Tuesday, July 6, 2021

अध्याय १ -- श्रद्धा एवं राष्ट्रधर्म

 

अध्याय १ श्रद्धा एवं राष्ट्रधर्म

भारतीय संस्कृतिके मूलतत्व हैं सत्यान्वेषणा, उपासना, श्रद्धा, पुरूषार्थ, राष्ट्रधर्म तथा अपरिमित ज्ञान जिसे परब्रह्मकी भी संज्ञा है। लेकिन इसे भी गंभीरतासे सोचें तो उपासना, राष्ट्रधर्म एवं श्रद्धा साधन हैं जबकि पुरूषार्थ, सत्यान्वेषणा, व सर्वज्ञता (अथवा ब्रह्मबोध) साध्य हैं। अर्थात भारतीय संस्कृतिका मूलतम तत्व श्रद्धा ही कहा जा सकता है। उपासना अर्थात गुरूके पास बैठकर ज्ञानप्राप्तिको श्रद्धाकी पहली स्थिती कह सकते है क्योंकि श्रद्धापूर्वक आचरण व उपासनासे ही गुरूसे ज्ञानकी प्राप्ति हो सकती है। पुरूषार्थ तथा उसके लिये योग्य कर्मका कर्तव्यबोध भी श्रद्धासे ही सुफल हो सकता है ऐसा भगवद्गीताका वचन है। राष्ट्रधर्मका रूप यज्ञसे प्रकट होता है। राष्ट्रकी व्युत्पत्ति है राजते इति राष्ट्रः अर्थात जो समूचे समाजके उत्कर्षके कारण ऐश्वर्यसंपन्न हुआ वह राष्ट्र है।

हमारा प्रार्थनामंत्रोंमें कहा गया है – यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमानि आसन् ।। अर्थात देवताओंने यज्ञसे यज्ञका यजन किया। ये यज्ञ ही हमारे धर्मका पहला द्योतक चिह्न हैं। इस यज्ञ संकल्पनाकी हम आगे चर्चा करेंगे कि कैसे वह समाजद्वारा समाजकी भलाईके लिये किये गये कार्य थे।

सारांश यह कि भारतीय समाज व संस्कृतिकी नींव ही श्रद्धा है। समाजकी संकल्पना व निर्माण, समाजके अभ्युदय हेतु आवश्यक व्यक्तिगत एवं सामाजिक गुणोंकी पहचान, वे गुण पीढी-दर-पीढी समाजके अस्तित्व एवं मनोभावोंमें रचे-बसे रहें इस हेतु बनी नीतियाँ व यज्ञकर्म आदि एक सतत प्रवाहके रूपमें इस भारत भूमिपर व्यक्त हुए, विकसित हुए। किसी भी अन्य जैविक उत्क्रांतिवादकी अपेक्षा यह चिरंतनकी ओर हो रही ज्ञानयात्रा या उत्क्रांति अधिक महत्वपूर्ण थी। एक अथाह चिंतनके बाद ही यह प्रक्रिया पूर्ण हुई जिसमें अंतिम लक्ष्य चरम ज्ञानकी प्राप्तिका था। उस अंतिम लक्ष्यके पहले जो प्राप्तव्य तथा प्राप्त पडाव आये उन्हींको हमने अभ्युदय एवं निःश्रेयसके रूपमें प्रतिष्ठित किया। अभ्युदय अर्थात राष्ट्रकी उन्नति और निःश्रेयस है व्यक्तिकी चरम ज्ञानावस्था। इन्हींको पुरूषार्थका नाम दिया जिसे धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष, इन चार प्रणालियोंमें विकसित किया गया।

इनमें धर्म सबसे पहले आता है। सारांशमें राष्ट्रधारणा और समाजधारणाको ही धर्म कहते हैं।मनुष्यके पुरुषार्थकी सार्थकता सबसे पहले सामाजिक कर्तव्य निभानेसे आती है। फिर धर्मके आश्रयसे मनुष्य अर्थ एवं काम पुरुषार्थोंको पाता है। ये दोनों राष्ट्रके साथ व्यक्तिका हित करते हैं। अनन्तर मोक्षसे व्यक्तिगत श्रेष्ठतम श्रेय प्राप्त कर उसे समाजकी ओर मोडा जाता है।

विचारोंके इस सतत, प्रगत, चिरंतन, सनातन, एकात्म प्रवाहको ही हम भारतीय दर्शन कहते हैं। एवंच हम पाते हैं कि राष्ट्रधर्मके हित अभ्युदय और निःश्रेयस इन दोनोंका सतत अनुष्ठान ही भारतीयताकी पहचान है। दोनोंहेतु चाहिये ज्ञान और उसके हेतु श्रद्धा।

अक्सर लोग यह गलत धारणा बना लेते हैं कि श्रद्धा व विचारप्रणवता एक दूसरेके विरोध हैं। इससे अधिक गलत कुछ भी नही हो सकता। यदि हम ऋग्वेदादि वेदोंमें अथवा भगवद्गीतामें श्रद्धाके वर्णनको पढें, तो हम समझ पायेंगे कि श्रद्धाका आलंबन भी बडा ही विचारपूर्वक लिया जा सकता है। जब अपने विचारोंमें हम विवेक, समाजधारणा. सत्यान्वेषणा, राष्ट्रधर्म आदि विषयोंका चिन्तन करते हैं तभी तत्काल श्रद्धा प्रकट होती है और विचारोंको मानों हाथ पकडकर आगे ले चलती है।

इसे समझनेहेतु पहले हम समाजधारणाका प्रश्न लेते है। जैसे ही मनुष्य जातिने यह निश्चय किया कि वे समाजमें रहेंगे- वैसे ही यह भी निश्चित रूपसे समझमें आ गया कि बिना कुछ विशेष नियमोंके समाज टिका नही रह सकता। तो समाज टिकानेके लिये नियमपालन आवश्यक हो जाता है। लेकिन अब मौलिक प्रश्न आता है कि समाज क्यों चाहिये और समाजको क्यों टिकाकर रखना है? उत्तर बडा सरल है कि समाजके अस्तित्वके कारण ही व्यक्तिजीवन भी अधिक सुगम होता है - साझा करनेसे कई सुविधाएँ गुणित होती है और कई कष्ट न्यून हो जाते हैं। तो समाजव्यवस्था टिकी रहे इसमें स्वार्थ तो अवश्य है। यह टिकी रहे तो मुझे कुछ ऐसी सुविधाएँ मिलेंगी जो अकेले रहने में या केवल विचारहीन समूहका हिस्सा होनेसे नही मिलेंगी। लेकिन समाजव्यवस्थाके लिये जो नियम बनेंगे वे व्यक्तिगत मेरे लिये या कुछेक व्यक्तियोंके लिये कष्टकर भी हो सकते हैं। यदि मेरी श्रद्धा हो कि समाजका टिका रहना मेरे व्यक्तिगत हानि लाभसे उंचा ध्येय है, उसके दूरगामी परिणाम मेरे व मेरी अगली पीढीयोंके लिये अधिक श्रेयस्कर हैं तो मैं उन कष्टोंको स्वीकार करूँगी। मेरी स्वीकृती या तो भय व दबावके कारण आएगी जो अन्ततः क्रोध और विध्वंसके रास्ते जायेगी। लेकिन यदि यह श्रद्धाके कारण होगी तो मुझे दुख नही होगा वरन मैं संतोष व प्रसन्नतासे उसका स्वीकार करूँगी। यहाँ मेरा विवेक काम कर रहा होगा। साथही तात्कालिक लाभ-हानि और दूरगत लाभहानिका विचार भी मेरे विवेकको पुष्ट करेगा।

और एक बार मेरे मनमें श्रद्धा आई, उसके कारण सकारात्मकता आई तो मेरी दृष्टी भी अलग होगी- मेरा दर्शन ही अलग हो जायगा। यही बात राष्ट्रधर्म पर भी लागू होगी। यदि ऐश्वर्यशाली समाज बनाना है तो एकात्म भाव, मैत्री, शौर्य, करूणा, साझेदारी, सहयोग, एक साथ समृद्धि पानेकी भावना इत्यादिमें श्रद्धा होना आवश्यक है।

अपने समाजपर दूसरे समूह आक्रमण करते हों, हमें लडाई करनी पडती हो, लडाईमें वार झेलने पडते हों, या मृत्यूका वरण करना पडता हो, तो राष्ट्रके प्रति श्रद्धाके बिना कोई इसे स्वीकार नही करेगा। जब राष्ट्रमें श्रद्धा होगी, तभी उसकें लिये जीवन न्यौछावर करना भी दुखकी नही वरन गर्वकी बात होगी। अर्थात राष्ट्ररक्षामें शौर्यके प्रति गर्व होना यह भी श्रद्धाके कारण ही संभव है।

सत्य अन्वेषणाके हेतु उपासनापूर्वक गुरूसे ज्ञान प्राप्त करना - यह भी इसलिये संभव है कि गुरूके प्रति श्रद्धा है। और गुरु भी ज्ञान इसलिये देंगे कि उन्हे राष्ट्रके प्रति श्रद्धा है- ज्ञानविस्तारमें श्रद्धा है।

इस प्रकार मानवी सभ्यताके आरंभिक दिनोंमें, और विशेषकर भारतमें श्रद्धाका आलंबन समाज भावना व राष्ट्रभावनासे स्वीकार किया गया होगा ऐसी गहन संभावना है। फिर जैसे जैसे ज्ञानका विस्तार किया गया वैसे यह समझमें आने लगा कि इंद्रियगत ज्ञानसे परे दूरतक ज्ञानका विस्तार है। साथ ही यह भी समझ आया, कि वह जो इंद्रियातीत ज्ञान है उसे पानेके लिये तप, भक्ति, समर्पण व शुचिता आवश्यक है।

यों हजारों वर्षोंके उपरान्त भारतीय संस्कृतिमें वे मूल्य स्थिर हुए, जो समाजके अभ्युदय, राष्ट्रके ऐश्वर्य और व्यक्तिगत चारों पुरूषार्थ प्राप्तिके हेतु लाभप्रद माने गये। इन मूल्योंमें यम-नियम, समाज ऋणकी संकल्पना, उसकी पूर्तिके लिये यज्ञविधी, शौर्य, कौशल्य, न्याय, स्वाध्याय, उदारता, प्रेम, मैत्री, सावधानता, आदरभावना, अतिथी सत्कार, राष्ट्रधर्म एवं राजधर्मपालन, व्यवस्थापन आदि गुण आवश्यक देखे गये। ये समाजमूल्य पीढी-दर-पीढी, वंशानुवंश तभी टिक सकते हैं यदि शिक्षाप्रणाली इसी उद्देश्यसे बने। ऐसी सुशिक्षा दे सकनेवाली गुरुकुल प्रणाली तथा ब्रह्मचर्य आश्रम बने। सुशिक्षा दे सके ऐसा वर्ण बना जिसके लिये अध्ययन, अध्यापन, अन्वेषणा, तप, वैराग्य, शुचिता और अपरिग्रह आवश्यक माने गये। उनके गुरुपदके कारण उनके प्रति समाजमें आदरभावना रही। समाजनेतृत्व, न्याय तथा राष्ट्ररक्षा कर सके ऐसा शौर्यशाली दूसरा वर्ण बना। तीसरा वर्ण बना जो व्यवस्थापन संभाले - कृषि, गोरक्षा, वाणिज्य, आपूर्ति, पणन, कोषागार आदि इनका उत्तरदायित्व तय हुआ। चौथे वर्णको समाजमें निरंतर कार्यकुशलतासे कारीगरी, उत्पादन, निर्मिती, कलाबोध, आदिका कार्य दिया गया।

इन चार प्रकारके वर्णोंकी कार्यप्रणाली इस प्रकार व्यवस्थित की गई कि सत्ताका विकेंद्रीकरण निरंतर होता रहे। समाजकी जो भी आवश्यकताएँ हैं विशेषकर पर्यावरणकी रक्षा एवं साझेदारीकी भावना उनके लिये यथासंभव समाज ही उत्तरदायी हो, प्रजा अपने संजोये मूल्योंके आधारपर ही यह काम करे और राज्यके प्रति निर्भरता लगभग शून्य हो। क्योंकि प्रजा जितनी राज्यनिर्भर होगी, राजसत्ता भी उतनी ही केंद्रीकृत एवं निरंकुश होगी जो चिरंतन अभ्युदयके लिये बाधक है।

इस प्रकार अनगिनत उदाहरण दिये जा सकते हैं जो यह स्पष्ट करते हैं कि भारतमें सामाजिक जीवनका आरंभ ही समष्टिके विचार व समाष्टिके प्रति श्रद्धासे हुआ। फिर श्रद्धाने ज्ञानका विस्तार किया। उस ज्ञानके कारण समाजमूल्य बने, नियम नियत हुए, व्यक्तिका चरित्र गढा जाने लगा। इन सबके पीछे एक प्रकाशमान लौ की भाँति यह श्रद्धा काम करती रही कि हमें सम्मिलित रूपसे राष्ट्रनिर्माण करना है।

तो इस पुस्तकमें हमे वे सारे विषय विचारने होंगे जिनके प्रति श्रद्धा होती है, जिनसे श्रद्धा प्रगाढ होती है और जो श्रद्धाके कारण सुगम होते हैं। वे विषय भी विचारने होंगे जो धर्मकी और राष्ट्रकी चिरंतनता एवं ऐश्वर्यके लिये आवश्यक हैं।

Word count 1221 say 4 pagesकुल ८ पन्ने---------------------------*********-------------------

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