Sunday, July 18, 2021

अध्याय २६ संकटके कगारपर भारतीयता

 खण्ड ४ -संकट भविष्य

अध्याय २६

संकटके कगारपर भारतीयता


भारतीयताकी व्याख्या हम कैसे करते हैं? हमारे मनमें रचीबसी जो भारतीयता है, जो आज तक अपनी चिरंतनताके कारण नी हुई है, क्या वह आगे भी टिकने वाली है या कगार पर चुकी है? एक अंतिम धक्केकी प्रतीक्षामें, जो कदाचित निकट भविष्यमें ही हो?

या यह अपनी उसी चिरंतनताके सामर्थ्यसे टिकी रहेगी? क्या इसके टिकनेमें समाजके सामूहिक प्रयासोंका कोई महत्व है, या बिना उसके भी अपने आप कोई संस्कृति टिकती है? हम भारतीय संस्कृति और आधुनिक संस्कृतिमें क्या स्पष्ट अंतर देखते हैं? दोनोंमेंसे हमें क्या चाहिए? भारतीय संस्कृतिको दकियानूसी बताकर हमारी युवा पीढ़ीके मनमें आधुनिक संस्कृतिका आकर्षण किस प्रकार उत्पन्न किया जाता है? कैसे य़ुवाओंकी संस्कारिताको अलग दिशामें मोड दिया जाता है? क्या हम इसके चिंतनमें कम पड रहे हैं?

हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि आजके युगमें केवल चिंतनसे बात नही बनेगी, हमें अपने मतको दृढतासे रखना भी होगा। आज तकनीकीके कारण विचार विनिमय बडी शीघ्रतासे जनसाधारणमें प्रसारित हो जाते हैं। जिन विचारों, समाचारों, या चर्चाओंके प्रसारणमें पहले कई-कई दिन, सप्ताह या माह लग जाते थे, आज वही कुछ क्षणोंमें बडी प्रखरतासे रेडिओ या रंगीन चलचित्रों सहित प्रसारित होते रहते हैं। पहले लोग अपनी बात सुनवानेहेतु प्रसार माध्यमोंका आश्रय लेते थे, आज सोशल मीडीयाके कारण कोई व्यक्ति किसीपर आश्रित नही, वरन हर व्यक्ति अपना प्रसारण आप कर सकता है। इन प्रसारणोंको सुनने या देखने वालोंकी संख्यामें भी अप्रत्याशित वृध्दी हुई है। इसका महत्व यों है कि इन माध्यमोंसे भारतीयताके विरुद्ध अपप्रचार तो तेजीसे होता दीखता है किन्तु यदि हम उसे समुचित रीतिसे उत्तर देनेमें असफल रहें, अपने कथनोंकी सत्यताको सिध्द न कर सके, तो भारतीयताके लिये दैन्यकी स्थितिको जन्म देती है। ऐसेमें हमारी संस्कृतिकी विश्वसनीयता भी न्यून हो जाती है।

भारतमें व्यक्ति व राष्ट्रके लिये चार पुरुषार्थ कहे गए- धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष जिसमें अर्थ व काम पुरुषार्थको धर्म व मोक्षकी सीमाओंमें रखा गया है। आधुनिक अर्थकारण केवल अर्थ एवं कामको ही मानता है। तो पहले दो आक्षेप देखते हैं जो अर्थके संबंधमें हमपर लगाये जाते हैं।

वर्तमान बुद्धिजीवियोंने विश्वके देशोंको दो श्रेणियों मे बाँटा है जिन्हें ‘विकसित देश’ (Developed country) और ‘विकासशील देश’ (Developing country) कहा जाता है। भारतको विकासशील देशकी श्रेणी में रखा गया है जिसका शब्दार्थ हुआ कि भारत प्रत्येक क्षेत्रमें विकास करनेके लिए प्रयत्नशील तो है परंतु अभी विकासके उस स्तरपर नही पहुँचा कि उसे विकसित कहा जाये। इस वर्गीकरणसे हमारा बडा नुकसान हुआ है।

किसी देशकी भोतिक संपत्तिके विभिन्न क्षेत्र होते है – खनिज पदार्थ, पेड-पौधे, पशु-पक्षी, संस्कृति, भाषा इत्यादि। इन क्षेत्रोंमें भारतदेश किसी अन्य देशसे कम नही है। हमारी संस्कृति व भाषाएँ सर्वश्रेष्ठ रही है।

सबसे बडी बात यह कि हम पहले कभी निर्धन नहीं थे बल्कि अत्यन्त धनवान थे जिसके कारण विदेशी ताकतें हमें लूटने आया करती थीं। हमें स्वार्थी एवं भ्रष्ट अपनों ने भी लूटा है। इस लूटे हुए धनको विदेशोंमें जमा करके रखा हुआ है। विडम्बनाकी बात है कि हमारे अपने ही बुद्धिजीवियोंने अपनेको “विकासशील” कहलाना बडी सहजतासे स्वीकार कर लिया जबकि हमें केवल “आर्थिक रुपसे विकासशील देश” (financially developing country) कहा जा सकता था। “विकासशील” शब्दसे पहले “आर्थिक रुप से” (financially) शब्द न लगानेके कारण हमारे युवा समझते हैं कि वे सभी क्षेत्रोमें अविकसित किसी देशके निवासी हैं। इस प्रकार के विचार ही हीनभावनाको जन्म देते हैं। हमारे शब्दोंका चयन अपने स्वाभिमानकी रक्षा करते हुए करना चाहिए क्योंकी शब्द प्रभावशाली होते हैं और वे युवा मनमें बुद्धिभ्रम डाल सकते हैं।

दूसरा दोष लगाया जाता है कि परम्परागत भारत केवल मोक्षमार्गी था। भौतिक अविष्कारोंके प्रति उदासीन रहनेके कारण यह अविकसित रहा है। इससे उबरनेके लिये भारतको अध्यात्म-ज्ञान छोडते हुए पाश्चात्य science को अपनाना चाहिए जिसके कारण विभिन्न प्रकारके भौतिक उपकरणोंका आगमन हुआ जिसने मानवीय दैनिक जीवनयापनको सरल व वेगवान बनाया है।

लेकिन उपरोक्त अवधारणा सांस्कृतिक अज्ञानके कारण यह हुई है कि परम्परागत भारतीय चिन्तन केवल मोक्षकी ही बात नही करता है और न भौतिक समाधानोंकी उपेक्षा करता है। भौतिक ज्ञानको अविद्याकी श्रेणी तथा अध्यात्मिक ज्ञानको विद्याकी श्रेणीमें रखकर ईशावास्योपनिषद् में स्पष्ट रुपसे यह कहा गया है –“जो लोग अविद्याको ही पूजते हैं वे गहन अन्धकारमें प्रवेश करते हैं उससे भी अधिक अन्धकारमें वो लोग गिरते हैं जो केवल विद्यामें ही मते हैं। विद्यासे एक प्रकारका फल मिलता है और अविद्यासे अन्य प्रकारका। जो पुरुष विद्या और अविद्या दोनोंको एक साथ जानता है वह अविद्याके द्वारा मृत्यूको पार करके विद्याके द्वारा अमृतत्वको प्राप्त होता है”। अन्यत्र भी पुरुषार्थ चतुष्टयके अन्तर्गत अर्थ अर्थात धन, सम्पति आदि भोग के सभी साधन और काम अर्थात भोगने की क्षमताको बहुत महत्त्व दिया गया है क्योंकि दैनिक जीवनयापनके लिए दोनों अति आवश्यक हैं। केवल इतना ही नियन्त्रण रखा गया है कि अर्थ और काम अर्जित करने की विधि धर्मानुकूल होनी चाहिए, स्वच्छन्द मनोनुकूल नहीं।

हमारे आर्ष-ग्रन्थोंमें अर्थ और काम की प्राप्तिके लिए सदैव उद्यमी रहनेका मंत्र चरैवेति-चरैवेति बताया है। कुछ ही शताब्दियों पूर्व भारतकी प्रौद्योगिकी विश्वप्रसिध्द थी। आधुनिक विज्ञान का प्रयोग लगभग चार सौ वर्ष ही पुराना माना जा सकता है। ठीक उसी दौरमें पारस्पारिक अन्तर्कलह एवं विदेशी आक्रमणकारियों, लूटरोंके कारण भारतकी आर्थिक स्थिती बिगडती गयी और ह निर्धन होते चले गये। इसके कारण भारत की भौतिक विकासकी धारामें अवरोध हुआ, परतन्त्रताके कारण प्रौद्योगिकी विकास न हो सका और हमारा मौलिक चिन्तन विक्षिप्त हुआ। हमारी विवेकशीलताका पतन हुआ, हम स्थूलको मानने लगे और भाषाके सहित सभी सूक्ष्म तत्त्वोंका अनुसन्धान अवरुद्ध हो गया।

हालमें ही जर्मनीकी एक संस्था द्वारा प्रकाशित लेखमें स्पष्टतासे दिखाया गया है कि ज्ञात इतिहासके आरंभसे वर्ष १७५० तक दुनियाकी जीडीपीमें अकेले भारतका योगदान एक तिहाई था। अंगरेजोंकी लूटके बाद केवल २०० वर्षोंमें भारतीय उद्योमिता समाप्त होकर वैश्विक जीडीपीमें भारतका योगदान घटकर मात्र २ प्रतिशतपर आ गया। इस बातको जबतक हम युवा पीढीको नही समझायेंगे तबतक उन्हें भारतकी ओर, भारतीय संस्कारोंकी ओर मोडना कठिन है।

तो फिर एक बार पूछना होगा कि विकास क्या है? विकासकी जो दिशा हमने स्वतंत्रताके बाद पिछले साठ-सत्तर वर्षोंसे अपनाई है, जो आधुनिक अर्थशास्त्रके आधारपर है और जो आगे भी कई वर्षोंतक देशमें रहनेवाली है क्या वह हमारी संस्कृतिके लिए "मूले कुठार:" है? और यदि वैसा हो तो हम विकास और संस्कृति दोनोंमेंसे किसको चुनेंंगे? यह द्वंद्व क्या है? इसकी चर्चा हम अगले एक अध्यायमें करेंगे।

हमारी संस्कृतिमें धर्मके निर्वाहके साथ-साथ धनका विचार, उद्यमशीलता, विकास, यह समृद्धिकी त्रिमिती थी। अर्थके लिये चाहिये कौशल्य विकास। काम अर्थात् उपभोगके पुरुषार्थके लिए कलात्मकता, कलागुण आवश्यक थे तो संगीत नाट्य आदि चौसठ कलाओंकी शिक्षाका भी विचार हुआ। ब्रह्माण्डकी थाह, समयकी संकल्पना, मृत्युका शास्त्र आदिके साथ मोक्षकी संकल्पना और विचार जुड़े। आज भी यह चिन्तनीय है कि क्या धर्म-मोक्षकी संकल्पनाओंके बिना केवल अर्थ और काम पुरुषार्थके आधारपर सृष्टि चल सकती है।

परन्तु चारों पुरुषार्थोंके लिए सर्वाधिक आवश्यक है ज्ञानकी प्राप्ति और ज्ञानका प्रचार। जहां ये दोनों हों, वहींपर ज्ञान-प्रचारके परिपाकके रूपमें कौशल्य, कारागिरी तथा कलाका उदय होता है। हमारे विकास समृद्धिका मूलमंत्र कृषि था। तभी तो हमारी संस्कृति ऋषि-कृषि संस्कृति कहलाई। कृषि एक ऐसा उद्योग है जिसमें पर्यावरणका क्षरण सबसे कम होता है।

पर्यावरण की रक्षामें पर्वत, नदियां, समुद्र, घाटी, वायुमंडल आदिका विशेष महत्व है। तो हमारी संस्कृतिमें इनके मनुष्य रूपकी कल्पना कर उनके साथ संबंध बनाए गए। फिर हिमालय केवल एक पर्वत नहीं रह जाता, बल्कि शैलपुत्रीका पिता शिवका ससुराल बन जाता है। गंगा मैया कहनेके बाद प्रत्येक नदी, धरती, गाय इत्यादिको भी माता का श्रेष्ठ दर्जा दिया जाता है। मैं मानती हूं कि हमारी संस्कृतिके सर्वोच्च मानबिंदु हैं- सत्यनिष्ठा अचौर्य - "मा गृध: कस्यस्विद्धनम्"- यह श्लोक हमें "सम्पत्ति" की व्याख्या करना सिखाता है। जो अपनी मेहनतसे कमाई वह संपत्ति है। अन्य जो भी हो वह विपत्ति या लूट है। जब तक यह सामाजिक मानदण्ड मान्य हो, तब तक कृषि-उत्पादन टिक ही नहीं सकता। यदि लोग दूसरेके खेतसे अपरिपक्व धान्य चुराने लगें तो कृषिके लिए अत्यावश्यक जो बीज-निर्माण है, वही रुक जाएगा।

विकासकी दिशाको निर्धारित करने वाले दो प्रकारके मूल्य हमारी संस्कृतिने दिए। एक था पर्यावरण सुरक्षाके उद्देश्यसे नदी, जंगल, वृक्ष, पर्वत, आदिको मानव संबंध देकर, आदर प्रार्थना कृतज्ञता-ज्ञापन कर उनके महत्वको अधोरेखित करना। दूसरे मूल्यके गुण थे शौर्य, करुणा, मैत्री, समन्वय, समरसता और अभ्युदय यह मान्य किया गया कि सबकी क्षमताएं एक जैसी नहीं होंगी जबकि बुद्धि सामर्थ्य एवं क्षमता ही संपत्तिका निर्माण करते हैं। अर्थात् सबके द्वारा जनित संपत्ति एकसी नही होगी। तो फिर अभ्युदयका उपाय है संपत्ति वितरण व्यवस्थामें। आर्थिक विषमता कमसे कम रहे इसके लिए केवल समाजगणको समझाना है, बल्कि वही समाजगणका मानबिंदु भी हो। इसके लिए दानकी संकल्पना आई। यदि राजा कोई यज्ञ करे तो यज्ञका समापन तभी होता था जब राजा अपनी सारी वैयक्तिक संपत्तिका दान कर दे। स्कूलके दिनोंमें इतिहासकी पुस्तकमें पढ़ा था कि सम्राट हर्षवर्धनने इस प्रकार दानमें अपनी संपत्ति दे डाली थी- वह बात मनको छू गई थी। फिर सोशियोलॉजीकी पढ़ाई करते हुए यह प्रतीत हुआ कि समाजमें संपत्तिका संतुलन बनाए रखनेके लिए ही दानकी संकल्पनाका उदय हुआ होगा और समाजने भी उसे पुण्यकर्मके रूपमें स्वीकार किया होगा। यह आनन्दसहित स्वीकारोक्तिही संस्कार बनती है।

ज्ञान अर्जन ज्ञान प्रसारको हमारी संस्कृतिने अनन्य साधारण महत्व दिया है। ज्ञान प्रसार सर्वत्र हो और अविच्छिन्न हो, इसलिए आवश्यक है कि ज्ञानका व्यापारीकरण हो। यह बात भारतीय संस्कृतिका अविभाज्य अंग रही है। ब्राह्मण वर्गको एक व्रतसमान जिम्मेदारी सौंपी। व्रत था विद्यादानका - गुरुकुल चलाने का - अध्ययन और अध्यापन करने का। उसके लिये आनंदपूर्वक अपरिग्रहका अर्थात् धनसंचय न करनेका विधान रखा गया। और इस व्रत को भी आनंदपूर्वक स्वीकारा गया। जो यह करे वह ब्राह्मण माना गया

भारतीय संस्कृतिके विषयमें कई पुस्तकें लिखी गईं और कई आगे भी लिखी जा सकती हैं। लेकिन वर्तमानमें जो विकास और समृद्धि आवश्यक है उसके लिये कुछ मुुद्दे अत्यावश्यक हें जिनमें पहला मुद्दा शिक्षाका है। आज समाजमें संतोषकी परंपरा समाप्त होकर भोगवाद, स्पर्धा और बुझनेवाली लालसाकी परंपरा आरंभ हो चुकी है। इसी कारण करीब चार दशक पूर्व शिक्षाका ज्ञानप्रसारका व्यापारीकरण आरंभ हुआ। सच कहें तो शिक्षाका व्यापारीकरण नही वरन औद्योगिकरण हुआ है जिसमें असेंब्ली लाइनकी तरह बॅच-बाई-बॅच शिक्षा-सर्टिफाइड-प्रॉडक्ट बाहर निकलते हैं। इस प्रौद्योगिकीने आज विकराल राक्षसी रूप लिया है जो आसुरी प्रवृत्तिके पुनरागमनका संकेत देता है

व्यापारीकृत शिक्षा व्यवस्थासे निकलने वाले किसी भी छात्रके मनमें संतोष और त्यागके संस्कारका बीज कैसे पड़ सकता और कैसे पनप सकता है? इसी कारण हम विकासका कौनसा मॉडल अपनाने वाले हैं और उसमें शिक्षा प्रसार या ज्ञान प्रसार के लिए हमारा मॉडल क्या होगा इसका विचार आवश्यक है। क्या वह संतोष त्यागके संस्कारको आगे बढ़ायेगा?

लेकिन यह प्रश्न पूछनेसे पहले हमें यह तय करना पडेगा कि हमारी संस्कृतिमें हमें भोगवाद, रॅट-रेस चाहिए या आनंदसहित संतोषका संस्कार चाहिए। हमारे विकास मॉडलमें दुविधाका सर्वोपरि मुद्दा यही है।

---------------------------words १६९३ pgs -----------१७० पन्ने-----------



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