Sunday, July 18, 2021

अध्याय २२ अश्रद्धा व तामसी श्रद्धा - गीता का संदर्भ

 

अध्याय २२

अश्रद्धा तामसी श्रद्धा - गीता का संदर्भ


भगवद्गीतामें अश्रद्धा तथा तामसी श्रद्धाको संदर्भ कुछ श्लोकोंमें समझाया गया है। यथा -

गीता अज्ञश्चाश्रद्धधानश्च संशयात्मा विनश्यति

गीता १७ श्रद्धा विरहितं यज्ञं तामसं परिचक्षते

गीता १७ अश्रद्धया हुतं दत्तं तपस्तप्तं कृतं यत् - तत् असत् इति उच्यते

गीता धर्मस्य अस्य अश्रद्धधानाः पुरुषाः संसारवर्त्मनि निवर्तन्ते।

गीता १७ तामसी श्रद्धा, तप, दान, यज्ञ, अन्न।

लेकिन उससे पहले तीसरे अध्यायमें लोगोंकी कर्मके प्रति श्रद्धाको अक्षुण्ण रखनेको सर्वाधिक आवश्यक बताया गया है। लोगोंके मनमें कर्मके प्रति उदासीनता जगाना बुद्धिभेद बताया गया है।

* बुद्धिभेदं जनयेदज्ञानां कर्म संगिनाम्।

जोषयेत्सर्वकर्माणि विद्वान्युक्त: समाचरन्।।* -- गीता -२६

अर्थ- ज्ञानी पुरुष को चाहिए कि कर्मों में आसक्ति वाले अज्ञानियों की बुद्धि में भ्रम अर्थात कर्मों में अश्रद्धा उत्पन्न करे, अपितु स्वयं भी सब कर्मों को अच्छी प्रकार करता हुआ उनके सम्मुख वही आदर्श प्रस्तुत करे और उनसे भी कुशलतापूर्ण कर्म कराए। भले ही वह स्वयं परमात्मा के स्वरूप में स्थित हुआ हो और उसे कर्म करनेकी आवश्यकता न बची हो, लेकिन अन्य प्रजामें कर्महीनता ना बढे इसलिये उन्हें हर तरहसे कर्मके लिये ही जोश दिलाये।

अश्रद्धा वह है जो अज्ञानवश या अहंकारवश है। तीसरा कारण संशयात्मिका बुद्धिका भी है -- जो निश्चयमें सदा डांवाडोल है। न वह दृढतासे अश्रद्ध है और न श्रद्धाको दृढतासे पकडे हुए है। वह अपने तर्कोंमें निर्णयमें सदा उलटपुलट विचारोंसे अनिश्चयकी अवस्थामें है।

तो गीतामें ये तीनोंही प्रकारके लोग गिनाये हैं -- अज्ञ, अश्रद्ध और संशयात्मा। इन तीनोंका विनाशही होता है। ऐसे अश्रद्ध पुरुषोंके लिये ईश्वर अप्राप्य है। अतः वे संसारके - जन्ममृत्यूके चक्करमें पडे रहते हैं। उन्हें मोक्ष नही मिल सकता।

श्रद्धा रखनेवाला तामसी भी हो सकता है। गीतामें इसके लक्षण बताते हैं कि ऐसा व्यक्ति प्रेतयोनिको पूजता है और किसी दुष्ट फलेच्छासे पूजता है। ऐसी श्रद्धा या ऐसा तप दूसरेको कष्ट देनेके लिये किया गया हो, मूढता या हठके कारण किया हो, शास्त्रविहीन हो, इसी क्रममें दान भी देश-काल-पात्रता आदिका विचार किये बिना ही दिया हो तो ये सभी तामसी कार्य हैं। इनका कोई सुपरिणाम नही निकलता। अर्थात जिस प्रकार अज्ञ अश्रद्ध या संशयात्मा का विनाश होता है -- वे मोक्षसे विमुख ही रहते हैं उसी प्रकार तामसी श्रद्धा रखनेवालोंको भी श्रद्धाके कारण प्राप्त होनेवाला कोई पुण्यफल नही मिल पाता। इससे भी आगे हम कह सकते हैं कि ऐसा व्यक्ति समाजका भी पथदर्शक नही हो सकता। बल्कि वह समाजके लिये संकट भी बन सकता है। अश्रद्धा अथवा तामसी श्रद्धासे किया गया कार्य असत् ही रहेगा और असत् फल ही देगा। इसी कारण समाजको तामसी श्रद्धाके प्रति सचेत रहना चाहिये।

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