खण्ड २ राष्ट्रधर्म
अध्याय १०
राष्ट्रहेतु श्रद्धाके विषय तथा श्रद्धाके संस्कार
राष्ट्रधर्म क्या है? भारतीय संस्कृति ही हिंदू धर्म है। राष्ट्रकी विरासत होनेके नाते जो हिंदुओंके श्रद्धाविषय हैं ऐसे कुछ विषयोंकी चर्चा हम अगले अध्यायोंमें करेंगे। इन्हें संस्कारोंके माध्यमसे समाजमनमें उतारनेका साझा भार हमारे पूर्वजोंने हम सभीपर डाला हुआ है।
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उत्पत्तिके सिद्धान्त
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कालगणना
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युगान्तर
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वाणीकी अवधारणा
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ग्रंथसंपदा
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हिंदूधर्म व्यवस्थाके सोलह स्तंभ – चार वेद, चार पुरुषार्थ, चार वर्ण व चार आश्रम
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राष्ट्रचेतनाके आयाम
संस्कारी पीढी निर्माणहेतु श्रद्धाके विषय--
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कर्तव्य और निषेध – अर्थात नियम व यमोंकी व्याख्या।
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कृतज्ञता - पूर्वज, पितर, राष्ट्र व प्राणिमात्रका ऋण मान्य कर उऋण होना। तद्हेतु मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव, अतिथीदेवो भव, राष्ट्रदेवो भव तथा पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋणकी संकल्पना
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संन्यास, गुरुशिष्य परंपरा, मातृशक्ति, मूर्तिपूजा, प्राणप्रतिष्ठा, दान, भक्ति-ज्ञान-कर्मयोग, अतिथी, और प्रकृति-पूजा।
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साथ ही अनेक संप्रदायोंद्वारा जनहिताय कही गई उपासना पद्धतियाँ।
पिछले खण्डमें हमने देखा कि राष्ट्रका चरित्र उसके तत्त्वज्ञानसे बनता है। भारतीय तत्त्वज्ञान पुरुषार्थका तत्त्वज्ञान है और उसे समाजके मानस तक उतारनेहेतु हमें श्रद्धाका मार्ग दिखाया गया है। श्रद्धामयोयं पुरुषः-- श्रद्धासे ही मनुष्य जाना जाता है और समाजकी श्रद्धासे राष्ट्र।
हिंदूधर्ममें जो विचारक्रम निरंतरतासे चला उसका मूल या सार है कि
१. समाजहेतु अभ्युदय व स्वयंहेतु निःश्रेयस् की प्राप्ति ही धर्म है।
२. ईश्वरका अस्तित्व है। उसका स्वरूप सच्चिदानंदघन है। ॐ तत् सत् इन तीन शब्दोंसे ब्रह्मको दर्शाया जाता है। ॐ तत् सत् इति ब्रह्मणो निर्देशः (गीता १७-२३)
३. प्रकृतिमें ऋतका अस्तित्व है, नियम हैं जो प्रकृतिको चलाते हैं।
४. ऋतका दर्शन - मंत्रद्रष्टा ऋषियोंद्वारा ऋतका दर्शन किया गया, वही वेद हैं।
५. ॐकारका स्वरूप प्रणव यानि चैतन्य सर्वव्यापि है। चराचरमें ओतप्रोत है। वह नादःसंधान है, नादब्रह्म है।
प्राणियोंमें वह दृश्यभावसे है। मनुष्योंमें वह अधिक उन्नत है अतः मनुष्यकी यात्रा निरंतर सत्यज्ञानकी ओर चलती है। सत्यसे ऊपर कुछ भी नही है।
६. इस यात्रामें शरीर छूट सकता है। परन्तु आत्मा अविनाशी है - उसके लिये शरीर वस्त्रसमान हैं -- एक छूटनेपर आत्मा दूसरा वस्त्र- दूसरा शरीर धारण करती है। स्थूल सूक्ष्म एवं कारण शरीरकी व्याख्यामें स्थूल शरीर वस्त्र है, सूक्ष्म शरीर कर्मफल और कारण शरीर ज्ञानका संस्कार है।
७. शरीर छूटनेपर भी ज्ञान व कर्मके संस्कार आत्माके साथ चलते हैं -- इसीको कर्मविपाकका सिद्धान्त कहते हैं। यह अगले जन्मोंमें भी फलद्रूप होते हैं।
८. श्रद्धायुक्त ज्ञानद्वारा ईश्वरत्वकी एवं परम ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है। तद्हेतु तप, स्वाध्याय, भक्ति, दान, यज्ञ आदि कहे गये हैं। संसारके अन्य सभी धर्मोंमें ईश्वरको दूरस्थ एवं मनुष्यके लिये अप्राप्य कहा गया है। हिंदू धर्ममें उपास्य देवताकी कृपासे ईश्वरत्व प्राप्तिको संभव बताया गया है। वही निःश्रेयस् है।
९. गुरुविना ज्ञान नही है। अतः गुरू उपासनाका महत्व है। ईश्वर उपासनामें विभूतिदर्शनका भी आवश्यक है। उपास्यदेवता, मूर्ति, विग्रह इत्यादिमें श्रद्धासे संबल प्राप्त होता है।
१०. राष्ट्र व समाज सर्वोपरि हैं। कृण्वन्तो विश्वमार्यम् मंत्रमें राष्ट्र विस्तार अभिप्रेत है लेकिन वह आक्रमणसे नही वरन अभ्युदय मूल्योंसे सिद्ध हो ऐसा हिंदुओंका बरताव रहा है।
११. उस हेतु मूल्याधारित समाजकी निर्मितीमें परिवार, मातृशक्ति, गुरूपरंपरा, अतिथी, संन्यास, विग्रहपूजा और प्रकृति-पूजा ये हिंदू धर्मकी विशेषताएँ हैं जो अन्यत्र नही हैं।
१२. उऋण होना -- माता, पिता, गुरु, पूर्वज, देवता, अतिथि एवं समाजकी विभूतियाँ और विश्वदेव के प्रति कृतज्ञताका भाव रखते हुए उनके ऋणसे उऋण होनेे हेतु नित्यप्रति प्रयास करना।
१३. पितर संकल्पना - आत्माका एक अंश अगली यात्रापर निकलता है परन्तु एक अंश वायुरूपमें वंशजोंकी रक्षा करता है। अतः पितरोंके लिये श्राद्ध, पिंडदान, तर्पण तथा मंगल कार्योंमें उनके स्मरणकी प्रथा है। विवाह संस्था, परिवार, एवं प्रजोत्पत्तिका कर्तव्य निभानेको पितृऋण कहते हैं।
१४. प्रकृतिमें मातृशक्ति सदैव विद्यमान है जिसके प्रति समादरमें उन्नति और अनादरमें विनाश निहित हैं।
१५. प्रकृतिके विभिन्न घटकोंमें देवत्व है अतः चराचरके प्रति सौहार्द और परिरक्षणभाव होना चाहिये।
१६. राष्ट्रविचारमें सज्जनोंकी रक्षा और दुर्जनोंका विनाश ही धर्म है। जो श्रेयस्कर है उसकी हर प्रकारेण रक्षा परमावश्यक है। आसुरभावका उच्चाटन ही राजधर्म है। धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगेयुगे यह आश्वासन भी राष्ट्रधर्म है जिसे निभानेमें कृष्णसहित अर्जुन व पाण्डवोंको भी एकत्रित आना आवश्यक है।
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