Sunday, July 18, 2021

अध्याय १२ पुरातनता व कालगणना

 अध्याय १२

पुरातनता व कालगणना


महाभारतमें एक प्रसंग है कि व्यास मुनिने यह ग्रंथ लिखनेका सोचा तो इतिहासकी परतोंमें झांकनेके लिए वे ध्यान लगा कर बैठे और पूर्वसे पूर्वेतर इतिहास उनकी दृष्टिके सामने आता चला गया। इस प्रकार पुरातन इतिहासको खोजते हुए उनके अंतःचक्षु कालके उस खंडतक पहुंचे जब सृष्टिकी उत्पत्ति हुई। एवंच सृष्टिकी उत्पत्तिका पूरा दृश्य व्यासजीने अपनी आंखोंसे देखा और उसे महाभारत ग्रंथमें बखाना है। यह घटनावर्णन बताता है कि अपने देशमें इतिहासका ध्यान रखनेकी और इतिहास कालीन घटनाओंके कालमापनकी एक व्यवस्था हुआ करती थी।

भारतियोंने कालमापन तथा खगोलशास्त्रमें अनन्यसाधारण योगदान दिया है जो निःसंशय हमारे लिये श्रद्धाकाक विषय है। भारतियोंद्वारा की गई विविध कालगणनाएँ प्रकारान्तरसे भारतकी प्राचीनता भी दिखाती है। यहाँ हम केवल कुछ मुख्य संकल्पनाओंका उल्लेखमात्र करते हैं --

. युगाब्द पंचांगका अस्तित्व

. चार युग व उनके परिमाण

. सत्ययुगीन घटनाओंके प्रमाण – सप्तर्षि मंडल, नक्षत्र कथाएँ,

. खगोलशास्त्रीय गणनाएँ

. कालमापनकी इकाइयाँ

. पुराण वर्णित घटनाक्रम

इस व्यवस्थाके अनुसार चार युग बताए गए - सत्ययुग, त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग इन चारोंके मेलसे चतुर्युग या महायुग बनता है। कलियुगकाल जो ४३२ हजार वर्षका है, उसे एक चरण कहनेपर द्वापर काल २ चरण, त्रेता तीन और सत्ययुग ४ चरणोंके अर्थात एक महायुगमें १० चरण होंगे। यह काल ४३,२०,००० मानव वर्ष जितना लम्बा है।

७१ महायुगोंसे एक मनुकाल बनता है और १४ मन्वंतर पूर्ण होने पर ब्रह्माका एक दिवस पूर्ण होता है - इसी कालको कल्प कहते हैं। कल्पक्षये पुनस्तानि कल्पादौ विसृजाम्यहम् (--गीता ९.)

कल्प = ब्रह्माका १ दिवस = १००० महायुग – और यही सूर्यकी खगोलीय आयु भी है। यह ४३२ करोड वर्ष आती है। हर कल्पका एक नाम दिया गया है। इतना ही लम्बा ब्रह्माका रात्रिकाल भी है परन्तु तब प्रलयकी अवस्था होती है अतः उन रात्रियोंका कोई नाम नही है।

सरल भाषामें कहें तो कलियुगकी अवधि ४३२ हजार वर्ष और ब्रह्मदेवका एक दिन ४३२ करोड वर्षोंका होता है।

ऐसे ३६० अहोरात्रसे ब्रह्माका १ वर्ष पूर्ण होता है। ब्रह्माकी स्वयंकी आयु १ महाकल्प या २ परार्ध यानी १०० ब्रह्मवर्षकी होती है। अर्थात ३,६०,००,००० महायुगोंसे दुगुना कालप्रत्येक कल्पमें १४ मनु और हर मनुके ७१ महायुग (कुल ९९४), इससे अन्य प्रत्येक मनुके पहले व अन्तमें चार चरणोंका संधिकाल होता है। इस प्रकार कुल ६० चरण अर्थात् ६ महायुग मिलाकर एक कल्पमें १००० महायुग होते हैं।

तो मानववर्षकी इकाईमें ब्रह्माकी आयु ४३२०००० x १००० x३६००० x २ जो ३१ शंख १० खरब ४० अरब वर्ष (३१,१०,४०,००,००,००,०००) है जिसे हम अंतरिक्षमंडलकी आयु कह सकते हैं।

आगे हमारे इतिहास व पुराणादि ग्रंथोंमें यह भी वर्णन है कि वर्तमान कालतक ब्रह्माकी आधी आयु पूरी होकर ५१वें वर्षका पहला दिवस या पहला कल्प चल रहा है जिसका नाम श्वेतवराह कल्प है। इसके भी ६ मन्वंतर तथा ७वें विवस्वान मन्वंतरके २७ महायुग पूरे हो चुके हैं और अभी हम २८वें चतुर्युगके कलियुगमें चल रहे हैं। इसका प्रमाण हमें अपनी इस दैनंदिन प्रार्थनामें मिलता है --

"श्रीमद् भगवतो महत्पुरुषस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य अद्य ब्रह्मणो द्वितीये परार्धे श्री श्वेतवराह कल्पे सप्तमे वैवस्वत मन्वंतरे अष्टाविंशतितमे युगचतुष्ट्ये कलियुगे प्रथम चरणे -- नाम संवत्सरे -- वासरे ......”

श्रीमद्भगवान विष्णुके द्वारा प्रवर्तित कालचक्रमें अभी ब्रह्माकी आयुके द्वितीय परार्धमें श्वेेतवराह कल्पमें सप्तम वैवस्वत मनुके कालमें अठाइवीं चतुर्युगीके कलियुगकी पहली चौथाईमें अमुक नामके संवत्सरमें अमुक वारको ----- हम यह प्रार्थना, पूजा या आयोजन करते हैं।

यह जानना अत्यंत महत्वपूर्ण है कि हमारी नित्य प्रार्थनाओंमें, और हर धार्मिक आयोजनमें इन पंक्तियोंको दोहरानेका विधान है जिससे अनायास ही प्रतिदिन हमें ब्रह्माण्डसहित और अपने पूर्वजोंसहित कालगणनाको बोध बना रहता था।

इस गणनाके अनुसार भारतीय सभ्यता की आयु कितने वर्ष आती है? सृष्टिकी उत्पत्तिके बाद जब भारतमें ज्ञान और सभ्यताका उदय आरंभ हुआ तो भारतीयोंने कालगणना सीखी और उसका प्रचार किया। सूर्यकी दृश्यमान गतिके निरीक्षणपर यह गणित बना कि ३६० मानवी दिनोंका १ वर्ष और ऐसे ३६० वर्षोंका एक देववर्ष बनता है। कलियुगका काल १२०० देववर्ष, द्वापरका २४०० वर्ष, त्रेतायुगगा काल ३६०० और सत्ययुगका ४८०० वर्ष। इस प्रकार एक महायुगमें देवताओंके १२००० वर्ष, होंगे जो मनुष्यके ४३२०००० वर्ष होंगे। कलियुगका परिमाण ४३२ हजार वर्ष है जिसे १ चरण भी कहा जाता है।

वर्तमानमें ब्रह्मदेव का जो दिवस श्वेतवराह चल रहा है, केवल वहींसे भारतीय कालगणनाका आरंभ करें तो उसके सहस्र महायुगोंमेंसे मन्वंतरोंके ४२६ महायुग = ,८४,०३,२०,००० वर्ष बीत चुके। साथमें ७ संधिकाल अर्थात ७ x = २८ चरण = ,२०,९६,००० वर्ष बीत चुके। इसके पश्चात वर्तमान ७ वें मन्वंतरका आरंभ हुआ। उसके भी २७ महायुग अर्थात ११,६६,४०,००० वर्ष और वें महायुगमें भी सत्य-त्रेता-द्वापर कुल ९ चरण = ३८,८८,००० वर्ष बीत चुके हैं और कलियुगका ५१२३ वाँ वर्ष (ग्रेगोरियन कॅलेण्डरसे ३१०२ वर्ष आगे) चल रहा है। भारतीय सभ्यताका दावा है कि कलियुगके आरंभसे पहलेके १,९७,२९,४४,००० वर्षोंके सृष्टिकालकी अर्थात लगभग २ अरब वर्षके कालकी जानकारी हमारी सभ्यताको थी। सत्ययुगसे ही ज्ञानविस्तार आरंभ हुआ। हमारे पूर्वज ऋषियोंको कालगणनाका यह ज्ञान प्राप्त हो रहा था जिसका प्रमाण अथर्ववेदमें मिलता है। पुराणोंमें पहले छः मनुओंके नाम व उनके कालमें घटित महत्वकी घटनाओंका वर्णन भी मिलता है। आधुनिक कालमें ज्ञानेश्वर जो १४वीं सदिके संतकवि थे - वे विठ्ठलका वर्णन लिखते हैं कि युगे अठ्ठावीस विटेवरी उभा -- यानि हे विठ्ठल तुम २७ महायुगोंसे आगे २८वें महायुगमें अभी भी ईंटपर खडे रहकर अपने भक्त पुंडलीककी प्रतीक्षा कर रहे हो। अर्थात ६ मन्वंतर पूरे होकर ७वे मनुकालके २७ युग भी बीत चुके यह परंपराप्राप्त ज्ञान हमारे आधुनिक संतकवियोंतक अविरत रूपसे चला आ रहा था जो कि भारतीय दावेको पुष्ट करता है।

यदि हम केवल २८वें महायुग यानि पिछले सृष्टिप्रलयके पश्चात् गिनती करें तो भी हमारी सभ्यता इस २०२१ ग्रेगोरियन वर्षमें ३८,९३,१२३ वर्ष यानि लगभग ४० लाख वर्ष पुरातन है। इतने प्रदीर्घ कालके अवशेष मिलना अत्यंत कठिन है, फिर भी आकाशीय घटनाओं तथा मंदिर परंपराके वर्णनोंसे छिटपुट प्रमाण मिल ही जाते हैं। यथा सप्तर्षिमंडलके सात तारे व ध्रुवका नामकरण।

सारांश कि वर्तमानमें ८वें महायुगमें सत्य-त्रेता-द्वापर युग जाकर कलीयुगका ५१२३ वाँ वर्ष चल रहा है। ध्यान रहे कि कलिकाल ४३२००० वर्षोंका होता है

इतनी पुरातन सभ्यताका पूर्णतः सही घटनाक्रम नही दिया जा सकता, फिर भी ग्रंथोंमें वर्णित कथानकोंका क्रम कुछ इस प्रकार आता है -- श्रेष्ठ ऋषि नर का नारायणके रूपमें जलमें निवास और तपसे ब्रह्माण्डकी उत्पत्ति। ब्रह्माकी उत्पत्तिके बाद मधुकैटभकी उत्पत्ति, योगमायाका प्राकट्य और विष्णुके रूपमें मधु कैटभका वध। फिर ब्रह्माके पुत्र कश्यपकी पत्नी दितिके २ पुत्र होना - हिरण्याक्ष एवं हिरण्यकशिपु। कश्यपकी ही पत्नी और दितिकी बडी बहन अदितिके पुत्ररूपमें जन्में विष्णुद्वारा वराह अवतारसे हिरण्याक्षका वध और जलमें डूबी पृथ्वीका उद्धार। फिर नरसिंह रूपमें हिरण्यकशिपुका वध। उसीके प्रपौत्र बालिके राज्यकालमें वामन अवतार। इसी अन्तरालमें दक्षकन्या सतीके अग्निदाहके बाद उसके शरीरके अवयवोंसे ५२ शक्तिपीठोंका निर्माण, शिवपार्वतीके पुत्र द्वारा तारकासुरका तथा शिवद्वारा त्रिपुरासुरोंका वध, गणेशद्वारा अनलासुरका वध आदि सत्ययुगीन घटनाएँ हैं। त्रेतायुगमें परशुराम व राम तथा द्वापरमें कृष्ण अवतारका वर्णन है। कृष्णकी मृत्यूके आसपासही कलियुगका प्रारंभ है

वैदिककालसे ही कालगणना हेतु सूर्यको प्रमाण मानकर दिन-रात और संवत्सर अर्थात ३६५ दिन और उनका १२ महीनों में विभाजन इत्यादि बातें आरंभ हो गई वेदमें दीर्घतमस ऋषिकी ऋचामें (-१६४- ४८ ) वर्णन आता है कि पृथ्वी एक दीर्घवृत्त (elipse) बनाती हुई चलती है इसलिए उसका नाम है चला अवकाशमें सूर्यकी प्रदक्षिणा करती हुई उसकी गतिको कोणकी गिनतिसे गिना जाये तो प्रत्येक महीनेमें ३०-३० अंशके कोण बनाती हुई १२ महीनोंमें एक दीर्घवृत्त पूरा करती है -- वही संवत्सर अर्थात छह ऋतुओंका निर्माण करनेवाला वर्ष है। वर्षमें दिन ऐसे होते हैं जब समूची पृथ्वी पर दिन और रात का परिमाण एक ही होता है इन्हें क्रमश वसंतसंपात और शरद संपात कहा जाता है। वसंतसंपातसे वर्षकी गणना आरंभ करें तो शरदसंपात तक पहुँचनेमें ६ मास और शरदसंपातसे वसंतसंपात तक पहुँचनेमें ६ मास लगते हैं। इस ज्ञानपर आधारित एक वार्षिक कैलेंडर भी बनाया गया। इसमें छह ऋतु और बारह महीनोंके नाम ये थे - वसंत ऋतु के मधु माधव। ग्रीष्मके शुक्र शुचि। वर्षाके नभ नभस्य। शरदके इष ऊर्ज। हेमंतके सह सहस्य। और शिशिर ऋतुके मास तप और तपस्य मास हुए। हर मासमें कृषक अपने खेतीके काम उस उस मासकी ऋतुके अनुकूल करे।

इस सूर्यआधारित कालागणनाके अलावा चंद्रमाकी तिथियोंके आधार पर मुहूर्त निकाल कर यज्ञ आदि क्रियाएं संपन्न की जाती थी अतः लोगोंको चंद्रमापर आधारित पंचांगका भी ध्यान था उसमें नक्षत्रोंके साथ चंद्रमाकी गतिको जोडकर और पूर्णिमा-अमावस्या तथा अन्य चंद्रकलाओंको देखकर कालगणना होती थी। इस गणनामें महीनोंके नाम चैत्र वैशाख ज्येष्ठ आषाठ श्रावण भाद्र आश्विन कार्तिक मार्गशीर्ष पौष माघ फाल्गुन हुए। इनका सौर मासोंके साथ समन्वय करनेके तरीके भी बने, वह चर्चा यहाँ अप्रस्तुत है।

एक प्रथा चल पडी कि कोई बडी घटना हो या कोई राजा जब चक्रवर्तित्व पाये तो उसके स्मरणके उपलक्षमें नये सिरेसे कालगणना आरंभ की जाती। कदाचित किसी राजाके अश्वमेध यज्ञकी पूर्णाहुतिपर एक नया वर्ष आरंभ किया जाता होगा। ऐसे अतिपुरातन पंचांगोंकी जानकारी हमें नहीं है लेकिन श्रीकृष्णकी मृत्युके आस-पास जब कलियुगका आरंभ हुआ तब इस नए युगारंभके उपलक्षमें युगाब्द कैलेंडर चल पड़ा जिसका लेखाजोखा आज ५००० वर्षोंसे भी अधिक कालतक हमारे पंडितोंने रखा है नई ग्रंथरचनामें, आयोजनोंमें कौनसा युगाब्द वर्ष चल रहा है इसका उल्लेख अवश्य किया जाता है युगाब्दसे लगभग ३००० वर्षों बाद विक्रमादित्यने शक आक्रमणकारियोंपर विजय पाई तो शकारिकी उपाधि धारण करते हुए विक्रम संवत नामसे नया कैलेण्डर चलाया और उसके लगभग १३० वर्ष बाद शालिवाहन राजाने वैसी ही विजय पाई तो शालिवाहन शकके नामसे फिर एक बार नया कैलेण्डर चलाया। आज भी भारतमें पंचांग छापनेवाले तीनोंका उल्लेख करते हैं। वर्तमान ग्रेगोरियन २०२१ के वर्षका युगाब्द है ५१२३, विक्रम संवत है २०७८ और शालिवाहव वर्ष है १९४३। इनके विषयमें दो आधुनिक ग्रंथकार आर्य़भट तथा वराहमिहिरकी रचनाओंमें प्रमाण मिलते हैं। आर्य़भटने उल्लेख किया है कि उसके जन्मके समय कलिकालका ३६०० वाँ वर्ष चल रहा था और अपनी आयुके २३ वें वर्षमें वह अपना ग्रंथ लिख रहा था। वराहमिहिरका एक वाक्य जो बदामी राज्यके एक शिलालेखमें पाया गया है वह बताता है कि किस युगाब्दमें कौनसा विक्रम संवत चल रहा था। ये दोनों वाक्य मिलकर युगाब्द पंचांगके अस्तित्वकी तथा उसके ५००० वर्षसे पुरातन होनेके प्रमाण देते हैं।

१७५७ में अंगरेज आक्रमणकारीके रूपमें भारतमें आये। प्लासी की लडाई से आरंभ कर १८५७ के समरके पश्चात् पूरे भारतपर उनका वर्चस्व हो गया। उन्होंने विचारपूर्वक अपना आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक व सांस्कृतिक वर्चस्व स्थापन करते हुए भारतका तेजोभंग करनेके कई प्रयोग व प्रयास किये। भारतीय संस्कृतीकी महत्ता , ज्ञानप्रसार व पुरातनताको नकारना उनकी मजबूरी और ध्येय थे। वे जिस ख्रिश्चन परंपरासे आते थे उसके प्रमाण ग्रंथ बाइबलमें सृष्टिका रचना काल ईसाके दो हजार वर्ष पुरातन था। भारतका विशाल ज्ञानभंडार, संस्कारित सामाजिक चरित्र तथा पुरातन कालसे चल रही कालगणना तीनों ही बाइबल तथा अंगरेजोंकी श्रेष्ठता दिखानेमें आडे आ रहे थे। अतः भारतीय इतिहासबोधको पूर्णतः नकारते हुए उन्होंने एक आर्यन इनवेजन थियरी चलाई। इसके अनुसार भारतकी वर्तमान प्रजा जो आर्य कहाती है, वह मध्य एशियासे निकलकर ईसासे पूर्व १५०० से १२०० वर्षके बीच कभी आक्रमणकारीके रूपमें भारत आई, यहाँकी अविद्य, अप्रगत प्रजापर कब्जा किया और फिर अपने आपको विकसित किया। इस सिद्धान्त के अनुसार ऋग्वेदको आदिग्रंथ तो कबूल कर लिया, परन्तु उसका रचनाकाल ईसासे १४०० वर्ष पूर्व का निश्चित किया। जर्मन संस्कृत पंडित मॅक्समुलर जिसे मेकॉलेने लंदनमें मोटी तनख्वाह देकर ने अपने जीवनकालमें अर्थात सन १८६० सें १९०० के दौरान इस सिद्धान्तका बडा प्रचार किया- यहाँ तककी अपनी श्रेष्ठता दर्शाने हेतु जर्मनोंने भी अपने आपको सच्चा आर्य बताना आरंभ किया।

अब यदि ऋग्वेदका काल ही इपू १४०० वर्षका हो तो भारतके समूचे इतिहासको मात्र ३३०० वर्षोंमें फिट करना पडता है। इसका उपाय यह निकाला कि सरस्वती नदी, रामायण एवं महाभारतको काल्पनिक बताया। इस सिद्धान्तमें भारतका सबसे पहला ज्ञात महापुरूष बुद्ध हुआ, फिर चंद्रगुप्त मौर्य, फिर अशोक, फिर गुप्त वंशका समुद्रगुप्त जिसका काल ३०० से ५०० वीं सदी बताया। शंकराचार्यका काल छठी से आठवीं सदिके बीच तय किया गया। आर्यभट्टके ग्रंथों को नकारा नही जा सकता था परन्तु उसमें वर्णित काल क्रमको काल्पनिक कहकर खारिज किया। अंगरोजों द्वारा पुनर्रचित इतिहासमें शकोंका आक्रमण काल पहली सदी में बताया गया। उन्हें पराजित कर शकारि उपाधी लेकर विक्रम संवत चलानेवाले विक्रमादित्यके वंशके विषयमें कोई जानकारी नही खोजी गई है। ललितादित्य इत्यादि काश्मीरी राजाओंका अस्तित्व भी नकारा गया है।

इस कारण आज भी हमारे स्कूल कॉलेजोंमें एक गलत वर्णनका इतिहास पढाया जाता है जो उपरोक्त परिच्छेदोंमें वर्णित कालगणनाको काल्पनिक बताता है। इसलिये कि वह बाइबल वर्णित सृष्टिवर्णनमें फिट नही बैठता।

यदि हमें अपना सांस्कृतिक अस्तित्व बचाये रखना है तो हमारी कालगणना व इतिहासके प्रमाणोंका आमूलाग्र संशोधन करनेसे ही यह संभव है। इस प्रकार दो मुद्दोंपर यशस्वी प्रयत्न किये जा चुके हैं। पहला है उपग्रह चित्रोंसे प्रमाणित सरस्वती नदीका अस्तित्व और दूसरा है रामसेतु तथा अन्य साक्ष्योंद्वारा प्रमाणित आयोध्याके रामजन्म मंदिरका अस्तित्व। परंन्तु यह लडाई अभी लम्बी चलनेवाली है।

पश्चिमी सभ्यताका विकास करीब १५०० वीं सदिसे हुआ। लेकिन युगाब्द पंचांगके कालसे भी पूर्व शनि-मंगल आदि ग्रहोंकी गति, उनका वक्री-मार्गी या उदय-अस्त होना, चंद्र-सूर्य ग्रहण, मुहूर्त आदि कालगणना क्षणसे भी छोटे अन्तरालके लिये करनेका ज्ञान हमारे देशमें रहा है।

इस दीर्घ विवेचनका हेतु मात्र यही है कि भारतीय संस्कृतिका यह आय़ाम भी हमारी श्रद्धाका मुख्य मानबिंदु है।

--------------------शब्दसंख्या २०११ पन्ने ६ ------------------कुल पन्ने ७८------------------




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