Sunday, July 18, 2021

अध्याय १९ संन्यास, संतोष, ऋण व अतिथी

 अध्याय १९

संन्यास, संतोष, ऋण व अतिथी

हिंदू दर्शनमें चार पुरूषार्थ बताये गये हैं- वे भी एक नियम, एक क्रमसे। पहले मनुष्य धर्म नामक पुरूषार्थको हासिल करें, फिर अर्थको, फिर कामको और फिर मोक्षको। यहां अर्थ शब्दके माने है संपत्ति या संपन्नता- लेकिन वही संपत्ति जो धर्मका आचरण करते हुए मिली हो - अर्थात अपने श्रम, कार्य कुशलता और उत्पादकताके कारण मिली हो न कि चोरी, डकैती, छल- कपट, घूसखोरी या जुएबाजी से। तीसरा पुरूषार्थ है काम- या उपभोग अर्थात् जो धन धर्मपूर्वक कमाया है उसका उपभोग या योग्य कार्यमें उसका विनियोग। यह योग्य उपभोग इसलिए आवश्यक है कि इससे जीवनमें एक प्रकारकी स्थिरता, सुरक्षितता आती है और ऐसा वातावरण तैयार होता है जिसमें स्वयंका ज्ञान और कला सुचारू ढंगसे पनप सकते हैं, बढ सकते हैं। साथ ही योग्य उपभोगको प्रश्रय देनेपर उन कलाकारों और कारीगरोंकी कलाको भी प्रश्रय मिलता है जिनकी आजीविका उसपर निर्भर है।

इन पुरूषार्थोंको जो हासिल कर लेता है- वही अगली सीढी अर्थात मोक्षके चौखट तक पहुंच सकता है और वहां पहुंचना हरेकके लिए वांछनीय बताया गया है। वहांसे अंदर जानेका उपाय संन्यास ग्रहण कहा गया है। लेकिन संन्यासका अधिकार भी हर व्यक्तिको उपलब्ध नहीं है। मनुष्य पहले ब्रह्मचर्य आश्रमका पालन करते हुए ज्ञान अर्जन करे- पढाई करे। फिर गृहस्थ आश्रमका पालन करते हुए अपनी कार्यकुशलतासे धन अर्जन करे। साथ ही धर्मका पालन भी करता रहे जिसकी रीति उसे ब्रहमचर्य आश्रममें सिखायी गयी है। दोनों आश्रमोंके लिए पच्चीस- पच्चीस वर्षका काल उपयोगी बताया है। इसी कालमें मनुष्य अपने धनका उपभोग भी करे- उसके माध्यमसे अपनी परिवारकी वृद्धि और समृद्धी भी करे। इस गृहस्थ आश्रमके कालमें महत्वाकांक्षा रखना उचिय व योग्य माना गया है।

फिर वह वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करे। अर्थात् जिस व्यवसायको उसने गृहस्थ आश्रमके दौरान चलाया या बढाया- उसकी जिम्मेदारी बच्चोंको, नयी पीढीको सौंप दे, नयी पीढीको जिम्मेदारी उठानेके लिए सक्षम करे। इस दौरान वह नयी पीढीके लिए दूरसे पथ- प्रदर्शकका काम करता रहे. कभी- कभार सलाह मशविरा दे दे। यदि संभव हो तो स्वयं वनमें जाकर रहे। संकटकाल हो तो वापस आकर मदद करे। लेकिन अपनी महत्वाकांक्षाको पीछे छोड दे, उसे अगली पीढीपर स्वयं ना थोपे। रोजाना कामकाजकी जिम्मेदारी और अधिकार दोनों ही नयी पीढीपर सौंप दे। यदि संभव हो तो स्वयं वनमें जाकर रहे। इसीलिए आयुकी इस अवस्थाका नाम है वानप्रस्थ आश्रम- अर्थात् वनकी ओर, प्रकृतिकी ओर,प्रस्थान करनेकी अवस्था। वहां वनमें वह अपनी जरूरतोंको कमसे कम करता रहे। साथ ही कुछ और ज्ञानार्जन भी करता रहे।

इन सारे अनुभवोंसे गुजरने के बाद यदि वह अपने आपको योग्य और सक्षम समझे तो फिर किसी योग्य गुरूके परामर्शसे संन्यास आश्रमकी दीक्षा ले।

इस प्रकार हम देखते हैं कि ब्रहमचर्य, गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रमका विधान तो सबके लिए बताया गया है लेकिन संन्यास आश्रमका विधान सबके लिए नहीं है - यह केवल सुयोग्य और दृढ व्यक्तियोंके लिए है।

यह इसलिए कि हिंदू दर्शनके अनुसार संन्यासीपर बडी जिम्मेदारी है समाजको रास्ता दिखाने की। संन्यास लेने वाला मनुष्य अपना पहला नाम या परिवारके साथ जुडी हुई अपनी पहचानको छोड देता है। फिर वह न किसीका पिता है न पुत्र, न किसीकी माता है ना बहन ना पत्नी। इसका प्रतीक है मुंडन। यहां उसका व्यक्तिगत जीवन समाप्त हो जाता है और सामाजिक जीवन प्रांरभ हो जाता है। फिर वह केवल समाजके लिए ही जीता है- वह भी समाजसे न्यूनतम दानको स्वीकार करते हुए।

संन्यासीके लिए भिक्षाका विधान है- ताकि उसे हर पल यह भान रहे कि वह समाजके दातृत्व पर जी रहा है और इस दानको उसे चुकाना भी है। बदलेमें समाजको ज्ञानदान देकर और सही रास्ता समझाकर। उसके लिए विधान है कि वह पांचसे अधिक घरोंमें भिक्षा न मांगे। जूठा या बासी अन्न भिक्षामें स्वीकार न करे। इस नियममें कभी भूखा रहना पडे तो रह ले। एक गांवमें तीन दिनसे अधिक दिनों तक न रहे। केसरिया वस्त्र धारण करे और अपने सामानमें केवल एक कमंडल रखे। यह कमंडल या तूंबा जंगली लाल कद्दूका बना होता है जिसमें दो खाने बने रहते हैं। निचले खानेमें वह अपने लिए दूसरी जोडी वस्त्र रख सकता है। ऊपरके खानेमें भिक्षाका अन्न, या पानी। इसके सिवा वह और कुछ संग्रह नहीं कर सकता है।

संन्यासी केसरिया रंगका वस्त्र ही धारणा कर सकता है। इसका कारण है कि केसरिया रंगको त्याग, तपस्या, उत्सर्ग, बलिदान, वीरता, ज्ञान और संतोषका रंग माना गया है। मानस शास्त्रमें रंगोंका मनपर पडने वाला प्रभाव जिस किसीने पढा होगा या प्रयोग किये होंगे वही बता सकता है कि केसरिया रंग इन गुणोंके साथ कैसे जुड गया। भारतमें जो सब कुछ त्यागकर संन्यासी बन गया हो वह केसरिया वस्त्र पहनता है या फिर जो वीरमरणके लिए सारे मोहको त्याग चुका है वह केसरिया वस्त्र पहनता है। साथ ही जो लंबी तीर्थयात्रा पर जा रहा है वह केसरिया पताका लिए चलता है क्योंकि केसरिया रंग सांसारिक मोहसे अलग हटनेका प्रतीक तो है, लेकिन समाजसे दूर हटनेका प्रतीक नहीं हैं, बल्कि अपने आपको समाजके लिए उपलब्ध और उत्सर्ग करनेका प्रतीक है। यह तभी संभव है जब मनुष्यके पास संतोष हो। एक संन्यासी संसारको तभी लीडरशीप दे सकता है यदि वह ज्ञानी हो, अपने काममें कार्यकुशल और प्रवीण रह चुका हो, जिसने अपने ज्ञानको खूब घिसकर और तपाकर सोनेकी तरह खरा कर लिया हो। अब ऐसे संन्यासीको देखकर कोई आलसी आदमी सोच सकता है कि मैं भी केसरिया वस्त्र पहनकर भिक्षा मांगता चलूं तो बिना काम किये ही मेरा पेट भर सकता है। लेकिन केवल केसरिया वस्त्र पहनकर एक आलसी आदमी एक ज्ञानी संन्यासीके समकक्ष नहीं हो सकता है।

और धर्म भी क्या है? धारयति इति धर्मः । जो हमें अपने आपको धारण करनेकी, अर्थात् अपने आंतरिक दृढताको और साथ ही समाजकी आंतरिक समन्वयको बनाये रखनेकी सामर्थ्य देता है- वही धर्म है। वह धर्म कार्यकुशलताके बगैर भी नहीं आता लेकिन संतोषके बगैर भी नहीं आता।

पश्चिमी दुनियामें जो भी आधुनिक मैनेजमेंट टेकनिककी बहु-चर्चित पुस्तकें हैं, उन सबमें एक सूत्र समान है कि मनुष्यको महत्वाकांक्षी होना आवश्यक है यही सूत्र भारतके वरिष्ठ उद्योगपति, राजनेता, प्रशासक अधिकारी आदि पर भी लागू किया जाता है और उन्हें समझाया जाता है कि महत्वाकांक्षा पालो। इसी कारण वे भगवद्गीतामें वर्णित कर्मकुशलता के सिद्धान्तको कदाचित समझें लेकिन कर्मफलासक्तित्यागको बिलकुल नही समझते और संन्यासधर्मको भी नही।

वैसे तो समाजमें कई ऐसे सुयोग्य व्यक्ति पाये जाते हैं जो अपनी कर्तव्यदक्षता, ईमानदारी और काममें अच्छा अंजाम देनेवाले हैं, फिर भी उन्हें महत्वाकांक्षी नहीं कहा जा सकता। वे अपना काम अच्छी तरह निभा लेनेमें ही अपनी महानता समझते हैं और इस बातकी परवाह नहीं करते कि इस कुशलताके अनुरूप संपत्ति, यश या मानसम्मान मिलता है या नही। थोडे शब्दोंमें कहा जाय तो उनके लिए उचित शब्द होगा अलमस्त या फक्कङ। यह संन्याससे बस एक सीढी नीचेकी स्थिती है।

इसीलिए यह चर्चा का विषय हो जाता है कि हमारा आदर्श कौन है? एक व्यक्ति जो बडा ही एफिशंट और बडा ही महत्वकांक्षी है, या वह जो कामका तो पक्का है लेकिन अपनी अलमस्तीमें खुश है, संतुष्ट है। ऐसा प्रश्न किसी पश्चिमी चर्चामें तो उठेगा ही नहीं क्योंकि पश्चिमी सोसायटीमें महत्वाकांक्षी न होना अपने आपमें ही एक कमी या कमजोरी मानी जायेगी। लेकिन भारतीय संस्कृतिने संतोषको एक कमजोरी नहीं वरन गुण कहकर जाना है। संतोंने कहा है - जब आवै संतोष धन सब धन धूरि समान। अतः सवाल उठता है कि क्या यह संतोषकी मानसिकता आजके युगमें भी कोई मायने रखती है, क्या यह भारतीय संस्कृतिके लिये या भारतके उत्थानके लिये संकट हो सकती है? वहांसे फिर बात आती है धर्म पर और संन्यास पर।

यही अंतर है संतोषके प्रसंगमें भी। एक निखटटू और औसत काम करनेवाला भी कह सकता है कि भई मैं तो खुश हूं, संतुष्ट हूं, मुझे कोई ज्यादा काम नहीं करना पडता है और ज्यादा सिर भी नहीं खपाना पडता है। पर उसकी संतुष्टि उसके आलसके कारण उपजी है और वह संतुष्टि किसी सद्गुणका प्रतीक नही है। उससे वह भला जो महत्वाकांक्षी है और अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करनेके लिए मेहनत और अच्छा काम करने को तत्पर है। लेकिन उससे भी अच्छा वह है जो कर्तव्यतत्पर होते हुए भी अपने आपमें संतुष्ट है, परिपूर्ण है। क्योंकि वह जानता है कि उसका बडप्पन उसका अपना अंदरूनी है। अपना काम बेहतरसे बेहतर कर दिखानेकी धुन उसकी खुदकी है। एक बेहतर कामको कर निभानेका आनंद और उससे उपजी संतुष्टि उसके पास है।

बेहतर कामसे एक अलग तरहका अहंकार भी उपज सकता है जो कार्यकुशलता के लिए घातक भी हो सकता है। यह अंहकार भी महत्वाकांक्षाका दूसरा रूप है.लेकिन महत्वाकांक्षा और अहंकारसे ऊपर उठकर जिसने कार्यकुशलताके साथ संतोषकी अवस्था प्राप्त की है उसकी अवस्था उस ज्ञानी- संन्यासी जैसी है। इस प्रकार हम देखते हैं कि सच्चा संतोष और आनंद तो कार्यकुशलताके कारण ही उपज सकता है लेकिन मूढ व्यक्ति अपने आलसको ही अपनी अलमस्ती बतायेगा, उसे संतोषका नाम देगा। आलसमें और कार्यकुशलतासे उत्पन्न होने वाले संतोषमें फर्क कर सकें यह समझ मूढ व्यक्तिमें नही होगी परन्तु हमारे अंदर होनी चाहिए।

कार्यकुशल व्यक्तिका महत्वाकांक्षी होना स्वाभाविक है। पश्चिमी मैंनेजमेंट गुरू आज चीख चीखकर कहते हैं महत्वाकांक्षी बनो- क्योंकि महत्वाकांक्षा पूरी करनेके लिए ही सही- व्यक्तिको अपने काममें कुशलता लानी पडती है। लेकिन कार्यकुशलता और महत्वाकांक्षाके बाद तीसरी सीढी है संतोष जिसके बगैरे व्यक्ति या समाजका आंतरिक समन्वय अधिक दिन तक नहीं टिकेगा। इसीलिए संन्यासी वृत्ति भी चाहिए। यहीं भारतीय मानसिकता पश्चिमी मैनेजमेंटसे अलग हो जाती है।

इस पूरे विवेचनसे हम भारतीय संस्कृतिकी ऋण एवं अतिथी परंपराओंको भी समझते हैं जो हिंदु संस्कृतिके उत्कर्षका एक बडा रहस्य है। ये दोनों परंपराएं अनन्यसाधारण हैं। हर व्यक्ति जो गृहस्थ है, पुरूषार्थसे कमाई कर रहा है उसके लिये यह कर्तव्य सुनिश्चित किया गया है कि उसके उत्कर्षमें और उसकी कमाईमें समाजका जो योगदान है उसे पहचाने।

जब कोई राष्ट्र बनता है तब उसका मूलमंत्र होता है सहयोग, समन्वय, समादर, समरसता, समान ध्येय इत्यादि। समाजका कोई एक व्यक्ति अपनी सारी आवश्यकताओंकी आपूर्तिके साधन अकेला नही जुटा सकता। हजारों संसाधन ऐसे होते हैं जिनका उपयोग तो वह करता है लेकिन उन्हें किसी पूर्वजने उपलब्ध कराया होता है। उदाहरण के लिये जब हम किसीसे बात करते हैं तो संवादकी भाषाको कई पीढीयों पूर्व किन्हीं अज्ञात पूर्वजोंने विकसित किया था। लेकिन आज उसने हमारा काम कितना सरल कर दिया। रास्तेपर कोई द्रुतगति वाहन चलता है तो कई वर्ष पूर्व कुछ लोगोंने वह रास्ता बनाया होता है। हम उसका उपयोग करते हैं, ताकि गन्तव्य तक वेगसे पहुँचे और वहाँ अपना काम पूरा करें। एक बगीचेमें हमें आह्लाद देने वाली स्वच्छ हवा, वृक्ष, फूल, पौधे आदिका सहवास प्राप्त होता है। लेकिन यह बगीचा, उसके वृक्ष इत्यादि हमसे पूर्व कई व्यक्तियोंने मिलकर लगाये होते हैं, कईयोंने मिलकर उन्हें संभाला होता है।

इन उदाहरणोंमे वर्णित भाषा, या रास्ता, या बगीचा, ये सबके सब मेरे कामको वेगपूर्वक आगे बढानेमें मेरे सहायक होते हैं। लेकिन पूर्वजोंके परिश्रमका अभाव होता तो मुझे यह सुविधाएँ नहीं मिल पातीं।

तो फिर मेरा कर्तव्य बनता है कि मैं उन पूर्वकर्मियोंके द्वारा उत्पन्न सुविधाओंका लाभ उठाते हुए उनके प्रति कृतज्ञताका भाव रखूँ। उनका धन्यवाद करूँ। और उनके उदाहरणको आगे दोहराऊँ। इसी कारण हमारी परंपरामें सिखाया जाता है हर सुबह उठकर पांच श्रेणीके व्यक्तियोंके प्रति अपनी श्रद्धा व आदर प्रकट करो- उन्हें प्रणाम करो।

मातृदेवो भव- अर्थात माताके प्रति कृतज्ञता रखता हो ऐसा व्यक्ति बनो, माताके उपकारोंका सर्वप्रथम और सदैव स्मरण रखो। क्योंकि माँने तुम्हें अपने अंशके रूपमें पाला और उसीके कारण तुम इस संसारमें आ सके हो। उसने शरीर एवं वंशानुगत संस्कार दिये।

पितृदेवो भव - माताकी ही तरह पिताके प्रति भी कृतज्ञता रखता हो ऐसा बनो, क्योंकि जन्ममें और पालन पोषणमें भी पिताकी बडी भूमिका होती है।

आचार्यदेवो भव- ज्ञान देने वाले आचार्यके प्रति सदैव कृतज्ञता रखता हो ऐसा बनो

अतिथीदेवो भव एवं राष्ट्रदेवो भव- अतिथी एवं राष्ट्रके प्रति भी कृतज्ञता रखता हो ऐसा बनो। राष्ट्रमें उपलब्ध संसाधनोंका हम उपयोग करने हैं अतएव राष्ट्रकी कृतज्ञता भी स्वाभाविक है। परन्तु अतिथिदेवो भवका मंत्र अति रहस्यात्मक है। अतिथि वह है जो कभी भी बिना किसी सूचनाके, बिना इष्ट- अनिष्ट काल देखे कभी भी द्वारपर आ सकता है। ऐसी अवस्था में यदि वह भोजन चाहे तो भोजन, विश्राम चाहे तो विश्रामकी व्यवस्था और अन्य कोई सहायता चाहे तो वह सहायता देना प्रत्येक गृहस्थाश्रमीका परम कर्तव्य माना गया है।

सभी वेदोंने अतिथी और अग्निको एक समान, एक दूसरेके तुल्य बताया है। अतिथीधर्म निभानेके हेतु विशेष निर्देश दिये गये हैं। अग्नि हमारे लिये अतिथी है और अतिथि भी अग्निका रूप है। यजुर्वेदका एक मंत्र कहता है- हे ऋत्विजों, जिसके आनेजानेकी तिथी नियत न होनेसे उसका नाम अतिथी है ऐसे अतिथीके समान पूजनीय अग्निको घृतयुक्त समिधाओंसे तृप्त करो। अनेक हव्य पदार्थोंके अर्पणसे उसे तृप्त करनेपर वह अपनी दीप्तिमान ज्वालाओंसे हम सबको दीप्त करेगा।

कठोपनिषदमें एक प्रसंग है जब नचिकेत स्वयं यमराजसे मिलने उनके राज्यमें पहुँचता है और यमधर्मको कहीं यात्रापर गया जानकर उन्हींके घरकी सीढीयोंपर तीन दिन उनकी प्रतीक्षा करता है। जब यम लौटते हैं तो पत्नी उन्हें परामर्श देती है -

वैश्वानरः प्रविशत्यतिथिब्राह्मणो गृहान्।

तस्यैतां शान्तिं कुर्वन्ति हर वैवस्वतोदकम्। (वल्ली१ अध्याय१ ऋचा ७)

अग्नि किसी विद्वान अतिथीकी भाँति घरमें आता है। वैसे ही अतिथी भी साक्षात् अग्नि होता है। इसे जल, अर्घ्यपाद्य इत्यादि देकर तृप्त व शांत करें अन्यथा वह कठोर हो गया तो घरको भस्म कर सकता है। अब यह अतिथी तीन दिनोंसे बिना अन्नजल लिये तुम्हारी प्रतीक्षामें बैठा है। अतः तुम किसी भी अन्य कार्यमें समय व्यतीत किये बिना तत्काल उसके समीप उपस्थित होकर उसकी इच्छापूर्ति करो। यमराज भी पत्नीकी सूचना मानते हुए तत्काल नचिकेतके पास पहुँचकर उसके अतिथ्यमे लग जाते है।

संत ज्ञानेश्वर अतिथी सत्कार न करनेसे होनेवाले नुकसानको बताते हैं कि अपमानित अतिथी आपकी सारी सुकृतरूप संपत्तिको हर ले जाता है।

वैसे विचार करें तो अतिथी कौन होता है? वह एक अनजाना व्यक्ति है जिसके साथ प्रत्यक्ष रूपसे न कभी कोई नाता- रिश्ता रहा न कोई परिचय। और कदाचित आगे भी कोई नाता नही रहनेवाला। परंतु एक नितान्त अपरिचित भी चूँकि अपने समाजका, अपने राष्ट्रका घटक है, तो वह मेरे लिये पराया नही रह जाता और न रहना चाहिये। वह चाहे किसी भी मजबूरीवश अतिथीके रूपमें मेरी सहायता चाहे-- वह सहायता देनेके लिये मुझे हर क्षण उतनी ही तैयारी, अपनापन और आनंद दिखाना चाहिये जितना किसी सगे संबंधीसे मिलकर।

यह विश्वबंधुत्वका संस्कार है। हमारे देशमें अतिथीकी जो परंपरा रही वह केवल यहीं तक सीमित नही है कि घर आये अतिथीको तृप्त किया जाय। गृहस्थाश्रम स्वीकार करनेसे पहले अर्थात् विवाहसे पूर्व वरको यह संकल्प लेना पडता हैं कि वह जब तक गृहस्थाश्रममें है तबतक कमसे कम एक अतिथीको भोजन कराये बिना खुद भोजन नही करेगा।

भृगु उपानिषदमें ब्रह्मकी व्याख्या समझाते हुए सर्वप्रथम अन्नको ही ब्रह्म कहा गया है। फिर अन्नकी अच्छी उपज, अच्छा व्यवस्थापन इत्यादिको व्रत जानकर निभानेका निर्देश देते हुए ऋषि आगे कहते हैं कि गृहस्थके घरमें अन्नका सदैव इतना भंडारण होना चाहिये कि अतिथीको अन्नसे विमुख न जाना पडे।

आज जब हम समाजमें अन्नसुरक्षाकी बात करते हैं तो केवल सरकारी नीतियोंकी और सरकारी दायित्वकी चर्चा करते हैं। लेकिन समाज भी यदि अपना दायित्व निभाता रहे तो सरकार पर निर्भरता समाप्त हो जाती है।

भारतीय परंपरामे सर्वदा ऐसे संस्कार बनाये गये जिनसे सत्ताका सुचारू रूपसे विकेंद्रीकरण हो सके। जब किसी भी कार्यके लिये जनताको सरकारपर निर्भर रहना पडता है तब स्वाभाविक रूपसे सत्ता केंद्रित होना आरंभ होता है। भारतीय संस्कारोंका मूलमंत्र यही हैं कि सत्ता अधिकतर विकेंद्रित रहे। समाजहितके प्रायः सभी कार्य समाज स्वयं पर जिम्मेदारी लेकर करे।

तो मनुष्यकी सबसे पहली आवश्यकता जो अन्न है, उसकी सुरक्षाके लिये समाज राजसत्ता पर निर्भर नही रहे, वरन् आपसी सद्भावसे ही अन्न सुरक्षाकी पूर्ति करे इसी कारण अतिथीको देवता बताया गया है, अतिथी सत्कारको पुण्यकर्म और अतिथी संस्कारको एक आवश्यक व्रत। इस प्रकारका संस्कार अन्य सभ्यताओंमें अभाव से ही देखा जा सकता है।

------------------------------------शब्द २५०० पन्ने ८ ----------------

No comments:

Post a Comment