Sunday, July 18, 2021

अध्याय २७ सेक्यूलरतासे भ्रमित होनेका संकट

 अध्याय २७ 

सेक्यूलरतासे भ्रमित होनेका संकट

भगवद्गीता हमें एक महामंत्र देती है – ‘’योग कर्मसु कौशलम्’’कर्ममें कुशलता ही योगसाधना है। कर्म ही ईश्वर है। कर्मयोग साधा तो धर्मको भी साधा ही समझो। परंतु वर्तमान भारतकी राज्यव्यवस्थामें, शासनप्रशासनमें सेक्यूलरताका भ्रम ऐसा फैला है कि यदि कोई राजनायक या प्रशासक आपसमें कहे कि कर्म ही ईश्वर है तो उसपर सेक्यूलरता को ना निभानेका आक्षेप लगेगा।

हमारे देशके संविधानके आमुखमें लिखा गया है -- WE, THE PEOPLE OF INDIA, having solemnly resolved to constitute India into a SOVEREIGN SOCIALIST SECULAR DEMOCRATIC REPUBLIC and to secure to all its citizens ........यहाँ डाले गये दो शब्द Socialist Secular आरंभमें नही डले थे बल्कि १९७६ में ४२वाँ संशोधन कानून पास कर इसे डाला गया है। अन्यत्र भी कहा गया है कि किसी नागरीकके साथ उसके रिलीजन, आदिके आधारपर भेदभाव नही होगा।

अब दुर्भाग्य ये है कि संविधानकी भाषा अंगरेजी है। अंगरेजी न बोल सकनेवाले (क्षुद्रलोक) सुविधाके लिये अन्य भाषामें इसका अनुवाद तो देख सकते हैं लेकिन जहाँ सटीक अर्थबोधकी जरूरत होगी वहाँ अंगरेजीकी ही शरण लेनी पडेगी। अतः संविधानमें उल्लेखित ये हो शब्द हमें भ्रमित करत रहते हैं।

मूलरूपसे सेक्यूलर शब्दका प्रयोग यूरोपमें इसलिये हुआ था क्योंकि चर्चके द्वारा राज्यपर अनुचित निर्बंध लगाकर अवैज्ञानिक कारणोंसे जनताको प्रताडित किया जाता था - इन्क्वेस्ट आदि प्रथाएँ चर्चद्वारा चलवाई जाती थीं। गॅलीलिओ नामक एक विद्वानको इसलिये मृत्यूदण्ड मिला कि उसने अपने प्रयोगोंके आधारसे सूर्यको स्थिर और पृथ्वीको उसकी प्रदक्षिणा करनेवाली बताया था। युरोपीय राज्यव्यवस्थाओंने चर्चके साथ समझौता किया कि किन किन परिस्थितियोंमें चर्चकी बजाय राज्यकी न्यायव्यवस्था चलेगी। इस नई व्यवस्थाको सेक्यूलर कहा गया।

लेकिन भारतमें इस शब्दने अनर्थ कर रखा है। भारतीय संविधानमें इस संदर्भको समझे बिना अपनी राज्यव्यवस्थाको सेक्यूलर बनाया गया और वह भी शब्दके गलत अर्थके साथ। ज्ञातव्य है कि प्रसिद्ध विधीतज्ज्ञ और भारतीय संस्कृतिके विद्वान श्री सिंघवीजीने सेकुलर शब्दके लिए पंथनिरपेक्ष शब्दको सही बताया था, लेकिन उसे नकारते हुए तत्कालीन सरकारने पहले सेक्यूलरका भाषांतर किया धर्मनिरपेक्ष। फिर धर्मका अर्थ निकाला हिंदू तथा निरपेक्षका अर्थ निकाला नकारना। इस प्रकार हिंदू धर्मको नकारना, हिंदू धर्मग्रंथोंको नकारना, उसमें समाजको संस्कारित करनेके जो मार्ग बताये उन्हें नकारना, यही हमारे लिये और गर्व एवं फॅशनकी बात हो गई। इसी कारण कर्मको ईश्वर बताकर किसीको कर्मके लिये प्रोत्साहित करना संविधानविरोधी कहा जानेकी स्थिति आ गई। ऐसे शब्दच्छलसे अपने आपको गुमराह करनेके लिये हमारा समाज स्वयं ही उत्तरदायी है।

इसे समझनेके लिये हमें राजकारण धर्मका अन्योन्य संबंध समझना होगा। जहाँ धर्म है वहाँ उसका सार श्रद्धा भी है। मानवी भावनाविश्वमें श्रद्धा सर्वाधिक उच्चतम शक्तिस्थल है। वह एक सायकॉलॉजिकल फोर्स है, एक प्रेरक है। श्रद्धा वह ठोस जमीन है जिसपर हम खडे हैं। मनुष्यको किसी न किसी पर श्रद्धा रखनी ही पडती है - अपने अस्तित्वपर, स्वयंपर तो अवश्य ही। श्रद्धा ही हमारे नैतिक मूल्योंको प्रतिबिंबित करती है, अतएव व्यक्तिके मनमें श्रद्धास्थल होंगे और होने भी चाहिये। राजकारणसे श्रद्धाको दूर रखना तो भयानक विरोधाभास ही है। क्योंकि पहला प्रश्न उठेगा -- क्या लोकतंत्रके प्रति हमारी श्रद्धा या आस्था है? यदि नही होगी तो हम लोकतंत्रके हक व सम्मानके लिये क्यों खडे होंगे? यह मेरी श्रद्धा ही मुझे समझायेगी कि मेरा न्यायपूर्ण व्यवहार लोकतंत्रको दृढ करता है। चूँकि राममें मेरी आस्था है, तो न्यायबुद्धिके प्रति मेरी आस्थाको राम दृढ करते हैं ऐसी मेरी श्रद्धा है। अब लोकतंत्रमें तो श्रद्धा रखूँ पर राममें श्रद्धा रखना गलत, या राममें श्रद्धाके लिये लज्जित होऊँ ऐसा मैं बिलकुल नही मानती। श्रद्धा तो श्रद्धा है, जिसके बिना न राजकारण चल सकता है न जीवन। जो कहते हैं कि यह देश ही मेरा धर्म है या ईश्वर है, उन्हें यदि अनसेक्यूलर कहकर संविधानके नामपर दुत्कारना हो तो क्या इस देशपर श्रद्धा न रखनेवालेका केवल सेक्यूलरताके नामपर सिरपर बैठायेंगे?

धर्म भी श्रद्धाकी ही तरह हमारे जीवन समाजके टिके रहनेकी नींव है। धर्म हमें कई सारी उदात्त भावनाऐँ दिलाता है। यदि हम उन भावनाओंको नही संभालते तो हम अनायास ही दुष्टप्रवृत्तियोंको आमंत्रण देने लगते हैं, उनमें घिर जाते हैं। दुष्टप्रवृत्तियोंके आधारपर समाज, देश राजकारण कभी चल नही चल सकता। कभी पनप नही सकता। अतः धर्म राजकारणको अलग रखनेका अर्थ है संकटोंको निमंत्रण देना। जो कोई धर्मके निरपेक्ष राजकारणकी बात करे उसे किन्हीं झूठे तत्त्वोंका सहारा लेना पडेगा और वे तत्त्व अक्सर संपत्ती, भ्रष्टाचार, पुलिसका डंडा, सैन्यशक्ति ही होंगे।

वर्तमानमें हमारे देशका कोई पक्ष या कोई राजकीय नेतृत्व धर्मकी सही व्याख्या करनेमें समर्थ नही। किसीमें यह बतानेका साहस नही कि धर्मसे ही नीतिमानता आती है, और सहिष्णुता भी। मानवधर्मके लिये आवश्यक समाजसूत्रोंको ही हमारे धर्मग्रंथोंने बताया। लेकिन हमने धर्मकी तुलना चर्चके साथ करते हुए राजकारण व समाजकारणमें भी धर्मको धता बताकर सेक्यूलरताको सही बताया। उसीके पीछे भागते हुए हम रामको राजकारणसे बॅन करनेकी भाषा बोलने लगे। राममंदिरको सेक्यूलर संविधानका उल्लंघन समझने लगे। हम भूल जाते हैं कि हमारे देशमें राम एक प्रतीक है शौर्य, चारित्र्य, निष्ठा, सत्यवादिता, उत्सर्ग, त्याग जैसे गुणोंका। राममंदिर कोई इंटपत्थर जोडनेका कार्यक्रम नही है। वह समाजमनमें रामके गुणोंको संस्कारित करनेकी क्षमता रखता है।

इसी कारण हमें धर्म व श्रद्धाकी संकल्पनाको भली प्रकारसे समझते हुए सेक्यूलर शब्दके मायाजालसे बचनेकी आवश्यकता है। राजकारणमें वह धर्म अवश्य होना चाहिये जो मनुष्यको मानवी गुणोंसे समृद्ध करता हो। इस बातको स्वीकार करेंगे तभी अपने ज्ञानग्रंथोंको स्कूल-कॉलेजोंमें पढाना हमें स्वीकार्य होगा वरना सदैव आत्मकुंठामें रहते हुए हम उन्हें अपने जीवनसे बाहर ढकेलनेमें ही लगे रहेंगे।

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