Sunday, July 18, 2021

अध्याय ३० भारतकी इकोसिस्टमपर गहराता संकट

 अध्याय ३० 

भारतकी इकोसिस्टमपर गहराता संकट

हम यह निश्चयात्मक रुपसे कह सकते हैं कि पाश्चात्य प्रभावने एवं अंग्रेजी माध्यम द्वारा शिक्षाके प्रसारने हमारी चिन्तनशैली पर कुठाराघात किया है। हमारा चिन्तन जो युक्तियुक्त, प्रामाणिक, गहन, सूक्ष्म एवं विस्तृत हुआ करता था वह आज बिखर गया है, स्थूल व संकुचित हो गया है, कूपमण्डूक-सा लगता है। निश्चयात्मक बुद्धिवाला भारत अब संशायात्मक बुद्धिका हो गया है। हम शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित सत्यके प्रति सशंकित हो गये हैं और हमारा भटकाव हमें अन्धकारकी ओर ढकेल रहा है। अपने जीवनोपाय व राष्ट्रके प्रति स्वाभिमानकी उत्कंठाओंका भी हनन हुआ है। विदेशियोंकी अंधाधुंध नकल करनेमें हम तत्पर हो गये हैं। पोशाक, खानपान, क्रीडा, तर्क, हावभाव प्रदर्शन इत्यादि सभी प्रसंगोंमें हमने अपने जीवनको विदेशी बनाकर रख दिया है, अपनेको विकृत किया है। हम स्वाभिमान खोते जा रहे हैं। अपने जीवन व राष्ट्र को बरबादी के कगार पर खडा कर दिया है। भारतकी जनसंख्या भले ही विश्व- आबादीका छठा-सातवाँ हिस्सा अर्थात काफी बडी हो किन्तु कई ओरसे वैश्विक शक्तियाँ भारतीय संस्कृतिका विध्वंस देखना चाहती हैं। इसका एक कारण है कि यही एकमात्र बची हुई पुरातन संस्कृति है जो विश्वगुरु बन सकती है। अब्राहमिक धर्मोंके बीच यह और बुद्ध ये दो ही ब्राह्मिक या ब्रह्मवादी धर्म है। यह आर्थिक महासत्ता भी बन सकती है। अतः विश्वकी कुछ ऐसी भी प्रणालियाँ, रिलीजन या देश हैं जो भारतीय प्रणालियोंको ध्वस्त करना चाहतीं हैं।

इनमें इतिहासबोधके ध्वंस होनेका संकट बडा गहरा है। ७५६ में अंगरेजोंद्वारा प्लासीकी लडाई जीतनेके पश्चात भारतकी कालगणनाको पुरातनताको नकारकर किस प्रकार भारतीय आर्यन इनवेजन थियरी बनाई और हमारे इतिहासबोधको नकारा यह हमने १२वें अध्यायमें देखा। इसे सुधारने हेतु बडे प्रयास करने होंगे और लोककथाओंमें आते साक्ष्योंको मजबूतीसे सामने लाना होगा।

दूसरा गहरा संकट नारीशक्तिपर आघातका संकट है। भारतीय संस्कृतने पुरातन कालसे जिस प्रकार नारी शक्तिको सम्मान दिया वह संसारकी अन्य किसी भी सभ्यतामें शायद ही दिया गया हो। सृष्टिकी उत्पत्तिके लिए शिवके बराबरीकी क्षमता शक्ति या पार्वती की कहीं गई है।

ग्रंथोंमें नारी शक्तिका रूप हमें चार पांच प्रकार से देखनेको मिलता है। सर्वप्रथम तो जगदंबा अर्थात माताके रूपमें हम नारी शक्तिको देखते हैं। यही अन्नपूर्णा भी कहलाती हैं अर्थात सृष्टिकी उत्पत्ति, और फिर सारे जीव जंतुओंका भरण पोषण अन्नपूर्णाके रूपमें नारी शक्ति करती है। इसी देवीका एक रूप शैलपुत्री अर्थात पर्वतकी कन्या भी कहा जाता है और इस रूपमें भारतके प्रायः सभी पर्वत शिखरों पर देवीका वास तथा देवीके मंदिर हमें देखनेको मिलते हैं जैसे विंध्यवासिनी, कामाख्या, हिंगलाज देवी, ज्वालामुखी, वैष्णो देवी, चामुंडा इत्यादि। तीसरा रूप लक्ष्मीका है। जहां जहां लक्ष्मीका निवास या मंदिर हों उसे श्री पीठ कहा जाता है। चौथा रूप युद्धमें भाग लेकर दैत्योंका संहार करने वाली दुर्गा या चंडीका रूप है। इनके मंदिरोंको शक्तिपीठ कहा जाता है। पांचवा रूप सरस्वती अर्थात विद्याकी देवीका है और इसके निवासको विद्यापीठ या शारदा पीठ कहा जाता है। इस प्रकार श्री, विद्या, शत्रु-नाशिनी, पर्वत-निवासिनी और अन्नपूर्णा या जगदंबाके रूपोंमें नारीशक्तिको पूजा गया है आदरणीय स्थान दिया गया है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते रमंते तत्र देवताः इस वचनमें भी भारतीय संस्कृतिका परिचय हमें मिलता है।

परंतु वर्तमान कालमें हमारे समाजमें नारी शक्तिका लोप होते हुए हम देखते हैं। पिछले दो-तीन सौ वर्षों में भारतियोंकी की मनःस्थिति ऐसी बन गई है कि महिलाएं केवल घर पर रहें, गृहस्वामिनि बनी रहे। उन्हें अपने दुर्गारूप या सरस्वतीरूप या शैलपुत्री रूपको प्रकट करनेका अवसर नहीं दिया जाता। कहनेका तात्पर्य यह है कि जबतक भारतमें नारीशक्तिको पुनः समाजमें बढ़-चढ़कर हिस्सा और साझेदारी निभानेका अवसर रोका जाता है तब तक इसे नारी शक्ति पर आघात ही कहा जाएगा।

एक अच्छी बात यह हो रही है कि पिछले कुछ वर्षोंमें भारतीय नारी इस बातके प्रति सजग हो चुकी है और घर परिवारसे बाहर आकर सामाजिक क्षेत्रोंमें अपनी योग्यता दिखाते हुए देशकी समृद्धिमें अपनी साझेदारी दे रही हैं। नारी शक्तिको उपरोक्त पांचो प्रकारसे सही कार्योंमें उपयोगमें लाना भी संस्कारी समाजकी एक पहचान है।

भारतीय परंपरामें कुटुंब शब्दका बडा ही व्यापक अर्थ है। कुटुंबकी रक्षा उसके प्रत्येक सदस्यका उत्तरदायित्व है। कुटुंब शब्दमें एक बृहत् परिवारका समावेश होता है। कई बार पूरा गांव या पूरी पंचक्रोशी भी परिवारका हिस्सा होती थी। कई गांवोमें आजतक यह प्रथा है कि अपने ही गांवकी लडकी हो तो वह गांव-गंवईके रिश्ते से बहन हुई और उससे व्याह नही किया जाता है।

योग्य संस्कार चलते रहें तो परिवारसे गांव, गांवसे पंचक्रोशी, वहाँसे राष्ट्र और फिर सारी वसुधा ही कुटुंब बन जाती है। जब यह संस्कार प्रबल था तब बडोंका आदर, परिवारमें एक दूसरेकी भावनाओंका ध्यान रखना, कमजोर सदस्यका परिरक्षण आदि बातें स्वयमेव हो जाती थी। फिर जैसे जैसे केंद्रीकरण और शहरीकरण बढा, वैसे वैसे परिवारके सदस्य स्थलांतर करते गये और परिवार छोटे होते चले गये। यहाँ तक कि सिंगल पेरेंट तक बात आई। और अब उसके आगे मातापिताका यह प्रश्न उठ रहा है कि मैं क्यों बच्चा पालूं? फिर यह भी उठ रहा है कि विवाहबंधन क्यों चाहिये या फिर बच्चे क्यों चाहिये? परिवारके साथ साथ विवाहका भी महत्व कम होता जा रहा है। इस कारण अविश्वास, इमोशनल सपोर्ट न होना, इत्यादि घटनाएँ बढ रही हैं। एक ओर कई समाजशास्त्रियोंने इस स्थिती पर चिन्ता व्यक्त की है तो अन्य कईयोंने इसे नैसर्गिक कहकर बढावा दिया है और विवााहको अनावश्यक बताया है। लेकिन इस व्यवहारके कारण संसारके कई देशोंकी या कई वंशोंकी जनसंख्यामें वृद्धि दर अत्यधिक कम हो रही है और अन्ततः उन्हें पूरी तरह से कालसमाविष्ट होना पडेगा ऐसे लक्षण दीख रहे हैं।

इस संकटकी परिकल्पना पर ही भारतीय समाजमें विवाह प्रथाका संस्कार आरंभ किया गया होगा। ब्रह्मा और मनुके एक संवादका वर्णन आता है जब ब्रह्माने मनुको यह उपदेश दिया कि पती-पत्नीकी जोडीको ईश्वररूप मानो और केवल एक दूसरेके प्रति समर्पित रहो। अन्य स्त्रीके प्रति मातृभावना ही रखो और विवाहबंधनको आजन्म निभाओ।

धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इन चार पुरूषार्थोंये धर्मके अविरोधी कामको श्रेष्ठ और अन्य प्रसंगोंमें कामभावनाको त्याज्य बताया है। धर्मके अविरोधी कामका अर्थ है विवाह पश्चात् पति-पत्नीका संबंध। इस प्रकारके विवाह संस्कार और गर्भसंस्कारोंका महत्व कहा गया। ग्रंथोसे यह भी ज्ञात होता है कि यदि पती- पत्नी विशिष्ट तप, अनुष्ठान और संकल्पपूर्वक संबंध बनायें तो विशिष्ट गुणोंवाली संतति प्राप्त की जा सकती है। यथा स्वयं कृष्णने तपःश्चर्यासे अपने की अधिक योग्य बनाने हुए फिर प्रद्युम्नको पुत्ररूपमें प्राप्त किया।

इन धारणाओंके विपरीत अनिर्बंध काम-संबंधोंसे कई प्रकार के रोग होते हैं इसे आधुनिक मेडिकल शास्त्र भी मानता है। विशेषकर एडस् जैसी दुर्धर बिमारीका यही कारण बताया जाता है।

विवाहबंधनकी यही भारतीय परंपरा कम या अधिक प्रमाणमें विश्वभरमें मान्य हुई और विभिन्न समाजोंने इसका अनुपालन किया। परन्तु उन्नीसवीं सदिमें जो आधुनिकताकी लहर चली और खासकर धर्मको अफीम बतानेवाली कम्युनिस्ट सोच लोकप्रिय हुई, उसमें विवाहके स्थानपर लिव्ह-इन-रिलेशनशिप जिसे पुरुष या स्त्री कभी भी छोडकर नया रिश्ता बना लेेते हैं, वह फॅशन चल पडा है। यह भी भारतीय संस्कृतिके परिरक्षणमें एक बडा संकट है।

एक अन्य संकट समाजमें भौंडेपनको, व्यसनाधीनताको, आलसको, मुफ्त-कमाईको बढावा मिलनेका भी है। इसे भी सिनेमा, सीरीयल आदिद्वारा फॅशनेबल और लोकप्रिय बनाया जा रहा है। इसकी चर्चा हमने २३ वें अध्यायमें की है।

हमारे ऊपर चौतरफा संकट है -- इस्लामिक जनसंख्या अपने बाहुबलसे गजवा--हिंदका अजेंडा देशमें चलानेको तत्पर है। ख्रिश्चनोंने बहला-फुसलाकर गरीब अशिक्षित जनताका धर्मान्तरण करनेका रास्ता अपनाया है। तीसरा संकट कम्युनिस्ट विचार प्रणालीका है जो हर अच्छे संस्कारको मिटा देना चाहता है -- हमारी एक बडी जनसंख्या है जो इस विचारप्रणालीके कारण धर्मको अंधश्रद्धा बताकर इससे विमुख हो रही है। युवा मानसपर उनकी चकाचौेंधका गहरा प्रभाव है।

इन सबसे बडा संकट यह है कि हिंदू धर्ममें श्रद्धा रखनेवाला समाज भी शुतुरमुर्ग बननेमें अपना कम्फर्ट झोन देखता है -- वह आनेवाले संकटोंको समझना नही चाहता। जागरूकता और सावधानीके लिये जो आत्मपरीक्षण चाहिये उस मानसिक परिश्रमसे आजका समाज डरता है। यहाँ हमें युद्धक्षेत्रमें डटे हुए दुर्योधन और अर्जुनके बीच अंतरको समझना होगा। दुर्योधनके लिये पांडव स्वजन नही वरन शत्रु थे और अपने पूरे सामर्थ्यसे उनका विनाश करनेहेतु वह तत्पर था। अर्जुनको संभ्रम हो गया -- उसे सारे स्वजन दीखने लगे, उनपर शस्त्र चलाना उसके लिये अधर्म हो गया। अर्जुनने तो यहाँ तक कह दिया कि यदि रणमें उसे शस्त्र त्यागा हुआ देखकर कौरव सेनाकी हिम्मत बढे और वे उसे मार भी दें तो भी उसे कोई आपत्ति नही होगी। आजका धार्मिक हिंदू बिलकुल उसी मनस्थितिमें है। अपने बचावहेतु शस्त्र उठाना तो दूर, जो प्राथमिक सावधानता चाहिये और उसके लिये जो मानसिक परिश्रम चाहिये वह भी जुटानेमें आजका धार्मिक हिंदु अक्षम और हतोत्साह दीखता है। राष्ट्रके प्रति श्रद्धा रखकर ही इस संकटसे पार हुआ जा सकता है।

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