Sunday, July 18, 2021

अध्याय २० गुरू परंपरा, उपास्य-उपासना, मूर्तिपूजा

 अध्याय २०

गुरू परंपरा, उपास्य-उपासना, मूर्तिपूजा

जिस प्रकारकी गुरू परंपरा भारतमें हैं वैसी विश्वमें अन्यत्र किसी देश, काल, या चिंतनमें नही मिलती। भारतमें गुरूको ही ब्रह्मा, विष्णु महेश और साक्षात परब्रह्म बताया है। अन्यत्र कहा है कि यदि गुरू और गोविंद दोनों एकही समय सामने उपस्थित हो जायें तो मैं पहले गुरूकी ही वन्दना करूँ क्योंकि बिना गुरूके वह ज्ञान नही मिल पाता कि गोविन्दको पहचान सकूँ।

ऐसी परंपरामें गुरूके और शिष्यके लिये नियम बताये गये हैं जो किसी व्रतसे कम नही। गुरूद्वारा शिष्यको पुत्रका स्थान दिया गया है और शिष्यसे पराजयको गुरूकी विजय कहा गया है। गीतामें बताया है कि गुरुके पास बैठकर, उनकी सेवा करते हुए, श्रद्धासे प्रणिपात करके उनसे ज्ञानसंबंधि प्रश्न पूछने चाहिये। यही परंपरा हम उपनिषदोंमें देखते हैं जहाँ शिष्योंके प्रश्न पूछनेपर अलगअलग विषयोंका वर्णन किया गया है। ऐसे ही एक छांदोग्य उपनिषदमें गुरु आरुणि द्वारा यह ज्ञान कहा गया कि तुम ही ब्रह्म हो - तत्त्वमसि। ऐसा महत्तम ज्ञान गुरुके प्रति आदरभावसे ही पाया जाता है।

हमारी परंपरामें भगवान शिवको आदिगुरु व आदिनाथ भी कहा जाता है। उनके शिष्यके रूपमें क्रमशः पार्वतीने, पुत्र स्कंदने, शुक्राचार्यने, उनसे ज्ञान प्राप्त किया। अन्यत्र एक शिष्य मच्छिंद्रनाथने भी उनसे ज्ञान प्राप्त किया और उनके शिष्य गोरखनाथने भारतमें नाथ परंपरा चलाई जो एक अत्यंत अद्भुत गुरु शिष्य परंपरा है। माना जाता है कि श्रेष्ठ संत ज्ञानेश्वर भी नाथ परंपरासे ही हैं। उन्हींके किये हुए वर्णनके अनुसार एक श्रेष्ठ गुरु शिष्यके मस्तकपर हाथ रखकर शक्तिपात पद्धतिसे अपने संपूर्ण ज्ञानमें उसे भागीदार बनाता है। इसी प्रकार विभिन्न मठोंमें जो महा आचार्य होते हैं वे अपने उत्तराधिकारी चुनकर ऐसे शिष्यको विशेष अध्ययन, तपस्या और विशेष गुरुूपदेश द्वारा अगले कामके लिए तैयार करते हैं। आदि शंकराचार्यने यह परंपरा चलाई।

मैंने आधुनिक कालमें ऐसे उदाहरण देखे हैं कि गुरूपर सनातन संस्कार होनेके, वह अपनी फीस लेते हुए भी गुरूभावसे ही पढा रहा था लेकिन सीखनेवालेके पास शिष्यत्व भाव नही था और यह गुरु भी उन संस्कारोंका आग्रह रखनेमें चूक गया। किसी अन्य विषयमें मतभेद होनेपर शिष्यने यह कहकर अपमानित किया कि पढाया तो हुआ, पैसेके लिये काम करनेवाले कर्मचारी ही तो हो।

आज स्कूलोंके विद्यार्थी और शिक्षकके बीचका रिश्ता भी सेवक और ग्राहकका हो गया है, गुरू-शिष्यका नही रहा। संस्था चालकों शिक्षकोंका संबंध भी मालक और नौकरोंका हो गया है। दूसरी ओर शिक्षणगण भी गुरूकी बजाये विक्रेता बने हुए हैं। यह संस्कारहीनता हमारी शिक्षाव्यवस्थाको खोखला कर रही हैज्ञानका प्रसार और व्याप्ति उस वेगसे नहीं बढ रहे जैसे बढने चाहिये। और संस्कार तो बिलकुल ही नही डाले जा रहे।

हमारी श्रद्धा का पहला आलंबन है गुरु या आचार्य। लोकभाषामें माता-पिता व अध्यापकको भी गुरु कहा जाता है। गुरुका तात्पर्य उस महापुरुषसे है जो कल्याणका मार्ग प्रशस्त करते हैं, आत्मोपलब्धिका रास्ता दिखाते हैं। जीवनकी सफलताका एक बहुत बड़ा निमित्त है अच्छे गुरुका मार्गदर्शन। राष्ट्रको बनानेहेतु अच्छे गुरुजनोंकी बडी भूमिका है।

गुरुकी कृपापूर्वक बताये गये मार्गसे ईश्वर प्राप्ति होती है। आधुनिक कालमें निवृत्ति-ज्ञानेश्वर, रामानंद-कबीर एवं श्रीरामकृष्ण-विवेकानंद जैसी गुरुशिष्य जोडियोंकी कथामें हम पाते हैं कि यहाँ परम ज्ञानी गुरुने अपने योग्यतम शिष्यको ईश्वरानुभूति करवाई थी।

ईश्वरके सगुण व निर्गुण दोनों ही रूप भारतीय परंपरामें मान्य हैैं। सगुण आराधनाके साथ विभूति, विग्रह, मूर्तिपूजा, उपासना, उपास्य, प्राणप्रतिष्ठा, आदि शब्दावली जुडी हैं जिनका अर्थ हर भारतीय समझता है। उपासनासे परम ज्ञानकी प्राप्ति होती है, तद्हेतु उपास्यकी आराधना कही गई है। इसीसे प्रज्ञानं ब्रह्मः का वचन प्रकट हुआ। हमारे इतिहासपुरुष यथा राम, हनुमान, कृष्ण भी उपास्य हो सकते हैं जबकि अन्य उपास्य देवता विष्णु, शिव, दुर्गा, सरस्वती, लक्ष्मी या गणपति आदि अतिसुदूर कालीन हैं।

सगुण-प्रतीकोंमें सूर्य, वर्षा, मेघ, बिजली, चंद्रमा, सागर, नाग ये ईश्वरके अतिचर्चित प्रतीक रहे हैं। सगुण प्रतीकोंकी विशेषता ये होती है कि वे कोई प्राकृतिक वस्तुमान होते हुए भी उन्हें मानवी रूप दिया जाता है और श्रद्धालु भी उनमें मनौतियाँ माँग लेते हैं और उनके दैवी गुणोंसे लाभान्वित होनेकी आस भी रखते हैं। विश्वभरकी सारी पुरातन सभ्यताओंमें, सगुण-प्रीत सगुण-श्रद्धा और कल्पनाविलास पाये जाते हैं, लेकिन वे निर्गुणतक नही पहुँचा सकते।

भारतमें सगुण उपासनासे निर्गुण ईश्वरतक पहुँचनेका एक निश्चित मार्ग था जिसका संकेत कठोपनिषदमें यमके द्वारा और याज्ञवल्क्य प्रसंगमें गार्गीको दिया गया है। सगुण-उपासनाको निर्गुण-प्राप्तिके मार्गमें ज्ञानके सोपानकी तरह प्रयुक्त किया जाता है। इसी कारण हमारे वेद-उपनिषद आदिमें सगुण-प्रतीकोंके मंत्र हैं, उनके जापका विधान है। एक गायत्री जैसा मंत्र जिसे जापद्वारा साध लेनेपर विश्वामित्रमें इतना सामर्थ्य आ गया कि वे प्रतिसृष्टिका निर्माण कर सकें। इसीकी चर्चा महर्षि पतञ्जली अपने योगसूत्रमें करते हैं, हमारे मुण्डकादि उपनिषद करते हैं। अतः भारतमें सगुण प्रतीकोंकी पूजामें कल्पनारम्यता नही बल्कि ज्ञानलालसाकी अभिव्यक्ति रही है। भारतियोंके लिये गंगा या गौ या मंदिरमें प्राणप्रतिष्ठित मूर्तियाँ पूजनीय हैं तो वह निश्चित रूपसे ज्ञान, और श्री की प्राप्ति हेतु हैं।

यह विवेचन इसलिये आवश्यक है कि संसारके दो बडे अब्राहमिक रिलीजन – ख्रिश्चन तथा इस्लाममें निर्गुण उपासनाकी अति करते हुए सगुण उपासक हिंदूओंको वाजिबे-कतल अर्थात कतलके लायक कहा है। इस्लामधर्मियोंने इसी कारण लाखों हिंदूओंका नरसंहार किया है। ख्रिश्चनोंने भी प्रकृतिपूजकोंको पागानकी संज्ञा देकर उनका भारी प्रकारसे संहार किया है। ये दोनों इतिहास भले ही पुरातन हों, परन्तु यहाँ इनकी चर्चा हमने इसलिये की है कि भारतपर राज करते हुए अंगरेजोंने मूर्तिपूजाको मिथक और मंदिरमें जानेवालोंको अंधश्रद्धालु कहना आरंभ किया। इसी विचारधारामें सारे भारतीय ग्रंथ भी मिथक कहलाये जैसे तीसरी शताब्दिमें रोमनोंने ग्रीसके प्रकृतिपूजक साहित्यको मिथक करार दिया था। तो अब हमारे तत्वज्ञानके शिक्षक या लेखकगण भी भारतीय तत्वज्ञानको मिथ्या ही मानकर पढाते हैं। इसप्रकार हमारे सारे उपास्य देवताओंको और उपासना पद्धतिको जो बारंबार मिथक या अंधश्रद्धात्मक बताया गया उसका कारण ही यह है कि अब्राहमिक धर्मोंके अनुसार मनुष्यद्वारा ईश्वरप्राति या परमज्ञानकी प्राप्ति संभव नही है। जबकि भारतीय मान्यतामें ईश्वरके समकक्ष होना, या मोक्षप्राप्तिको संभव बताया गया है। भगवद्गीताके विभूतियोगका पूरा चिंतन इसीको दर्शाता है।

सगुण उपासनाके परिप्रेक्ष्यमें मूर्तिपूजाको समझना अत्यावश्यक है। मूर्तिपूजाके संबंधमें स्वाध्याय परिवारके संस्थापक पूज्य पांडुरंगशास्त्री आठवले दादाके विचार हम यहाँ उद्धृत करते हैं जो उन्होंने जर्मनीमे अपने एक व्याख्यानमें प्रकट किये थे।

दादाने कहा कि अनादिकालसे मनुष्य स्व एवं जगतकी अन्वेषणामें लगा हुआ है। यही है ज्ञाननिष्ठा या विज्ञाननिष्ठा। भारतीय दर्शनके अनुसार ज्ञान शब्दमें विचार व कृती दोनोंका संयोग है क्योंकि भारतकी परंपरामें स्वयं आचरण करते हुए अनुभव लेनेका आदेश है। भारतमें कभी भी तत्त्वज्ञानको बौद्धिक परिहास या बौद्धिक मनोरंजन नही माना गया। बौद्धिक कौतूहलके साथ आध्यात्मिक आस्थाका अनन्य स्थान है। बृहदारण्यक उपनिषदमें कहेनुसार असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय... मृत्योर्मा अमृतङ्गमय – यह चिरंतन प्रवास ही भारतीय तत्त्वज्ञानकी प्रेरणा है।

मूर्तिपूजा एक अनन्यसाधारण तत्त्व है जिसका मानसशास्त्रीय एवं तात्त्विक आधार है। ध्यानयोगमें कहा गया है कि मूर्तिसे ही ईश्‍वरी साक्षात्कार होता है। जो जो दृष्टिगोचर है वह सारा ईश्वरमय है। प्राणिमात्रके हृदयोंमें ईश्वरका निवास है। हमारे अस्तित्वमें उसका अस्तित्व है। उससे भिन्न अपने आपसे तो हम चलना, बोलना, सांस लेना देखना, सुनना आदि कुछ नही कर सकते। वह अंतस्थ परमात्माही प्राणियोंकी सारी क्रियाओंको नियंत्रित करता है। गहरी निद्राकी अवस्थामें हमारी क्रियाएँ कौन करवाता है? अणूसे अवकाशतकका नियंत्रण कौन करता है?

जो पिण्डमें है वही ब्रह्माण्डमें है और उसके पीछे एक नियंत्रक शक्ति है। लेकिन उसका प्रत्यक्ष दर्शन कैसे हो -- प्रचीति कैसे हो? भारतीय दर्शनमें परमात्माको जाननेके लिये अपरोक्ष अनुभूतिका महत्व कहा गया है। यह आध्यात्मिक अवस्थामें सहजप्राप्त है अन्यथा नही। जबतक मन अशुद्ध है, अशान्त है तबतक ईश्वरकी प्रचीति नही हो सकती। प्रथम हमें अपना मन शुद्ध करना पडेगा। उसे सशक्त, प्रगमनशील और तरल भी बनाना होगा। तरल, भावविह्वल मन ही ईश्वरका अस्तित्व जान सकता है, उसे स्पर्श कर सकता है। मूर्तिपूजा एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है-- शास्त्रशुद्ध विधी है जो मनको तरल शुद्ध व सशक्त बनाती है। अन्यथा वही मन लोभ मोह मद मत्सर अहंकार आदि विकारोंके वश हो जाता है।

भगवद्गीताके अनुसार ईश्वर प्राणिमात्रके हृदयमें स्थित है। वही हमारी विचारों, कार्यकलापों एवं भावनाओंका साक्षी है। मनुष्य एक विचारवान प्राणि है जो अपने आपमें स्वतंत्र है। वह अपना जीवन उन्नत कर सकता है अथवा इंद्रियवश होकर पशुतुल्य जीवन भी गुजार सकता है। प्रत्येक मनुष्यको शाश्वत सुखकी चाह होती है परंतु इंद्रियजनित सुख कभी भी शाश्वत नही होते। इसके विपरीत निद्रामें हम सुखी होते हैं परन्तु वह इंद्रयजनित सुख नही है। स्वप्नविरहित गहरी निद्रामें मनुष्य परम शांतिकी अनुभूति करता है लेकिन वह एक अनैच्छिक क्रिया है, एक प्रकारकी मूर्च्छा है। जागृत अवस्थामें भी उसी प्रकारकी शांतिकी अनुभूति लेना यही मूर्तिपूजाका साध्य है। यह अनुभूति निद्राविना निद्रा है जिसे हम निर्वाण भी कह सकते हैं। ध्यात्मिकताका वही अन्तिम साध्य है।

मनको विशुद्ध बनाना ध्यात्मका पहला सोपान है। मानवका मन एक आइसबर्ग जैसा होता है। उसका बहुत छोटा भाग ही प्रकट रूपमें कार्य करता है और बाकी भाग अप्रकट ही रहता है। उसीमें मानवकी सारी आकांक्षा, इच्छा, संस्कार आदि समाये होते हैं। योगमार्गमें इसे वासनात्मक मन कहा गया है जहाँ मानवकी सारी अतृप्त इच्छाएँ एवं अच्छी-बुरी स्मृतियाँ समाई होती हैं। जबतक यह शुद्ध नही हो जाता, तबतक ईश्वरप्राप्ति संभव नही।

सारांश यह कि ध्यान बिना ईश्वरप्राप्ति संभव नही। मूर्तिपूजासे दो बातें साध्य होती हैं - मनःशुद्धि एवं एकाग्रता। इष्टदेवताके प्रति सच्ची भक्ति हो तभी ध्यानधारणामें रस आने लगता है और ध्यान सफल होता है। अन्यथा ईश्वर तो अनंत है और निराकार है। उसके प्रति ध्यान लगाना सरल हो सके इसीके लिये मूर्तिपूजाका विधान है।अलग अलग इष्टदेवोंके विग्रह और कार्यगुण अलग अलग हैं और हर भक्त अपनी भावनाके अनुरूप अपने इष्टदेवका पूजन करता है। लेकिन इसका यह अर्थ नही निकालना चाहिये कि ईश्वर अनेक हैं। सनातन धर्म एकेश्वरवादको ही मानता है।

भारतीय दर्शनमें मनको दर्पण और सारथी कहा गया है। मानवका मन बडा ही शक्तिशाली, आकलनशील तथा तरल होता है। वह जिसपर एकाग्र हो जाये, वह आत्मसात हो जाता है, उसी प्रकार फल मिलता है। इष्टदेवकी मूर्तिका यही महत्व है कि उसके माध्यमसे मनुष्य उनउन गुणोका आदरयुक्त अभ्यास कर पाता है। परमेश्वर तो अतीव उदात् एवं उच्चकोटिके गुणोंसे संपृक्त है। ऐसे परमेश्वरको दृश्यस्वरूपमें देख पानेके लिये भक्ति ही एक कुञ्जी है जो इष्टमूर्ति के माध्यमसे सुगम होती है। यही मूर्तिपूजाका मर्म है।

प्रायः एक शंका उपस्थित की जाती है कि मूर्ति भी मानवीय कल्पनासे बनी है तो फिर वह ईश्वरके अनादिअनंत रूपका प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है। इसका उत्तर मनकी शक्तिमें समाहित है। मनकी कल्पनाशक्तिका एक रूप अपार है और वह अत्यंत क्रियाशील भी है। दूसरा रूप संयत और मर्यादामें बंधा हुआ है। क्रियाशील मनका सोचा हुआ रूप कई लोगोंकी कल्पनाशक्तिका संमिश्रण है। परन्तु उस रूपमें ध्यान रचाकर परतत्त्व प्राप्तकरनेकी विधी ही अन्ततोगत्वा निर्गुण निराकार परब्रह्मसे साक्षात्कार करायेगी। वेदकालीन ऋषिमुनियोंने अपने अनुभवके आधारपर ईश्वरके विभिन्न आयामोंका वर्णन किया है। इसीसे मूर्तिपूजामें भिन्नता आई, पर उसमें भिन्नतामें भी एकात्म था। एकं सत् विप्रो बहुधा वदन्ति। मूलतः मूर्तिके माध्यमसे मनकी एकाग्रता, मनःशुद्धिको प्राप्त करना है। मूर्तिका स्वरूप चाहे जैसा हो, उसके प्रति भक्ति, श्रद्धा या प्रेमभाव हो तो वह भाव ही तत्काल मनको निर्मल कर देता है, भौतिक नश्वर और बुरे विचारोंको मिटा देता है।

एक शंका उठाई जाती है कि निर्जीव पत्थर या लकडीकी मूर्तिमें ईश्वर कैसे देखा जा सकता है। परंतु जब ईश्वर चराचरमें व्याप्त है, तो वह जितना सजीवके माध्यमसे सुप्राप्य है उतना ही निर्जीवके माध्यमसे भी। जीव, भावना, ध्येय, मूल्य आदिके अभाववाली वस्तूको आधुनिक विज्ञानने निर्जीव बताया है, उनके अलग नियम होनेकी बात कही है। लेकिन हिंदू मान्यता है कि वे निर्जीव नही -- केवल जड हैं। वे भी प्रकृतिके नियमोंका पालन करते हैं। अद्वैतकी अनुभूति लेनेवाले ऋषि जड एवं चेतनके नियमोंकी एकात्मताको पहचान सकते हैं।

यद्यपि पंद्रहवीं सदिसे चली आ रही आधुनिक विज्ञानकी प्रगति आश्चर्यकारक है, परंतु ईश्वरको नकारनेकी प्रथा भी उसीसे उपजी है। इस प्रथाने आज मनुष्यको मनुष्यसे तोड दिया है -- उसे अकेला और पराया कर दिया है। इसी कारण वह निराशामें डूब रहा है। सुसंवादका अभाव है। मनुष्य-मनुष्यके बीच प्रेम, विश्वास आदि समाप्त हो रहे हैं। गरीब या धनी, व्यवस्थापक या मजदूर, शिक्षित या गँवार, शिक्षक या विद्यार्थी इस प्रकारके विभेद पनप रहे हैं। उन्हें मिटाकर अभेद की स्थापना करनी है तो श्रद्धा ही एकमात्र उपाय है और श्रद्धाभावके लिये प्रतिमानके रूपमें मूर्तिपूजा भी आवश्यक है।

भारतियोंके दृष्टिकोणमें प्राकृतिक प्रतीकोंको समादर, और उनकी मानवा रूप हमारे लिये केवल कल्पनामात्र नही है। हमारा उनसे नाता है। वे हमारे सामाजिक जीवनमें भागीदार हैं। इसी कारण भारतके सगुणप्रतीक हजारों गुना अधिकतासे हैं। गंगा, नर्मदा, गंडकी आदि नदियाँ शिव और विष्णुके माध्यमसे निर्गुण उपासना की सीढी बनती हैं और यम जैसी मृत्यू-देवता स्वयं नचिकेतके लिये ज्ञानमार्गको प्रशस्त करती है। संसारकी किसी भी अन्य सभ्यता या धर्ममें अहं ब्रह्मास्मि या तत्वमसि या प्रज्ञानं ब्रह्मः जैसे विधान नही किये गये, नही किये जा सकते क्योंकि ज्ञानसे या किसीभी अन्य प्रकारसे निर्गुण ब्रह्मतक पहुँचा जा सकता है, यह बात ही उनकी कल्पनासे परे है। यही कारण है कि अंगरेज, जो शासक थे और ग्रीक मायथॉलॉजीसे प्रभावित थे, उन्हें भारतके वेद-उपनिषदोंमें भी कपोलकल्पना ही दिखी। महाभारत-रामायण भी मिथक कहलाने लगे। भारतियोंने अपने इतिहासको मिथ्या काव्य-रंजन स्वीकार कर लिया।

अब समय आ गया है कि हम मिथक और मायथॉलॉजी शब्द भारतीय डिक्शनरियोंसे निकाल दें और अपने इतिहासको मिथक कहना बंद कर उसका पुनःस्मरण करें, इसके शौर्य एवं ज्ञानके प्रतीकोंसे लाभान्वित हों

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