Sunday, July 18, 2021

अध्याय २९ आधुनिक अर्थकारण का दुश्चक्र

 अध्याय २९ 

आधुनिक अर्थकारण का दुश्चक्र


पीछे हमने लक्ष्मी अलक्ष्मीके भेदको देखा। परिश्रमपूर्वक प्राप्त लक्ष्मीकी श्रेष्ठताको समझा। अनीति, अलक्ष्मी एवं अनिष्टके रिश्तेको समझा।

लेकिन आधुनिक अर्थकारणमें कई अनिष्ट संकल्पनाएँ हैं। अपने देश में भी हम उन्हींका पालन कर रहे हैं। अतः निम्न अनिष्ट कल्पनाओंपर चर्चावश्यक है

  • केंद्रीकृत बहुल उत्पादन जिसमें विवेकको परे रखकर हो रहा हो।

  • उत्पादन लिये बाजार। ग्राहकको आकृष्ट करना। विज्ञापनबाजी

  • उपभोक्तावाद- consumer index को विकासका मापदण्ड बनाना।

  • GDP को मापदण्ड बताना। GDP की व्याख्यामें पैसेके लेनदेनका महत्व.

  • प्रकृतिका दोहन

  • समाजका अनीतिपूर्ण दोहन

  • विषमताका उत्तरदायित्व सरकारपर डाला जानेका कारण समाजके लिये कष्टकर।

  • शेल कंपनियाँ, मास डम्पिंग, ऐडिक्शन जैसी कुप्रथाएँ पनपना

  • विज्ञापनोंमें कलाके नामपर बीभत्सता, डर, हिंसाचारको विक्रीहेतु वांछनीय बताना

  • गैरकानूनी संग्रहण

  • देशके सामने आर्थिक महासत्ता का लक्ष्य हो या विश्वगुरुका

आधुनिक कालमें उत्पादन के लिये मशीनोंके प्रयोगकी व्यवहारिकता तथा वांछनीयताको कोई भी अस्वीकार नही कर सकता। मशीनी उत्पादका सबसे उपयोगी मुद्दा है कि प्रत्येक उत्पाद पूर्णतः एकसरीखा होता है। यह स्टॅण्डर्डायझेशन ही उसे अतीव उपयोगी बनाता है क्योंकि उसमें replacabiloty होती हैं। लेकिन इसमें निरंतरता चाहिये। अतः सप्लाय चेन और डिमांड चेन दोनों चाहिये।

सप्लाय चेनमें वस्तुए, मजदूर, उनके परिवार, शहरीकरण, इन्फ्रास्ट्रक्चर, बिजली-पानी-रास्ते, कनेक्टिविटी, स्कूल-कॉलेेेेज-अस्पताल, आदिका आगमन निरंतर होना चाहिये। इसके फलस्वरूप संसाधनोंका डायवर्जन ग्रामीणसे शहरी इलाकोंमें सतत होता है। ग्रामीण अर्थात एक विस्तृत भौगोलिक क्षेत्रकी अर्थव्यवस्था कंगाल होती चलती है। हालांकि इंटरनेट सुविधासे इसपर अंकुश लग सकता है लेकिन साथमें समझ व मानसिकता भी महत्वपूर्ण है।
डिमांड चेनमें विज्ञापन – उन्हें आकर्षक बनाने हेतु सुंदर स्त्रीपुरुषोंको भोग्यवस्तुरूपमें पेश करना, फिर बच्चोंका और सेलिब्रिटीजका उपयोग, अब डर और अनावश्यक हिंसा का प्रदर्शन।

आधुनिक अर्थकारणकी आसुरी शक्तिका फांस भक्षक बनकर चरित्र और पर्यावरणको नष्ट कर रहा है।

चरित्रभक्षक अर्थव्यवस्थाके उदाहरण –

विकासकी आधुनिक परिभाषामें भारतको पहले अविकसित और फिर विकसनशील बताकर ङमारी कुंठा को बढाया गया। ये विशेषण पूरी तरह आर्थिक निकषोंपर लगाये गये थे। इसमें हमारे ज्ञानभंडार, चरित्र, खनिज समृद्धि आदिको पूरी तरह नकारा गया। परिणामतः हमने भी विकास का अर्थ आर्थिक विकास स्वीकार कर लिया है।

आधुनिक अर्थशास्त्रमें विकासका पहला निकष है कन्जूमर इंडेक्स – अर्थात आपने कितना खाया-पिया, कितना उडाया, कितना उपभोग किया। उदाहरण - यह देखा जाता है कि

आपने कितने कॅलरी और प्रोटीन खाया

कितनी कारें रखीं

कितनी बिजली खपाई

कितने कपडेलत्ते खरीदे

कितनी लक्जरी आइटेम्स आप रखते हैं। इत्यादि

यदि प्रति व्यक्ति इनकी खपत कम हो तो आपके देशको अविकसित कहा जायगा।

इस प्रकार संतोष, त्याग, अपरिग्रह का चरित्र और तत्वज्ञान दोनों समाप्त करनेपर ही हम विकासको छू सकते हैं।

दूसरा निकष है जीडीपी – अर्थात देशमें आर्थिक लेनदेन कितना अधिक हुआ। इसी आधारपर और फार्मा लॉबियोंके मार्गदर्शनमें हमारी स्वास्थ्य योजनाएँ व परिभाषाएँ भी चलती हैं। इसका अर्थ हुआ कि देशमें जितने अधिक लोग बीमार होंगे, अस्पतालोंमें जायेंगे, दवाइयाँ खायेंगे उतना देशका जीडीपी बढेगा। अर्थात बीमार न पडना गलत, योग आदि गलत, घरेलु उपचार गलत, आयुर्वेद गलत क्योंकि इनसे आर्थिक लेनदेन नही बढता।

हमारे देशमें कृषिके साथ खाद्यसंस्कृति भी इस प्रकार बढी कि जिससे मनुष्य आहारमें संयम व संतुलन रखे। साफसुथरा खाये- मिलावटवाला, प्रीजर्वेटिववाला या जंक फूड न खाये। लेकिन अब जंक और फास्ट फूडका फॅशन है। अर्थात अब हमें अशुद्ध अन्न, जीभका असंयम, मिलावट, बिमारी आदिकी आदत डाली जा रही है।

फर्टिलाइजर तथा जीएम बीज बनानेवाली कंपनियोंके दबावमें अब खेतोंमें विषयुक्त बीज बोया जाता है, विषयुक्त खाद, कीटकनाशक आदिके कारण हमारा अन्न व पानी दूषित होते हैं। जीएम बीजोंके कारण हमारी अनगिनत स्थानीय प्रजातियाँ लुप्त होकर एक मोनोलिथिक वातावऱणकी ओर हम बढ रहे हैं। यही प्रक्रिया सिंथेटिक वस्त्र, सिंथेटिक दवाइयोंमें दीखती है।

पूरे देशमें लॉटरी, मटका, Gaming and Gambling, आदि प्रकारोंसे विना श्रमके धन कमानेका लालच दिया जा रहा है। राहुल न्याय, लॉटरी न्याय, करोडपति, खेलोखेलो आदि उदाहरण बताते हैं कि लक्ष्मीका संस्कार हटाकर अलक्ष्मीका संस्कार लाया जा रहा है।

पर्यावरण-भक्षक अर्थव्यवस्था

खादके कारण खेतोंकी उर्वराशक्ति नष्ट व नदियोंके पानीको विषयुक्त किया जाता है। साथ ही नदीको मैया कहनेका, नदीस्नान या नदीको दीपदान आदि संस्कारोंको तोडा जानेसे अब नदियोंकी देखभालमें जनता अपना कोई कर्तव्य वही मानती। इस प्रकार हमारे अन्न जल हवा आदि सभी दूषित होते हैं।

पेडोंकी व पहाडोंकी अँधाधुंध कटाईका खतरा बढ रहा है। गोवर्धन पूजा, वटवृक्ष-पीपल-तुलसीकी पूजा आदि संस्कार लुप्त हो चले हैं। इससे अनावृष्टका संकट, ऑक्सीजनकी कमीका संकट आदि बढते हैं।

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