Sunday, July 18, 2021

अध्याय ३ सनातन धर्म

 अध्याय ३

सनातन धर्म


किसी राष्ट्रके निर्माणमें श्रद्धा, राष्ट्रधर्म, और दर्शनके साथ साथ धर्मकी भी बडी भूमिका होती है। अतः अब हम भारतमें व्याप्त व स्वीकृत धर्मकी पृष्ठभूमि और प्रत्यक्ष धर्माचरणकी चर्चा करेंगे। सहस्रों वर्षोंसे भारतवर्षकी प्रजाने धर्मके आचरणमें श्रद्धापूर्वक जिन तत्वोंका निर्वाह किया उनकी चर्चा प्रस्तुत है।

आज हम इतना तो निर्विवाद रूपसे कह सकते हैं कि भारतवर्षमें चला रहा धर्म अत्यंत पुरातन है, सनातन है, चिरंतन है इन तीन एक जैसे दिखने वाले शब्दोंका अलग-अलग महत्व क्या है?

पुरातन अर्थात अत्यंत प्राचीन- हजारों वर्ष पहलेका यदि पुरातत्व विभागके उत्खननोंका प्रमाण माने तो भारतमें उत्खननमें पाए गए कई शिल्प, वस्तुएं, मुद्राएं आदि की कालगणना सात-आठ हजार वर्षतक पीछे जाती है अर्थात कमसे कम इतनी पुरातन हमारी संस्कृति है यदि हम अपने ग्रंथोंमें स्थान स्थान पर वर्णित घटनाओंके समयकी आकाशीय ग्रह स्थितिका प्रमाण माने तो वह घटनाएं दस-बारह सहस्त्र वर्ष पुरानी जानी जा सकती हैं और यदि हमारे ग्रंथोंमें वर्णित कालगणनाको देखें जिसमें पृथ्वीकी उत्पत्तिसे लेकर ग्रंथ रचनाके दिनतकका इतिहास लिखनेका प्रयास किया गया है तो वह कालगणना हमें लाखो वर्ष पूर्वतक ले जाती है

एवंच, हमारे ग्रंथोंके र्णनानुसार भारतकी भूमिपर कुछ घटनाएं लाखो वर्ष पूर्व घटित हुई जान पड़ती हैं कई बार यह कहा जाता है कि इतनी पुरातन क्या केवल भारतकी ही संस्कृति थी? यह भी तो संभव है कि उस पुरातन कालमें भारतमें पल्लवित हो रही सभ्यतासे भिन्न कुछ अन्य सभ्यताएं भी विश्वमें कहीं कहीं चल रही हों। तो चलो, इसे भी मान लिया फिर भी इतनी बात तो बाकी रह जाती है कि वे सारी सभ्यताएं मिट गई, उनके सारे अवशेष और सारे पहचान चिन्ह भी मिट गए उनके बताए हुए सिद्धांतोंका अथवा नियमोंका आचरण करनेवाला कोई भी नहीं बचा, जबकि भारतीय संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, धर्म, चाहे जो शब्द कह लीजिए - यह आज भी टिका हुआ है आचार विचारमें टिका हुआ है, श्रद्धामें भी टिका हुआ है इस कारण पुरातनके साथ-साथ वह महत्वपूर्ण भी बना हुआ है

सनातन धर्म- भारतियोंकी मान्यता है कि परमेश्वरकी इच्छासे सृष्टिकी उत्पत्ति हुई, परंतु उस उत्पत्तिमें सृष्टिके साथ-साथ पृथक् रूपसे, एक संयुक्त युग्मके रूपमें ऋतकी भी उत्पत्ति हुई ऋत अर्थात वे नियम जिनके आधारपर सृष्टि चलेगी ऋतके अभावमें सृष्टि तितर-बितर हो जाएगी, बिखर जाएगी और सृष्टिके अभावमें ऋतका कोई उपयोग ही नहीं है अर्थात सृष्टि और ऋत अनन्याेश्रयी है यह ऋत जो सृष्टिके आदिकालसे चला रहा है इसीका दूसरा नाम सनातन है यह सनातन धर्म ही है जो सृष्टिको चलाता है, सुचारू रखता है, उसका पालन पोषण करता है संसारकी प्रत्येक वस्तु चाहे वह जड़ हो या चेतन वह ऋतका, सनातन धर्मका पालन करती है सारे चेतन प्राणी भी इनका पालन करते हैं और मनुष्यको तो अन्य चेतन प्राणियोंकी अपेक्षा अधिक मेघा बुद्धि और ज्ञान प्राप्त है इस कारण वह सनातन धर्मकी गहराईको अपने ज्ञानके आधारसे जान सकता है और यह भी समझ सकता है कि मनुष्यसमाजको बनाए रखनेहेतु भी ऐसे ही कुछ नियम आवश्यक हैं। वह उन नियमोंका पालन करता है इन नियमोंको हम सत्यके नियम कह सकते हैं इनके लिये सत्यव्रती होना पडता है, सत्यकी वृद्धिके व्रत लेना पडता है।

अर्थात जिस प्रकार जड़-चेतन इत्यादि चराचर सृष्टिको चलानेके लिए ऋत है उसी प्रकार जो अति चेतन मनुष्य जाति है उसका समाज सही रूपसे चले और ऋतके विरुद्ध ना चले इसके लिए जो नियम बने वह सत्यनिष्ठाके नियम हैं तो एक प्रकारसे ये कह सकते हैं कि सृष्टिको चलाए रखनेके लिए ऋत और मनुष्य समाजको चलाए रखने के लिए सत्य है। इन दोनोंको समझनेकी और उनका अनुपालन करनेकी आवश्यकता हर समाज को है यही ज्ञान जब भारतके ऋषि मुनि और ब्रह्मज्ञानियोंके सम्मुख प्रकट हुआ तब उन्होंने सनातन धर्मके अनुपालनका व्रत लिया वही सनातन धर्म भारतवर्षमें अब तक चला रहा है ईशावास्य उपनिषदमें प्रार्थना ही है -- सत्यधर्माय दृष्टये -- मैं सत्यधर्मको देखूँ भारतीय समाजने ऋत और सत्यके नियमोंको समझा, उनकी उद्घोषणा एवं व्याख्या री और सनातन धर्मके पालनमें अपना योगदान बढ़ाया

चिरंतन - भारतियोंद्वारा निभाया जाने वाला यह धर्म चिरंतन है, शाश्वत है क्योंकि वह हमें सृष्टिका विनाश करनेसे भी रोकता है और हमारे लिए समृद्धिका मार्ग भी प्रशस्त करता है आधुनिक शब्दोंमें कहा जाए तो सनातन धर्म एक सस्टेनेबिलिटी मॉडल है इस मॉडलमें विकासकी अवधारणा पृथ्वीके दोहनकी नहीं वरन पृथ्वीके संसाधनोंके संरक्षणको महत्व देनेकी है मनुष्य अपनी ज्ञानसंपदाका विकास करे और ऐसे धर्मपर चले जहां अर्थ काम और मोक्ष जैसे प्रीतिकर पुरुषार्थ भी पृथ्वीके दोहनका कारण ना बन सके समृद्धि तो हो परंतु त्याग भी हो तेन त्यक्तेन भुंजीथः। उपभोगमें भी संयम बरतें, एक सीमाके अंदर रहे तो उपभोग भी लंबे समय तक प्राप्त होता रहेगा सीमासे बाहर गए तो विनाशकी ओर धकेलेगा आण्विक ऊर्जाका ही उदाहरण लेते हैं इस ऊर्जाको साधनेके बाद अब मनुष्यके हाथमें है कि वह इसे अत्यंत अल्प मात्रामें निकलने दे और उसके उपयोगसे असंख्य कार्य करें -- यथा इंधनके रूपमें, दवाइयां बनानेके लिए, अन्वेषणाके साधनके रूपमें, उपग्रहोंको गति देनेके लिए इत्यादि इत्यादि या फिर इसे असंयमित मात्रामें उत्पन्न करे और हिरोशिमा या चेर्नोबिल जैसा हाहाकार मचाये।

इसी कारण हमारी भाषामें संतोष, त्याग, आत्मबोध, संन्यास, वानप्रस्थ, प्रव्रज्या, तपश्चर्या, संयम, ब्रम्हचर्य, तितिक्षा आदि शब्द बने जिन्हें केवल भारतीय जनमनके परिप्रेक्ष्यमें ही समझा जा सकता है पश्चिमी सभ्यतामें केवल प्रकृतिके दोहनका मॉडल ही स्वीकार्य है इसलिए वहां उपभोगको ही विकासका या प्रगतिका प्रमाण माना जाता है कंजूमर इंडेक्स अर्थात आपने कितना खाया -- कितना अधिकाधिक उपभोग किया-- वही प्रगति मापनेका प्रमाण है इसलिये उस सभ्यतामें ऊपरोल्लिखित शब्दों और उनसे वर्णि होनेवाली संकल्पनाओंका कोई महत्व नहीं है

आज भारत ऐसे मोड़ पर है जहां पश्चिमी चकाचौंधमें हमें भले ही लगे कि उनका उपभोक्ता मॉडल ही सबसे सही है भारतकी भूमि पर हस्रों वर्ष पूर्व बना संतोषका मॉडल सही नहीं है लेकिन हमें कमसे कम इस मॉडलकी जानकारी अवश्य रखनी चाहिए अन्य देशोंके पास तो विचार करनेलायक पर्याय भी नहीं है भारतीय संस्कृतिने हमें ऐसा पर्याय दिया है उसे आज हम भले ही स्वीकार करें लेकिन उसके अस्तित्वकी जानकारी रखना हमारे लिये अवश्य ही लाभप्रद है।

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यहाँ थोडा रुककर धर्म शब्दका अंगरेजी अनुवाद रिलीजन क्यों भ्रान्ति फैलाता है इसकी चर्चा भी अप्रस्तुत नही है।

भारतीय संस्कृति अर्थात वैदिक संस्कृतिका एक अतिविशिष्ट शब्द है धर्म जिसका उचित अनुवाद संसारकी अन्य किसी भाषामें नही है। इसका अर्थ अत्यंत ही व्यापक है और वह सृष्टिके अस्तित्वसे जुडा हुआ है। अंग्रेजोंके शासनकालमें इसका अनुवाद रिलीजन किया गया।

हमें यह भान सदैव रखना होगा कि अंगरेजोंके भारतमें आनेसे पहले यहाँकी भाषाएँ, उनकी शब्दावलियाँ और उनका आशय या तत्त्वज्ञान अतीव प्रगल्भ था। सनातन धर्म या हिन्दू धर्मकी सहस्त्रों वर्षोंकी परंपरासे यह आशय उपजे थे। इनकी तुलनामें नवीन या अर्वाचीन कहलानेवाली पाश्चात्य संस्कृतिकी संकल्पनाएँ कम विकसित थीं और उनका संदर्भ हजार-पांचसौ वर्षोंसे अधिक व्यापक नही था। ऐसी स्थितीमें भारतीय शब्दोंसे व्यक्त होती संकल्पनाएँ अक्सर अंगरेजी संकुचित संकल्पनाओंसे कई सोपान आगे होती थीं। लेकिन अंगरेज विजेता थे, राज कर रहे थे और यह बतानेमें सफल हो रहे थे कि भारतीय संकल्पनाएँ उतनीही सीमातक सही हैं जितनी पश्चिमि संस्कृतिको मान्य है - उससे आगेकी सारी बातें अस्तित्वहीन, ढकोसला या अंधश्रद्धात्मक हैं। तो धर्मका जो अनुवाद है - रिलीजन, उसे भी हमें इसी परिप्रेक्ष्यमें समझना होगा। रिलीजन शब्द चर्चके संदर्भसे आता है और उससे जो अर्थ ध्वनित होता है वह चर्चके आदेशोंके रूपमें है। उससे बहुत अधिक व्यापक अर्थमें धर्म शब्दका प्रयोग भारतीय संस्कृतिमें होता है। लेकिन जबतक हमारे लेखनमें धर्मकी जगह हम रिलीजन शब्दसे अपने भाव प्रकट करना चाहेंगे, तबतक हमारे भाव उतनी गहराईसे प्रकट नही होंगे जैसी गहराईसे हम धर्म शब्दको समझाना चाहते हैं। इसके लिये आवश्यक है कि अगर हमारा लेखन अंगरेजीमें हो तब भी जहाँ धर्मकी चर्चा करनी हो वहाँ हम DHARMA शब्दका प्रयोग करें ना कि रिलीजन का। वस्तुतः यही कन्फ्यूजन सैंकडो भारतीय शब्दों पर लागू है। उन सबपर विचार करनेकी आवश्यकता है।

इस अनुवादके विषयको यहीं छोडकर सारांशमें देखते हैं कि हमारे ग्रंथोंमें धर्मको कैसे व्याख्यायित किया है। धर्मको समझानेवाले दो वचन सर्वाधिक सटीक माने जाते हैं। महाभारतमें कहा है -

धारणात् धर्ममिति आहुः धर्मो धारयते प्रजाः ।

यत् स्यात् धारणसंयुक्तः स धर्म इति निश्चयः ।।

अर्थात् धर्मका काम है प्रजाको धारण करना यानि प्रजाको अस्तव्यस्त न होने देना -- उसके हेतु स्थैर्य और उन्नतिका मार्ग प्रशस्त करना। तो जिन जिन नियमोंसे और संस्कारोंसे प्रजाका धारण किया जाय वही धर्म है।

दूसरी व्याख्या वैशेषिक दर्शनमें है जिसे आदि शंकराचार्यने भी अपने ग्रंथोंमें उद्धृत किया है -- यतः अभ्युदय निःश्रेयस सिद्धिः स धर्मः -- जिससे समाजके लिये अभ्युदय तथा व्यक्तिके लिये निःश्रेयसकी सिद्धि होती है वह धर्म है।

हम देखते हैं कि धर्मका इतना व्यापक और समाजहितैषी अर्थ अन्य भाषाओंमें नही लिया गया है।

भगवान् मनु ने अपने ग्रंथ मनुस्मृति (/९२) में धर्म के दस लक्षण बताएँ हैं -

धृतिः क्षमा दमोस्तेय शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्।।

अर्थात् धृति, क्षमा, दम, अस्तेय, शौच, इन्द्रियनिग्रह, धी, विद्या, सत्य और अक्रोध ये धर्म के दस लक्षण हैं।

ध्यानसे देखो तो ये लक्षण ही नही वरन वे गुण हैं और संस्कार हैं जिन्हें नई पीढीमें उतारनेहेतु हर गुरुकुलमें प्रयास किया जाता रहा है। इसका प्रमाण मिलता है मेकॉलेके उस कथनमें जहाँ वह लिखता है कि पूरे भारतमें घूमघूमकर देखनेके बाद और गुरुकुल व्यवस्थाको समझनेके बाद उसने पाया कि भारतियोंका सच्चरित्र इन गुरुकुलोंके कारण बना है। यह बात अलग है कि इन्हीं गुरुकुलोंको नष्ट करनेकी शिफारिस उसने की ताकि आनेवाली पीढियोंको भारतीयतासे हटाकर पश्चिमी संस्कृतीके अनुपालनमें लगाया जाये।

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हमारी संस्कृतिमें दो सर्वोपरि तत्व हैं - धर्म और ईश्वर। धर्म या कर्तव्यकर्म साधन है और ईश्वर परमसाध्य है जिसका सच्चिदानंद रुप है।

भारतीय हिंदू धर्म पुरुषार्थका तत्वज्ञान है। इसके सोलह स्तंभ कहे जाते हैं - ४ वेद, ४ पुरुषार्थ, ४ आश्रम, और ४ वर्ण। चार वेद हैं - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्व वेद | चार पुरुषार्थ हैं धर्म अर्थ काम मोक्ष। चार आश्रम हैं ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास | चार वर्ण हैं - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। ये सभी संकल्पनाएँ एक दूसरे में गुंथी हुई हैं। चार युग भी कहे जाते हैं -- सत्य, त्रेता, द्वापर और कलि।

सत्ययुगमें कभी वेद प्रकट हुए। सृष्टिके नियम जो ऋत कहलाते हैं वह ऋतका ज्ञान, वह अलग अलग विषयोंका ज्ञान, यहाँतक कि सृष्टि उत्पत्तिका ज्ञान भी ऋचाओंके रूपमें ऋषियोंके सम्मुख प्रकट हुआ। इन्हींके अध्ययन, मनन आदिसे फिर अन्यान्य ग्रंथोंकी रचना हुई। तो वेदही ज्ञानके अथाह सागर हैं। इनके कारण ही अगली अन्वेषणाओकी संभावना बनी। वेदोंका अध्ययन अध्यापन और अन्वेषणा करनेवाले ब्राह्मण कहलाये। अपने शौर्यसे समाजकी परिरक्षा करनेवाले और न्याय करनेवाले क्षत्रिय हुए। कृषि उत्पादन, भंडारण और वितरणको संभालनेवाले वैश्य। अन्वेषित ज्ञानके आधारपर विभिन्न उत्पाद बनानेवाले शूद्र कहलाये। इनमेंसे हरेकको अपने अपने कर्ममें श्रद्धापूर्वक जुडे रहनेपर संसिद्धि मिलती है ऐसा गीता वचन है। योग्यताके अनुसार भिन्न-भिन्न साधन करते हुए एक ही साध्यको प्राप्त करानेमें धर्म समर्थ है। साधन भेद होने पर भी प्रीति –भेद तथा लक्ष्य-भेद नहीं होना चाहिये यही अभेदका तत्व है। जिस प्रकार गहरी नींद में सभी प्राणी समान होते है, जाग्रत और स्वप्नमें नहीं, उसी प्रकार जीवनकालमें सभी समान न होते हुए भी ईश्वरकी प्राप्तिमें गरीब-अमीर, उच्च-नीच, स्त्री-पुरूष आदि भेद नही रह जाता।

मनुष्य अपने जीवनमें पहले पचीस वर्ष ब्रह्मचर्य आश्रममें गुरुकुलमें रहकर अपनी क्षमतानुसार ज्ञान अर्जित करे, फिर गृहस्थी होकर जीवनयापन, प्रजोत्पत्ति, और समाजके प्रति कर्तव्यपूर्ति करता रहे। वानप्रस्थ आश्रममें वह फिर एक बार गृहस्थीसे निवृत्त होकर वनोंमें रहकर स्वतः अध्ययन करे। फिर संन्यास आश्रम स्वीकार कर वह वापस समाजमें आकर प्रबोधन करे।

समाजधारणामें हाथ बँटाना ही धर्म है। समाजकी उन्नतिके पूरक काम करना धर्म है और वही पहला पुरुषार्थ है। फिर परिश्रम व नीतिपूर्वक धन कमाना दूसरा पुरुषार्थ है। ऐसा धन विश्वका धारण करता है। संपत्तिका संयमित तथा धर्मानुकूल उपभोग- काम तीसरा पुरुषार्थ है जो सृष्टि को विस्तार देता है।। स्वयंके ज्ञानका विस्तार करते हुए उसे समाजमें लगाना मोक्षमार्ग है। अपरिमित ज्ञान ही मोक्ष है। अपने अपने आश्रम व वर्णानुसार कर्तव्य करते हुए इन चारों पुरुषार्थोंको प्राप्त करनेमें मनुष्यजीवनकी सार्थकता है।

पतंजली मुनिके योगसूत्र बताते हैं कि उपरोक्त पुरुषार्थ निभाने हेतु यम – अर्थात न करणीय क्या है और नियम क्या हैं। अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह यम है जबकि शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वर प्रणिधान नियम हैं। इनकी उपलब्धि बिना साधक समाधि तथा विराट ज्ञानका अधिकारी नही होता।

ज्ञानके संस्कार कभी नष्ट नही होते और मनुष्यके मोक्षतक उसके साथ बने रहते हैं, परन्तु इस यात्रामें शरीर बारंबार छूट सकता है। आत्मा अविनाशी अगली यात्रामें चलती रहती है - पुनर्जन्म भी होता है। सूक्ष्मशरीर तथा उसके संस्कार मरनेके बाद परलोक तथा दूसरी योनि तक जाते हैं। जीवनधारणाके लिये मनुष्य कर्म करते रहता है- कर्मके फलस्वरूप सुखदुख, जयपराजय, आशानिराशा, रागद्वेष आदि भावनाओंका उदय होता है इसीको कर्मबंधन कहते हैं। जबतक यह है, अपरिमित ज्ञान नही मिल सकता। गीता बताती है कि श्रद्धाके बिना कर्मबंधनसे छुटकारा या अपरिमित ज्ञानप्राप्ति नही होती। श्रद्धा, उपासना एवं गुरुकृपासे इनको पाते हैं। अतः गुरुका महत्व अलौकिक है।

मनुष्यका समाजमें रहना सुकर हो इसके लिये पूर्वजोंके अनन्त उपकार होते हैं। वर्तमान और अगली पीढियोंका जीवनयापन भी सुकर हो यही प्रयास मनुष्यको करना चाहिये। उपकोरोंका कृतज्ञता पूर्वक स्मरण और

उनसे उऋण होने हेतु मनुष्य माता-पिता-गुरु-अतिथी-राष्ट्र इन पांचोंका देवतारूप पूजन करे और दैनिक इष्टिमें (छोटा यज्ञ) ब्रह्म यज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेव यज्ञ तथा अतिथि यज्ञका यजन करे। वैश्वदेवका अर्थ है कि अपने भोजनके समय एक अतिथीके साथ साथ गौ, कुकुर, कौए, चींटी आदिके लिये अन्नका ग्रास निकालकर रखे। पितृयज्ञमें पितरोंका कृतज्ञतापूर्वक स्मरण, उनकी उपलब्धियोंकी जानकारी, विरासतका परिरक्षण इत्यादि। यह पिृयज्ञका संस्कार ही है जिस कारण पूर्वजोंद्वारा संकलित ग्रंथोंकी करोडों हस्तलिखित प्रतियाँ आज भी हमें उपलब्ध हो रही हैं।

पूर्वजोंके उपकारके स्मरणतक हमारा सिद्धान्त सीमित नही है। जिस प्रकार हम आत्माके लिये पुनर्जन्मको स्वीकारते हैं उसी प्रकार यह मान्यता रखते हैं कि पूर्वजोंका एक सूक्ष्म अंश पितरलोकमें रहकर अपने वंशकी भलाईका प्रयास करता रहता है। इसीसे श्राद्ध, तर्पण इत्यादिके द्वारा हमें भी उनतक अपनी भावनाएँ पहुँचाते रहना चाहिये।

राष्ट्र व समाजके हेतु ही धर्म है जैसा महाभारत वचनसे स्पष्ट है। भारतीय ऋषियोंकी मनीषा रही - कृण्वन्तो विश्वमार्यम्। इस मंत्रमें राष्ट्र विस्तार अभिप्रेत है लेकिन वह आक्रमणसे या जोरजबरदस्तीसे नही वरन अभ्युदय मूल्योंसे सिद्ध हो यही मन्तव्य है। उस हेतु मूल्याधारित समाजकी निर्मितीमें परिवार, गुरूपरंपरा, अतिथी, अभेद व संन्यास जैसे मूल्योंका महत्व और भी बढ जाता है। इसकी चर्चा आगे भी करेंगे।

ज्ञानप्राप्तिमें श्रद्धाका अनन्य महत्व है। इसे पहचान कर जो कई सरल उपाय उपदेशमें दिये गये उनमें ईश्वरमें आस्तिकता, गुरुभक्ति, ईश्वरकी विभूतियोंके प्रति श्रद्धा, साधनामें मूर्तिपूजााका विशेष स्थान, और शुव या राम जैसे उपास्य देवोंकी भक्ति समाहित है। इसका नितान्त सुंदर वर्णन और हमारे संत वाङ्मयसे मिलता है। वैसे तो सुदूर भूतकालमें लिखे पुराणोंमें शिवके द्वारा, पार्वतीद्वारा अथवा राम व कृष्ण द्वारा उपासना और तपश्चर्या किये जानेका वर्णन है। लेकिन ये सारे स्वयं ही उपास्य हैं और उनसे अनुग्रह प्राप्तिके प्रमाण संतसाहित्यमें जगह जगह पाये जाते हैं। इस पूरी उपासना प्रणालीमें प्रायः हर उपासकने गुरुका मार्गदर्शन आवश्यक बताया है।

चराचरमें ब्रह्मकी व्याप्तिका भारतीय तत्वज्ञान है। आगे उत्पत्तिशास्त्रके अध्यायमें हम जानेंगे कि कैसे पंच महाभूतोंद्वारा सृष्टिसंचालनकी कल्पना करी गई है। तदनुसार पृथ्वी जल अग्नि वायु आकाश नदियाँ पर्वत विद्युत वर्षा वृक्ष आदि सबके प्रति श्रद्धा रखनेकी हमारी परंपरा है।

सारांशमें भारतीय धर्मका यह स्वरूप है। ऐसा धर्म एवं श्रद्धा एक दूसरेके पूरक बनकर मानवी जीवनको सार्थक बनाते हैं।

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वस्तुतः संस्कृत भाषाकी दृष्टिसे देखें तो धर्मके व्यापक अर्थोंमें एक अर्थ है गुण। किसी जड वस्तुका, प्राणियोंका, ग्रह-नक्षत्रोंका भी धर्म होता है और मनुष्यका भी स्वभावधर्म होता है। धर्म का निवास स्थान धर्मी कहलाता है, अर्थात जहाँ जो धर्म रहता है, वह धर्मका धर्मी कहलाता है। उदाहरणके लिये सोनेके गुण सोनेमें रहते हैं, इसीलिये सोनेका गुण उसका धर्म हुआ तथा सोनेको धर्मी कहेंगे। इसी प्रकार अग्नि है धर्मी और उसका गुण है जलाना। ऐसेही अन्य पदार्थोके विषयमें समझा जा सकता है। कई दर्शनोंमें धर्म और धर्मीके स्थानपर क्रमशः गुण और गुणी शब्द कहे गये हैं। योग- दर्शनमें इन्हें क्रमशः कार्य और कारण कहा गया है, क्योंकि कार्य अपने कारणमें रहता है।

सारी सृष्टिमें मनुष्य ऐसा प्राणि है जिसे मन-बुद्धि-अहंकार के साथसाथ चित्त अर्थात ज्ञानलालसा भी दी गई है। इसी कारण उसके स्वभावधर्मको संस्कारों द्वारा बेहतर बनाया जा सकता है। भारतीय परंपरा इस बातको प्राधान्य देती है कि मनुष्यके गुण व संस्कार उसके आचरणमें झलकने चाहिये। उसका आचरण सत्यनिष्ठ हो, विद्याग्राही, शुचितापूर्ण, क्षमाशील हो, अस्तेय अर्थात् दूसरेकी संपत्तिमें उसकी वासना न उपजे, इंद्रियोंको एवं क्रोधको वशमें रखे, उद्दण्ड न हो (दम), बुद्धिमान तथा समन्वयकारी (धृति) हो। यह आचरण केवल एक व्यक्तिका न रहे, वरन सारे समाज और राष्ट्रका - बल्कि पूरे विश्वका हो ऐसी हमारी प्रार्थनाएँ भी हैं।

धर्म नियंत्रण की शक्ति देता हे तथा अन्तःकरण पवित्र करता है। मार्गमें चलते हुए रुपये गिरे देखकर उन्हें स्वयंके लिये उठानेका विचार आया, तो मनको रोक दिया और उसे समझाया कि यह काम ठीक नहीं। इस नियंत्रक शक्तिका नाम धर्म है। इसमें अन्तःकरण की पवित्रता साथ ही अर्थ और कामकी अपेक्षा धर्मको सर्वोपरि रखना आवश्यक है।

महाभारतमें ययातिकी कथा आती है कि कैसे उसने बेटेका तारुण्य लेकर अपने वासनाभोगका मार्ग प्रशस्त किया लेकिन सहस्र वर्षतक उपभोग लेनेके उपरान्त उसे समझमें आया कि मनुष्यको संसारके सभी भोग प्राप्त हो जाएँ तब भी उसकी वासना नही मिट सकती। तब उसने बेटेको तारुण्य लौटाते हुए उसे उपदेश दिया कि वासनाका परिमार्जन त्याग, तप व संतोषसे ही संभव है। यह उपदेश भारतीय मानसमें रचाबसा होनेके कारण यहाँके जनसाधारण गरीब होते हुए भी अपनेको सुखी अनुभव करते थे। परन्तु आधुनिक पाश्चात्य भौतिकवादने इस परिदृश्यको क्षीण कर दिया है। यदि राष्ट्र व संस्कृतिमें हमारी श्रद्धा है तो इस परिदृश्यको बदलना पडेगा।

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