Sunday, July 18, 2021

अध्याय ४ भगवद्गीतामें श्रद्धा

 अध्याय ४

भगवद्गीतामें श्रद्धा

आज भारत राष्ट्र एक कठिन समयसे गुजर रहा है। हजारों वर्ष पूर्व भारतकी धरतीपर जो ज्ञानका प्रकाश उदित हुआ, उस प्रकाशमें भारतीय समाजने एक अलग दृष्टि पाई समाज टोलियोंका समाज नहीं रहा वरन रचनाकारोंका समाज बना जो कई प्रकारकी रचना कर रहे थे। अन्न उपजाना, वस्त्र निर्मिती, स्थापत्य-निर्माण, गानकला, वादन, गणित, व इतर कलाओंका आविष्कार, इन सबके साथ सत्य एवं धर्म की अन्वेषणा और समाजद्वाराका पालन, यह सारी बातें रचनाकारोंकी श्रेणीमें आती हैं उनके कारण समाज ऐश्वर्यसंपन्न हुआ, राष्ट्र कहलाया। राजतेति राष्ट्रः -- जो ऐश्वर्यसे जगमगाता हुआ शोभित हो, वह राष्ट्र कहलाता है।

हजारों वर्ष पूर्व यह प्रश्न गूँजा - कोहम् और उसका उत्तर भी गूँजा -- सोहम् अर्थात भारतीय मनीषियोंद्वारा ज्ञानकी अन्वेषणमें एक ऐसे परम तत्वतक उनकी बुद्धि पहुंची जो इस पूरे विश्वको संचालित करता है। मनीषियोंने यह भी जान लिया कि अगर समाजकी चाह हो कि सृजन व नवनिर्मितिका काम निरंतर होता रहे तो चोरी, लूट, हिंसा, अत्याचार, जबरदस्ती इत्यादि बातोंको रोकना होगा। ये अगर होती रहें तो समाज आगे नहीं बढ़ सकता इन्हें रोकनहेतु मनुष्यका ध्यान, ज्ञान और कौशल्य तीनोंको रचनाकी तरफ मोड़ना आवश्यक है इसी कारण इस धरतीपर सत्यम् शिवम् सुंदरम् का मंत्र गूँजा । सत्य क्या है, सुंदर क्या है, और कल्याणकारी क्या है इसकी खोज हुई। समाजने शिवको, कल्याणको सर्वोत्तम माना और कल्याणहेतु, मंगल के हेतु, कुछ नियम बनाये। समाजको यह शिक्षा दी गई कि इन नियमोंका आनंदपूर्वक स्वीकार करनेसे ही समाज सदैव समृद्धिमें अग्रेसर रहेगा

हमारे मनीषियोंने यह भी समझा कि मनुष्यस्वभावमें विकृतियां आना तो अस्वाभाविक नहीं है लेकिन उन विकृतियोंका समय रहते निःपात होना अत्यावश्यक है इसी कारण दैवी और आसुरी प्रवृत्तियोंका वर्गीकरण हुआ और समाजसे यह अपेक्षा करी गई कि वह दैवी संपत्तिको ही प्रश्रय दे, उसीकी आकांक्षा रखे आसुरी संपत्ति किसे कहा गया या आसुरी प्रवृत्ति किसे कहा जाता है? जब कोई व्यक्ति किसी वस्तुका निर्माण हो जानेपर यह मानता है कि वह वस्तु केवल उसीके उपभोगके हेतु है, तब यह प्रवृत्ति आसुरी कहलाती है जब सृजन करनेके बाद कोई भी रचनाकार यह श्रद्धा रखता है कि इस सृजनमें समाजका बडा ऋण है, तो उऋण होनेके हेतु वह कामना करता है कि नवसृजनका उपभोग या उपयोग समाजके सभी लोग कर पाएँ। यह दैवी प्रवृत्ति है। मनीषीयोंने इसे जान लिया कि अगर निरंतर दैवी प्रवृत्तिसे सृजनका काम होता हे तो चोरी, लूट, हिंसा अर्थात स्तेयकी बातें अपने आप पीछे छूटती चलेंगी। लेकिन यदि आसुरी प्रवृत्तियाँ प्रबल रहीं तो समाज लूटपाट, शोषण और दोहनकी राहपर चलेगा और अभ्युदय नही होगा। इसका अधिक विश्लेषण करनेपर हम पाते हैं कि किसी समाजमें भले ही मनुष्य-मनुष्यके बीच लूट, हिंसा या मक्कारी न दीखती हो, लेकिन पूरा समुदाय ही उपभोग व प्रकृतिके दोहनकी ओर मुड जाता है, वैसी परिस्थितिमें भी आसुरी प्रवृत्तियाँ ही उत्पन्न होती हैं। वह समाज मनुष्यमात्रके सिवा अन्य जीवोंका सृष्टिपर कोई अधिकार नही मानता। उस समाजमें भौतिक प्रगति तो दीखती है परन्तु अभ्युदय नही होता इस बातको हमें समझना चाहिये।

भगवद्गीतामें कई विषयोंकी चर्चा की गई है जो दैवी प्रवृत्तिका वर्णन व महत्व बताते हैं और जिनका आचरण श्रद्धाके कारण ही होता है। सामान्यतः जब गीताके विषयोंकी चर्चा होती है तब अधिकतर कर्मयोग, भक्तियोग, पुरुषोत्तम योग, विश्वरूपदर्शन आदिकी चर्चा होती है! परंतु भगवद्गीतामें श्रद्धाका तत्त्वज्ञान भी बहुत सुंदर तरीकेसे बखाना गया है कहा है कि

सत्वानुरूपा सर्वस्य श्रद्धा भवति भारत।

श्रद्धामयोयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।।

अर्थात् जैसा मनुष्यका सत् होगा, उसकी अंतर्तम प्रेरणा होगी, उसके अनुरूप ही उसकी श्रद्धा होगी और श्रद्धाके अनुरूप ही वह होगा। उसकी सही पहचान उसकी श्रद्धासे ही होगी। जो श्रद्धा है, वही वह व्यक्ति है। तो आज हम गीतामें वर्णित इसी श्रद्धाके विचारको विस्तारसे समझेंगे।

भगवानने अर्जुनका कष्मल पहचाना ! वह असमंजसमें पड़ गया था क्योंकि युद्धभूमिमें उसे दोनों पक्षोंमें अपने स्वजन दिख रहे थे और उनका वध करनेके विचारसे अर्जुनके मनमें यह दयापूर्ण शंका उत्पन्न हो ग कि स्वजनोंसे युद्ध क्यों किया जाए ! इस युद्धमें जीतकर पृथ्वीका राज्य भी अगर प्राप्त किया तो भी उसका क्या उपयोग है ! अर्जुन यह भूल रहा था कि युद्धका वास्तविक कारण, वास्तविक मुद्दा, स्वजन या परजन नहीं था वरन अधर्मका आचरण करने वाला शत्रु था और समाजहितार्थ उसे नष्ट करनेकी आवश्यकता यही इस युद्धका वास्तविक उद्देश्य था यह स्पष्टता जिस प्रकार कृष्णके मनमें थी उस प्रकार अर्जुनके मनमें नहीं थी ! अतः वह मोहित, भ्रमित,और संशयित हो रहा था ! यह संशय दूर करनेके लिए कृष्णको उसे कई बातें बतानी पड़ी, कई विषयोंकी चर्चा विवेचना करनी पड़ी ! सर्वप्रथम कृष्णने उसे फटकार भी लगाई कि अर्जुन तुम्हारा यह कष्मल अनार्य है, अकीर्तिकर है और क्लैब्य है ! लेकिन कृष्णने जाना कि पांडित्यकी बातें करनेवाला अर्जुन पांडित्यकी बातोंसे ही मानेगा। केवल फटकारसे उसका मानस युद्धके लिये प्रस्तुत नही हो सकता था।

अर्जुनको समझानेहेतु कृष्णने सबसे पहले ज्ञानियोंके मतानुसार आत्माकी अविनाशताका सिद्धांत र स्थितप्रज्ञकी व्याख्या समझाई। ज्ञानमार्गकी चर्चाके पश्चात् कर्मकी भी विवेचना करी। कर्मफलके प्रति निरासक्त भाव रखना ही परम ज्ञान है। इसके पश्चात् एक और भेद समझाया कि मेरे पास जो व्यक्ति जिस भावनासे आयेगा मैं भी उसे उसी भावसे देखूँगा और वैसा ही व्यवहार करूँगा, वैसा ही फल दूँगा। तांस्तथैव भजामि । यदि वह आर्त है या जिज्ञासु है या अर्थकी चाह रखता है, तो उन्हें वैसा ही फल दूँगा लेकिन यदि वह ज्ञानी है तो उसका ज्ञान बढाऊँगा। अर्थात् मनुष्यको जो फलप्राप्ति होती है वह उसकी चाहको प्रतिबिंबित करती है। तो मनुष्य सदा ज्ञानकी चाह लेकर ही क्यों न जाये -- इससे अच्छा उपाय क्या होगा ज्ञानको पानेका?

इसीलिये आगे तत्काल यह समझाया कि ज्ञान और कर्म दोनोंकी प्राप्तिके लिए श्रद्धाकी आवश्यकता किस प्रकार होती है । श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानम् -- श्रद्धावानको ही ज्ञान मिलेगा। बिना श्रद्धाके ज्ञान प्राप्त नहीं होता गुरुके पास जाकर श्रद्धापूर्वक उनकी सेवा करते हुए ज्ञान अर्जित किया जा सकता है यहां पर भारतीय संस्कृतिकी परिचायक गुरुपरंपराका महत्व कृष्णने बताया। और व्याख्या बताई कि गुरुओंके प्रति श्रद्धा रखनेसे ही ज्ञान मिल सकता है। इसलिये ज्ञानकी इच्छा रखनेवाला व्यक्ति गुरूकी सेवाके लिये तत्पर रहे -- आलस ना करे और संयतेंद्रिय भी रहे। इन प्रयत्नोंसे ज्ञानको प्राप्त होकर मनुष्य शीघ्रतासे, तत्काल ही परम शान्तिको यानी उपरामताको प्राप्त हो जाता है। यथार्थ ज्ञानसे तुरंत ही मोक्ष हो जाता है। इसीसे गुरूका महत्व हैै।

यहाँ एक अन्य बात भी समझनी पडेगी। कर्मफलसे निरासक्त होनेका ज्ञान – वह भी पूर्ण कौशल्यसे कर्म करते हुए – क्या केवल इन शब्दोंको सुन लेना ही पर्याप्त है? क्या शब्दार्थ समझ लेनेसे ही मनुष्य ज्ञानी हो जाता है? नही। भारतीय परंपरा कहती है कि वह शब्दार्थ जब आचरणमें उतरता है तभी वह ज्ञानकी संज्ञा पाता है। इस आचरणबोधके लिये गुरुकी आवश्यकता होती है।

आचरणयुक्त ज्ञानको पानेके लिये संशय नहीं करना चाहिये क्योंकि संशय बड़ा पापी है। जो अज्ञ यानी कर्मज्ञानसे रहित है या जो अश्रद्धालु है और जो संशयात्मा है ये तीनों नष्ट हो जाते हैं। यद्यपि अज्ञानी और अश्रद्धालु भी नष्ट होते हैं परंतु वे पापके भागी वैसे नही होते जैसा संशयात्मा होता है। संशयात्माको अर्थात् जिसके चित्तमें संशय है उस पुरुषको तो यह साधारण मनुष्यलोक मिलता है परलोक मिलता है और सुख ही मिलता है। इसलिये संशय नहीं करना चाहिये। जब कोई कर्म करनेकी महत्ताके साथ कर्मफलसे निरासक्ति साध लेता है और इस प्रकार कर्मफलको संन्यस्तभावसे स्वीकार करता है उसे श्रीकृष्णने योगसंन्यस्तकर्मा नामक संज्ञा दी है। ऐसा व्यक्ति आत्मा और ईश्वरकी एकतादर्शनरूप ज्ञान पा लेता है। उसका संशय अच्छी प्रकार नष्ट हो जाता है अतः वह ज्ञानसंछिन्नसंशय भी कहलाता है। वह आत्मवान् प्रमादरहित पुरुष यह समझ लेता है कि कर्म तो गुणोंकी चेष्टामात्र है। अतः उसे कर्म नहीं बाँधते। उसके अन्तःकरणकी अशुद्धियोंका क्षय हो जानेके कारण तथा आत्मज्ञानसे संशय नष्ट हो जानेके कारण ऐसे पुरुषकी ज्ञानाग्नि उसके कर्मोंको दग्ध करती है और कर्म उसे नहीं बाँधते हैं। परन्तु ज्ञानयोग व कर्मयोगके अनुष्ठानमें संशय रखनेवाला नष्ट हो जाता है, वह कर्मबंधनसे मुक्त नही हो पाता है। इसलिये मनमें श्रद्धा रखनेका महत्व है। श्रद्धा रखनेवाला मनुष्य ही इस अत्यन्त पापी संशयको ज्ञानखङ्गद्वारा छेदन करके कर्मयोगमें स्थित हो सकता है। अतः हे अर्जुन, तुम भी अज्ञानसे उत्पन्न संशयको उपर्युक्त प्रकारसे श्रद्धायुक्त ज्ञानद्वारा काटकर जो तत्काल कर्म उपस्थित हुआ है उस युद्धकर्मको पूरा करनेहेतु युद्धके लिये खड़ा हो जाओ। इस युद्धमें तथा संसारके अन्यान्य कलापोंमें भी विना श्रद्धाके उतरनेवाला संशयमें ही लिप्त रहेगा।

आगे अर्जुन फिर पूछता है कि जिसने श्रद्धा तो रखी लेकिन जिसका आचरणज्ञान अभी पूर्ण नही है, और वह उस आचरणसे चलायमान हो गया तो हे श्रीकृष्ण, क्या वह पुरुष कर्ममार्ग और ज्ञानमार्ग दोनों ओरसे भ्रष्ट नही होगा? क्या वह छिन्नभिन्न हुए बादलकी भाँति बिखर नहीं जाता? यही श्रद्धाकी महत्ता सामने आती है। श्रीकृष्णने बताया कि यदि श्रद्धा दृढ हो तो योगभ्रष्ट होकर भी उस पुरुषका इस लोकमें या परलोकमें कहीं भी नाश नहीं होता है। शुभ कार्य करनेवाला कोई भी मनुष्य दुर्गतिको नहीं पाता। इतना ही नही। हे अर्जुन, तपस्वी,ज्ञानी और कर्म करनेवाले, ये तीनों ही मुझसे युक्त हो जाते हैं। लेकिन जो मुझे श्रद्धापूर्वक भजता है तो वह युक्ततम हो जाता है।

श्रद्धावान्भजते यो माम् स मे युक्ततमो मतः।। श्रद्धा ऐसा संस्कार है जो जन्मजन्मान्तरतक चलता है।

श्रीकृष्ण आगे कहते हैं कि प्राप्तिविषयक नाना कामनाओंद्वारा जिनका विवेकविज्ञान नष्ट हो चुका है वे लोग अपनी प्रकृतिसे अर्थात् पूर्वजन्ममें इकट्ठे किये हुए संस्कारोंके समुदायरूप स्वभावसे प्रेरित होकर मुझ आत्मस्वरूप वासुदेवसे भिन्न अन्य देवताओंको उनकी आराधनाके नियमोंका अवलम्बन करके भजते हैं। उन कामनायुक्त पुरुषोंमेंसे जो जिसजिस देवताके स्वरूपका श्रद्धा और भक्तियुक्त होकर अर्चनपूजन करना चाहता है उसउस देवताविषयक उसकी श्रद्धाको मैं अचल स्थिर कर देता हूँ। अभिप्राय यह कि जो पुरुष पूर्वसंस्कारजनित स्वभावसे प्रवृत्त होकर जिस देवताके स्वरूपका पूजन करना चाहता है उस पुरुषकी उसी श्रद्धाको मैं स्थिर कर देता हूँ। मेरे द्वारा स्थिर की हुई श्रद्धासे युक्त हुआ वह उसी देवताके स्वरूपकी सेवा पूजा करनेमें तत्पर होता है। और उस आराधित देवताके लिये निश्चित किये हुए इष्ट भोगोंको प्राप्त करता है। वे भोग परमेश्वरद्वारा निश्चित किये होते हैं इसलिये वह उन्हें अवश्य पाता है। यहाँपर भोगप्राप्तिमे जो हित जान पडता है उसको दिखावामात्र समझना चाहिये क्योंकि वास्तवमें भोग किसीके लिये भी हितकर नहीं होते। कामी और अविवेकी पुरुष विनाशशील साधनकी चेष्टा करनेवाले होते हैं इसलिये उन अल्पबुद्धिवालोंका फल भी विनाशशील होता है। देवयाजी अर्थात् जो देवोंका पूजन करनेवाले हैं वे देवोंको पाते हैं और मेरे भक्त मुझको ही पाते हैं।

यह हुई सिद्धान्तकी बात। लेकिन यह सब जानते हुए भी लोग अनन्त फलकी प्राप्तिके लिये केवल मुझ परमेश्वरकी ही शरणमें क्यों नहीं आते। श्रीकृष्ण बतलाते हैं कि मैं अपने आपको योगमायासे समावृत्त रखता हूँ अतः मेरे अविनाशी परम भावको हर किसीपर प्रकट नही करता हूँ। मेरे वास्तविक प्रभावको न समझनेके कारण वे जन मेरे प्रतियजन न कर छोटी छोटी कामनाओंमें लिप्त रहते हैं तथा उनकी पूर्तिके लिये इतर देवताओंको भजते हैं।

आगे भगवान विभूतिका अर्थ समझाते हैं -- श्रद्धापूर्वक कोई छोटीसे छोटी वस्तु भी यदि भगवानको अर्पित करी जाए तो वह श्रद्धा भगवान तक पहुंचती है और फलित होती है। पत्रं पुष्पं फलं ही नही, केवल जल भी यदि श्रद्धासे अर्पित किया हो तो वह अगणित फल देता है। श्रद्धासे ही भक्तिकी परिपूर्णता होती है किसी श्रद्धेय देवताके विभिन्न गुणोंसे अपने आपको जोड़नेका उत्तम तरीका है कि उसके प्रति श्रद्धासहित उसके विभिन्न गुणोंको उनके सूक्ष्म भेदोंसहित पहचाना जाए। इन्हीं गुणोंको उच्चतर अवस्थाको विभूति कहा गया है क्योंकि प्रत्येक मनुष्य ऐसे गुणोंको अपनेमें उतारनेकी ललक रखता है। गीताके दसवें अध्यायमें इन गुणोंकी अत्यंत उच्चतर अवस्था प्राप्त किये व्यक्तियोंका वर्णन है। ऐसा पूराका पूरा विभूतियोग हम दसवें अध्यायमें देखते हैं। यह सारी विभूतियां अर्जुनको इसीलिए बखानी गई ताकि ईश्वरमें श्रद्धा दृढ हो। अर्जुनका प्रश्न भी बडा सटीक था -- केषु केषु च भावेषु चिन्त्योसि भगवन्मया --हे परब्रह्म, आदिदेव, शाश्वतपुरुष कृष्ण, मैं किनकिन भावोंसे तुम्हारा चिंतन करूँ। इसके उत्तरमें कई मानवी गुणोका औऱ उनकी आदर्श अवस्थातक पहुँचनेवाले आदर्शपुरुषों अथवा तत्त्वोंका वर्णन दशम अध्यायमें है।

भगवानकी आराधनाके लिये हम उसके विभिन्न रूपोंका और विभिन्न गुणोंका स्मरणकर उन्हें अपनेमें उतारनेका प्रयास करते हैं यही ध्यानयोग भी है और यही क्रियायोग अथवा कर्मयोग भी है। इसके हेतु कृष्णने भक्तजनोंद्वारा एकत्रित स्मरण व गुणवर्णन तथा एकत्रित बोधका महत्व भी कहा है।

मच्चिता मद्गतप्राणाः बोधयन्तः परस्परम्।

कथयन्तश्च मां नित्यं तुषष्यन्ति च रमन्ति च ।।

आगे इसी भक्ति और श्रद्धाके कारण अर्जुनको विश्वरूपका दर्शन हो पाया जोकि किसी भी अन्य प्रकारके यज्ञ दान अथवा तपसे भी प्राप्त नहीं हो सकता

फिर आगे सोलहवें अध्यायमें बताया कि जो शास्त्रकी बातको ना मानते हुए और उस कामें श्रद्धा ना रखते हुए केवल काम करनेका प्रयास करते हैं उन्हें सफलता प्राप्त नहीं हो सकती परंतु जो थोड़ीसी भी श्रद्धा रखते हैं, तो वह भले ही शास्त्रसे थोड़ा सा हटकर अपना कार्य करें लेकिन उन्हें सफलता मिलती है अर्थात जहां हम अपने कार्यसे प्रभावोत्पादनमें याने एफिशिएंसीमें कम पड़ते हैं वहाँ श्रद्धाके द्वारा उसकी पूर्ति कर सकते हैं। दूसरी ओर श्रद्धाके बिना अत्यंत उग्र तप भी दम्भ, अहंकार, काम, लालसा आदिसे युक्त होकर आसुरी फल देनेवाला हो जाता है। ऐसे व्यक्तिकी आत्मिक शक्तियाँ क्षय हो जाती हैं और किसी भी प्रकार वह समाजको अभ्युदयकी ओर नही ले जाता।

श्रद्धात्रयविभागयोग नामक सतरहवें अध्यायमें भगवानने श्रद्धाके तीन प्रकार बताए - सात्विकी राजसी और तामसी। इन तीनों प्रकारके व्यक्तियोंके लक्षण भी बताए हैं। सात्विकी स्वभावका व्यक्ति आहार किस प्रकारका लेता है, कर्म किस भावसे करता है, औौर यज्ञ-दान-तप के लिये उसकी भावना कैसी होती है। आहारमें रसपूर्ण, स्निग्ध, स्वादु इत्यादि लक्षण होनेसे वह भोजन और उसे खानेवाला सात्विक व्यक्तित्वका परिचायक होता है। जब वह यज्ञ-दान-तप करता है तो फलकी इच्छा न रखते हुए, कर्तव्य मानकर और स्वयंके मनःसंतोष के लिये करता है। सात्विक तप शरीर, मन एवं वाणी तीनोंसे किया जाता है। शौच, ब्रह्मचर्य, अहिंसा, गुरूपूजन, देव-द्विज-वृद्धजनोंका सम्मान आदि शारीरिक तप कहे हैं। किसीके प्रति उद्वेगकर वाक्य न बोलना, सत्य, प्रिय तथा हितकारी वचन बोलना, स्वाध्याय और मनन ये वाङ्मयतप हैं। मनकी प्रसन्नता, सौम्य व्यक्तित्व, मौन, आत्मनिग्रह, तथा भावसंशुद्धि ये मानसी तप कहे हैं। इसी प्रकार दान भी जब दातव्य मानकर और स्वयंके उत्सर्जनहेतु, देश-काल-पात्र आदि विचारसहित हो तो सात्विक दान है। इनके साथ श्रद्धाके जुडनेसे ये सात्विक भाववाले हो जाते हैं। इससे अन्य राजस या तामस भावसे किये गये और उन्हीं भावोंको पोषित करनेवाले भी अन्न, तप, दान, यज्ञ होते हैं।

विचारणीय है कि ये क्रियाएँ एवं उनसे उत्पन्न सात्विक राजस तामस भाव आपसमें कार्य-कारण संबंधसे नही वरन परस्परावलंबनसे जुडे हैे। सात्विक भावना रखनेवाला व्यक्ति ऐसे कर्म करेगा या भावना रखेगा जो उपरोक्त लक्षणोंमें बताए गए हैं, लेकिन यही क्रियाएँ और यही भाव उसे अधिक सात्विक बनाता है। अर्थात यदि उसका सात्विक व्यक्तिमत्व उसकी क्रियाओंको निश्चित व दिग्दर्शित करता है, तो वही क्रियाएं उसके सात्विक भावको पोषित करती हैं। इसी प्रकार राजसी व्यक्तिमत्वका व्यक्ति अपना आहार कैसा लेगा, कर्म कैसे करेगा, यज्ञ-दान-तप किस प्रकार संपन्न करेगा आदि उसके राजसी स्वभावके अनुरूप होंगे और वे सारे कर्म उसके राजसी स्वभावको और अधिक बढ़ावा देंगे। ये कहें कि स्वभावसे आचरण नियत होता है और आचरणसे स्वभावका संस्कार दृढ होता है।

श्रद्धाको दृढ करनेवाला एक रहस्य श्रीकृष्णने बताया। किसी कार्यको आरंभ करते समय ओम् के उच्चारपूर्वक करना चाहिये। यह विधान इसलिये बना क्योंकि ओम् तत् सत् - यह तीनों ब्रह्मके निर्देश अथवा द्योतक हैं। पूर्वकालमें इस तीनोंके माध्यमसे ब्राह्मण अर्थात ब्रह्मको जाननेवाले, वेद और यज्ञ रचे गये। ओम् के उच्चारसे ब्रह्मका स्मरण व आवाहन होता है तथा तत् के उच्चारसे क्रियाको और कर्मोंके फलको ब्रह्मके प्रति समर्पित किया जाता है। सत् से ब्रह्मके उस आयामका निर्देश होता है जो जगतके मंगलके लिये विद्यमान है और इस कारण प्रशस्त या श्रेष्ठ है। जहाँ विश्वमंगलका भाव हो, साधुता हो, वहाँ सत् शब्दकी योजना होती है और ऐसा सत्कर्म ही प्रशंसित होता है। मनुष्य एवं मनुष्यसमाज का स्वाभाविक बरताव सत् से पूरित होता है अतः कालके प्रभावमें भी सत् ही शाश्वतरूपसे विराजमान है। जो यज्ञकर्ममें स्थिति है जो तपमें स्थिति है और जो दानमें स्थिति है वह सत् कहा गया है। उस ईश्वरके लिये जो कर्म है वह भी सत् कहा जाता है। अतः यदि किये हुए यज्ञ दान और तप किसी कारणवश असात्त्विक और विगुण हों तो भी श्रद्धापूर्वक परमात्माके तीनों नामोंके प्रयोगसे वे सत् गुणवाले और सात्त्विक बना लिये जाते हैं। बिना श्रद्धाके किया हुआ यज्ञ, दान व तपा यह सब साधनमार्गसे बाहर होनेके कारण असत् कहा जाता हैं। वह बहुत परिश्रमयुक्त होनेपर भी न तो मरनेके पश्चात् फल देता है और न इस लोकमें ही सुखदायक होता है।

वैसे तो यज्ञ-दान-तप की बहुत ही महती है। इन तीनों कार्योंको गीतामें न त्याज्यं कहा गया है -- अर्थात् इन तीन कर्मोंका कभी त्याग नही करना चाहिये। इसका कारण स्पष्ट है। तप किया जाता है स्वयंकी मता बढाने हेतु, स्वयंको तपाकर शुद्ध करने हेतु -- अर्थात वह वैयक्तिक है। क्षमता प्राप्त होते ही दानका विधान है - जो पाया उसमेंसे एक भाग समाजको अर्पण करना -- चाहे वह अन्नदान हो, धनदान हो या विद्यादान हो। तो तप है व्यक्तिद्वारा स्वयंके हेतु किया गया कर्म और दान है व्यक्तिद्वारा समाजके प्रति किया गया कर्म। दान सत्पात्र कैसे हो -- तो उस दानके कारण लेनेवालेकी क्षमतामें भी वृद्धि हो। तीसरा कर्म है यज्ञ जो एक सामूहिक सामाजिक कर्म है - कइयोंद्वारा समाजके उत्थानहेतु किया जाता है - समष्टिद्वारा समष्टिके लिये। इन तीनों कर्मोंके साथ श्रद्धाका जुडा होना आवश्यक है। अश्रद्धासे किये ये कर्म न स्वयंका मंगल करेंगे, न समाजका।

इस प्रकार गीतामें श्रद्धाकी महिमा वर्णित है जो समाजमें सद्भावना, सत्कार्य और सदाचारको प्रशस्त करती है।

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