Sunday, July 18, 2021

अध्याय १७ लक्ष्मी और अलक्ष्मी

 अध्याय १७

लक्ष्मी और अलक्ष्मी

धनकी देवी लक्ष्मीको कौन भारतीय नही जानता। हर मनुष्यकी इच्छा हती है कि उसपर लक्ष्मी सदा प्रसन्न रहे। उसे सुखसंपत्तिकी प्राप्ति होती रहे। सुखको संपत्तिके साथ जोडा गया क्योंकि संपत्ति वास्तवमें कई प्रकारसे हमारे जीवनके कष्टोंको दूर करनेमें सक्षम है -- भले ही हर प्रकारसे ना हो।

भारतियोंकी मान्यता है कि लक्ष्मी विष्णुपत्नी है और इस नाते वह शुभ एवं शुचिताके साथ जुडी रहती है। लेकिन हमारे ग्रंथोंमें एक अन्य देवताका उल्लेख आता है जिसका नाम है अलक्ष्मी। यह भी मनुष्यको धनलाभ कराती रहती है, लेकिन न्यायोचित मार्गसे हटकर। इसे देवता कहा गया है क्योंकि किसी सीमातक धनका होना इच्छापूर्तिके लिये एक गॅऱंटीके रूपमें देखा जाता है। लेकिन अलक्ष्मीकी पूजा नही होती।

हम अलक्ष्मीकी चर्चा करेंगे क्योंकि यह एक प्रभावी संकल्पना है जो वर्तमान कालकी कई दुविधाओंका मूल कारण कही जा सकती है। वर्तमानमें भारत राष्ट्रके रूपमें हम जिन बातोंको महत्वपूर्ण अथवा लक्ष्य मानते हैं उसमें देशको आर्थिक सत्ताके रूपमें स्थापित करने का लक्ष्य है। आर्थिक संपन्नताके मापदण्डपर पहले भारत सौवें नंबरसे नीचे था और अब ग्यारहवें नंबरपर है। लेकिन इस लक्ष्यके फेरमें भारतीय संस्कृतिको लेकर एक गलती हम रहे हैं। हमारी संस्कृतिका एक विशेषता यह है कि इतनी प्राचीनता कहीं और नही है। उदाहरणस्वरूप आज जिसे ग्रीस कहते हैं, वही भूभाग दस हजारा वर्ष पूर्व भी था लेकिन तबकी ग्रीक संस्कृतिका आज कहीं नामोनिशान नही है। भारतीय परंपराएँ और मान्यताएँ आज भी टिकी हुई हैं और एक प्रकारसे हम एक निरंतर सांस्कृतिक प्रवाहके अवयव हैं। भारतके प्रगत क्षेत्र थे धातुनिर्माण, खगोलशास्त्र, आय़ुर्वेद, स्थापत्यकला। समाजशास्त्र या राजनीति जैसे विषयों भी हमारा गहन अध्ययन चिंतन रहा है। लेकिन अंगरेज शासनकालसे एक आत्मकुंठा सबके मनमें समाई हुई है। इसकारण हम कहने लगे हैं कि पूर्वकालमें जो कुछ था वह कोई सांस्कृतिक उन्नयन नही था। उसमें वर्णित कई बातें काल्पनिक हैं या अयोग्य हैं, कमसे कम आज वे अयोग्य हैं, या अप्रस्तुत माने इर्रेलेव्हंट हैं। उनमें सत्ताकारण था, राज्यके हेतु संघर्ष थे अतः भेदाभेद और जाती विद्वेष भी था इत्यादि।

कदाचित यह कहना गलत होगा कि इस आत्मकुंठाके लिये केवल अंगरेज शासन ही जिम्मेदार है। पिछले ३०० वर्षोंका विश्व इतिहास देखें तो सबसे बडी घटना थी औद्योगिक क्रांति जिसने हमारे देशके कारीगर वर्गको पूरा डुबो दिया, चाहे वह लोहार हो, बढई हो, कुम्हार हो, नाई हो, धोबी हो। फॅक्टरी प्रॉडक्ट आनेके कारण इन सबके व्यवसाय छिन गये। साथ ही वे नये कौशल्य सीखना अनिवार्य हो गया जो फॅक्टरी प्रॉडक्शनके लिये आवश्यक थे। कारखानेेेे लगे तो एक ओर उनमें भारी आर्थिक निवेश- इनवेस्टमेंटकी आवश्यकता थी जो सबके पास नही थी जब यांत्रिकीकरण और शहरीकरण बढा तो शहरोंमें कई सुविधाएँ नही थीं - यथा बडे घरकी सुविधा, बडे परिवारकी सुविधा इत्यादि।

इस नई व्यवस्थामें कामगारोंका शोषण अनिवार्यतः हुआ। उसके उत्तरस्वरूप जो कम्युनिस्ट फलसफा सामने आया और उसमें जो बडे बडे दावे किये गये उनने सबकी आँखें चौंधिया दीं। इस फलसफेका दावा था कि यह अत्यंत डायनॅमिक, गतिशील, आव्हानात्मक, आधुनिक है। और सबसे मुख्य दावा था कि दुनियाभरके सभी पीडित, दलित, दुःखित, शोषित वर्गका कष्टनिवारक रामबाण औषध यही है। सशस्त्र संघर्षसे सत्ता हथियाकर सबके लिये सत्ताकेंद्रके मार्फत कई मोफत सुविधाओंका हक दिया जाना था। ठीक इसी कालखण्डमें अर्थात उन्नीसवीं सदिमें भारतकी जनता भी आत्यंतिक भावसे पीडित शोषित थी। अंगरेजोंने अत्यंत चालाकीसे भारतीय सामाजिक परंपराओंको इस शोषणका उद्गम बताया और आत्मकुंठामें पडे हमारे समाज चिंतकोंने इसे स्वीकार भी कर लिया।

हालमें किया गया एक जर्मन संशोधन दिखाता है कि अठारहवीं सदिसे पहले भारतकी समृद्धि इतनी अधिक थी कि जागतिक जीडीपीका तीसरा हिस्सा भारतसे था। लेकिन १७५७ की प्लासीकी लडाई और अंगरेज आगमनके पश्चात १९४७ तक याने केवल २०० वर्षोंमें यह समृद्धि ३३ प्रतिशतसे घटकर प्रतिशतपर गई। यह दिखाता है कि भारतकी लूट और शोषण बडी तेजीसे हो रहे थे, और उसके साथ साथ अत्याचार भी। लेकिन ठीकरा किसी औरके सर फोडना आवश्यक था, जिसके लिये आय़ुर्वेद, गुरुकुल परंपरासे आई शिक्षापद्धति, प्रकृतिपूजन, गौ, वर्णव्यवस्था आदि विषयोंको कारण बताया गया। अंगरेजी स्कूलकॉलेजोंमें पढे आधुनिक विज्ञानके माननेवाले प्रायः सभी तत्कालीन नेतागण इस कम्युनिस्ट फलसफेसे प्रभावित थे। चंद्रशेखर आजाद, भगतसिंग, सुभाष बोस, नेहरु आदिने १९१५ में पश्चात रशियामें कम्युनिजमको सत्तासीन होते हुए देखा था जिसमें विषमता और जमींदारी प्रथा, या कहें कि शोषणके प्रतीकरूप राजाका वध किया गया था। उन्होंने वही न्याय भारतके शोषित समाजके लिये चाहा। लेकिन उस समय वे नही देख पाये कि यह फलसफा न्यायतत्त्वका ही विरोधी है।

यह बात ना तो हमारे स्वतंत्रता संग्रामके कई महानायक समझ पाये और कोई अकेडमिशियन। हो सकता है कि वह उस कालकी महिमा रही हो। लेकिन आज रशियन क्रांतिके लगभग सौ वर्ष पश्चात जैसे जैसे कम्युनिजमका मूल चेहरा सामने आया वैसे वैसे हम यह बात समझ पा रहे हैं।

बीसवीं सदिमें हमारे अकेडमिशियन क्या कर रहे थे? वर्ष १८४० के आते आते अंगरेजोंने देशमें युनिवर्सल एज्युकेशन पॉलिसीके तहत अंगरेजी माध्यमकी उपादेयता बढानी आरंभ कर दी थी। यह स्पष्ट संदेश था कि यदि आप अंगरेजी माध्यमसे, अंगरेजी मेथडॉलॉजीसे और अंगरेजी मानसिकतासे शिक्षा लेते हैं तो ही ब्रिटिश राजमें आपको सम्मान, नौकरी, पद, पैसा इत्यादि मिलेंगे। लेकिन भारतीय विरासत संभालनेकी बात करेंगे तो इन सबसे विमुख रहना पडेगा। जैसा हमने तीसरे अध्यायमें भी देखा।

विचारणीय है कि एक सावरकरको छोड दें तो प्रायः कोई ऐसा स्वतंत्रता सेनानी नही दीखता जो कम्यूनिजमसे प्रभावित हुआ हो। इसी प्रकार प्रायः सारे अकाडमिशियन भी कम्यूनिजमके प्रभावमें थे। कम्यूनिजिमके साथ साथ वे आधुनिक पश्चिमी विज्ञान, और पश्चिमी प्रणालीसे पढाये जानेवाले ह्युमॅनिटिज विषयोंसे भी प्रभावित थे। ह्युमॅनिटीज विषयोंसे संबंधित किसी विषयके लिये भारतीय ज्ञानप्रणालीका कोई भी कण्ट्रिब्यूशन माननेवाली उनकी मनोभूमि बनी थी और आज भी है। अर्थशास्त्र हो, समाजशास्त्र हो, राज्यशास्त्र हो, शिक्षाशास्त्र हो, इनमेंसे किसीभी विषयपर भारतमें जो भी लिखा गया हो उसे मायथॉलॉजी या मिथ्या माना जाता है, उसे पुराणमतवादी कहा जाता है और जो भी यूरोपका मत हो या यूरोपीय लेखकोंकी पुस्तकें हों, वही पहला और वही अंतिम वाक्य होता है। इस प्रकार हमने अपनी शिक्षा प्रणालीको भी पश्चिमी मतोंका गुलाम बनाकर रखा है। इस प्रक्रियामें स्वतंत्रतापूर्वके विद्वान सम्मिलित हुए थे यह बात तो समझमें आती है लेकिन स्वतंत्र भारतके विद्वान भी इस विषयपर पुनर्विचार करनेकी स्थितिमें नही दीखते यह एक दुर्भाग्यपूर्ण बौद्धिक हानि ही है।

पुनर्विचार करनेके लिये हमें एक बार पीछे मुडकर अपने धरोहरको देखनेकी आवश्यकता है। परन्तु इस वाक्यका उच्चारण करते ही करनेवाला स्वयमेव दाकियानूसी सिद्ध हुआ बताकर उसे चुप कराया जाता है। हमारी शिक्षाव्यवस्था क्या थी, हमारे समाजकी और राजकीय व्यवस्था क्या थी इसका अध्ययन करनेके पश्चात् ही हम कह सकते हैं कि इन विषयोंके आधुनिक सिद्धान्तोंकी तुलनामें वे कैसी थीं। लेकिन आजकी मानसिकता बन गई है कि पढे बिना ही हम उसे मायथॉलॉजी, रूढीवादी, अवैज्ञानिक इत्यादी विशेषण लगा देते हैं।

आज भी हमारी सोचकी दिशा कैसी है? यदि हम पूछें कि इस देशके जानेमाने अर्थतज्ज्ञ कौन हैं तो वे सारे नाम गिनाये जायेंगे जिकी अर्थशास्त्रकी पढाई हॉरवर्डसे हुई और जिनने युनायटेड नेशन्स तथा इंटरनॅशनल मॉनिटरी फंड जैसी संस्थांमें काम किया हो। यदि कोई पूछे कि क्या उन्होंने कभी भारतीय अर्थशास्त्रको पढा तो उलटा पूछा जायगा कि क्या भारतियोंको कभी अर्थशास्त्र विषयका ज्ञान था।

मुझे सखेद आश्चर्य होता है कि भले ही भारतीय अर्थशास्त्रके विषयमें हारवर्डको कुछ पता नही हो, वहाँसे पढाई करनेवालेको पता नही हो, लेकिन भारतकी समस्या सुलझानेके लिये भारतियोंको इसका विचार करना पडेगा। यहाँकी पद्धतियाँ क्या थीं और आगे वे कितनी उपयुक्त होंगी ये विचार करना होगा।भले ही हमारे पूर्वजोंने कभी अर्थशास्त्र शब्दका उपयोग करते हुए उसकी व्याख्या या ग्रंथ लिखे हों, परन्तु आर्थिक समृद्धि भारतके पास थी यह निर्विवाद है। तो वह किस माध्यमसे आती थी? उसीको समझाते हुए ग्रंथोंने लक्ष्मी एवं अलक्ष्मी इन दो शब्दोंका प्रयोग किया है।

कहते हैं कि एक बार विष्णुने राय दी कि समुद्रके पास असीम संपत्ति और रत्नोंका भंडार है, उसे देव-असुर मिलकर समुद्रमंथनके माध्यमसे पा सकते हैं। जब मंथन किया तो सबसे पहले हलाहल विष निकला। समस्त सृष्टिको बचानेहेतु शिवने उसे पीकर नष्ट कर दिया।फिर क्रमसे कुछ रत्न निकले जो देव और असुरोंने बाँट लिये। फिर लक्ष्मी उसके साथ उसकी बहन कही जानेवाली देवी अलक्ष्मी निकली। लक्ष्मीने तो विष्णुको ही पतिरूपमें चुना और विष्णूने स्वीकार भी कर लिया परंतु अलक्ष्मीका स्वीकार कोई नही कर रहा था। लक्ष्मीने विनति की - हे प्रभु, मेरी इस बहनका भी कोई ठिकाना हो। इसपर विष्णूने कहा कि जहाँ लोग आलसी हों, अस्तव्यस्त हों, अस्वच्छ हों, या अप्रामाणिक हों उनके घर यह रहा करेगी। लक्ष्मीकी बहन है इसलिये यह भी उन्हे धनदौलत दिलवा सकती है परन्तु अंततः विनाशकी ओर ले जायेगी।

इस कथामें आलसी, अस्तव्यस्त, और अस्वच्छके साथ अप्रामाणिकताको भी जोडा गया है। यही हमे धनके लिये भारतकी परंपरागत व्याख्या बताती है। अप्रामाणिकतासे मिलनेवाला धन अलक्ष्मी है और मनुष्यके लिये वह सही नही है। जो परिश्रमपूर्वक और पूरी ईमानदारीसे कमाया है वही लक्ष्मी है और वही सही है। इससे उलट आधुनिक अर्थशास्त्रके कई सिद्धान्त एक-एक कर देखते हैं।

अर्थशास्त्रमें कहते हैं कि कोई भी वस्तु केवल आपके पास होनेके कारण आपकी नही हो जाती। वह आपके पास किसी कानूनी स्वामित्वके अधिकारसे आई हो तभी वह आपकी होगी। यह नियम पुरातन भारतमें भी प्रचलित था और आधुनिक जागतिक अर्थशास्त्रमें भी। लेकिन पुरातन भारतमें इस नियमका कोई अपवाद नही होता था। आधुनिक कालका जागतिक नियम कहता है कि सिक्के नोटोंपर यह नियम लागू नही है। निगोशियेबल इन्सट्रमेंट अॅक्ट नामक कानून बताता है कि नोट तो जिसके हाथमें हैं, उसीके हैं। जबतक कोई अन्य यह सिद्ध नही करता कि वह उसने गलत ढंगसे हथियाए हैं तबतक वे उसीकी संपत्ति है। अर्थात नोटोंपर कभी काला-गोरा-प्रामाणिक-अप्रामाणिक आदि लेबल नही चिपकाये जा सकते। लेकिन भारतीय मान्यता कहती है कि आपके हाथ आये पैसोंके पीछे यदि आपका स्वयंका परिश्रम नही है तो उसमें का लेबल लगाकर उसे अलक्ष्मी ही कहना पडेगा। इस शब्दमें अप्रामाणिकता या आलस भी अनुस्यूत है। आलसका पैसा अर्थात जो जुएके माध्यमसे आया हो, जिसके लिये कोई परिश्रम नही किया गया हो।

अर्थात हमारी संस्कृति चोरी या अप्रामाणिकतासे आयेे पैसोंके साथ साथ विनाश्रम आये पैसोंको भी अस्वीकार्य बताती है। बचपनका एक संस्कार मुझे स्मरणहै कि यदि राहमें पैसे पडे हुए मिल जाएं तो उन्हें उठा लो और पासके किसी मंदिरमें दे आओ। उठाना इसलिये कि पैसा कामकी वस्तु है, उसका अनादर नही करना है। परन्तु मंदिरमें इसलिये देना है कि अलक्ष्मीका संस्कार मुझपर चढे। जो मैंने श्रमपूर्वक नही कमाया हो वह मेरे लिये अलक्ष्मी अतः अस्वीकार्य होनी चाहिये। केवल श्रमके उचित मूल्यके रूपमें जो मुझे दिया गया, वही लक्ष्मी है। वह जिसके पास होगी, विष्णु उसीके पास होंगे लेकिन जिसने अलक्ष्मीको स्वीकारा उसके लिये विष्णु या श्री दोनोंही अप्राप्य हैं।

अलक्ष्मीकी संकल्पनाको समझनेके लिये कुछ उदाहरण देखते हैं। किसीने लॉटरीका एक रुपयेका टिकट लिया और एक लाख की लॉटरी लगी। उसका टिपिकल उत्तर होगा कि यह अलक्ष्मी नही क्योंकि मेरे एक रुपयेके इनवेस्टमेंटपर यह रिटर्न ऑफ इनवेस्टमेंट है। या कहेगा कि यह मेरा भाग्य है। या कहेगा कि मैंने जो मेहनत की -- टिकट लेना, कई कई बार लेना, और हर बार संबंधित समाचारपर नजर रखना आदि -- उसका प्रतिफल है। लेकिन तीनों उत्तर गलत हैं क्योंकि यहाँ औचित्यका प्रश्न भी महत्व रखता है। जो लक्ष्मी मिल रही हैैै वह उचित मार्गसे मिले यह भी आवश्यक है। सामान्य रूपसे मेहनतका जो प्रतिफल है उससे हजारों गुना अधिक प्रतिफल मिल रहा हो तो वह औचित्यसंगत नही है। इसी उदाहरणको थोडा आगे बढाकर यदि हम टीवीके करोडपति शो या खेलो इंडिया खेलो वाले शो को जाँचते हैं तो हम पाते हैं कि वहाँ भी अत्यल्प बौद्धिक तथा अनुत्पादक परिश्रमके ऐवजमें आप सामान्य अनुपातसे बडी संपत्ति कमाते हैं -- वह भी अलक्ष्मी ही है। जबतक हम इस बातको नही समझते या उस संपत्तिका लोभ रखते हैं तबतक हम उसे रख लेनेके लिये तर्क ढूँढते हैं, लेकिन जब हम जागरूक होते हैं तो योग्य विचारसे अलक्ष्मीको पहचान पाते हैं और उसे अस्वीकृत रखते हैं।

हमारे ईशावस्य उपनिषद का पहला श्लोक बताता है कि जो हमारे परिश्रमकी संपत्ति है उतने पर ही हमारा अधिकार है। पुरुषार्थसे वह संपत्ति हम अधिक से अधिक पा सकें और उसका उपभोग कर सकें इसके लिए हमें परिश्रम, बुद्धि, कर्तव्य दक्षता आदि सारे गुणों का उपयोग करना चाहिये। परिश्रम पूर्वक हमने जो भी संपत्ति कमाई वही हमारी संपत्ति है। इसके अन्य जो भी है वह हमारी संपत्ति नहीं है और उसे कभी भी स्वीकार नहीं करना चाहिए।

श्री सूक्तकी एक ऋचामें प्रार्थना है कि मेरे परिश्रमसे जो श्री संपत्ति मेरे पास आए वह गाते बजाते हाथी घोड़े इत्यादि पर बैठकर बड़ी मात्रामें मेरे पास आए क्योंकि वह मेरे लिए अभिमान की संपत्ति है। लेकिन किसी छोटी खिड़कीसे, किसी टेबलके नीचेसे, सारे जगसे छिपाकर, और सबसे नजरें चुराकर मेरे पास कोई संपत्ति ना आए क्योंकि वह अलक्ष्मी होगी।

लक्ष्मीको श्रीके साथ जोड़ा जाता है जो पवित्रताकी भी प्रतीक है। ग्रंथोंमें यह वर्णन है कि श्री के उपयोगसे आप जो अन्न खरीदेंगे उससे आपको वह पोषण, बुद्धि और सामर्थ्य मिलेगा जो आपको प्रतिभा देगा, आपके द्वारा अन्वेषणा और अविष्कारके कार्य किए जा सकेंगे। आपके द्वारा परमेश्वरका दर्शन भी किया जा सकेगा। ऐसी प्रतिभावान बुद्धि आपको उस अन्नसे प्राप्त होगी। परंतु जो आपके परिश्रमकी कमाई नहीं है ऐसी अलक्ष्मी जब आपके घरमें आती है तब उसके माध्यमसे खरीदा गया अन्न आपकी बुद्धिको भ्रष्ट करता हुआ आपको विनाश की ओर ले जाता है।

यह एक बहुत ही विस्तृत तत्वज्ञान वर्णित है जहां इकोनॉमिक्स कोई stand-alone विषय नहीं रह जाता। उस अर्थशास्त्रके साथ आपके आरोग्यशास्त्रका, मानवकी प्रगति, नीति-अनीति, समाजशास्त्र आदि सभीका विचार अपने आप हो जाता है। यह सारा तत्वज्ञान धर्मके लिए अर्थात समाजकी धारणाके लिए है। समाजके अभ्युदय के लिए जो भी मूल सिद्धांत होंगे वही धर्म है। इस विचारसेशावस्य उपनिषदकी पहली पंक्ति, जो कहती है कि केवल लक्ष्मीका स्वीकार करो, अलक्ष्मीका स्वीकार ना करो वह संसारका सबसे अधिक धार्मिक वाक्य कहा जा सकता है। जब आधुनिक अर्थशास्त्र नेगोशिएबल इन्स्ट्रमेंट एक्ट का आधार लेकर लक्ष्मी और अलक्ष्मीमें भेद नहीं करता तब क्या हमें ऐसे अर्थशास्त्र को मान्य करना चाहिए?

हमारा पहला आर्थिक संस्कार अस्तेयका संस्कार है। बात केवल परिश्रमकी हो तो एक चोर या डकैत भी कह सकता है कि वह चोरी-डकैती करनेके लिए अपनी बुद्धिका, अपने बलका पूरा-पूरा उपयोग करता है, समय लगाता है, जोखिम भी उठाता है, तो फिर लूटको अलक्ष्मी क्यों कहा जाय? इसका उत्तर बहुत ही स्पष्ट है। जिस व्यक्तिको लूटा गया उसके लिए वह संपत्ति लक्ष्मी थी लेकिन उसके शोषणपूर्वक वह किसी पास आई तो वह अलक्ष्मी हो जाती है।

इससे आगे एक अपरिग्रहका संस्कार है। इसका अर्थ है कि जो मेरी सामान्य आवश्यकताएं हैं उनकी अपेक्षा बहुत अधिक वस्तुएं मुझे नहीं रखनी चाहिए। एक उदाहरणमें एक महिलाके पास पांच हजार साडियाँ पाई गईँ जबकि सामान्यतया उसके रुतबेके लिये चारसौ-पांचसौ साडियाँ पर्याप्त थीं। य़ह अलक्ष्मी है क्यौंकि इस अतृप्तिका कोई अंत नही।

अलक्ष्मीका एक उदाहरण है हमारा खनन माफिया। ये लोग प्राकृतिक संपदाकी लूट करते हैं और तर्क देते हैं कि उस कार्यमें वे किसीका शोषण नहीं कर रहे। लेकिन प्रकृतिका दोहन करने वाले माफिया पूरे समाज, देश और प्रकृतिके लिए ही खतरा बनते हैं। इसलिए उनके द्वारा कमाई गई संपत्ति भी अलक्ष्मी ही कहलाएगी। इसी प्रकार अस्पतालोंमें मरीजके इलाजके नाम पर जब पैसा लूटा जाता है जब वह डॉक्टर भी अलक्ष्मी कमा रहा होता है। कई बार हमारे पूर्वज हमारे लिए प्राकृतिक संपदा अथवा धन संपदा इकट्ठे कर जाते हैं। मान लो पूर्वजोंने मेरे नामसे एक ऐसी जमीन छोड़ी है जिसमें बहुत सारे सागवानके पेड़ लगे हुए हैंअब मैंने कोई नया पेड़ तो नहीं लगाया, लेकिन जो पेड़ मुझे विरासतमें मिले थे उनकी कटाई करके मैंने धन कमाया तो यह भी अलक्ष्मी ही कहलाएगा।

इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय संस्कृति और तत्वज्ञानमें जो लक्ष्मीकी व्याख्या की गई है वह सभी प्रकारसे धर्मके अनुकूल है जबकि आधुनिक अर्थशास्त्रके कई सिद्धान्त धर्मके अनुकूल नहीं पडते। तो इस विषयमें हमारी श्रद्धा यही बताती है कि हम अलक्ष्मीका या उसे स्वीकार्य बतानेवाले तत्वज्ञानका भी स्वीकार नही कर सकते। उस सामाजिक शुचिताकी ओर हमें लौटना पडेगा। आज यदि हम अपने सांसारिक व्यवहारके लिए आधुनिक अर्थशास्त्रके सिद्धान्तोंको अपनाते भी हैं तब भी उनकी निरर्थकताके प्रति हमें जागरूक रहने की आवश्यकता है।

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