Sunday, July 18, 2021

अध्याय ८ श्रद्धा के बहुतेरे आयाम

 

अध्याय ८

श्रद्धा के बहुतेरे आयाम


श्रद्धा और सत्य

श्रद्धा का अर्थ है--”सत्यमें या सत्यको धारण करना”। ”श्रत्” अर्थात् सत्य, और ”धा” अर्थात् ”धारण करना।” भारतियोंका मानना है कि संसारकी प्रत्येक वस्तुका विकास सत्यकी तरफ है और सृष्टिकी आधारभूत कला, जो ब्रह्माके शरीरका अंश है, वह ”श्रद्धा” है। ”श्रद्धा” उस दृढ विश्वासका नाम है जो बताता है कि संसारके प्रवाहकी दिशा ”सत्य” की तरफ है, असत्यकी तरफ नहीं। अगर कहीं असत्यका प्राबल्य भी दीखता है तो वह सामयिक है। इसी श्रद्धाने हमारी प्रार्थनाको निश्चित किया -- असतो मा सद्गमय।

ऐतरेय ब्राह्मणमें कहा है, “श्रद्धा सत्यं तदित्युत्तमं मिथुनम्” - श्रद्धा और सत्यका मिथुन अति उत्तम है। इन दोनोंके मिथुनसे स्वर्गलोक मिलते हैं। यहाँ मिथुन यानी रतिसम्बन्ध या परिपूर्ण प्रीति सम्बन्ध बताया या है। श्रद्धा और सत्यको यों ही नहीं जोड़ना। दोनोको आनंदपूर्वक मिलाना, मिलते-मिलाते हुए एक कर देना, इसीलिये श्रद्धया सत्येन मिथुने कहा गया।

सत्य एक बडी अनुभूति है। उसका साक्षात्कार भी कठिन और सामना तो और भी कठिन। क्योंकि सत्य पर समयका जोर नही चलता। लेकिन श्रद्धा साथ हो तो सत्यसे साक्षात्कारकी धीर प्रतीक्षा सुगम हो जाती है। इंद्रियबोधसे होनेवाला सारा प्रत्यक्ष ज्ञान सत्य नही होता, हमारे सामने रूप, आकार होते हैं जो परिवर्तनीय हैं। वे तथ्य होते हैं जो ‘कुछ समयके सत्य’ हैं। मन तथ्यको सत्य मानने लगता है। लेकिन कालचक्र तथ्योंको मिटा देता है। केवल सत्य ही समयके सामने टिकता है। वह सदा ‘नित्य’ रहता है। सत्यके दर्शनसे सब कुछ एक साथ जान लिया जाये इसके लिए बड़ा धीरज चाहिए। तभी तो भारतीय चिन्तनमें ‘धैर्य’ को धर्मका पहला और प्रमुख लक्षण कहा गया है। धैर्य असाधारण साधना कठिन तप है। लेकिन ‘श्रद्धा’ इस कठोर तपको आसान कर साधकको सत्यके हेतु धैर्य दिलाती है। ऐतरेयमें वर्णित ‘सत्य और श्रद्धा’ के मिथुनका रूपक इसी आंतरिक अनुभूतिके आधार पर ही गढ़ा गया होगा। एवंच सत्यके शोधमें श्रद्धाका साथ जरूरी है।

श्रद्धामें सत्यके प्रति प्रीति होती है, अतः वह पूर्ण है, उसे पूर्णकामकी संज्ञा है। श्रद्धा और सत्यकी जोड़ीसे जो स्वर्ग प्राप्तव्य है वह पूर्ण आनंद और हमारी कामनाओंकी पूर्तिसे उद्भूत आंतरिक चित्तदशाका ही पर्याय है। श्रद्धा और सत्य की जोडीसे जीवनका सर्वोत्तम प्रकट होता है। यों सत्य अपने आपमें परिपूर्ण है। लेकिन सत्यकी आकुलताको धीरजपूर्ण बनाए रखनेका काम श्रद्धा ही करती है। श्रद्धाभावमें ही जीवनकी समसुरता, छन्दबद्धता और लयबद्धता है। समूचे ब्रह्माण्डसे जुड़े होनेका भाव है।

श्रद्धा जीवन ऊर्जाकी अनुपम शक्ति है जिसे पहचाने बिना मनुष्य शक्तिशाली नहीं होता। मानव देहमें एक चिरंतन आध्यात्मिक सत्य छिपा हुआ है। उस सत्यके अमृतकी खोजमें मनुष्यकी सारी क्रियाशक्ति प्रत्यक्ष या परोक्ष रूपसे निरंतर प्रयत्नशील है। किंतु इच्छाओंका आवरण घना होता है, इच्छाएं मानवको इधरसे उधर भटकाती हैं और दुखके थपेड़े खिलाती हैं। मनुष्य बार-बार जन्मता है और मरता है। जन्मजन्मांतरके प्रारब्ध जुकर और घनीभूत हो जाते हैं। ऐसेमें साधना उपासना करते हुए श्रद्धाका प्रकाश ही लौकिक चमकदमकके मोहसे हटाकर आत्माको सत्यप्राप्ति का मार्ग दिखाता है। सत्यके सद्गुण, ऐश्वर्य-स्वरूप एवं ज्ञानकी थाह बुद्धिसे नहीं मिलती, वरन सविनय प्रेम भावनासे प्राप्त होती है इसी प्रेम भावनाको श्रद्धा कहते हैं

श्रद्धा साधकको सत्यकी सीमा तक साधे रहती है, संभालकर रखती हैश्रद्धाके बलपर ही लि चित्त अशुद्ध चिंतनको परित्याग करके मनुष्य परमात्माके चिंतनमें लग सकता है बुद्धि भी जड़पदार्थोंमें तन्मय रहकर परमात्मा ध्यानमें अधिकसे अधिक सूक्ष्मदर्शी होकर दिव्य भावमें बदल जाती है तार्किक शक्ति इतनी बलवान नहीं होती कि मनुष्य निरंतर उचित-अनुचित, आवश्यक-अनावश्यकके यथार्थ और दूरवर्ती परिणामोंका आत्मानुकूल होनेका विश्वास दे सके जब हम अपने कर्मोंके औचित्य-अनौचित्यको परम प्रेरक शक्तिके हाथों सौंप देते हैं तो एक प्रकारकी निश्चिंतता मनमें आती है। यही भगवद्गीताका राजयोग है।


श्रद्धा और विश्वास

गोस्वामी तुलसीदासने श्रद्धा और विश्वासको एक साथ जोडतेेे हुए कहा है --

भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ ।

याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तःस्थमीश्वरम्‌ ॥

श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वतीजी और श्री शंकरजी की मैं वंदना करता हूँ, जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते। यह श्लोक संक्षेप में अध्यात्मके तत्वज्ञानका निरूपण है। आत्म-शक्तिकी अनुभूतिके ये दो सम्बल हैं- श्रद्धा एवं विश्वास।

यहाँ गोस्वामीने श्रद्धा और विश्वासमें अन्तर नही किया है। लेकिन हमारी बोलचालमें हम श्रद्धा और विश्वासमें थोडा अन्तर करते हैं। विश्वास जिसे अंगरेजीमें ट्रस्ट कहते हैं, एक बुद्धिगत गुण है देखे, सुने और जांचेको मानना विश्वास है जो यह हमारे इंद्रियबोधका परिणाम है। हमारे आंख, कान, नाक, जीभ और स्पर्शसे बुद्धिको संवेदन मिलते हैं। बुद्धि उनका विवेचन करती है और विश्वास या अविश्वास प्रकट करती है। अविश्वास और विश्वास दोनो ही बुद्धिगत निर्णय हैं।

भारतीय चिंतनमें विश्वास या अविश्वास दोनोंसे परे धारणाका नाम है श्रद्धा जिसका कोई अंगरेजी अनुवाद नही हो सकता क्योंकि उनके वाङ्मयमें यह संकल्पना ही नही है। विश्वास या अविश्वास विषयगत होते हैं, जबकि श्रद्धा अस्तित्वगत है। हम किसी मनुष्यपर विश्वास कर सकते हैं और अविश्वास भी सुने-सुनाएको यों ही बिना जाँच या बिना पूर्व साक्ष्यके मान लेना अंधविश्वास कहलाता है।

लेकिन श्रद्धा तो विराट अस्तित्व और उसकी महिमाका स्वीकार है जो इंद्रियबोधसे नहीं आता। यह अंतर्जगतकी अनुभूति है। ऐसी श्रद्धा अपनी ऊर्जाके कारण स्वयं श्रद्धाके योग्य है।

गोस्वामीने गरुड़ काकभुशुण्डि के संवादके माध्यमसे आत्मसाधनाकी प्रक्रियाका वर्णन करते हुए कहा है कि ‘‘सात्विक श्रद्धा धेनु सहाई।’’ सात्विक श्रद्धा ही सुंदर गाय है। यह गाय ‘जप, तप, व्रत जम नियम अपारा’ यानी यम-नियम, जप-तप आदि चारा ही खाती है। यह चारा हरा हो, अर्थात उसमें जीवन हो, प्राण हो, जीवंत संवेदनायें इस चारेको प्राणवान बनाये रखें। जबतक मनुष्यके अंतःकरणमें श्रद्धा रूपी गायका जन्म नहीं होता तबतक नियम व्रत आदि धर्माचरणमें मनुष्यकी बुद्धि स्थिर नहीं रह पाती।

‘‘तेन तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।’’

लेकिन ऐसे हरे चारा को जब श्रद्धा रूपी धेनु चरती है और उनसे पोषण प्राप्त करती है, तब भावरूपी बछड़े को देखकर वह पिंहाती है, उसको थनों में दूध उतर आता है। इस दूध को निर्मल मनरूपी अहीर विश्वासरूपी पात्रमें दुहता है।

इससे श्रद्धाका तात्विक स्वरूप स्पष्ट होता है। भाव-विहीन, जप-तप विहीन, नियमों का उल्लंघन करने वालोंकी श्रद्धासे धर्मरूपी दूध नहीं दुहा जा सकता। उस बर्तन को दूध से भरने के लिये साधना आवश्यक है।

श्रद्धा और विश्वास इन दो बीजों का विकसित रूप ही व्यक्तित्व वृक्ष है। जैसी श्रद्धा ओर जैसा विश्वास होता है, वैसी ही आकाँक्षा-प्रेरणा तथा वैसा ही संकल्प प्रबल होता है। उस दिशा में निरन्तर बढ़ते जाने की प्रेरणा और शक्ति उन्हीं से मिलती है और तदनुरूप साधन सहयोग जुटाये जाते है। विश्वास शब्द को ‘विश्’ और ‘वास’ इन दो शब्दों से मिलकर बना माना जाता है। ‘विश्’ का अर्थ है ‘प्रविष्ट होना’ तथा ‘वास’ का अर्थ निवास करना है। जो भाव-संवेदना अन्तःकरण में गहराई से प्रविष्ट हो, वहीं निवास करे, गहराई तक जमी हो, उसे विश्वास कहते है। स्थायी और सुदृढ़ विश्वासभाव ही ‘शंकर’ अर्थात् कल्याण करने में समर्थ है।

उत्कृष्ट श्रद्धा-विश्वास ही शिव-पार्वतीका युग्म है। वे ही प्रगति एवं पुरुषार्थका आधार हैं। कृतित्व तथा कल्याणका साधन-सम्बल वे ही है। भगवती पार्वतीको जगज्जननी कहा गया है। श्रद्धा ही आन्तरिक व्यक्तित्वको जन्म देने वाली, उसके स्वरूपको निर्धारित-विकसित करने वाली दिव्य जननी है। यह श्रद्धा विश्वाससे जुड़कर संकल्प और सक्रियताकी प्रेरक बनती है। इस लिये विश्वासको श्रद्धाका सहचर कहा गया है। श्रद्धा व्यक्तित्व की आदि-शक्ति है और विश्वास महादेव हैं, परम शिव हैं।

संदर्भ फेसबुकपर भारतवर्ष ब्रह्मावर्त की पोस्ट ११ १० २०१५

श्रद्धा और बुद्धि

बुद्धिके व्यवहार चिन्तनसे आरंभ होते हैं। समझ, सूझ-बूझ, विचार, कल्पना, निर्णय सब इसीके अंग हैं। किन्तु चिन्तनकी दिशा क्या होगी, यह अन्तःकरणमें उठने वाली भाव-संवेदनाओंके स्वरूप पर निर्भर करता है । अन्तःकरणको ही कारण शरीर कहा जाता है। मनुष्यके प्रत्येक कार्यका आधारभूत कारण उसके अन्तःकरणमें उठी उमंगें, आकाँक्षायें, प्रेरणायें ही होती है। उन्ही घनीभूत भाव-संवेदनाका नाम श्रद्धा है।

कोई भी व्यक्ति वही होता है, वैसा ही बनता चला जाता है, जैसी उसकी श्रद्धा होती है। बुद्धि और सक्रियता श्रद्धाके ही अनुगामी होते हैं। दो भिन्न व्यक्तियोंकी एक जैसी बुद्धि और एक जैसी क्रियाशीलता भिन्न-भिन्न दिशाओंमें प्रयुक्त होने पर आकाश-पाताल जैसे अन्तर उपस्थित करा देती है। यह अन्तर भिन्न-भिन्न श्रद्धाका ही परिणाम होता है। दुराचरण और निरंकुश भोगकी आसक्तिने दुर्योधनको तब तक चैनसे नहीं बैठने दिया, जब तक अपने सभी स्वजनों-सम्बन्धियों- सहयोगियोंका और स्वयं अपना भी विनाश उसने नहीं करा डाला। हमारे ग्रंथोमें सहस्रों उदाहरण भरे पडे हैं कि कैसे आसक्तिसे आसुरी संपदा और श्रद्धासे दैवी संपदाका उद्गम होता है। यह श्रद्धा ही है जो देवोंको असुरोंपर विजय दिलाती है और मानवको देवताके समकक्ष लाती है।

श्रद्धा और क्रियाशीलता

किसीका व्यक्तित्व क्या है, कैसा है? इसे जानने-समझनेका एक ही अर्थ और एक ही उपाय है कि उस व्यक्तिकी श्रद्धाका स्वरूप क्या है? जीवकी स्थिति श्रद्धासे लिपटी हुई है। जैसी श्रद्धा, वैसी स्थिति, वही स्वरूप।

श्रद्धा और विश्वास अन्तःकरणकी शक्तियाँ है। स्थूल शरीरकी शक्ति क्रिया है। सक्रियताके बिना न तो जीवित रहा जा सकता, न ही प्रगति-उपलब्धि सम्भव है। इस सक्रियताका प्रेरक है चिन्तन जो सूक्ष्म शरीरकी शक्ति है।

क्रिया और विचारधारा भी चेतनाकी ही शक्तियाँ है। किन्तु उनका स्वरूप एवं उनकी दिशा श्रद्धाके ही अनुरूप होती है। इसलिए श्रद्धाको मानवीय चेतनाकी मूल शक्ति कहा जा सकता है। ‘श्रित्र्’ धातुमें ‘उत्’ प्रत्यय जोड़कर “श्रत्” शब्द बनता है। ‘श्रित्र् सेवायाम् के अनुसार इसका धात्वर्थ है- सेवा करना। यह “श्रत्” भाव धारण किया जाना श्रद्धा है। जिसके प्रति सेवाकी भावना रखी जाय, जिसे पुष्ट-प्रबल बननेमें योग दिया जाय उसके प्रति व्यक्तिकी श्रद्धा है, यह मानना चाहिए। सेवा और उपासना बिना आत्मीयताके सम्भव नहीं। शास्त्रमें कहा है- “शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’। अर्थात्-स्वयं शिव रूप बनकर ही शिवकी उपासना, भजन, सेवा करनी चाहिए। अतः सच्ची श्रद्धा उसीके प्रति मानी जा सकती है, जिससे अभिन्न आत्मीयताकी अनुभूति हो और जिसके जैसा स्वयं बननेकी उत्कट इच्छा एवं प्रयास हो।

श्रद्धा और आस्तिकता

एक अतिसुंदर प्रसंगकी चर्चा करते हैं। भारतीय चिंतनमें अस्तित्वको अनंत, विराट, असीम, रहस्यपूर्ण और आश्चर्यजनक बताया है। आधुनिक विज्ञानने तमाम खोजें की हैं, ज्ञानका आकार लगातार बढ़ा है तो भी अज्ञात क्षेत्रकी सीमा नहीं घटी। असलमें अज्ञात क्षेत्रोंकी सूची अंतिम नहीं है, अज्ञातके बारेमें हमे इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए कि अमुक-अमुक क्षेत्र हमारे लिए अभी अज्ञात है। इस सूचीके बाहर भी ढेर सारे अज्ञात क्षेत्र होंगे। इसलिए ज्ञानयात्राका कोई अंतिम छोर नहीं।

मुंडकोपनिषदमें कथा है। एक गुरुकुलके ऋषि और शिष्य इसी उधेड़बुनमें थे कि वे सबकुछ जान लेना चाहते थे। विश्वविद्यालयके कुलपति शौनकके मनमें भी यही जिज्ञासा उगी, और वे महान तत्ववेत्ता अंगिराके पास गए। उन्होंने विनम्रतापूर्वक यही प्रश्न पूछा “कस्मिन्नु विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवतीति - क्या जान लेने पर यह सब जाना हुआ हो जाता है?” शौनक ‘यह सब’ समूचा संसार जाननेके जिज्ञासु थे। ब्रह्मांड विराट है। उन्होंने परमसत्यकी जिज्ञासा की, वही जान लिया जाए तो बाकी सब रहस्य अपने आप प्रकट हो जाते हैं। पहले ज्ञानकी प्यास है, फिर ज्ञानप्राप्तिका संकल्प। फिर श्रेष्ठतर आचार्यसे प्रश्न और जिज्ञासा, लेकिन इन सबसे ऊपर एक श्रद्धा आवश्यक है। उस चैतन्यके अस्तित्वमें श्रद्धा, हम जिसे जानना चाहते हैं। उसके अस्तित्वको सहजभावसे स्वीकार करनेसे उसे जान सकते हैं। उसके अस्तित्वपर ही शंका हो तो मनुष्य उसे जाननेेेेका प्रयास क्यों करेगा?

इसे हम आधुनिक विज्ञानकी पॉजीट्रानके आविष्कारकी कथासे जोड़ कर देख सकते हैं। परमाणुकी रचनामें इलेक्ट्रॉनके अस्तित्वकी कल्पना की गई और उसका प्रमाण भी मिल गया। फिर वैज्ञानिकोंने अलग प्रयोगोंसे यह अनुमान लगाया कि इलेक्ट्रॉन जैसा ही अन्य सूक्ष्मकण भी होना चाहिए जो ऋणभारित ना होकर धनाभारित होगा। उसे पॉजीट्रान कह सकते हैं, और हो ना हो, अंतरिक्षसे पृथ्वीपर होने वाले उल्कावर्षावमें उसे पाया जा सकता है। इसी श्रद्धासे ब्लैकेट नामक एक वैज्ञानिक उल्का वर्षावके फोटो ले ले कर उन्हें डेवेलप करनेका काम लगातार करता रहा। आखिरकार लगभग 60,000 फोटोप्लेटकी जांचके बाद उसे फोटोप्लेटोंपर ऐसे निशान मिले जो पॉजीट्रानके होनेकी पुष्टि कर रहे थे। यह सत्य कहानी बताती है कि श्रद्धासे अस्तित्वको स्वीकार करनेसे ही जिज्ञासा और अन्वेषणा दोनों आगे बढ़ते हैं। अनंत ज्ञानसे कुछ चुनकर लानेका यही मार्ग है।

श्रद्धा और सरलता

श्रद्धाका आविर्भाव सरलता और पवित्रताके सहयोगसे होता है। पार्थिव वस्तुओंसे ऊपर उठनेके लिए इन्हीं दोनोंकी अत्यंत आवश्यकता होती है। इच्छामें सरलता और प्रेममें पवित्रताका विकास जितना अधिक होगा उतना ही श्रद्धा अधिक बलवान होगी। सरलताके द्वारा परमात्माकी भावानुभूति होती है और पवित्र प्रेमके माध्यमसे उसकी रसानुभूति। श्रद्धा दोनोंका सम्मिलित स्वरूप है, उसमें भावना भी है और रस भी। जहां उसका उदय हो वहां लक्ष्य प्राप्तिकी कठिनाईका तुरंत समाधान हो जाता है। अविश्वस्त व्यक्तियोंके आगे थोड़ासा भी काम जाता है तो उससे उन्हें बड़ी हड़बड़ाहट होती है किंतु यदि उसी कामको साहस और भावनाके साथ हाथमें लिया जाता है तो घबराहट और कठिनता भी आनंदमें बदल जाती है। जो काम बोझवाला प्रतीत होता था वही सरल हो जाता है।

प्राचीन कालसे ही पवित्र अंतःकरणमें श्रद्धाका महत्व बना हुआ है परमात्मा सत्य है, उसके गुण स्वभाव परिवर्तनशील हैं, इसी प्रकार उसके पास पहुंचनेका मार्ग भी परिवर्तित है उसे आज भी पाया और अनुभव किया जा सकता है परंतु उस स्थितिकी परिपक्वता आनेसे पहले साधनामें जो कठिनाइयां और दुरभिसंधियाँ आती हैं उनके बीच लक्ष्यप्राप्तिहेतु भावनाकी स्थिरताके लिए श्रद्धा आवश्यक है

श्रद्धा भी है यह ईश्वरीय आदेशोंपर निरंतर चलते रहनेकी प्रेरणा देती है, आलस्य से बचाती है, कर्तव्य पालनमें प्रमासे बचाती है, सेवा धर्म सिखाती है. अंतरात्माको प्रफुल्ल एवं प्रसन्न रखती है इस प्रकार तप और त्यागसे श्रद्धावान व्यक्तिके ह्रदयमें पवित्रता एवं शक्तिका भंडार अपने आप भरता चला जाता है गुरु कुछ भी ना दे तो भी श्रद्धामें वह शक्ति है जो अनंत आकाशसे अपनी सफलताके तत्व और साधनको आश्चर्यजनक रूपसे खींच लेती है ध्रुव, दिलीप, एकलव्य आदिकी साधनाकी सफलताका रहस्य उनके अंतःकरणकी श्रद्धा ही है जिसे परखकर गुरुजनोंने उन्हें साधनाकी प्रेरणा दी।

जीवन, जगत् और विराट सत्य सत्ताके प्रति श्रद्धाभावमें ही जीवनकी समसुरता, छन्दबद्धता और लयबद्धता है। श्रद्धालु एकाकी नहीं होते। उनकी श्रद्धामें वे समूचे ब्रह्माण्डसे जुड़े होते हैं। वे तनावग्रस्त नहीं होते। श्रद्धा उन्हें संभाल लेती है। श्रद्धा जीवन ऊर्जाकी अनुपम शक्ति है। जब हवा बहती है तो उसका स्पर्श महसूस किया जाता है आंखों से उसे देखा नहीं जा सकता है हवा की गति को देखने के लिए पत्तों को हिलता हुआ देखकर उसकी गति का अनुमान दिशा का अनुमान लगाया जाता है। ठीक ऐसे ही जब किसी मानवके हृदयमें श्रद्धाका, आत्मीयताका, भावनाओंका प्रवाह चलता है तो सभी छूने वालोंको श्रद्धाकी अनुभूति होती है जिनमें संवेदनशीलता व भावना उत्कट होगी वे श्रद्धाकी अनुभूतियाँ पा लेते हैं जो दिन-रात घृणामें जीते हैं, राग- द्वेषमें जीते हैं, काम- क्रोधमें जीते हैं वे किसी अन्यके हृदयकी श्रद्धाकी अनुभूति नहीं कर सकते।

श्रद्धा और निष्ठा

देववाणी संस्कृतका एक सामर्थ्य यह भी है कि इसमें पर्यायी शब्द बहुलतासे पाये जाते हैं, फिर भी हर शब्दकी स्वयंकी एक छटा है, एक ऐसा स्पष्ट अर्थ है जो अन्य शब्दोंकी अपेक्षा अधिक सटीक बैठता है। संस्कृतसहित सारी भारतीय भाषाएँ जो इस शब्दभंडारसे लाभान्वित हैं, अपनेआपमें श्रद्धाका विषय कही जा सकती हैं श्रद्धाके साथ अपनेआप मानसमें उभरनेवाले शब्द हैं निष्ठा, आस्था, विश्वास, आदर, निर्मत्सर, प्रेम, उपासना, समर्पण भक्ति इत्यादि। वैसे तो यहाँ उल्लेखित हरेक शब्द कहीं कहीं श्रद्धाके आसपास पहुँचता है लेकिन इनके सुस्पष्ट अर्थको समझना मनभावन भी है और उपयुक्त भी।

सामान्यत: श्रेष्ठता के प्रति अटूट आस्था को श्रद्धा कहा जाता है। आस्था जब सिद्धांत से व्यवहार में आती है तब उसे निष्ठा कहा जाता है। जब निष्ठा व्यक्ति के जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए भक्ति के क्षेत्र में प्रवेश करती है तब श्रद्धा का रूप ले लेती हैं। वस्तुत: श्रद्धा एक गुण है जो व्यक्ति के सद्गुणों, सद्विचारों और उत्कृष्ट विशिष्टताओं के आधार पर उसे श्रेष्ठता प्रदान करता है। ऐसे सद्गुणी, सदाचारी और श्रेष्ठजन ही व्यक्ति को उन्नति के शिखर पर पहुंचाने की सीढ़ी के रूप में सहायक सिद्ध होते हैं और उसके जीवन-पथ को आलोकित करते हैं। कर्म, ज्ञान और उपासना या भक्ति का मूल श्रद्धा ही है। भक्ति रसामृत सिंधु नामक ग्रंथमें लिखा गया है कि श्रद्धासे सत्संग, पारस्परिक सद्भाव स्नेह-आदर और सहयोगके संव‌र्द्धनके साथ ही समाजमें बिखराव पर नियंत्रण और एकत्वकी भावनामें वृद्धि होती है। यह श्रद्धा ही है जो समाजको गति, दिशा और सद्भाव उत्पन्न करनेके साथ मनुष्यताको विकसित करती है।

निष्ठा शब्दमें स्थितिवाचकता है -- किसीके प्रति दृढभावना हो तो निष्ठा कहा जायगा। यथा एकनिष्ठ। भगवद्गीतामें उल्लेखित निष्ठा शब्दका अर्थ आदि शंकराचार्यने क्रमशः स्थिती, अवस्था एवं परिसमाप्तितक ले जानेवाली अर्थात् मोक्षतक पहुँचानेवाली बताया है। इसे ज्ञानतक ले जानेवाली गति भी बताया गया है। इसकी तुलनामें आस्था शब्दका जुडाव प्रायः आदरयुक्त अपनापन है। आदर भी अपनेसे गुणोंमें श्रेष्ठ व्यक्तिके प्रति प्रगट होता है। निर्मत्सर उसीके साथ हो सकता है जिसके साथ हम कोई जीत-हारकी भावना नही रखते वरन उसके अच्छे कार्यको समाजोपयोगी जान लेनेके पश्चात उसमें कोई दखल नही देते। विश्वास, प्रेम, भक्ति श्रद्धा इन सबमें कहीं कहीं समर्पण का भाव होता है। श्रद्धा का अर्थ अंधविश्वास नहीं है। जब अंधविश्वास दूर हो जाता है तब श्रद्धा का अभ्युदय होता है।

श्रद्धा और सफलता

सफल जीवनकी शर्त है- श्रद्धा। जिसकी श्रद्धाका आधार मजबूत है, वह तकलीफों एवं परेशानियोंके चक्रव्यूहको भेदकर बाहर निकल जाता है, सफलताके उच्चतम शिखर तक पहुंचता है। यदि श्रद्धाका आधार ही कमजोर है तो संशयकी हवाका हल्का सा झोंका भी उसे तोड़ देता है। श्रद्धा हमारी प्राण वायु है। जब तक प्राण वायु है, जीवन है। श्रद्धावानको कोई परास्त नहीं कर सकता जबकि बुद्धिमानको हमेशा पराजयका डर रहता है। इसलिए सफलतातक पहुंचने के लिए पवित्र लक्ष्यके साथ जुड़ी अखंड श्रद्धाका होना बहुत जरूरी है।

भारतीय जनमानस श्रद्धा प्रधान रहा है। श्रद्धावान व्यक्ति ही ज्ञान संपन्न और चरित्र संपन्न बनता है। सफलताके लिये सर्वप्रथम मनकी धरतीपर इच्छाका अंकुर प्रस्फुटित होता है, वही इच्छा घनीभूत होकर संकल्प बन जाती है। फिर संकल्पके अनुरूप प्रकल्प बनने लगते हैं और एक क्षण आता है कि व्यक्तिकी इच्छा साकार हो जाती है। यह व्यक्तिकी अपनी श्रद्धा आस्थाका चमत्कार है। आज संकल्प किया और कल बहाने ढूंढे जाने लगें तो उद्देश्योंकी सफलता संदेहमें पड़ जाएगी। संकल्प भी वहीं टूटता है जहां सुविधावाद जाए, थोड़ी सी सफलतापर कार्यके प्रति उत्साह ढीला पड़ जाए। संकल्प तभी दृढ खड़ा रहता है जहां सहनेकी क्षमता हो, संपूर्ण शक्तियां एक ही दिशामें लगी हों, संदेह हो, अविश्वास, भय, पश्चाताप । जिस काम को हाथमें लिया, उसकी सफलता पर हमारा पूरा भरोसा होना आवश्यक है। मनमें अपने लक्ष्यके प्रति अखंड आस्था जगे। श्रद्धाकिसी व्यक्ति विशेष पर नहीं, अपने मूल्यवान उद्देश्योंके प्रति होती है। श्रद्धा समर्पण मांगती है और समर्पण बिना शर्त का होता है। जिस समर्पणके साथ शर्त जुड़ जाए वह केवल सौदा है, साधना नहीं। अज्ञेयने लिखा है कि श्रद्धा या आस्थाके बिना जीवन-दृष्टि तो नहीं होती।

आचार्य महाप्रज्ञके अनुसार श्रद्धाका क्षेत्र है अपनी संकल्प-शक्तिका विकास, भावनाका प्रयोग। जहां भावना का प्रयोग करना है, जहां संकल्प-शक्ति का उपयोग करना है, सृजन करना है, कुछ निर्माण करना है , वहां श्रद्धा का पूरा उपयोग होना चाहिए। जहां श्रद्धामें एक भी छिद्र हो, वहां डुबोने वाली नौका बन जाती है। दुर्लभ श्रेष्ठताको पानेके लिए सतत पुरुषार्थ की जरूरत होती है। अच्छे काम अक्सर कल पर टाल दिए जाते हैं, जबकि अच्छे कामों पर आज ही लगना चाहिए। इसी कारण गुरु चाहिये जो सबसे पहले आलससे बचाये।जीवन की सफलता का एक बहुत बड़ा निमित्त है अच्छे गुरु का मार्गदर्शन।

श्रद्धामें निराशाका कोई स्थान नहीं है। श्रद्धा अखंड बत्ती बनकर हमको तो प्रकाश देती ही है, आसपास भी देती है। श्रद्धापूर्वक पूजन करने वालेके लिए पत्थरकी मूर्ति भी फल देने वाली होती है। भक्ति और श्रद्धाकी यही ताकत है।

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