Sunday, July 18, 2021

अध्याय २४ अंधश्रद्धाका दूसरा बवाल

 अध्याय २४

अंधश्रद्धाका दूसरा बवाल

अंधश्रद्धाके प्रचलित अर्थमें ही इसका दूसरा आयाम अत्यंत विचारणीय है। अंगरेजी राजसे स्वतंत्र होनेके बाद भारतीय मानसमें अपनी संस्कृतिकी जानकारी और श्रद्धा दोनों अभी पर्याप्त स्तरतक नही पहुँचे हैं। आत्मगौरवका जो क्षरण हुआ है उससे उबरनेहेतु अभी बहुत लम्बी लडाई करनी पडेगी। विश्वमें कुछ ऐसी भी ताकतें हैं जो भारतियोंके आत्मगौरवको और अधिक पीछे ढकेलनेका अजेंडा लिये हुए है। इनके निशानेपर सबसे पहले हमारे श्रद्धास्थान ही हैं।

एक उदाहरण देखते हैं। हमारी संस्कृति कहती है कि माता-पिता और बडेबूढोंका आदर करो। यह हमारी श्रद्धा है जो कहती है कि उन्हें मजाक न बनाओ। एक संस्कार है जो हम बच्चों-युवाओंमें डालनेका प्रयास करते हैं। लेकिन इधर कुछ विज्ञापन आ रहे हैं जिनमें युवा पीढ़ी अपने मोबाइल फोनके माध्यमसे घरके बिलोंको फटाफट भर पाती है। घरके बड़े व्यक्ति जो इतने अधिक टेक्नो-सैवी नहीं हैं वह ऐसा नहीं कर पाते। इन विज्ञापनोंमें बहुत ही भौण्डे तरीके से वे युवा मातापिताका मजाक उड़ाते हुए दीखते हैं। कहनेको तो विज्ञापन किसी कंपनीके इंटरनेट कनेक्टिविटी के लिए है लेकिन उसी स्क्रिप्टमें वह भारतीय संस्कृतिपर प्रहार करनेसे नहीं चूकता।

इसी प्रकार हमारा संस्कार है वाणीकी शुचिताका। हमारी श्रद्धा होती है कि जिव्हापर सरस्वती बसती है। इसलिए हमारा प्रयास होता है कि मुंहसे गालियां ना निकले, कठोर बातें ना निकले, भद्दे शब्द ना निकलें। लेकिन ओटीटी प्लेटफॉर्मपर ऐसी कई सीरियल चल रही हैं जिसमें सारे डायलॉग गालियों से और सारे सीन्स अनावश्यक हिंसा व क्रौर्यसे से भरे होते हैं। यह मेरे विचारमें भारतके जनमानससे श्रद्धा नामक गुणको मिटानेका ही प्रयास है।

अब एक अन्य आयाम देखेंगे। योग-आसनों की परंपरा भारतमें सदियोंसे चली आ रही है कुछ वर्ष पहलेतक इस का मजाक उड़ाना भी एक फैशन बना हुआ था। फिर पश्चिमी देशोंमें योगासनोंकी लोकप्रियता बढ़ने लगी। जब पश्चिमी देशोंने योगको अच्छा बताना आरंभ किया तो हठात भारतियोंने भी यह कहकर स्वीकार किया कि देखो इसे तो पश्चिमी देश भी स्वीकार कर रहे हैं। अर्थात हमारी परंपराओंमें जो अच्छाइयां हैं उनके लिए हमें पश्चिमी सर्टिफिकेटकी आवश्यकता पड़ती है। ऐसा क्यों है कि अगर पश्चिमी देश किसी बातको अच्छा कहते हैं तो हम भी श्रद्धापूर्वक उसे अच्छा कहना आरंभ करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि हमारी श्रद्धा पश्चिमी देशोंद्वारा दिखाई गई श्रद्धाकी मोहताज है। इसे मैं एक प्रकारसे पश्चिमी देशोंपर भारतियोंकी अंधश्रद्धा ही कह सकती हूं। यही हाल हमारे विश्वविद्यालयोंका भी है। जब तक वे किसी पश्चिमी विश्वविद्यालयसे नाता नहीं जोड़ते तब तक उन्हें अपनी स्थिति डांवाडोल लगती है और वे किसी पश्चिमी विश्वविद्यालय का आंचल पकड़कर चलना चाहते हैं। विश्वभरके अगर सौ सर्वाधिक उत्तम विश्वविद्यालय गिने जाए तो भारतका एक भी विश्वविद्यालय उस सूचीमें नहीं आता है। यही कारण है कि हमारे देशके युवाओंमें एक श्रद्धा सी बन गई है कि यदि वे पश्चिमी देशोंकी डिग्रियां लेकर आते हैं तो वे समझदार कहलायेंगे और यदि वे पश्चिमी देशोंमें ही रह जाते हैं तो वे और भी अधिक समझदार कहलाएंगे। एक तरहसे हमारी श्रद्धाका विषय भारत ना रहकर पश्चिमी देश बन रहे हैं। तो प्रश्न उठाना होगा कि क्या यह भी अंधश्रद्धाका एक रूप है?

हमारे अपने ही देशमें अधिक धन कमानेके उद्देश्यसे अंग्रेजी भाषाका व्यवहार चल पड़ा है उससे भारतीय भाषाओंके लिए अस्तित्वका खतरा गहरा रहा है। समाजकी श्रद्धा या अंधश्रद्धा बन रही है कि जो जितनी बाल्यवस्थासे अंग्रेजी पढेगा वह इस धरतीके सुखोंके लिए उतना ही योग्य तैयार होगा। इस मोहमें पड़कर लाखों बच्चे क्षमता विकसित होनेसे पहले ही अपनी भाषा छोड़कर अंग्रेजीकी ओर मुड़ते हैं और अंततः निराश होते हैं।

हमारी शिक्षा व्यवस्था, स्वास्थ्य व्यवस्था और न्याय व्यवस्था यह तीनों ही व्यवस्थाएं धन कमानेके मकड़जाल में धंस चुकी हैं। तीनों संस्थाओंमें सबसे पहले एक लंबे अंतराल तक कॉलेज अटेंड करते हुए शिक्षा और सर्टिफिकेट लेनेका प्रावधान है। फिर नौकरी-व्यवसायके लिए उन्हींको अनुमति है जिनके पास ऐसे सर्टिफिकेट हैं। तो भरपूर पैसा खर्च करके मेडिकल डॉक्टरीका सर्टिफिकेट लेनेवाले, या टीचर बननेके लिए आवश्यक सर्टिफिकेट लेनेवाले, या वकालत करनेका सर्टिफिकेट लेनेवाले - इन तीनों ही श्रेणियोंके लोग अपनी सेवाओंके लिए भरपूर पैसा बटोरते हैं, अपनी व्यापारी व शिष्य परंपरा तैयार करते हैं। इनकी व्यवस्थामें अन्य किसी व्यक्तिको अंदर घुसनेकी अनुमति नहीं है।

मुझे स्मरण है कि मेरे स्कूलमें तमाम डिग्रियां लेकर पढ़ानेवाले एक शिक्षक किसी कारणवश छुट्टी पर गए और उनके बदलेमें ऐसे स्वतंत्रता सेनानी पढ़ानेके लिए आए जिनका स्कूल बचपनमें छूट चुका था परंतु उनकी काबिलियत बहुत थी। वह हमें सारी कविताओंके अर्थ संदर्भ सहित समझा पाते थे। पाठ चाहे मध्ययुगीन हो या आधुनिक युगीन - हर एक पाठकी उत्तम तरीकेसे व्याख्या करते थे। जब पहले शिक्षककी छुट्टियां समाप्त होकर वे वापस लौटे तो स्कूलके हर बच्चेके मनमें यह प्रश्न था कि इन दूसरे टीचरको ही अधिक काबिल जानकर स्कूलमें रखा जाना चाहिए था। लेकिन मैनेजमेंट या सरकारी नियम केवल सर्टिफिकेटको देखते हैं जो किसी कॉलेजद्वारा बँट रहे होते हैं।

यही बात हमारी स्वास्थ्य सेवाओंके भी आड़े आती है जहां मेडिकल डिग्रीका सर्टिफिकेट हाथमें ना हो तो उस व्यक्तिको कभी कोई छोटा इलाज कर पानेके योग्य भी नही माना जाता।

हमारे न्यायालयोंमें जो करोड़ोंकी संख्यामें केसेस लंबित हैं उनके पीछेका कारण यही है। ऐसा लगता है मानो शीघ्र गतिसे न्याय करना हमारा उद्देश्य नहीं है, वरन वकीलोंका रोजगार अनंत कालतक टिका रहे यही हमारी न्याय प्रणाली का उद्देश्य है।

हालांकि वकीलको पता होता है कि उसका क्लाइंट दोषी है और उसने गुनाह किया है। कई बार गुनाह अत्यंत जघन्य होता है। फिर भी वकील न्यायालयमें लिखे हुए सत्यमेव जयते के बोर्ड को पढता हुआ झूठी प्रमाण, झूठे साक्ष्य अथवा झूठे तर्क देकर अपने क्लाइंटको छुड़ाना चाहता है। वर्तमान संदर्भमें यही वकीलका धर्म कहा जाता है। मेरे विचारमें इससे बड़ा अधर्म और इससे बड़ी अंधश्रद्धा कोई नहीं है। लेकिन ऐसी अंधश्रद्धाको समाप्त करनेके लिए हम प्रयासरत हों इसके लिए भी अभी हमारी तैयारी अधूरी ही लगती है।

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