Sunday, July 18, 2021

अध्याय १४ राष्ट्रकी अवधारणामें वाणी, शब्द, व भाषाका महत्व

 

अध्याय १४

राष्ट्रकी अवधारणामें वाणी, शब्द, भाषाका महत्व

आज हमारे देशमें एक वाक्य कई बार सुननेको मिलता है कि कोई भी भाषा केवल संवादहेतु बनी होती है और उसका उद्देश्य है एक व्यक्तिके विचार, भाव अथवा ज्ञानको दूसरे व्यक्तितक पहुंचाना यदि पढ़ाईकी कोई सामग्री इंग्लिश भाषामें उपलब्ध है और भारतीय बच्चे उसे उस भाषामें पढ़ भी रहे हैं तो सामग्रीको भारतीय भाषाओंमें या संस्कृतमें उपलब्ध करानेकी कोई आवश्यकता नहीं है। यह तर्क वे सभी लोग देते हैं जो अंगरेजीसे अलग किसी विकल्पकी कल्पना करनेसे भी डरते हैं। अपने देशकी यह मनोवृत्ति पिछले दोसौ वर्षोंमें अंगरेजी शासनकालकी जो जबरदस्त पकड देशके मानसपर बैठी उसीके कारण उत्पन्न हुई। आज यदि हम नही चेतेंगे तो यह अपनी संस्कृतिके लिये सबसे बडा संकट बन सकती है।

इसीलिए यह विषय महत्वका हो जाता है कि क्या भाषाका उद्देश्य केवल परस्पर संवाद है या उससे अधिक। क्या उसकी प्रभावोत्पादकता प्रत्येक भाषामें एक ही प्रकारसे है -- क्या कोई विचार सभी भाषाओंमें एक ही प्रकार और प्रभावसे पहुंचाया जा सकता है।

भाषा मानव-जीवन या समाज-जीवन या समाज के लिए एक महत्त्वपूर्ण विषय है। भारतीय ऋषियों ने मनुष्य के लिए महत्त्वपूर्ण एवं श्रेयस्कर ज्ञान को अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचाने का प्रयत्न किया था। इस बात का ध्यान रखा गया था कि मनुष्य की सीमित बुध्दी कई बातों या पदार्थोंका अनुसन्धान नहीं कर सकती, इसलिए इन्द्रियातीत विषयों पर विशेषरुप से विचार किया गया था। भाषा उनमें से एक ऐसा ही विषय है, जो अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है,क्योंकी प्रत्येक मानव का चिन्तन-मनन, अध्ययन-अध्यापन, वाद-विवाद, शिक्षा, वार्तालाप आदि किसी--किसी भाषा में ही होता है। भाषा के बिना मनुष्य का किसी भी भौतिक या अभौतिक पदार्थ का ज्ञान प्राप्त करना सम्भव नहीं है। इसलिए भारतीय ऋषियों ने सर्वप्रथम भाषा का ही अनुसन्धान करके संस्कृत भाषा का उद्घाटन किया। संस्कृत भाषा का आश्रय पाकर कालान्तर में विभिन्न सामयिक या प्रादेशिक कारणों से भारत में अन्य भाषाओं का प्राकट्य हुआ।

विश्वसमुदाय हमेशा से भाषा को केवल वाणी द्वारा मानवीय अभिव्यक्तियों का साधनमात्र ही समझता रहा है, अन्य कुछ नहीं। हमारे ऋषियों ने भाषा को केवल वाणी की अभिव्यक्ति ही नहीं माना है प्रत्युत उसके द्वारा मनुष्य की प्रसुप्त शक्तियों को जाग्रत करने का साधन भी प्रशस्त किया है। इस विषयमें लेखकोंका मत कुछ अलग है संस्कृतमें भाषासे अलग एक अन्य शब्द है वाणी सरस्वती वाणीकी देवता है वाणीके चार रूप कहे गए हैं -- परा, प्रश्यंति, मध्यमा और वैखरी। मनोभावोंकी जो अत्यंत सूक्ष्म तरंगे चलती हैं उनका गूढतम आभास मनके अंदर होना इसे परा वाणीकी संज्ञा दी गई है ऐसा माना जाता है कि ज्ञानका महत्वपूर्ण संचय इसी अवस्थामें होता है यही मनोभाव सूक्ष्मसे स्थूल रूप लेते हुए पश्यंति और मध्यमाके मार्गसे होते हुए वैखरी रूपमें प्रकट होते हैं। तब यह प्रकटन उन मनोभावोंका साररूप होता है जो पराके स्तर पर उभरते हैं। अर्थात ज्ञानकी सूक्ष्म अनुभूतिमें वाणीका महत्व भाषाके महत्वसे भिन्न और अधिक है। लेकिन भाषामें ही वाणीके व शब्दोंके संपुट उतरते हैं। तो जिस भाषामें शब्दभंडार बहुल हो, और संवादोंका आदान-प्रदान भी बहुल हो वहां अध्ययनकी शब्दावली या विस्तार अधिक होगा। परा वाणीकी अभिव्यक्ति भाषासे होती है -- एक प्रकारसे भाषाको अभिव्यक्तिकी प्राणशक्ती कहा जा सकता है।


परावाणीसे भाषाका प्रवास एकतरफा नही है। अभिव्यक्तिकी प्राण शक्तिका नाम भाषा है। मनुष्य अपने सामाजिक जीवनमें अनेक प्रसंगों, संवादों और विचारोंसे अपने अनुभवोंको संपृक्त करता है। अपनी संवेदनशीलताके अनुकूल उन्हें ग्रहण करता है। एक भुक्तभोगीकी भांति वह अपनी अनुभूतियोंको मानसमें उतारता चलता है। वही उसके संस्कार या पराज्ञानके बीज बनते हैं। इस प्रकार भाषासे वाणीका प्रवास होता है। जब बीज अंकुरित होने लगते हैं तो उनकी अभिव्यक्तिके लिए जो माध्यम बना वह भाषा ही है। अर्थात भाषाको केवल वर्तमानकी दृष्टितक सीमित नही किया जा सकता। जिस प्रकार हमें उसके भूतकालिक ज्ञानभंडारकी चिंता करनी चाहिये उसी प्रकार उसके भविष्यकालीन प्राणशक्ति तथ उससे समृद्ध होनेवाले ज्ञानभंडारकी भी चिंता करनी चाहिये।

हमारे ऋषियों ने संस्कृत भाषा को अपनी पराकाष्ठा तक पहुँचाया है। अर्थात इस भाषाको मन्त्रों द्वारा विभिन्न भोगोंकी प्राप्ति, अन्त:करणकी शुध्दी, योगकी सिध्दी आदिका भी साधन बनाया है जिसका प्रचलन आज भी यदाकदा भारतमें तथा अन्यत्र विद्यमान दीखता है। संस्कृत तथा अन्य भारतीय भाषाओंकी विशिष्टताका ज्ञान प्रत्येक भारतीय विद्यर्थीको अवश्य ही होना चाहीए। वरना उसमें भारतीय भषाओंके प्रति, अपने ऋषियों एवं देशके प्रति स्वाभिमान नही जागेगा।

सामान्य जीवनमें भाषाके दो प्रमुख रूप दिखाई पड़ते है- बोलचालकी भाषा और साहित्यिक अथवा वैज्ञानिक भाषा। इन दोनों स्तरोंमें अन्तर होता है। बोलचालकी भाषा निरन्तर जीवित उपयोगसे विकसित होती है। वही वैज्ञानिक व साहित्यिक भाषाका सोपान बनती है। किसी भी देशकी साहित्यिक एवं ज्ञानभाषाएँ वहांके जन-समुदायके विकास की विभिन्न सीढियोंको सूचित करती है। कई शताब्दियोंके प्रयोगके उपरान्त जब उसकी प्राण-शक्ति घटने लगती है तब नये युगमें बदलते हुए यथार्थसे अपने-आपको जोडनेमें वह असमर्थ हो जाती है। क्रमशः उसका गत्यात्मक स्वरूप क्षीण हो जाता है। उसे बचाने या संवर्द्धन करनेका एकमात्र उपाय है कि वर्तमान परिदृश्यको सतत भाषामें उतारा जाये। युग-परिवर्तनके छोटेसे छोटे इतिहासको और उसके बदलते मूल्योंको कोई ग्रंथकार ही उद्भासित कर सकता है। अतः उस इतिहासका अध्ययन, नूतन ज्ञानकी प्राप्ती एवं निरंतर नूतन ग्रंथ रचना आवश्यक है।

एक दूसरे आयामको देखते हैं। हमारे ग्रंथोंका कथन है कि संस्कृत भाषाका हर अक्षर मंत्र है आगे यह भी कहा गया है कि मंत्रके जपसे ज्ञानकी प्राप्ति होती है ज्ञान विचारोंके विस्तारके लिये केवल भाषाई संवादसे बाहर अन्य मार्ग बताए गए हैं जिनके अस्तित्वके प्रमाण भारतीय परिवेशमें मिल जाते हैं। इस कारण हम संस्कृत या संस्कृतोद्भव भाषाओंकी तुलना उन भाषाओंके साथ नहीं कर सकते जहां मंत्रका विधान ही नहीं है मंत्र शक्तिकी जागृति पश्यंति अथवा मध्यमाकी अवस्थामें होती है जहां ज्ञानकी बीजात्मक अनुभूतिको अंकुरि करना संभव है इसी कारण भारतीय मानसमें ध्यानकी अवधारणा है और ध्यानके माध्यमको ज्ञान प्राप्तिका साधन बताया गया है।

अतः जब यह प्रश्न पूछा जाता है कि आधुनिक ज्ञानको संस्कृतमें या भारतीय भाषाओंमें अभिव्यक्त करना क्यों आवश्यक है तो इसका एक कारण कहा जा सकता है कि यदि हम वर्तमान समाजके आधुनिक शास्त्रोंको संस्कृत या भारतीय भाषाओंमें उद्घोषित नहीं करते तो हम अपने ज्ञानप्राप्तिमें कहीं कहीं पीछे छूटते चलेंगे एक दाहरणसे कहा जा सकता है कि कंप्यूटरोंमें जिस प्रकार दृश्य आउटपुटके पीछे कई सारी प्रक्रियाएं होती हैं, उनमें खासकर मशीन लर्निंगकी प्रक्रिया होती है जिसकी तुलना हम वाणीकी पश्यंति-मध्यमा अवस्थासे कर सकते हैं तो जिस प्रकार आरंभिक प्रक्रियाओंके अभावमें कंप्यूटरमें अधिक वेगवान सॉफ्टवेयर बनना संभव नहीं था और आगे भी नही होगा, उसी प्रकार वैखरी और परा स्थितियोंके मध्य अपने ज्ञानका आदान-प्रदान किए बगैर हम आगे नहीं चल सकते इसीलिए जब हम राष्ट्रके उपयुक्त ज्ञानभंडारकी बात करते हैं तो राष्ट्रकी भाषाएं महत्वपूर्ण हो जाती हैं।

यहाँ थोडीसी बात संस्कृतसे अन्य भारतीय भाषाओंके संदर्भमें भी करते हैं। किसी भी आधुनिक या अबतकके अपठित साहित्यके लिये समुचित शब्द देनेमें संस्कृतकी कोई बराबरी नही है। एक बार ऐसी शब्दावली बन जाये तो वही शब्द अन्य भारतीय भाषाओंमें समान रूपसे लागू हो सकते हैं। ऐसा करनेसे सभी वर्तमान भारतीय भाषाएं भी समृद्ध होती चलेंगी। सहस्रों वर्षोंमें हमने जो विशाल चिंतन किया - उसके आदानप्रदानहेतु हमारी भाषाएँ शब्दावलियाँ बनीं। उनसे परिचित रहेंगे तभी वह चिंतन हमारी अगली सैंकडों पीढीयोंके लिये पथदर्शक बनेगा।

यह उदाहरण समझो कि एक बार व्यक्ति कार चलानेमें माहिर हो जाये तो वह विनासायास ही कार चला लेता है। उसे प्रतिपल बहुत सोचविचारना नही पडता क्योंकि उसका संस्कार गढ चुका है। वैसे ही हमारी चिरपरिचित शब्दावलियोंके कारण अपने पूर्वजोंके गहन चिन्तनसे हम परिचित होते हैं और विनासायास हम उनको नींव बनाकर चलते हैं।

भारतीय भाषाएँ एक तरहसे भावोंको जीवन्त रखनेका विज्ञान है। भारतीय संस्कृतिकी भाषाओंमें पर्यायवाची शब्दोंका बाहुल्य हमारी भावोंके प्रति सजगता एवं प्रखरता दर्शाता है। यदि भावोंके लिए हमारे पास शब्द हैं तो भावोंके जीवित रहने की संभावना बहुत बढ जाती हैं, अन्यथा भाव शीघ्र ही नष्ट हो सकते हैं। प्रत्येक शब्द एक तिजोरीकी तरह है। जिस प्रकार तिजोरीमें अंतर्निहित धन सुरक्षित रहता है उसी प्रकार शब्दके कारण उसके अंतर्निहित भाव सुरक्षित रहते हैं। भावों या विचारोंकी कमी होनेका अर्थ होगा कि हम मंदबुद्धि होते जा रहे हैं और मूर्खताकी ओर बढ रहे हैं। एक बहरा व्यक्ति गूंगा हो जाता है। इसी प्रकार यदि शब्द नहीं है तो उन भावोंका उत्पन्न होना कठिन हो जाता है जिनसे जीवन बनता है। अंग्रेजी भाषामें मौसी, बुआ, भांजा इत्यादिके लिए उपयुक्त शब्द नहीं है, अतः अंग्रेजी भाषिक समाजमें इन रिश्तोंके प्रति अपनेपनका भाव ही जागृत ना हो तो कोई आश्चर्य नहीं। संस्कृतका व्युत्पत्तिशास्त्र हमें बताता है कि इस भाषाके शब्दसे ही किसी वस्तुका कार्य या उपयुक्तताको प्रकट करते हैं। अर्थ (वस्तू) को देखकर उसके लिये उपयुक्त पद (शब्द) का मनमें उदित न होना भाषाई अज्ञानताका ही द्योतक है। इस मायनेमें हमारा भाषाशास्त्र गहन ज्ञान व प्रतिभा दर्शाता है।

भाषाओं शब्दावलियोंका महत्व विश्वप्रसिद्ध लेखक जॉर्ज ऑरवेलके उपन्यास 1984 में वर्णित है।उपन्यासकी पार्श्वभूमी आरंभमें ही बताई जाती है। एक पुरातन परंपरासे चलने वाला देश जिसमें रक्तरंजित क्रांति हो जाती है और जो नया शासक आता है उसका नाम है बिग ब्रदर। बिग ब्रदरको अब यह चिंता है कि देशमें दुबारा क्रांति ना हो और उसका कोई विरोध ना करे। कोई उसे सत्तासे हटा न दे। वह एनालिसिस करता है कि क्रांतिके लिए सबसे पहले भाव और विचार चाहिए। लेकिन जब तक वे किसी व्यक्तिके दिमागके अंदर ही रहेंगे तब तक कोई संकट नहीं है ।जब भावोंको और विचारोंको शब्द मिलते हैं तब वे अभिव्यक्त होते हैं। दूसरे व्यक्तियों तक अभिव्यक्ति पहुंचती है तो उनके मनमें भी उसी प्रकारके भाव और विचार जागते हैं। इस प्रकार जब कई लोगोंके विचार मिलते हैं तो क्रांतिकी संभावना बनती है। अर्थात यदि देशमें क्रांतिको रोकना है तो देशमें शब्दोंको रोकना होगा। शब्द संख्या जितनी कम, क्रांतिकी संभावना भी उतनी ही कम। अतः बिग ब्रदर के आदेश पर सारी पुस्तकें व डिक्शनरीयाँ जला दी जाती हैं और शब्दोंकी संख्या कम करने का आदेश निकलता है। अब इस आदेशके अनुसार good शब्द तो रहेगा लेकिन उसकी जो विभिन्न छटाएँ अन्य शब्दोंसे व्यक्त होती हैं जैसे better, best, awesome, excellent, superb, sublime या bad, awful, ये शब्द उपयोगमें नहीं लाए जाएंगे। उनकी जगह good plus या good plus plus या good minus या good minus minus कहना होगा। इस प्रकार उस देशमें जन सामान्यके पास बोलचालके लिए केवल २००० शब्दोंके उपयोगकी ही अनुमति है। अन्य शब्द बोलने पर या सीखनेका प्रयास करने पर भारी दंड व सजा दी जाएगी।

हमारे आत्मचिंतनमें यह कथा सटीक लागू होती है। आज एक फॅशनसी बन गई है जिसमें भाषा व वाणीके संस्कार या उनके लिये नियमोंका पालन दकियानूसी कहलाने लगा है। अतः आवश्यकता इस बातकी है कि इन संकल्पनाओंको हम फिरसे समझें। हम जानें कि भारतराष्ट्रका अधिष्ठान क्या है। किस प्रकारका समाज हम अपने लिये, अपने बच्चोंके लिये, उनकी कई एक अगली पीढियोंके लिये चाहते हैं? उसके निर्माणहेतु हमारे लिये नियत असिधाराव्रत क्या है और जिस आत्मबलके आधारसे हम उसे निभा सकते हैं उस आत्मबलको, उस पुरुषार्थको हम कैसे प्राप्त करें।

देश व राष्ट्र क्या हैं ? राष्ट्र शब्दमें ही वैभव, समृद्धि इत्यादि अर्थ अंतर्भूत हैं। यह सत्यकी अन्वेषणा, ज्ञान, श्रद्धा, पुरुषार्थ, व साझेदारीसे बनता है। राष्ट्रके संस्कार प्रत्येक देशमें अलग होंगे। भारतवर्षके संस्कार यहाँ उपजी राष्ट्रचेतनासे बने। वह चेतना आनेवाली हजारों पीढीयोंके लिये चिरंतन अविरल बनी रहे इसके लिये असिधाराव्रत चला सकें ऐसे नागरिक चाहिये । यह गरज तब भी थी जब राष्ट्रचेतना उदित हो रही थी और आज भी है। आइये, उस असिधाराको समझकर उसके व्रती बनें। और हम यह न भूलें कि हमारी भाषाओं व उनकी शब्दावलियोंके माध्यमसे ही हम राष्ट्रचेतनाको समझ सकते हैं तथा उसमें दृढ हो सकते हैं। भाषाएँ बिसरा दीं तो हमारी राष्ट्रचेतनापर भयंकर संकट होगा।

भारतकी भाषाएँ हमारे लिये श्रद्धाका विषय क्यों हों इसके कई कारण हैं। जनसंख्याका ही कारण देखें तो १०० करोडसे अधिकके बीच बोली जानेवाली तीन ही भाषाएँ हैं अंगरेजी चीनी व हिंदी । पांच करोडसे अधिक लोग बोलते हों ऐसी ३४ भाषाएँ हैं जिनमें से १० भाषाएँ भारतीय हैं। संसारकी कई भाषाएँ ऐसी हैं जिन्हें बोलनेवाले जनसमुदाय मात्र 1 लाखके आसपास हैं लेकिन वे प्राणपणसे अपनी भाषाकी रक्षा करते हैं। हमारे देशमें तो ५००० के आसपास बोलीभाषाएँ हैं और इनमेंसे कई सौ ऐसी जिनकी बोलनेवाले एक लाख से अधिक होंगे। लोकभाषामें , लोककथाओंमें लोकगीतोंमें वहाँ वहाँके स्थानिक इतिहास, भूगोल, पर्यावरण, विज्ञान, औषधियाँ, खनिज आदिका ज्ञान समाया होता है। अतः इनकी सुरक्षा व संवर्द्धन महत्वपूर्ण हैं।

वाणी द्वारा प्रगट की गयी किसी भी चर्चा, व्याख्यान या प्रार्थनामें शब्दोंको शुद्ध एवं स्पष्ट रूपसे बोलनेका अपना ही महत्व और प्रभाव होता है। संस्कृत भाषामें शब्दों का शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चारण करना अत्यन्त आवश्यक माना गया है। यहाँ तक कहा गया है वैदिक मन्त्रोंका शुद्ध उच्चारण उनके अर्थ जाननेसे अधिक महत्व रखता है। अशुद्ध उच्चारणसे मन्त्रके अर्थ अथवा हिन्दी वाक्यके अर्थका अनर्थ भी हो सकता है। महाभाष्यकार पतंजलि ने कहा है- एकः शब्दः सम्यक् ज्ञातः सुप्रयुक्तः इहलोके स्वर्गलोके च कामधुक् भवति, अर्थात एक भी शब्द भलीभाँति जानकर प्रयोग करना लोक व परलोकमें कामनाओंको प्रदान करने वाला होता है।

मनुष्य के ज्ञान का प्रथम सोपान भाषा ही होती है जिसका प्रारम्भ शिशु काल से हो जाता है। जिस समाज का प्रथम सोपान ही दृढ, विलक्षण विशिष्ट गुणों से युक्त एवं वैज्ञानिक हो, उस समाज के अगले सोपान (चिंतन-मनन, विचार धारा, विद्याएँ, शिक्षा, जीवन-यापन का विधविधान, कर्तव्य-कर्म, साधानाएँ इत्यादि) अविवेकपूर्ण, संशयात्मक, विकृतियों या अन्तहिन समस्याओं से मुक्त रहेंगे।

तैत्तिरीय उपानिषेद्कारने अक्षर और शब्दोंके ज्ञान एवं उनके शुद्ध उच्चारणको ही शीक्षाकी संज्ञा दी है क्योंकि इसके बिना किसी भी ग्रंथकी विद्या प्रतिपादित नहीं की जा सकती। वेहोंको समझने व आचरणमें उतारनेहेतु जो छः वेदांग पढना आवश्यक है उसमें एक है शीक्षा (इस शब्दकी महत्ता जतलानेके लिये इसे दीर्घ ईकारसे लिखा जाता है जो प्रचलित शिक्षा शब्दसे भिन्न है । इस शीक्षा शास्त्रके अन्तर्गत छह विषय आते हैं -- वर्ण,स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान (अर्थात अक्षर व शब्दका विस्तार) ।इस विषयकी अधिक जानकारी के लिए तैत्तिरीय उपनिषद् का शीक्षावल्ली नामक अध्याय देखा जा सकता है। यह भारतीय मनीषियोंके विवेक एवं प्रज्ञाका ही परिचायक है कि जिस भाषाके माध्यम द्वारा समस्त शिक्षाओंका व्यापार या व्यव्हार होता है उस माध्यमके मूल (अक्षर, शब्द और व्याकरण) को ही सर्वप्रथम शुद्ध, सुदृढ, पुष्ट एवं वैज्ञानिक बनाया।

शुद्धिके विषयमें यजुर्वेदका एक मंत्र बताता है कि गुरु अपने शिष्यको शुद्धता साधनेका संस्कार किस प्रकार देता है। शिष्यकी वाचा, प्राण, नेत्र, कान, नाभि, मलोत्सर्जनकी इंद्रियाँ, जननेंद्रिय और सारे व्यवहार – आचरण इत्यादि की शुद्धता सबसे पहले सिखाई जाती है। गुरुविद्या केवल रटन्तु न रहे वरन शिष्यको चरित्रकी पवित्रता प्राप्त हो इसके लिये यह मंत्र है --

वाचं ते शुन्धामि प्राणं ते शुन्धामि चक्षुस्ते शुन्धामि।

श्रोत्रं ते शुन्धामि नाभिं ते शुन्धामि मेढूं ते शुन्धामि।

पायुं ते शुन्धामि चरित्राँस्ते शुन्धामि।।

वाचाकी शुद्धि बताते हुए वेद आगे कहते हैं - वाचा तीन प्रकारकी है - सत्त्व रज और तम गुणवाली। तमोगुणीकी बातें अन्यके लिये तिरस्कार और अपमानसे भरी होती हैं। उनमें स्वयंकी उपलब्धीकी संभावना कम होती है। किसी भले आदमीका अपमान करनेसे मैं बडा हो जाता हूँ ऐसा तमोगुणी स्वभाववाले मानते हैं। रजोगुणात्मक वाणीमें भी अहंकार होता है, परंतु उनकी अपनी कुछ उपलब्धियां होनेसे वे परजन तिरस्कारकी अपेक्षा अपनी बडाईमें अधिक मग्न होते हैं। सत्त्वगुणी वाचासे ही वाचाशुद्धि और वाचासिद्धि दोनों हो सकते हैं। भगवद्गीतामें वाङ्मयीन तपका वर्णन है -- अनुद्वेगकरं वाक्यं सत्यं प्रियहितं च यत्। इसके बखानमें ज्ञानेश्वर कहते हैं - ऐसी वाणी जो संशयका जाल तोडनेमें तलवारकी धारकी तरह होते हुए भी माधुरीमें ऐसी कि मधुरता भी जिसकी चरणवंदना करे। इसे सुनते हुए कान मानों मुख बनकर इसे पी जाना चाहें, जो उच्चारणके साथही ब्रह्मसाक्षी हो जाये, किसीकी वंचना ना करे और सत्य होनेके साथ सबको प्रिय लगे। ऐसी वाणी मुझे प्राप्त हो।

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