न्यायबुद्धि पर चलती है। श्रद्धेयके गुण कर्म जितने महान होंगे उतने ही अनुपातमें दूसरे लोगोंमें श्रद्धाका उदय होगा। सदगुण, सत्कर्म, शील और धर्मपालनका सच्चा मूल्यांकन श्रद्धासे ही होता है। श्रद्धा कोई व्यापार नहीं है जिसमें श्रद्धालु अपने श्रद्धेयसे कोई आशा रखे। यह दो व्यक्तियोंके बीच एक पुनीत माध्यम है। यदि किसी चाहकी या प्राप्तिकी भावना रखकर हम किसीके प्रति श्रद्धा प्रकट करते हैं तो वह श्रद्धा ना होकर चापलूसी या खुशामद बन जाती है। श्रद्धाके नामपर स्वयंको और श्रद्धेयको धोखा देना है। ऐसे झूठे श्रद्धालु और श्रद्धापात्रोंसे सावधान रहने की आवश्यकता है।

विद्यादान समाजसेवा परोपकार और मानव समुदायकी ज्ञानवृद्धिमें लीन पुरुषोंके अभावकी पूर्ति तत्परतासे करना ही उपयोगी बात है। वह कार्य समाजके ठीक पेटमें जाता है और समाजके सभी अंगोंको परीपुष्ट करता है। लेकिन जब स्वार्थी पाखंडी या अन्यायी व्यक्तिको कुछ दिया जाता है तो वह समाजके अंग नहीं लगता, जिस प्रकारसे छिद्रयुक्त घड़ेमें पानी संग्रहित नहीं होता।

स्वार्थी व्यक्ति श्रद्धाको अपने लाभकी पूर्ति या तुच्छ मनोवृत्तिकी पूर्तिके लिए उपयोग करते देखे जाते हैं। कोई साधुओंके वस्त्र पहनता है तो कोई जनसेवाका नारा लगाता है तो कोई अपनेको बड़ा भारी त्यागी दिखाता है। ऐसे लोग ऊंची ऊंची बातें करते हैं जैसे कोई महान विद्वान हो या ज्ञानी ध्यानी। फिर वह तरह-तरहके बनाव, प्रचार, प्रपोगण्डासे भोले लोगोंको प्रभावितकर उनकी श्रद्धा प्राप्त करते हैं और उनका शोषण करते हैं।

कई लोग श्रद्धाको अपने मनोविलासका साधन बनाते हैं। ऐसे लोगोंके लिए श्रद्धा उसी तरह है जैसे किसी नशेबाज के लिए शराब भांग गांजा इत्यादि। ऐसे लोग अपने कामोंमे एक क्षणके लिए भी अपने नामका वियोग नहीं सह सकते। ये लोग ऐसा ही काम करते हैं जिसमें नाम और कामका आडंबर अधिक हो, भले ही मूलमें कुछ भी ना हो। लेकिन श्रद्धा इस प्रकारके दुरुपयोग और अपव्ययके लिए नहीं है। अतः हमें ऐसे लोगोंके प्रति सावधानी बरतनी चाहिए ताकि दूषित मनोवृतिका व्यक्ति हमारी श्रद्धा भावनाका शोषणकर उसका दुरुपयोग ना कर सके। श्रद्धा तो समाजको पुष्ट करनेवाली एक अमृतधारा है। किंतु यह समाजका भी कर्तव्य है कि दुष्ट और स्वार्थी लोग इसका दुरुपयोग ना कर सके।

इस सावधानीके साथ हम श्रद्धाकी उपासना करें।


(संदर्भ गायत्री परिवारके लेखसे)

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