Sunday, July 18, 2021

अध्याय ७ श्रद्धा और विज्ञान

 

अध्याय ७ 

श्रद्धा और विज्ञान

भगवद्गीता में कहा है- बंध मोक्षं च या वेत्ति बुद्धिः सा पार्थ सात्विकी।

यह किस बंधकी और किस बंधमुक्तिकी बात श्रीकृष्णने कही है? इसका श्रद्धा से क्या संबंध है और आखिर यह श्रद्धा क्या बला है? आधुनिक विज्ञानवादियोंको यह बतानेसे पहले थोडी चर्चासे भौतिकीके एक सिद्धान्तको समझते हैं।

पानीको गर्म करनेसे उसका तापक्रम धीरे धीरे बढने लगता है और १०० डिग्रीसें पहुँचने पर वह भाप बनता है। बडी सरलसी बात है। लेकिन १०० डिग्रीसें पर उबलते पानीकी अपेक्षा १०० डिग्रीसें की भापसे हाथ अधिक जलता है। क्यों? क्योंकि उस भापकी उर्जा उसी तापक्रमवाले पानीकी ऊर्जासे अधिक होती है। क्यों?

भौतिकी पढनेवाले जानते हैं कि पानीके अणुओंके बीच तीव्र आपसी आकर्षण होता है जिससे वे एक दूसरेको बांधकर रखते हैं। साथ ही ये अणु प्रतिपल तेजीसे घूमते रहते हैं और एक दूसरेसे टकराते रहते है। पानीको गरम करनेपर अर्थात उसे बाहरी ऊर्जा देते रहनेपर जैसे जैसे अणुओंके घूमनेकी गति बढती है, वैसे वैसे पानीका तापक्रम बढता चलता है। वह १५ डिग्रीसे ४०, ७५ आदि पार करते हुए १०० डिग्रीतक पहुँचता है, जहाँ अणुओंके घूमनेकी गति अतितीव्र होती है और हम पानीका उबालना देख भी सकते हैं। इस तीव्र गतिके दौरान भी अणुओंके बीच आकर्षण काम कर रहा होता है, वह आकर्षण अभी भी बलपूर्वक अणुओंको आपसमें बांधे हुए है, लेकिन.....

बाहरसे प्राप्त हो रही उर्जाके कारण अब अणु भी ढी हो गये हैं। कोई एक अणु इतनी अधिक ऊर्जा बटोर लेता है कि वह दूसरोंके आकर्षण बलको भेदकर भाग निकलता हैवायुमंडलकी ओर। अब वह पानीका अणु नही वरन भापका अणु बन गया है। याद रहे कि पानीके अंदर अंदर तेज गतिसे घूमनेवाले अणुओंके पास भी ऊर्जा है लेकिन वह अन्य अणुओंके आकर्षणके बलको भेद सके इतनी नही है। अन्य अणुओंकी अपेक्षा अधिक ऊर्जा बटोरनेवाला अणु ही भाग सकता है। और ऐसा भी नहीं कि केवल १०० डिग्रीसें पर ही यह क्रिया होती हो। १०- १५ डिग्रीसें वाले पानीसे भी बिलकुल कम संख्यामें कोई कोई अणु इस प्रकार ऊर्जा बटोरकर भाग रहे होते हैं। इसी कारण थालीमें रखा थोडासा पानी अन्ततः अपने आप सूख जाता है- अर्थात उसके सारे अणु एक एक कर भाग निकलते हैं। भौतिकीकी पढाई करनेवाले सभी जानते हैं कि १०० डिग्रीसें पर रखे पानीको १०० डिग्रीसें पर भाप बनानेके लिए प्रति ग्राम ५४० कॅलरी ताप-उर्जाकी आवश्यकता होती है। इसे latent heat of vaporization कहते है।

दार्शनिकतासे देखें या भौतिक विज्ञानकी दृष्टिसे दोनों ही स्थितियोंमें पानीकी बूंदोंका भाप बनना उनके पूरे अस्तित्वको ही नया रूप, नया आयाम, प्रदान करता है। भाप बनें उन अणुओंका जीवन अब बदल चुका है। उनकी नियमावली, उनके कामकाज, उनका प्रवाह, गति, उनके अस्तित्वका विस्तार, सबकुछ बदल चुका हैं। वह एक अलग दुनिया है। लेकिन ऐसा नही कि पानीकी बूँदें अपनी पुरानी दुनियाँमें वापस नहीं सकतीं है। बिलकुल सकती हैं, और जब आयेंगी तब उनपर वही पुराने नियम लागू होंगे जो भाप बननेसे पहले लागू थे।

विचार और श्रद्धाका भी यही नाता है। हमारे विचार एक तार्किकताके आधारसे बनते हैं। बुद्धि सदैव तर्कप्रामाण्य होना चाहती हैं। लेकिन एक अलग स्थितिमें आनेके पश्चात् सामान्य व्यावहारिक तर्कोंसे परे, ज्ञानकी अगली सीढीके लिये जो नये नियम आवश्यक हैं, उन्हें स्वीकारनेके लिये बुद्धि तैयार हो जाती है। ये नये नियम उसे श्रद्धाके आयाममें पहुँचाते हैं। यहाँ पहले मानना आवश्यक है, फिर उस मान्यताके आधारपर निकलनेवाले निष्कर्षोंकी अनूभूति प्राप्त करना और इस प्रकार मान्यताको स्वीकार करना- यह प्रक्रिया अपनानी पडती है। ठीक वैसे ही जैसे बीजगणितमें हम किसी अनजाम मूल्यकों जानने हेतू पहले उसे क्ष की संज्ञा देते हैं, फिर नियमपूर्वक आगेकी प्रक्रिया करनेपर हमें क्ष का मूल्य ज्ञात हो जाता है।

बुद्धिका तर्कप्रामाण्य होना ही विज्ञान कहलाता है। इसी विज्ञानबुद्धिके आधारसे हम नये नये आविष्कार करते चलते हैं और सृष्टिसिद्धान्तोंकी व्याख्या भी करते हैं। तो यहाँ कहीं आपको श्रद्धा दिखी? दिखी है - विज्ञानने भी इस श्रद्धाको अपनाया है कि सृष्टि नियमानुसार चलती है। Science has an underlying axiomatic faith that Universe behaves Rationally. इसीकारण विज्ञानद्वारा उन्हीं नियमोंको खोजनेका और समझनेका प्रयास सदा ही रॅशनल तरीकेसे किया जाता है। रॅशनल अर्थात जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण हो या किसी सूत्रबद्ध तार्किकतासे व्याख्यायित हो सके। लेकिन यदि सृष्टि नियमसे ना चले तो विज्ञान क्या करेगा? क्यों सृष्टि नियमसे चले? किसने उसपर यह बंधन डाला है? क्यों है यह बंधन? इसका उत्तर विज्ञान नही वरन श्रद्धा ही दे सकती है।

एक उदाहरण देखते हैं। भौतिक विज्ञानके नियमानुसार सारे जड पदार्थ गर्मी पाकर फैलते हैं और तापक्रम गिरनेपर सिकुडते हैं और उनका घनत्व बढता है। पानीपर भी यही नियम लागू है। लेकिन अचानक पानीने अपना स्वयंका नियम बनाया कि शून्यसे चार अंश तापक्रमके बीच वह उलटा चलेगा - अर्थात गर्मीसे सिकुडेगा और ठण्डकसे फैलैगा। विज्ञानकी समझसे परे है कि पानीने अपना नियम क्यों बदल दिया – वह भी तापक्रमके केवल इतने छोटेसे अंतराल के लिये? लेकिन पानीके इस बर्तावका परिणाम यह होता है कि कडाकेकी ठण्डमें अगर पानी सिकुडकर घनीभूत होने लगेगा तो पानीके अंदर रहनेवाले जलचरोंपर दबकर मर जानेका संकट गहरायेगा। परन्तु सृष्टि ऐसा नही होने देती। चारसे शून्य डिग्रीके बीच घनीभूत होता हुआ पानी या बर्फ हल्का होकर ऊपर तैरता रहता है और बाहरी वातावरण तथा नीचेके पानीके बीच इन्सुलेशन बनकर तापके आवागमनको रोकता है। अब नीचेका पानी चार डिग्रीसे कम ठण्डा भी नही होगा और बर्फ भी नही बनेगा। वहाँके जलचर सुरक्षित रहेंगे।

सृष्टिने जलचरोंकी परिरक्षाके लिये अपना नियमानुसार चलनेका व्रत तोड दिया - जबकि इसी नियमबद्धतापर इतराकर विज्ञान और बुद्धि तर्कप्रामाण्य होनेका दावा करते थे। श्रद्धा हो तो सृष्टिके इस बरतावका तर्क खोजनेकी बजाय मनुष्य उसकी विवेकशक्तिको प्रणाम कर धन्यवाद देगा और अगले नियमोंको समझनेमें जुटेगा।

सहस्राब्दियोंसे यह भारतीय मान्यता रही है कि यूनिवर्स एक लम्बी हदतक रॅशनॅलिटीसे ही चलता है और इस बातका वर्णन करनेहेतु हमारे वाङ्मयमें एक बहुत सुंदर शब्द है ऋत। अर्थात वह सारे शाश्वत चिरंतन नियम जिन नियमोंमें बंकर सृष्टि या प्रकृति चलती है ये सृष्टिके स्वयंके लिए बनाये हुए कुछ नियम हैं जो कि अत्यंत तर्कसंगत हैं, रॅशनल हैं और प्रकृति उन्हींके अनुसार बरतती है ऋत और सत्य कई बार समानार्थी रूपमें प्रयुक्त किये जाते हैं लेकिन कभी ऋतका पलड़ा भारी होता है कभी सत्यका। ऋतको समझानेके लिए या अच्छी प्रकार व्याख्यायि करनेके लिए सत्य शब्दका उपयोग कई बार किया जाता है। दार्शनिकतासे कहें तो सृष्टिके प्रायः सारे नियम तर्कानुसारी हैं - ऋत हैं, पर कभी कभी वे विवेकानुसारी हो जाते हैं। यह विवेकबोध मंगल व कल्याणके हेतु है ऐसा श्रद्धा कहती है।

कुल मिलाकर ऋतही प्रकृतिको चलाता है ग्रंथोंने इंगित किया है कि के सारे नियमोंमेंसे कुछका ज्ञान हमें ज्ञानेन्द्रियोंसे प्राप्त हो सकता है कई ऐसे नियम शेष रहते हैं जिन्हे समझनेहेतु हमारी ज्ञानेद्रियां अपर्याप्त हैं, अधूरी हैं। वह ज्ञान पानेके लिए हमें अपनी ज्ञानेंद्रियोंसे परे जाना पड़ता है भारतीय दर्शनमें ज्ञानेंद्रियोंसे परे मन और मनसे परे महत् (बुद्धि) बताया गया है महत् को भी जब लय किया जा सकेगा, उससे परे मनुष्य जायेगा तब परम तत्वकी, परम ज्ञानकी प्राप्ति होगी ऐसी भारतीय तत्वज्ञानकी श्रद्धा है तो तको समझनेका या पानेका जो मार्ग है वह कुछ दूर तक हमें अपने ज्ञानेंद्रियोंके माध्यमसे दृग्गोचर होता है परंतु एक मर्यादाके बाद हमें उस मार्गको छोड अलग मार्ग अपनाना पड़ेगा

इसे ऐसे उदाहरणसे समझें कि समाजमें प्रत्येक व्यक्तिको डॉक्टरेट करनेकी आवश्यकता नहीं होती और ना ही वह संभव है कई व्यक्ति केवल बी तककी पढ़ाई कर लेते हैं या कई बार उससे निचले स्तरपर ही रुक जाते हैं लेकिन वह अपना चरितार्थ और जीवन निर्वाह कर सकते हैं, कर लेते हैं। उनका पठित ज्ञान और व्यवहारज्ञान मिलकर निर्वाहभरके लिये पर्याप्त है। इसी प्रकार अपनी ज्ञानेंद्रियोंसे सृष्टिके जो नियम हमें समझमें आते हैं उतने ज्ञानके आधार पर हम अपना सांसारिक जीवन निर्वाह कर लेते हैं। वे अधिकतर विज्ञानवाही, तर्कआधारित ही होते हैं। उनसे परे जो ज्ञा उपलब्ध है उसके विषयमें बहुत नहीं सोचते या उसकी कल्पना भी नहीं करते किसी किसी व्यक्तिमें ही वह ललक उत्पन्न होती है कि इंद्रियोंकी पकडसे परे जो सृष्टिनियम हैं, जो ऋत-सत्य है, उनको मैं समझूँ। उनमेंसे कुछ लोग ही प्रयत्न करते हैं और प्रयत्न करने वालोंमेंसे किसी किसीको वह ज्ञान प्राप्त होता है इसीलिए कहा गया हैयततामपि सिद्धानाम् कश्चिन्मां वेत्ति तत्वतः। (गीता अध्याय)

तो ऋतके नियम होते हैं और सृष्टि के अनुकूल चलती है हमें वह सारे नियम समझमें नहीं आएंगे और जिसे समझ जाएंगे उसे भी संभव है कि पूर्णतासे सारे नियम समझमें नहीं आएंगे तो जिन्होंने तत्व दर्शन किया उनकी भी अलग-अलग श्रेणियां होंगी

वे नियम जिन्हें हम अपने ज्ञानेंद्रियोंसे जान सकते हैं, उनका भी पूर्ण ज्ञान हमें नहीं हो पाता है उदाहरणके लिए गुरुत्वाकर्षणका सिद्धांत हमें उस सिद्धांतकी जानकारी तो है। हमारे पंच ज्ञानेंद्रियोंके कारण यह समझ उत्पन्न हुई कि गुरुत्वाकर्षण नामका कोई बल होता है, उसके कुछ नियम होते हैं। लेकिन फिर भी कोई अगर पूछे कि यह गुरुत्वाकर्षण कहांसे आता है? क्यों आता है? सृष्टि गुरुत्वाकर्षणके नियमोंका पालन क्यों करती है? तो हम उसका उत्तर नहीं दे सकते अर्थात आधुनिक विज्ञान जिन बातोंको प्रत्यक्ष रूपसे देख और समझ पाता है में भी कई ऐसी बातें, कई ऐसे प्रश्न बाकी रह जाते हैं जो आधुनिक विज्ञान नहीं सुलझा सकता है

मान लो मैं एक बंद कमरेमें सो रही हूं और सुबह देखती हूं कि मेरी टेबलपरसे किसने पैसे चुराए हैं। इसका अर्थ हुआ कि यद्यपि मुझे किसी गुप्त रास्तेका आभास नहीं था, लेकिन कोई कोई रास्ता था जिससे चोर आया और उसने पैसे चुराए। जिसे गुप्त रास्तेका आभास हो वह इसे चमत्कार ही कहेगा। किसी जासूसको ऐसा आभास हो तो उसकी खोजमें जुटेगा। विज्ञानमें हम किसी सिस्टमको क्लोज्ड सिस्टम मानते हैं, उसके कुछ नियम समझ लेते हैं। लेकिन यदि वह कुछ हदतक ओपन सिस्टम हो और हमें ज्ञात हो तो उस कारण जो भी घटित होगा उसे हम चमत्कार कहेंगे। तो चमत्कार शब्द सदैव नासमझीदर्शक नही होता – कभी कभी वह हमारी मर्यादाकी गर्वरहित स्वीकारोक्ति भी होता है।

बिंदुकी व्याख्या हम श्रद्धाके आधार पर ही करते हैं -- बिंदु वह है जिसकी ना लंबाई है ना चौड़ाई है ना मोटाई है, परंतु उसका अस्तित्व है, उसका स्थान है। बिंदुका अस्तित्व स्वीकार करनेपर ही हम रेखाकी या धरातल या अन्य ज्यामितिय आकृतियोंकी कल्पना कर सकते हैं। तो यह अस्तित्व श्रद्धासे ही उत्पन्न हुआ है। या यूं कहे कि बिंदुकी व्याख्या करनेके लिए जो प्रमाण माना गया वह श्रद्धाका ही स्वरूप है।

प्रकाशकी गतिका उदाहरण देखते हैं जिसके प्रयोगोंमें विसंगति आनेके बाद ही आईन्स्टाइनकी थ्योरी ऑफ रिलेटिविटी बनी। उसके पहले प्रकाश तरंगोंके प्रवाहके लिए नामक एक माध्यमकी कल्पना की गई थी लेकिन प्रकाश-प्रवाहके लिये उसके घनत्व और इलास्टिसिटी के ऐसे परिमाण आवश्यक थे जो आपसमें अत्यंत विरोधी थे और विज्ञानसंगत नही थे (It had to be very elastic and very rarified – two qualities which according to science, cannot exist together) अंततः माइकेलसनके प्रयोगोंसे सिद्ध हो गया कि जैसी किसी वस्तुका अस्तित्व ही नहीं है इसी बातने आईन्स्टाइनको नये सिद्धान्तके लिये प्रेरित किया। उसने कहा कि चूँकि ईथरका अस्तित्व नही है तो हमें मानना पडेगा कि पूरा ब्रह्मांड विद्युत-चुम्बकीय फील्डसे भरा है जो डेंसिटीविहीन लेकिन अस्तित्वधारी है और उसीके आधारसे प्रकाशतरंगोंका प्रवाह चलता है। इस विद्युत-चुम्बकीय फील्डका आभास भी हमें अपने दैनंदिन जीवनमें नही होता है। केवल कुछ खास प्रयोगोंसे ही उसके अस्तित्वका भान होता है।

पदार्थकी व्याख्या यही करी गई है कि अगर पदार्थ है तो उसकी घनता भी होगी क्या यह एक वैचारिक श्रद्धा नही है? ब्रह्माण्डको यद्यपि कोई पदार्थ व्याप्त नही कर रहा परन्तु एक विद्युत-चुम्बकीय क्षेत्र इसे व्याप्त करता है। इसी प्रकार बिंदुकी भी लंबाई चौड़ाई मोटाई इत्यादि नहीं है परंतु उसका अस्तित्व है। इन सबसे यह वाक्य सही जान पडता है कि सायंस इज फे इन रॅशनल बिहेवियर ऑफ यूनिवर्स एक मर्यादाके अंदर युनिवर्सके रॅशनल नियमोंका पालन होता है। मर्यादासे बाहर जब पदार्थ या प्रयोग निकलते हैं तो उन नियमोंमें कुछ फेरबदल हो जाते हैं। न्यूटनके बनाये गतिके नियम तथा आईन्स्टाइनकी रिलेटिविटी आधारित गतिके नियमोंमें थोडा अन्तर है। असामान्य परिस्थितियोंमें जैसे अंतरिक्षयात्रामें आईन्स्टाइनके नियम चलते हैं। पुनः जैसे-जैसे स्थिति सामान्यकी ओर आती है, वैसे वैसे आइनस्टाइनके फार्मूला न्यूटनके फार्मूलेसे एकरूप हो जाते हैं एक बड़ा ही तार्किक गणितीय विधान है विज्ञान हमें यहाँतक ले आता है लेकिन उससे आगे?

हमारा मानना है कि जैसे पुस्तकोंमें लिखा होता है भारत मेरा देश है इत्यादि, वैसेही विज्ञानकी पुस्तकके आरंभमें लिखा जाना चाहिए कि सृष्टि कुछ खास खास नियमोंके अधीन चलती है जिन्हें ऋत कहा जाता है उनमेंसे कई नियम हम अपने ज्ञानेंद्रियोंकी सहायतासे समझ सकते हैं, उनका आकलन कर सकते हैं, लेकिन सबका नही। नियमोंको जब हम समझ लेते हैं तो उन्हें हम विज्ञा कहते हैं

मन नामक जो संकल्पना भारतीय वाङ्मयमें पाई जाती है वह पश्चिमी विज्ञान या पश्चिमकी शब्दावली नहीं है हमारी इंद्रियोंसे ज्ञा तकका प्रवास कैसे होता है? मान लो त्वचाको कोई स्पर्श हो गया, फिर नाड़ी संस्थान घटनाकी सूचना मस्तिष्कतक पहुंचाती है और वहां जो एक स्पर्शका सेंटर है वहां यह प्रेरणा या अनुभूति हो जाती है कि हाथमें कुछ स्पर्श हो रहा है इस प्रकार इस प्रक्रियामें तीन एजेंसी काम कर रही होती है -- त्वचा, नाडी और मस्तिष्कका सेंटर। लेकिन उस स्पर्शसे मेरे अंदर जो भावतरंगें उठीं उनका क्या? यहाँ मनकी भूमिका आरंभ होती है।

पश्चिमी फिलॉसफीमें मन जैसी कोई संकल्पना नहीं है लेकिन भारतीय तत्वज्ञानमें मनको छठी इंद्रिय कहा जाता है। मनसे इच्छाएं जागृत होती हैं या विलीन भी होती हैं कोई स्पर्श मुझे हुआ और मुझे बहुत अच्छा या बुरा लगा मेरे मनमें उसके प्रति अनुराग अथवा द्वेष उत्पन्न हुआ इन भावोंका सृजनकर्ता मन ही है पश्चिममें जिसे माइंड कहा जाता है उसपर प्रश्न उठता है कि क्या माइंडके अंदर इच्छा जागृत होती है और यदि हां तो कैसे भारतीय तत्वज्ञानके अनुसार इच्छा जागनेके लिए पहले आपके पास जिज्ञासा होनी चाहिये तथा अहंकार भी होना चाहिए सी कारण चित्त अहंकार मन और बुद्धि इन चारोंको अंतस्-चतुष्टय कहा जाता है एक तरफ यह चार हैं और दूसरी तरफ पंचतन्मात्रा और पंचमहाभूत हैं नके आपसी व्यवहारसे इच्छाएँ बनती हैं, सृष्टिके नियम बनते हैं और उनके अपवाद भी।वे अपवाद केवल होनेकी खातिर नही हैं -- वे हैं इसी कारण सृष्टि टिकी है। यदि अनॅमोलस बिहेवियर ऑफ वॉटर ना होता तो जीवजन्तु नही बचते। बात छोटी है। पानी विशिष्ट तापक्रमपर अन्य द्रवोंसे अलग बर्ताव करता है। सृष्टिके लिये वही नियम है, वही ऋत है। विज्ञान इसे अपवाद कहता है लेकिन हम इसे ईश्वरेच्छा कह सकते हैं -- यही श्रद्धा है।

जिन ऋषियों या संतोंने श्रद्धासे आत्मज्ञान पाया -- (जिसने स्वयंको भगवानका अंश जाना) उन्होंने क्या किया -- उस ईश्वरको प्रकट किया जो अपने भीतर पहलेसे ही अवस्थित है। उदाहरण स्वरूप जब ज्ञानेश्वर कहते हैं कि बडे भाईने जो उनके गुरु भी थे, उनके मस्तकपर हाथ रखनेमात्रसे विशाल ज्ञान उनमें प्रस्थापित कर दिया तो ज्ञात नियमोंके आधार पर इसका स्पष्टीकरण नहीं किया जा सकता। इसे श्रद्धासे ही समझना होगा।

चित्रकार और शिल्पकारमें क्या अंतर है -- चित्रकार नया निर्माण करता है जबकि शिल्पकार अनचाहे आवरणोंको हटाकर अंदरसे उसे प्रकट कराता है जो वहाँ पहलेसे ही है। शिल्पकार ऐसा क्यों कर पाता है -- क्योंकि उसकी श्रद्धा है कि पत्थरमें वह मूर्ति है जिसे वह उकेरनेवाला है -- यह श्रद्धा हो तो मूर्ति नही उकरेगी। संत भी जब अपने अंदरसे अनावश्यक बातें हटाते हैं तो उन्हें भगवंतके नियम समझमें आते हैं -- वे ऋतको देख पाते हैं।

ऋत शब्दको शिव या मंगलके साथ जोडा गया है। यह जो शिवत्वका कनसेप्ट है वह ऋतमें निहित है, अनुस्यूत है -- ऋत कभी अमंगलके लिये नही है, अशिव नही है। इसीसे सृष्टिमें अनृत नही है। वह अनृत मनुष्यकी नासमझीमें है।

यह पूरी भारतीय शब्दावली हमें एक अलग आयाम बतलाती है जो अतीव विस्तृत है। आज हम इन शब्दोंकी समझ धीरे धीरे खोते जा रहे हैं। भारतीय ज्ञानको बखाननेवाली इस शब्दावलीको यदि हम बच्चोंको पहलेसे ही सिखा सकें तो उन्हें विज्ञान और श्रद्धा दोनोंका एकत्रित लाभ मिल सकेगा।

-------------------------------शब्द २५३७ पन्ने ८ ----------- कुल ४६ पन्ने

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