Sunday, July 18, 2021

संकल्पशक्ति - आचार्य महाप्राज्ञ

 

संकल्पशक्ति - महाप्राज्ञ

check if in ch 8 आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार श्रद्धा का क्षेत्र है अपनी संकल्प-शक्ति का विकास, भावना का प्रयोग। जहां भावना का प्रयोग करना है , जहां संकल्प-शक्ति का उपयोग करना है , सृजन करना है , कुछ निर्माण करना है , वहां श्रद्धा का पूरा उपयोग होना चाहिए। जहां श्रद्धा में एक भी छिद्र बन जाता है , वहां डुबोने वाली नौका बन जाती है। तारने वाली नहीं। दुर्लभ श्रेष्ठताओं को पाने के लिए कुछेक घंटों का अभ्यास पर्याप्त नहीं होता। उसके लिए सतत पुरुषार्थ की जरूरत होती है। जो हाथ पर हाथ रखकर अपनी विवशताओं का रोना रोते हैं , अपनी बदनसीबी का दोष औरों पर डालते हैं शायद वे भूल जाते हैं कि बिना पुरुषार्थ औरों से सहारा मांगना , औरों से भीख मांग लेना है ; जो सिर्फ दया से कम , छुटकारा पाने की भावना से ज्यादा दी जाती है। यह विडंबना ही है कि अच्छे काम अक्सर कल पर टाल दिए जाते हैं , जबकि अच्छे कामों पर आज ही लगना चाहिए। श्रद्धा का एक आलंबन है- धर्म। रामचरितमानस में तुलसीदासजी ने कहा है- श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई। धर्म का अर्थ है- प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा और सौहार्द का भाव। धर्म का अर्थ है- संयम का विकास। धर्म के प्रति आस्था का अर्थ है आत्मा के प्रति आस्था। जिसकी आत्मा में सुदृढ़ आस्था होती है वह विषमताओं में भी विचलित नहीं होता , वह राग और द्वेष का परिहार कर अपनी आत्मा में वास करता है। श्रद्धा में निराशा का कोई स्थान नहीं है। गांधीजी ने कहा है कि हमारी श्रद्धा अखंड बत्ती जैसी होनी चाहिए जो हमको तो प्रकाश देती ही है , आसपास भी देती है। श्रद्धापूर्वक पूजन करने वाले के लिए पत्थर की मूर्ति भी फल देने वाली होती है। भक्ति से पूजने पर अज्ञानी गुरु भी सिद्धिदायक हो जाता है। श्रद्धापूर्वक आचरण में लाए सब धर्म मनोवांछित फल देने वाले होते हैं।

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