Sunday, July 18, 2021

अध्याय २८ भाषाई प्रभुसत्ता अंगरेजीके पालेमें -- देशकी भाषाओंपर भ्रष्टाचारका संकट

 अध्याय २८

भाषाई प्रभुसत्ता अंगरेजीके पालेमें -- देशकी भाषाओंपर भ्रष्टाचारका संकट


अंगरेजी शासनकालमें मेकॉले शिक्षण पद्धति लगभग १८६०से पूरे भारतवर्षमें लागू हुई। राज्य करते हुए अंगरेजोंके लक्ष्य आर्थिक, सत्ताकेंद्रित, धार्मिक सांस्कृतिक चारों प्रकारके थे।

आर्थिक लक्ष्य -- आर्थिक लूट, कच्चा माल ले जाकर तैयार माल भारतमें बेचना, विभिन्न प्रकारकी करप्रणाली, देशी कारागिरोंको हतोत्साह करना आदि

सत्ताकेंद्रित लक्ष्य -- चिरंतनतासे राज्य करना, कई प्रकारके कानूनोंके माध्यमसे देशांतर्गत मनचाही परंपराओंको रोकना या बढावा देना, प्रशासनिक बागडोर पूरी तरहसे काबूमें रखना,

धार्मिक लक्ष्य भारतमें ख्रिश्चन धर्मको बसाना, फैलाना, चर्चोंको स्थापित करना, धर्मान्तरणके लिये हर उपाय काममें लाना।

सांस्कृतिक लक्ष्य भारतकी सांस्कृतिक विरासतको समाप्त करना। इस उद्देश्यसे हर परंपराको गलत, मूढतापूर्ण, अवैज्ञानिक, अंधश्रद्धात्मक घोषित करते हुए भारतियोंके मनोबलको गिराना, भारतियोंका तेजोभंग करना।

बतानेकी आवश्यकता नही कि चौथा लक्ष्य दीर्घकालीन, दूरगामी सर्वोपरि था। अन्य तीनका आरंभ तो तत्काल हो सकता था लेकिन दीर्घकाल लाभके लिये जो चौथा आवश्यक था उसमें देर लगनी थी। उसके साधनेसे बाकी तीन अपने आप स्थायीरूपसे साधे जा सकते थे।

सांस्कृतिक लक्ष्यपूर्तिका अनन्य उपकरण होता है भाषाई प्रभुसत्ता। इसमें अंगरेजोंकी अभूतपूर्व सफलता दो तरहसे मापी जानी चाहिये। पहला मापदण्ड है भारतीय भाषाओंका ह्रास और उनकी तुलनामें अंगरेजीका वर्चस्व। यदि १५ वर्षको एक पीढी माना जाये तो हर पीढीके बाद भारतकी आधी भाषाई विरासत का लोप हो जाना प्रत्यक्षतः देखा जा सकता है। १८६० से आज २०२० तक लगभग १० पीढीयाँ बीत गईं। इस बीच आधे समय ही अंगरेज रहे और अगले अस्सी वर्षोंसे देशमें अपनी ही सरकार रही है। फिर भी अंगरेजोंद्वारा जो अंगरेजी भाषाकी प्रभुताका अजेंडा सेट किया गया उसका वेग स्वतंत्रताके बाद कम होनेकी बजाये अधिकाधिक तीव्र हो रहा है।

हम देख सकते हैं कि १८६० की तुलनामें संस्कृतसहित देशकी हर भाषाका सामर्थ्य हजार गुना कम हुआ है और अंगरेजीका सामर्थ्य शायद दशसहस्र गुना बढा है। सामर्थ्यसे मेरा तात्पर्य चार बातोंसे है --

. संवादक्षमता

. सुगम ज्ञानलब्धी तथा सुगम व्यापार

. नये विचारोंको शब्दावली देना

. सुननेवालेके हेतु बल-पराक्रम-ओज-ईश्वरता की भावनिर्मिती कर पाना।

इन चारों मापदण्डोंपर हमारी भाषाओंका सामर्थ्य प्रतिपल क्षीण होता हुआ स्पष्ट देखा जा सकता है। एक अनुमान है कि इस वेगको रोका न गया तो अगले बीस वर्षोंमें भारतकी सभी भाषाओंको संस्कृतकी मृत अथवा मृतप्राय घोषित करना पडेगा।

भाषाई प्रभुसत्ताका दूसरा मापदण्ड यह है कि अंगरेजों, एवं अंगरेजीकी प्रभुसत्ता मानते हुए हमने अपनी भाषाएँ बचानेका आत्मबल ही खो दिया लगता है। एक बात होती है सामर्थ्य क्षीण होते रहनेके पश्चात् भी लगे रहना, भिडे रहना और अपनेको पुनः सामर्थ्यवान, ऊर्जस्वल बनानेके लिये प्रयास करते रहना। दूसरी बात होती है पराजयकी मानसिकता -- अपने तेजको व्यर्थ अथवा अस्तित्वहीन स्वीकार कर दूसरेके तेजमें अपने लिये उपलब्धिको ढूँढना। इस मापदण्डपर भी लगता है मानों हम अपनी पराजय स्वीकार कर और अपना तेज गँवाकर अधिकाधिक मात्रामें अंगरेजी-शरण हो रहे हैं।


क्या स्वतंत्र भारतमें किसी शासनप्रणालीने इन दोनों मापदण्डोंपर अपनी भाषाई संप्रभुताको परखनेका प्रयास किया है? शायद नही। क्या भाषा और संस्कृतिका अनन्याश्रित संबंध उन्हें ज्ञात है? शायद नही। मुझे कोई ऐसा उदाहरण नही दीखता जिससे लगे कि उत्तर हाँ है।

भाषाएं हमारे लिए श्रद्धा का विषय क्यों हों इसके कई कारण हैं। पहले जनसंख्याके संबलको पहचानते हैं। आज विश्वभरमें हिंदी भाषा बोलने वाले लगभग १०० करोड लोग हैं जोकि विश्वकी आबादीके सातवें हिस्सेके बराबर है। संसार की सर्वाधिक बोली जाने वाली २० भाषाओंमेंसे ७ भाषाएं भारतीय हैं। विश्व भर में ऐसी ९४ भाषाएं हैं जिन्हें बोलने वाले एक करोड़से अधिक लोग हैं, इनमेंसे १४ भाषाएं भारतीय हैं। संसारकी कई भाषाएं ऐसी हैं जिन्हें बोलने वाले जनसमुदाय मात्र एक लाखके आसपास हैं लेकिन वे प्राणपणसे अपनी भाषाकी रक्षा करते हैं। इस्राइलका उदाहरण देखें तो उस देशके बननेके समय इस्राइली जनतामें हिब्रू जाननेवालोंकी संख्या ५००० में एक के अनुपातमें थी। आज वहाँ पीएचडीका ग्रंथ भी बिना हीब्रू भाषाके स्वीकारा नही जाता। इन सबकी तुलनामें हमारे देशमें तो ५००० के आसपास बोलीभाषाएं हैं और इनमेंसे सैकड़ों ऐसी हैं जिनके बोलनेवाले एक लाखसे अधिक हैं। इन भाषाओंका महत्व इसलिये है कि इनकी लोककथा और लोकगीतोंमें वहां वहां के स्थानीय इतिहास, भूगोल, पर्यावरण, विज्ञान, औषधियां, खनिज आदिकी जानकारी समाई होती है। अतः बोली भाषाओंकी सुरक्षा व संवर्धन महत्वपूर्ण हो जाते हैं जो विश्वकी अन्य भाषाके सभी लोग करते हैं।

एक महत्वका इतिहास समझते हैं। द्वीतीय महायुद्ध 1945 में समाप्त हुआ। इसमें भारतियोने भी भाग लिया था। सर्वाधिक संख्यामें भारतीय सैनिक ही लडे थे लेकिन शायद गुलामीकी मानसिकताके साथ। विजेता बनकर सर्वाधिक समृद्धिके स्त्रोतोंपर अधिकार कायम करनेमें अमरीका और ब्रिटेन सर्वप्रमुख रहे। देशदेशान्तर जानेकी पुरातन भारतीय परंपरा थी, उसमें लौटकर अपने समृद्ध देशमें वापस आना सहजधर्म था। लेकिन नई स्थितियोंमें देशान्तर करनेवाले भारतसे छुटकारा पानेके लिये जा रहे थे -- वापस न आने ध्येयसे। और अपने पीछेकी कई पीढीयोंके लिये वही आदर्श स्थापित कर रहे थे। आज भी कर रहे हैं। समाज नेतृत्व करनेवाले आज युवाओंके लिये देश-पलायनका मार्ग प्रशस्त करनेमें जुटे हैं और वही उनके धनार्जनका साधन बन चुका है। इस धनार्जनकी लालसाने सत्ताधारियोंसे यह काम करवाया कि देशी भाषाओंको अक्षम घोषित करते हुए शिक्षा व्यवस्थासे उन्हें निकाल दिया।

संसारके कई देश जो भारत जैसी त्रासदीसे उभर कर आगे आये, सबने अपनी-शिक्षा व्यवस्थामें मातृभाषा और देशी भाषाको ही स्वीकारा है। सबसे बडा उदाहरण इस्राइलका है।

लेकिन भारतमें चल रही नीतियोंको सरकार चलानेवाली पार्टियोंके भ्रष्टाचारके रूपमें भी देखनेकी जरूरत है। भाषाओंको अक्षम घोषित कर सरकारमें आनेवालीकी पार्टियाँ और उनके राजनेता अपने लिये धन कमानेकी लालसामें भारतके सहस्त्रों वर्षोंसे कमाये गये ज्ञान भंडारको मटियामेट कर रहे है।

भारतीयताको बदल डालनेहेतु कैसे कैसे परिवर्तन आये --

  • ज्ञानविलोप का संकट क्योंकि हमारे सारे ग्रंथोंको अभ्यासक्रमोंसे बाहर किया जा चुका है।

  • धर्म परिवर्तन का संकट जो बलपूर्वक या लालच या धोखेसे किया जा रहा है।

  • वैचारिक परिवर्तन - हमारा तत्व- दर्शन भुलाकर हमें पश्चिमी दर्शन व नीतिशास्त्रका अनुगत बनाया जा रहा है।

  • संस्कार परिवर्तन - विवाह, मातापिता-गुरू का आदर, सोलह संस्कार, पितृ-तर्पण आदिका ह्रास करवाया जा रहा है।

  • भाषा परिवर्तन, शब्दावलीको तोडामरोडा जाा रहा है जिससे नई पीढीमें संकल्पनाएँ अबूझ हो रही हैं।

  • भावप्रणाली - इमोशनल कोशंट समाप्त हो रहा है।

  • नई शब्दावली गढकर आधुनिक शास्त्रोंको भारतीय भाषाओंमें विशेषकर संस्कृतमें उतारना संभव है। परंतु इंगलिश माध्यम स्कूलोंके कारण यह संभावना कठिन बनी हुई है।

  • इतिहास परिवर्तन

  • कौशल्य परिवर्तन

इन्हें बचानेके लिये विद्वज्जनोंको और जनताको आगे आना होगा। यह श्रद्धासे ही संभव है।

लेकिन हमारे देशमें ऐसा वातावरण है कि देशी भाषाओंकी क्षमता पर हमारी श्रद्धा समाप्तीकी कगार पर है। हमारी सारी व्यवस्थाएं देशी भाषाओंको गाड कर देशको शीघ्रातिशीघ्र इंग्लिश स्पीकिंग पापुलेशन बनाने के लिए तुली हुई हैं।

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