Sunday, July 18, 2021

भारतीय संस्कृती का भविष्यवेध विवेकानंद केंद्र खराडी पहला दिवस -- Corrections remaining

 

भारतीय संस्कृती का भविष्यवेध

(विवेकानंद केंद्र खराडी, पुणे दि. 89 ऑगस्ट)

पहला दिवस

शमशेद बंधू जैसे आपको पता है की अपने शाखा का 100 वा दिन है। और इस अवसर पर पुणे की उत्कृष्ट वक्ता श्रीमती लिना ताई मेहेंदळे आज उपस्थित है, दिपकजी आऐंगे और आगे कहेंगे,

दिपकजी- श्रीमती लिना ताई मेहेंदळे उनका परिचय मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, आपका जन्मस्थान धरगाव जिल्हा जळगाव हैं। शालेय और महाविद्यालयीन शिक्षा बिहार और मध्यप्रदेश मैं हुआ हैं। देश के 450 जिल्होंका आपने प्रवास किया हैं। हिंदा, मराठी, बंगाली भाषाओंमे प्रभुत्व और अन्य भाषऐं जैसे संस्कृत, भोजपुरी, मैथिली, ओरिआ, आसामियाँ, नेपाली, गुजराती, पंजाबी बोली भाषाओ का भी समुचित ज्ञान हैं। सन 1974 से भारतीय प्रशासनीक सेवामें निमग्र मे महाराष्ट्र साज्यशासन से अतिरिक्त मुख्य सचिव पदसे सेवानिवृत्त हैं। केंद्रशासनके क्रिमिनलमें सदस्य, गोवा राज्यसभाकी मुख्य सूचना आयुक्त महाराष्ट्रराज्यशासमे विभिन्न विभागोंका दायित्त्व निर्माण किया हैं। मुक्त विषध्यायोंमे नाशिकमे उपभूपती पदका पदभार भी आपने संभाला हैं। सरकारी प्रशिक्षण संस्था यशदामें आपने मिनिस्टर का पद ग्रहण किया था। चिंतन और लेखन के बारे मे 27 पुस्तके और 1000 लगबग लेख लिखे हैं। ब्लॉग यूट्यूब पे सक्रिय हैं। लेखन का क्षेत्र भी नहीं छोडा है। समाज प्रशासन, बालसाहित्य, विज्ञान, दलित वाङमय, भारतीय व्यवस्था, कृषी, संस्कृती पर्यावरण इत्यादी विषयोपे आपने लेखन किया है आपकी रुचि भी है। वर्तमानमे कौशलम् न्यासमे मुख्य संरक्षण तथा महाराष्ट्रराज्यशासनमें हिंदी साहीत्य अकादमीके सदस्य है। --- बंधू, व्यक्ती का बहुत लंबा परिचय है। मुझे जैसा उपयुक्त लगा वेसा मैने दिया है। इसके अलावा भी बहुत लंबा परिचय है, जैसे मूर्धन्य, विद्वान, विभूती हमारी शाखामे आज उपस्थित है, ये हमारा अवभाग्य है। और आज हमार 100 वा दिन है, कल भी इन्हीका --- रहेगा आज का पहेला खंड और कल का दुसरा खंड इस तरहसे दो खंड का बौध्दिक होगा। लिनाजीसे आग्रह करता हूँ का, आपका ओडिओ, व्हीडीओ चालू करके आपका उद्बोधन प्रारंभ करे। लिनाजी आपका समय 6:15 बजे तक है। 6:15 बजे हम लोग प्रार्थना करेंगे, श्रीमती लिनाजी,

सबको नमस्कार करते मै, आरंभ करती हूँ, और मै एक प्रार्थनासे आरंभ करना चाहती हूँ,- ऊँ असतो मा सद्गमय तमसो मा ज्योर्तिगमय मृर्त्योमा अमृतंगमय ऊँ शांति शांति शांति ही… इसके साथ एक और छोटीसी प्रार्थना मुझे लगता है की आज की कार्यक्रम के लिये संयुक्तीक है। प्रार्थना नही कहूंगी ये एक वैदिक ऋचा है। आप सब परिचित है, स्तं गच्छध्वम् त्वं वदध्वम् त्वंवो मनाउसी जानतम्, ये ब्रम्हाजीका उपदेश है, देवोंको की आप लोग साथ-साथ चलिऐ, साथ-साथ एक सूरमें बोलिऐ, एक व्चारसे बोलिऐ और एक दुसरेके मनको समझ करके उसका सन्मान करते हुऐ, एक दुसरेके भावनाओंका विचार और आदर करते हुऐ, अगर आप आगे बढेंगे तो आप असुरोंपर विजय प्राप्त करेंगे,

आज मुझे लगता है की, ये जो अवसर है, जो आप सबने मुझे दिया है, आपका बहुत ही सुंदर जो चल रही मालिका है, इसके 100 वे पुष्पमे और 101 वेमे आपने मुझे आमंत्रित किया, इसके ल्ये मे आप सभीका बहुत बहुत आभार व्यक्त करती हूँ। आप सभी जिस बहुत ही नवीन तम घटनासे परिचित है, में एक बार उसका पुर्नस्मरण कराना चाहती हूँ, और वह घटना ये है का, अभी 5 अगस्टको हमारे देशके सर्वोच्च नेता जो है, उन्होंने और हमारे देशका जो सर्वोच्च न्यायालय है, उसके जजमेंटके बाद उमके आदेशोंके बाद हमने आयोध्यामें रामजन्मभूमी पर दोबारा शिलान्यास किया और आगे यहाँ पर एक भव्य राममंदीर बनेगा इस राम मंदीर की बात आज मुझे बहुत ही प्रासंगिक लग रही है। क्योंकी जब हम भारतीय संस्कृती की बात करते है, तो जो हमारे वेद है, जो हमारे शास्त्र है, ग्रंथ है, अक्षर-दर्शन के ग्रंथ है, पुराण है, उपनिषद् है इन सबके बाद ये जो हमारे इतिहास का लेखन रामायण से शुरु हुआ, ये अपने आपमें एक मुझे लगता है, की peradime shift के तरह था। क्योंकी एक बहुत ही अधिक जिसमें श्लोक संख्या हो इस प्रकारका ये इतिहास लेखन था। ऐसा नहीं की हमारे वेद कालमें इतिहास लेखन हुआ हो, कई हमारी वेदोंकी कथाएँ, उपनिषदोंकी की कथाएँ इतिहास बताती है, लेकीन रामयण जिस प्रकार लिखा गया जैसे अति विस्तृत जैसे ये पुरे समाजका आदिकाव्य महाकाव्य माना जाता है। इसिलिए हमारे देशके लिये हमारी संस्कृतीके लिये राम अत्यंत प्रासंगिक है और एक आदर्श राजा कैसा हो? इसका जब हम विचार करते है, एक आदर्श राज्यव्यवस्था कैसी हो? इसका जब हम विचार करते है, तब मुझे लगता है की, पुरे संसारमें रामसे बढ़कर दुसरा कोई अन्य उदाहरण जो उसके समकक्ष तो क्या, उसके कई जैसे 1000 वा या 100000 वा हिस्सा भी पहुँच सके ऐसा हमे नही दिखेगा। इसलिए इस घटना का स्मरण हमारे लिए आज अत्यावश्यक है। इस बात को मैं इससे भी जोड़ना चाहती हूँ, की हमारे सामने जब हम हिंदू संस्कृती की बात कर रहे है, तब दो भावनाएँ अच्छी तरहसे तोल कर देखना होगा। एक भावना है, आत्मगौरव की और एक भावना है, आत्मग्लानी की या कुंठा की। जब तक हम कुंठा की, भावनामें रहेंगे तब तक हम पराजित वृत्तीमें रहेंगे। और जब हम आत्मगौरव की बात करेंगे, आत्मगौरव की भावनामें रहेंगे तभी हम हम विजय की बात कर सकेंगे। ये जो हमारी प्रार्थना देखी गई, रुपं देहि जयं देहि यशो देहि विषो जेही ये हमारी एक अन्न चिरंतन प्रार्थना है, इसमें हम हमारे रुपके लिए सौंदर्य के लिए प्रार्थना की, जय के लिए प्रार्थना की, यश के लिए प्रार्थना की। और चौथी बात जो हमने कही, की द्वेष हमारे मनसे हट जाऐ। ऐसी हमारी ----- की प्रार्थना है। इन चारो बातों का बहोत महत्त्व है और इन सबके लिए हमे आत्मगौरव की बहोत अवश्यक्ता है। लेकीन, एक शब्द है pseudo secularism उसी तरहसे कही कही, कभी कभी हम पर ये आरोप भी लगता है, की आप जिस आत्मगौरव की बात करते है, की, वह Actually reality में नही है। वह Pseudo आत्मगौरव है या Unreal आतेमगौरव है। इसकी चर्चा में थोडी रुक कर करूंगी।

तो अभी मै एक छोटीसी दूसरी घटना की, मै आपको स्मरण दिलाना चाहती हूँ, और यह घटना है, अभिमन्यू के वध की। चक्रव्यूह रचा द्रोणाचार्यने यह कह करके की आज की युध्दमें पाडंवों की सेना का कमसे कम एक महायोध्दा तो इसमे जरुर हलाहल होगा। चक्रव्यूह को भेदने की कला जिसको आती है, वह है अर्जुन और इसका सारथी श्रीकृष्ण। लेकीन उन दोनों को घेर (Engage) कर रखने का जिम्मा जो है, वह सुशर्मा लेता है, और केहता की, आप गुरुदेव, गुरुजी, द्रोणाचार्य, सेनापती महोदय आप परेशान मत हो, मै इसका पूरा जिम्मा लेता हूँ की जो हमारी सेना है------- की सेना जो किसी भी तरहसे अर्जुनको चक्रव्यूह के आसपास नही पोहचने देगी। इसको दुसरी जगह हम घेर के रखेंगे। ताकी आप अपने उद्देश्यमें सफल हो जाऐ। तो अब अभिमन्यू जब ये केहता है की, मैं चक्रव्यूह का मैं भेदन करनेके लिऐ प्रस्तुत हूँ, मैं जल रहा हूँ, आगे जा रहा हूँ उसकी रक्षा कौन करे जो पाचाँ पाडंव और पांडवोके जितने भी बाकी सदस्य है, मैं उसके साथ --- लेते है। लेकीन वो एक बात भूल रहे है, की पेहली ही चक्रव्यूह के पेहले ही दरवाजे पर जो जयद्रथ खड़ा है, उसको एक वर ये मिला हुआ है की, दो घटी तक वो पाचाँ पांडवों को युध्दमें विमुख (दबा कर) रख़ सकता है। इसलिए अभिमन्यूका अकेला रथ ही चक्रव्यूह के अंदर जाता है। और फिर इस चक्रव्यूह में अभिमन्यूका क्या होता है, ये कथा हम सब जानते है। मुझे लगता है की आज जब हम भारतीय संस्कृती की बात करते है, तो ऐसा नही है का हमारे पास उस चकेरव्यूह की भेदन की क्षमता हो, ऐसा नहीं है की, हम शौर्यमें कम पड़ रहे है, ऐसा नहीं है की हम अपना सामर्थ्य दिखाना नहीं चाहते है। लेकीन शायद, रणनितिमें अग़र कहीं कहीं हम अकुशल है, या कमजोर पड़ रहे है, तो हमारी संस्कृती शायद उस जगह़ पर पहुँच रही है जहाँ उसकी अवस्था अभिमन्यू जैसी हो सकती है। इससे बचने के लिऐ हमको अपनी रणनितिको ठिक से देख़ना पडेगा निति और रणनिति दो शब्द है दोनोंका महत्त्व है। और होनोंके लिए हमे Short Term ,Mid Term और Long Term इस प्रकारकी तीनो नितियाँ का विचार करना पडेगा। यह विचार मेरे हिसाब से मैने कल के लिऐ रखा है।

आज इस व्याख्यानमें मुझे लगाता है की तीन हिस्से पड़ते है। एक की भूतकालसे ले करके आज तक भारतीय संस्कृती की पहेचान हम किस प्रकार बता सकते है? दूसरा हिस्सा ये है की भारतीय संस्कृती की जो अवस्था है उसे आज हम किस रुपमें देख रहे है। जिसको हम इंग्रजीमें कहते है Swot Analysis यानी आज हमारी संस्कृती की strength क्या है? इसकी weakness क्या है? इसके पास opportunites क्या है? इसके पास threats क्या है? ये सब swot Analysis का प्रकार होता है की वर्तमान मे हम कहा है? लेकिन जो सबसे ज्यादा महत्त्व का विषय यै है की अगर हम जो भी संकट देखते है जो भी हमारा threat perception है उसे निपटने के लिए हमारे पास रास्ते क्या है, उपाय क्या है, technique क्या है तंत्र कौशल्य क्या है? ज्ञान क्या है? और इस सबसे ज्यादा महत्त्व की बात की हनारी मनोदशा है की नही है? तो इसकी चर्चा इस प्रकार तीन भागोंमे प्रस्तुत करना चाहती हूँ। मेने रामजन्म भूमीके पूजन की बात कहीं शिलान्यास की बात कही तो मुझे इक और बात केहेनी है जो कन्हैय्यालाल मुनसीजींका भाषण जब सोमनाथ मंदिर बन रहा था और उनकी भूमिकापर नेहरूजीने आक्षेप उठाए थे तब मुनसीजीने नेहरुजीको एक पत्र लिखा था। और उसमे ये कहा था की मेरे लिऐ स्वतंत्रता का कोई भी अर्थ नहीं है। ऐसी स्वतंत्रता जो हमारी भग्वद्गीता को छीन ले। जो हमारे लाखो करोडो देशवासीयो के मनसे तीर्थ स्थलों और मंदिरोंके प्रति श्रद्धा को कम करे दे और नष्ट करदे और इस तरहसे हमारे जीवनके तानेबाने को वह समाप्त करदे ऐसी हमारी स्वतंत्रता का यही अर्थ है तो ऐसी स्वतंत्रता से हम अधिक कुझ हासिल नही कर सकते और आस लिये आप मुझे सोमनाथ मंदिरके कार्य में नहीं रोकिये यह आप के लिये अच्छा हा और आपके रोकनेसे में रुकने वाला भी नही हूँ। तो ये जो बात मेंमें एस लिये दोराही की स्वतंत्रता प्राप्ती के समय जो हमारी देश का विभाजन कहीये शीर्षस्थ नेतागण कहीये या हमारे देश के अन्य जन भी दुविधामें पड गये थे की अगर हमने लोकतंत्र को अपनाया है अगर हमने secularism को अपनाया है तो हम सोमनाथ मंदिरपर हम इस प्रकार आगे बढ सकते है। तो सोमनाथ मंदिर पर हम किस प्रकार आगे बढ सकते है? और मुझे लगता है की ये दुविधा आज भी आयोध्याका जो राममंदिर निर्माण हो रहा उस प्रेक्षमें कुछ लोगोकों आज भी शायद यही दुविधा है और इस दुविधा से हमें बचना होगा और इसके लिये भी हमे बहुत बडी मात्रा मे हमारे आत्म गौरव की आवश्यक्ता है। लेकीन आत्मगौरव कहा से आता है? इसिलिए मैनें आज जो प्रार्थना चुनी वह प्रार्थना हमें बता देती है की संस्कृती क्या है? ये मेरा मानना है की हमारी संस्कृती पाच छे बातोंसे तह होती है और वे बाते है सत्य की अन्वेषणा और ये में भारतीय संस्कृती के बारे में बात कर रही हूँ संसार की हर एक संस्कृतीकी हमारी अपनी अपनी विशेषताऐं उसके पेहचानके अलगअलग तरीके होते है। लेकान भारत की संस्कृती जो है इस संस्कृतीके पहेचानके तरीके मुझे लगता है की ये हा सत्य की अन्वेषणा, ज्ञान की प्राप्ती उस ज्ञानमें सबकी साझेदारी प्रेम और सौहार्द और पाचवा जो में गिनती हूँ वो है श्रद्धा और एक वाक्य जिसको मे जीवन का प्रमाण मानती हूँ और मुझे लगता है री हमारी संस्कृतीमें भी उस वाक्य को प्रमाण माना गया है की यो यद् श्रध्दस एवसा: जिसकी जो श्रध्दा होगी मनुष्य वेसा ही होगा और जिसकी वो श्रध्दा होगी वो राष्ट्र भी वेसा ही होगा। इसकेलिये हमें वो सोचना पडेगा की संस्कृतीकी भविष्यकी बात कर रहे है तो इस संस्कृतीमें हमारी श्रद्धा कितनी है? ये हमें पेहले हमारे मननें हमारे समाजमें अपने राष्ट्रचिंतनमें कही कही सोचना पडेगा।

तो जब हम इन बातोंके ओर आते है की तो मुझे लगता है एक बात जो इन गुणोंको प्रस्तुत करनेके लिये ये गुण समाजके सभी तक्तोमें उतरे सभी वर्णोंमें उतरे इसके लिये हमारी संस्कृतीने बहुत ही सुंदर निती अपनाई थी और मुझे लगता है उस निती या परंपरा को हम भूल रहे है या विसर रहे है उनकी तरफ में दो नितियोंकी बाते करना चाहती हूँ। एक निती ये थी की हमारे ऋषीयोने ये कहा था की हमारी जीवनशैली केसी हो। तो इस जीवलशैली को मे three tire life system की बात करती हूँ एक हम वनोंके साथ भी रहे वनोंके अंदर भी रहे प्रणियोंके साथ हम रह सके वनवासी जनों के साथ हम रह सके उनके साथ हम अपने ज्ञान का अपने खोज का अपने अन्वेषणों का ---- करे उनके साथ हम कुछ सिखे हमारे साथ कुछ वो सिखे इसप्रकारकी एक वनवासी जीवन की प्रणाली हमारी एक जीवनशैली का हिस्सा थी दुसरी ग्रामीण जीवनशैली जहा हम उत्पादन और हर प्रकार का उत्पादन शिल्पकला सभी प्रकार की कलाऐ इनकी सिख का इनका प्रचार इन बातों के लिये हमारा रोजमरणार्थ जो जीवन है वो ग्रामीण जीवन केहलाता था। और एक कभी कभाड के लिये हमारा शहरी जीवन भी हुआ करता था इसको नागरी जीवन कहा जाता था। और राजा बडे बडे व्यापार आंतरराष्ट्रीय गोष्टीया ये सारी चीजे जो राज दरबार का स्थान है वहा संचलित होती थी। आज हमने अपने जीवनशैलीसे वन्यजीवम और हमारा खुद का वनवासी जीवन वानप्रस्थ आश्रम इस संकल्पना को हमने संपूर्ण तरह भूला दिया है और कितने जलदी भूला दिया है। यह भूलाने का इतिहास केवल पिछले 200 वर्षोंका है 200 वर्षोसे जब अंग्रेजोने ये कहा की हमे इस देशसे लूटना है और इस लूटमे हमारे लिये सबसे सरल माध्यम है लूट के जो सबसे बने बनाये जो उप्ताद है जिसको हम तुरंत लूट करके ले जा सकते है वो है हमारा वन्य उपज हमारे पेड पौधे तो अंग्रेजोंने ये कहा की बाकी लोग अगर वनमें रहेंगे बाकी लोग अगर गुरुकूल चलाते रहेंगे बाकी लोग अगर वानप्रस्थ आश्रम का नाम लेकर वनोंमे आते रहेंगे वनवासी जो है उधर उनके साथ मेल जोल बढा करते रहेंगे तो हमारी जो लूटकी निती है उसे बहुत बडा खतरा है। तो उन्होंने एक Act पास कर लिया कानून बना दिया। वनोंपे अधिकर केवल सरकार का है, और जो भी व्यक्ती वहा जाऐगा या अधिकार जताना चाहेगा वह दोषी कहलाऐगा। तो इस कानून के कारण अपनी वनवासी जीवनकी परंपरासे हम कट गये और केवल 200 वर्षोंका ये इतिहास है। ये मै इसिलिये कह रही हूँ, जो हजारों वर्षोंका हमारा इतिहास है, जो हजारो वर्षोंकी हमारी परंपरा है, वो केवल मात्र 200 वर्षोंमें नष्ट हो सकती है। ये मैं बताना चहती हूँ। कोई बहुत बड़ी दुर्घटना हो जाती है , कोई विनाश आता है, बहुत ही कम समय में वो हो जाता है। गति अत्यंत ताव्र होती है। हम निर्माण की बात करे तो इसकी गति बहुत धीमि होती है। तो हमे ये देखमना पडेगा अगर हम संस्कृती की पुर्नजागरण या पुर्ननिर्माण की बात कर रहै तो हम अपनी गति को कैसे बढा सकेंगे। ये भी मैं अपनी कल की बात प्रस्तुत करना चाहती हूँ।

जो मैनें दुसरी बात जो मै केहना चाहती हूँ, वह परंपरा जेसे हमारा वनवासी जीवनकी परंपरा थी वैसे ही, अपने यहा एक यायावर परंपरा है। और यायावर का अर्थ होता है जो केवल और केवल घुमता रेहता है। किसी एक जगह उसे टिक करके नही रेहना है। भले ही वो गृहस्थ आश्रम नें रहे वहा भी वो कुछ ही दिन टिक सकता है। तो ये जो हमारी यात्राये होती है, जो हमारी कामाडीये चलती है, जो हमारी वरकरी परंपरा होती है, जो हमारी वैदेयनाथ धाम की यात्रा होती है, यहा करके गंगोत्री से ले करके कावड भर करके गंगासागरमें यानी बंगालमें ले जाना या रामेश्वरम् तक ले आना ये जो हमारी परंपरा है, चारो धाम यात्रांकी बात की गई है, तीर्थ यात्रा की बत की गई है, कुंभनेलों की बात की गई है। और देशाटन की बात का गई है, ये सारी की सारी जो है ये हमारे यायावर संस्कृतीके प्रत्यक्ष उदाहरण है। अब इस यायावर संस्कृतीकी महता क्या है, तो हमने बहुत अरसेसे उसेभूला दिया है। और . जो हमारी परंपरा है इसका महत्त्व ये है, जो ये लोग हमारी संस्कृतीके जो भी यायावर करते थे या देशाटन करते थे, वो हमारी संस्कृतीके एक प्रकारे संदेशवाहक थे कम से कम खर्चोमें प्रकृतीके अत्यंत विन्न अवस्थओमे जिनेकी कला उसमें बहुत सारे कलागुण उनके अंदर होना। और खतरेको एक जगहसेदुसरी जगह पहुँचाना जिसको हम आज भषाकी एकात्मता केहेते है वो भषाकी एकात्मता Establish करना वो सारे काम ----- देशाटन के कारण हुऐ और यायावर की जो परंपरा हमारी रही है उसका एक एक सबसे उत्तम उदाहरण वो है , हमारे ऋषी जरतकारी की वह यायावर समाज के थे। और उस यायावरी में रह करके उन्होंने साधना की वो साधना इतनी महत्त्वपूर्ण थी की उनका दावा था मेरे से अर्घ्य लिये बिना सूरज डूब नही सकता है। अगर में सो रहा हूँ तो अपनी पत्नी से कहा था, अगर में सो रहा था तो तुमने मुझे जगाया क्यूँ? पत्नीने कहा अपने सूर्य को आस्थको जा रहे सूर्य को अर्घ्य देने का आपका समय समाप्त होनो वा है इसिलिये मेने आपको उठाया। तो उन्होंने कहा तूने गलती की ना की मेरा अर्घ्य लिये बिना सूर्य डूब नही सकता है। तो ये है जब मे आत्मगौरव की बात करती हूँ, या अपनी क्षमता की बात करती हूँ तो मेरे सामने ये जगतकारी का उदाहरण कायम आता है , और मुझे लगता है की ये जो हमारी यायावरी परंपरा थी और इसकी जो उत्कट साधना थी उसका ये परिपाक ये मे दो परंपराऐ जो हमारे जीवनशैली मे थी, उसमेसे यात्रा की परंपरा हमने थोडी फार बचा करके रखी है। लेकीन जो परंपरा के वाहक है जैसे आज भी हमारे यहॉं जेसे महाराष्ट्र की बात करे तो हमारे यहॉं वासुदेव या कैकाडी जोशी या वाघ्या मुरळी वाले ये जो तमाम लोग है जिसको हम बहुत ही उपेक्षा की दृष्टी से देखते है।

लेकीन अपको मै स्मरण दिलाना चाहती हूँ, जब शिवाजी अपने राज्यको बना रहे थे , बचा रहे थे, या विस्तार कर रहे थे तो इन्ही लोगोंने उनके लिये गुप्तचरोंका काम किया। बैरागी नागा साधू ये जो सारे है वो एक तरहसे हमारे समाज को आने वाले संकटोंको आभास दिलाने का काम करते थे तो ये जो क्षमता है इसको हमने पूरा तरहसे बिसरा दिया है। जो हमारे वनवासी लोग है उनको भी आज हम mainstream मे लाने की बात कर रहे थे mainstream मै लाना क्या होता है, की हम उनको उनके परिवेष से उठाऐंगे, उनको हम शहरी परिवेसे उनका परि करेंगे। जो आधुनिक शिक्षा है उससे उनका परिचय करेंगे। और इस प्रकार वोदसवी या बारावी पास करगे लेंगे तो हम उन्हें कह पर चपरासी की नोकरी दिलवाते, तो जब की अगर उनके पास पेडों की पेहेचान करने की क्षमता है , उन सऔषधीयोंका पेहेचान करने क्षमता है और उनके पास तेज़ दोडने की औरॉ ऑलंपिकमे गॉल्ड मेडल लाने की क्षमता है। आज हम उन क्षमताओंका उपयोग नही कर रहे है हम आज उन्हें mainstream मे ला करके उनको हम किसी चपरासी नोकरी के लायक रखेंगे और इसी mainstream की बात पर मै अपने बेटे से बात कर रही थी तो उसने हस करके मुझसे कहा की तुमने तो Electronics atomic physics पढ़ कर के रखा है, तो याद कर की atom मे एक होता है neucleus उसका पूरा वजन वहापे समाया जाता है। और उसके परीभी पर electrons चक्कर लगाते है। और जब electron का वजन देखा जाऐ तो 1000 गुने से neucleus की वजनसे कम होता है। अत्यंत तूच्छ वस्तू जो परिभी पर फिर रही है, लेकीन अर परिभी के electrons को हटा दे, तो neucleus जो है वो टिक नही सकता है। उसका विस्फोट हो जाऐगा। ये मै इसलिए कह रही हूँ, जब हम अपने वनवासी बंधुओंकी बात करते है, तो हम कभी ये नही केहते की उनके जीवनमें भी कुछ ऐसा है जो हम ग्रहण कर सकते है। उसके लिये हम उन्हें सन्मान देंगे। ये नही हेते वहॉं जा करके उनके साथ रेहेने का प्रयास करते है। हम ये केहते है की, उनका उठ्ठाण जो होगा तब नही होगा जब मे उनके पास जा करके उनको सन्मान देते हुऐ, उनसे कुछ सिखते हुऐ उनके साथ रहूँगी। नका सन्मान तब होगा जब उन्हे मै अपने घर में ला करके कोई छोटी मोठी नोकरी दूँ। ये जो हमारी व्याख्याऐ जो है, इनके तरफ मै थोडा ध्यान इसलिए देना चाहती हूँ की कही कही ये बाते हमारी संस्कृतीसे जूडी हो।

तो मै अपनी अगली विषय आती हूँ, वो है, मातृभाषा की और आखिर मै आती हूँ शिक्षा की बात पर, और मुछे खुशी है की, अपने प्रधानमंत्री ने खूल करके फिरसे एक बात कही, फिरसे इसलिऐ चार पेहेले हमारे शिक्षामंत्री केहे चुके , की हमने जो नई शिक्षा पद्धती लाई है उसमें हमने ये कहा है की, यथा संभंव, ये सोच विचार करने वाला शब्द है, की यथा संभंव की पॉंचवी तक की पढ़ाई मातृभषामें की जाऐगी ऐसा हम सोच रहे है। ये नही कहा की कितने वर्षोंने ये सोच पूरी होगी , ये भी नही कहा की यथा संभंव क्यू है लेकिन मोदीजीने कल अपने भाषणमें कहा अगर हम पाचवी तक की पढ़ाई केवल मातृभाषामें करवाऐगे तो हमारे देस को बहोत फायदा होने वाला है। तो उन्होंने शिक्षामंत्रीसे काफी खुल कर के और काफी अधिक जोड करके ये बात कही है, इसिलिये मै उनकी बहोत बहोत आभारी हूँ। और मुछे ये बिलकुल भी ऐसा सा लगता है , जब तक हम मातृभाषा में शिक्षा की बात नहीं करते, और उनके साथ साथ हम एकात्मता की बात नही करते तब तक जो मै आत्मगौरव की भात कर रही हूँ , इस दिशा में हम आगे नही बढ़ सकते।



















No comments:

Post a Comment