Sunday, July 18, 2021

अध्याय २१ पश्चिमी विचारोंमें श्रद्धा

 

खण्ड अंधश्रद्धाकी समीक्षा

अध्याय

पश्चिमी विचारोंमें श्रद्धा


भारतीय संस्कृति अर्थात वैदिक संस्कृतिका एक अतिविशिष्ट शब्द है श्रद्धा जिसका उचित अनुवाद संसारकी अन्य किसी भाषामें नही है। इसका अर्थ अत्यंत ही व्यापक है। अंग्रेजोंके शासनकालमें इसका अनुवाद फेथ या ट्रस्ट किया गया।

जैसा हम धर्म शब्दके संदर्भमें देख चुके हैं -- भारतीय भाषाओंकी शब्दावलियाँ और उनका आशय या तत्त्वज्ञान अतीव प्रगल्भ रहे हैं इनकी तुलनामें अर्वाचीन पाश्चात्य संस्कृतिकी संकल्पनाएँ कम विकसित थीं। अतः कई बार भारतीय शब्दसे जो आशय निकालना सरल है वही आशय उस शब्दके अँगरेजी अनुवादसे नही निकल पाता।

तो श्रद्धाका जो अनुवाद है - फेथ, उसे भी हमें इसी परिप्रेक्ष्यमें समझना होगा। पश्चिमी विद्वानोंका श्रद्धा शब्दपर तो कोई मत नही हो सकता क्योंकि यह उनकी शब्दावलीमें नही है। लेकिन पश्चिमकी फेथकी संकल्पना और हमारी श्रद्धाकी संकल्पनामें तुलना अवश्य हो सकती है।

फेथका डिक्शनरी मीनिंग यह कहा गया है कि किसी व्यक्तिका किसी अन्य व्यक्तिमें अथवा वस्तुमें अथवा घटनाक्रममें विश्वास होना। यह किसी साक्ष्यके आधार पर हो ऐसा जरूरी नहीं है। इसका पर्यायी शब्द ट्रस्ट भी है। फेथ शब्दसे ईश्वरके प्रति विश्वास व्यक्त हो सकता है, या धर्मके प्रति, या किसी व्यक्तिके प्रति अथवा किसी सरकारी संस्थानके प्रति, या फिर संस्थाके नियमोंके प्रति विश्वास भी हो सकता है। फेथके लिये पर्यायी शब्द लॉयल्टीका प्रयोग भी किया जा कता है जो किसी एक व्यक्तिकी किसी दूसरे व्यक्ति या संस्थान या शपथ या प्रॉमिसके प्रति हो सकती है। एक व्यक्तिके विषयमें कहा जा सकता है कि उसने अपना फेथ या लॉयल्टी कायम रखी अर्था किसी संस्थामें उसका जो अलीजीयन्स था उसे निभाया। खासकर वह वित्तीय संस्था हो तो इस प्रकारकी लॉयल्टीका महत्व अधिक होता है।

यद्यपि डिक्शनरी ऐसा कह रही है लेकिन प्रचलित अर्थमें फेथ शब्दको प्रायः रिलीजनके साथ जोडा गया है और अन्य व्यवहारोंमें ट्रस्ट शब्दका प्रयोग देखनेको मिलता है। इसलिये फेथ और रीझनकी चर्चामें रिलीजनकी चर्चा अवश्यमेव है।

फेथ और रीझन अंगरेजी भाषाके ये दोनों शब्द एक दूसरेके विरोधी अर्थवाले माने जाते हैं। हमारी भाषाके शब्द हैं श्रद्धा और बुद्धिप्रामाण्य क्या वे भी आपसमें विरोधी हैं -- इसकी चर्चा हम कर चुके हैं। पहले अंगरेजी शब्दयुग्मको देखते हैं। दोनोंका उपयोग मतवर्चस्व प्रस्थापित करने हेतु किया जा सकता है। पश्चिमी फिलॉसफर्सके बीच दो मतप्रवाह हैं -- एक वह जो मानता है कि किसी भी रिलीजियस मुद्देको लेकर दोनोंमें आपसी एकमत नही हो सकता -- सदैव विरोध ही रहेगा। ऐसे समय किसका पक्ष लेना है इस संबंधमें उनके दो भिन्न मत हैं। बेकन और लॉक जैसे सतरहवीं- अठारहवीं सदिके विचारक मानते थे कि जब कभी सामने आये तथ्योंको फेथके आधारपर व्याख्यायित नही किया जा सकता तब रीझनका श्रेष्ठत्व मानते हुए उस मुद्देपर फेथको छोड देना चाहिये। इन्हीं विचारोंको सेक्यूलर कहा गया और ख्रिश्चन धर्ममें नया पंथ चल पडा प्रोटेस्टंट। अर्थात वे लोग जो कहते हैं कि दृश्य तथ्योंके संबंधमें यदि चर्चका वर्णन उनकी व्याख्या नही कर सकता तो चर्चके मतको त्यागकर विज्ञानद्वारा उनकी जो व्याख्या की गई है उसे मानना चाहिये।

लेकिन उन्नीसवी सदिका फिलॉसफर कीर्केगार्ड फेथको महत्व देता हैं भले ही वह अतार्किक दीखता हो। कई विद्वानोंका कथन है कि फेथ और रीझन दोनोंका अपना अपना क्षेत्र है अतः उनके टकरावकी स्थितीको टाल देना सहज संभव है और वही करणीय है। यदि टाली नही जाती हो तो चर्च से संबंधित मामलोंमें फेथके मार्गपर चलना चाहिये अन्य मामले रीझन या रॅशनॅलिटीसे सुलझाने चाहियें। कुछ और भी हैं जिन्हें ये दो क्षेत्रोंवाला सिद्धान्त अमान्य है लेकिन वे फेथ रीझनके बीच समन्वयकी बात करते हैं।

पश्चिमि पंडितोंपर ग्रीक विचारकोंका बडा प्रभाव रहा है। ग्रीक संस्कृतिको पागान कहकर अमान्य करार देते हुए भी पश्चिमी विद्वान प्रत्येक विषयकी थाह प्लेटो, अरस्तू अन्य ग्रीक विचारकोंमें ढूँढते हैं फेथ एवं रीझनके बीचका विवाद भी पुरातन ग्रीक संकल्पनाओंसे चलता हुआ ख्रिश्चियानिटी, थियॉलॉजी और आधुनिक वैज्ञानिक विचारप्रणाली तक चला रहा है।

इस संबंधके पश्चिमी इतिहासको थोडा विस्तारसे देखा जा सकता है। ग्रीक फिलॉसफर सुकरात, प्लेटो और अरस्तूने रीझनका अर्थ किया है किसी जिज्ञासाका सीढी-दर-सीढी हल निकालना जिसमें पिछले निष्कर्षके आधारसे अगला विचार बनता है। जिज्ञासा चार प्रकारकी कही है -- बौद्धिक (इसमें विज्ञानके प्रयोग भी अंतर्भूत हैं), नैतिक, सौंदर्यदर्शी और धार्मिकअंगरेजीमें कहें तो इंटलेक्चुअल, मॉरल, ऐस्थेटिक एवं रिलीजस। दोनोंने रिलीजनके संदर्भमें भी सत्यको महत्वपूर्ण बताते हुए सत्यकी खोजके लिये बुद्धिकी तार्किकताको स्वीकारा। प्लेटोने कहा कि व्यक्ति या समाज स्वयंप्रेरणासे अन्ततः सद्विचारकी तरफ ही मुडेंगे। अरस्तूने एक अनमूव्ह्ड मूव्हर की बात करी जो विश्वको चलाता है और सबको भलाईके लिये प्रवृत्त करता है। हम भारतीय ये कह सकते हैं कि वे दोनों शायद सांख्यदर्शन से प्रभावित थे जो प्रकृतिसे अलग पुरुषको संसारका भोक्ता बताता है और सत्वगुणको प्राप्तव्य। लेकिन पश्चिमि विचारकोंने अपनी पूरी पढाईमें आजतक इस संभावनापर विचार नही किया है कि स्वयं ग्रीक फिलॉसफर भारतीय दर्शनसे प्रभावित रहे हों। वर्तमान भारतीय विचारकोंमें यह आत्मग्लानि है कि भारतीय दर्शन ही मिथ्या और काल्पनिक है इसलिये किसी भारतीयने भी इस दृष्टिसे ग्रीक फिलॉसफीकी छानबीन नही की है।

इस कारण इस अध्यायमें केवल ग्रीक मत, पूर्वकालीन मध्यकालीन ख्रिश्चन मत, इस्लामिक मत और आधुनिक पश्चिमी मतका ही विचार किया जा सकता है। किन्तु इन मतोंपर भारतीय प्रभावके विषयमें कुछ नही कहा जा सकता।

अरस्तूके बाद स्टोइक कहे जानेवाले कुछ ग्रीक फिलॉसफर हुए जो सृष्टि और प्रलय के आवर्तनका सिद्धान्त बताते हुए नियतिके व्यवहारोंको तितिक्षापूर्वक सह लेनेका उपदेश देते हैं। इनके विपरीत एपिक्यूरियस नामक फिलॉसफरको माननेवाले उपभोगवादी थेे जो कहते थे कि इस जीवनकी समाप्तिके साथ सबकुछ समाप्त होना है इसलिये मौजसे रहो। इनके बादवाले ग्रीक फिलॉसफर्सने भी घूमफिरकर इन्हीं बातोंकी विस्तारसे व्याख्या की। पश्चात तीसरी सदिमें रोमनोंद्वारा ग्रीकोंपर विजय और ग्रीक संस्कृतिके पूर्णतः ध्वस्त हो जानेके बाद येे सारे सिद्धान्त पीछे हो गये। चूँकि रोमनोंने ख्रिश्चन धर्मको स्वीकारा था अतएव उनके लिये फेथके विषय थे - टेन कमाण्डमेंट्स, शून्यसे जगतोत्पत्तिका सिद्धान्त तथा एकमेव येशूद्वारा ईश्वरकी इच्छाओंका प्रकटन। प्रारंभिक ख्रिश्चनकालमें सेंट पॉलने रिझन एवं फेथमें समन्व्य का प्रयास किया तो टरट्यूलियनने और सेंट अगस्तिनने फेथको हर प्रकारसे रीझनसे श्रेष्ठ और हर हालमें निभानेको कहा। अगस्तिनने यह भी कहा कि फेथ के मुद्दे समझानेमें रीझनका कितना उपयोग करें यह अधिकार केवल चर्चको है। लेकिन यदि ईश्वरको समझना है तो उससे प्रेम किये बिना यह संभव नही है।

ग्रीकोंके कालमें फिलॉसफीकी प्रगति बडी सू्क्ष्मतासे और सौंदर्यदृष्टिके साथ हुई थी। उन्होंने सायन्स और ओपिनियन इन दो शब्दोंके संबंधको तार्किकताके आधारसे पकडा और सुदृढ किया था। उस स्तरतक पहुँचनेमेें ख्रिश्चन फिलॉसफीको सदियों लग गये। मध्यकाल तक सारी धार्मिक चर्चाओंमें फेथ ही रीझनपर भारी रहा। मध्ययुगीन फिलॉसफर आनसेम का कथन है कि फेथके लिये समझनेकी या रीझनकी आवश्यकता नही है, उलटे पेथकी आवश्यकता है ताकि रीझनकी समझ जाय। दूसरे लोम्बार्डका कथन है यद्यपि ग्रीकोंके पागान विचार हमें मान्य नही लेकिन उनकी सूक्ष्म तार्किकताका आधार लेकर ख्रिश्चनोंके ट्रिनिटि सिद्धान्तकी व्याख्या करनी चाहिये ताकि वे सर्वमान्य हो जायें।

वर्तमान पश्चिमी विद्वान सप्रमाण बताते हैं कि ग्यारहवींसे पंद्रहवीं सदिके मुस्लिम विचारक भी ग्रीकोंसे प्रभावित रहे। उनने भी रिलिजनकी व्याख्यामें सत्य और तार्किकताको महत्वको स्वीकारा। इस्लामिक मान्यता है कि मरनेके बाद भी हरेक जीव अपनी व्यक्तिगत बुद्धिके आधारसे कयामत तक रुककर ईश्वरके अंतिम न्यायकी प्रतीक्षा करता है। इसकी व्याख्या करनेमें इस्लामिक विचारकोंने अलग अलग तरहसे ग्रीक मतोंका उपयोग भी किया है। लेकिन इस्लामी मतानुसार रिलीजनसंबंधी फेथ और रीझनके बीच फेथही श्रेष्ठ कहा गया है। लगभग यही विचार जूडाइजम में भी है जहाँ कहा जाता है कि ईश्वरसे संबंधित कोई बात जब आकलनमें नही आती हो, तब मौनभावसे उसके आकलनकी प्रतीक्षा करनी चाहिये।

चौदहवींसे अठारहवीं सदिको यूरोपमें वैज्ञानिक जागृति का कालखण्ड कहा जाता है क्योंकि इस कालमें वैज्ञानिक तथ्योके आधारसे कई रिलीजस मान्यताएँ छोड दी गई। बाइबलमें कहा है कि पृथ्वी चपटी है, स्थिर हैं और सूर्यादि ग्रह-तारे उसके चारों ओर घूमते हैं। ये रिलीजस किताबोंकी बातको छोडकर लोग आगे बढते गये औऱ अधिकाधिक प्रकारसे नये वैज्ञानिक तथ्योंको स्वीकारते गये। जिसने खुले तौरपर इनका समर्थन किया वे सेक्यूलर कहलाये और उनके कारण ख्रिश्चन धर्म भी दो फाडोंमें बँट गया -- कॅथोलिक औऱ प्रोटेस्टंट। अपनी बातोंके समर्थनके लिये दोनोंने एक बार फिर अधिकतासे ग्रीक फिलॉसफर्सको और रिलीजस पुस्तक को पढना आरंभ किया। इनमें Nicholas of Cusa और गॅलिलिओ के नाम प्रमुख हैं जो वैज्ञानिकता और रीझनके पक्षमें थे जबकि काल्विन एवं मार्टिन ल्यूथरने फेथको श्रेष्ठ बताया ल्यूथरके अनुसार - faith is primarily an act of trust in God’s grace। उसने आगे कहा कि मनुष्यकी बुद्धि स्वाभाविक रूपसे ईश्वरके प्रति जागरूक होती है। डेकार्ट, लीनीझ, पास्कल, लॉक, काण्ट, रुसो आदिके सिद्धान्त मूलरूपसे पढनेयोग्य हैं। काण्टने कहा कि कोई वैज्ञानिकता परिपूर्ण ईश्वरको पकड पानेमें सक्षम नही है अतः फेथकी बातोंमें रीझन को नही घुसाना चाहिये। लेकिन विज्ञानवादियोंका कथन रहा कि वे भी अपने विचारोंमें वहींतक चलेंगे जहाँ तक विज्ञान ले जाये। उससे आगे किसी बात, संकल्पना या संभावनाको स्वीकार नही करेंगे। उन्नीसवींं सदिमें हेगेल, फ्राइड, डार्विन और मार्क्स जैसे विचारक उभर कर आये जिन्होंने रीझनके पक्षको आग बढाया। एक तरहसे उन्होंने ईश्वरकी कल्पनाको ही नकारा। नीत्जेका मानना था कि रिलीजनके कारण व्यक्तिमत्व दुर्बल बनता है और वही समाजमें ईर्ष्या भी बढाता है। बल्कि उसने तो घोषणा कर दी कि ईश्वर मर चुका है और अब हमें ही आगे आकर इतनी सत्तापर अधिकार करना है जहाँ उसकी कमी पूरी हो।

बीसवीं और इक्कीसवीं सदिमें यह विचारद्वंद्व फेथ या रीझन से आगे आकर रिलीजन या सायन्स के मुद्देपर चुका है। फिर भी कई वैज्ञानिक निजी जीवनमें फेथको महत्व देते हैं। बडे पैमानेेेपर दोनों विचारधाराओंमें समन्वयका प्रयास भी चलता है। आज विश्वकी सीमाएँ छोटी हो रही हैं और सर्वसमावेशकता की बात भी कही जाती है। लेकिन आज भी पश्चिमी विचारकोंकी दृष्टिमें भारतीय दर्शनके सिद्धांत और ग्रंथ नगण्य और अस्तित्वहीन ही हैं। यद्यपि विश्वके सारे विद्वान निश्चयपूर्वक जानते हैं कि सिकंदरके कालमें ग्रीस और भारतीय दोनों सभ्यताएँ अति विकसित थीं। लेकिन बहुत कम ही पश्चिमी या भारतीय विद्वानोंने ग्रीक और भारतीय दर्शनकी तुलना की है।

फिलॉसफी विषय पढनेवाले अधिकतर भारतीयोंकी मनासिकता पश्चिमी गुरुओंके बताये ज्ञानतक ही सीमित है। भारतीय दर्शनको पढने या समझनेकी बात उनके मानसमें नही है। उन्हें क्वचित ही यह ज्ञात है कि भारतीय दर्शनमें रखे गये विचार और उनकी तुलनामें ग्रीक फिलॉसफीके विचार किस प्रकार संबंधित हैं। एक प्रकारसे भारतके अंदर ही दो भारत हैं - अतएव आधुनिक भारतके फिलॉसफीके डिग्रीहोल्डरोंसे यह पूछना बेमानी है कि आप श्रद्धा या विश्वास या बौद्धिकताको किस प्रकार समझते हैं।

उन्हें छोडकर सामान्यजनके विचारसे देखें तो श्रद्धा शब्दके मूलमें दो शब्द हैं श्रत् एवं धा। श्रत् एक वैदिक शब्द है जो सत्यके समान अर्थमें प्रयुक्त होता है और धा एक धातु है जिसका अर्थ है धारण करना। अर्थात सत्यको धारण करनेवाला गुण। इसका कोई सही अनुवाद पश्चिमी वाङ्मयमें उपलब्ध नही है। फेथ या ट्रस्टके लिये हिंदी शब्द हैं विश्वास या भरोसा, जो श्रद्धा जितना उच्चतर भाव नही दर्शाते। उनका स्वरूप अधिकतर व्यावहारिक होता है। श्रद्धाके समकक्ष कुछ और शब्द हैं जैसे आस्था या निष्ठा और इनसे प्रकट होनेवाला भाव भी भरोसा या विश्वाससे अधिक ऊँचा है।

भगवत गीता के सतरहवें अध्याय में कहा गया है कि श्रद्धा सात्विकी, राजसी या तामसी हो सकती है। ऐसा कोई भी वर्गीकरण फेथ, ट्रस्ट जैसे शब्दोंपर लागू नही पडता।

श्रद्धाको सदैव सत्यसे जोड़कर देखा जाता है, इसीलिये धर्मसे भी जोड़कर देखा जाता है। श्रद्धा किसी दिव्य अनुभूतिके लिए रखी जाती है। एक अलौकिक स्तरके व्यक्तियोंके लिये जो सामान्यसे ऊपर वाले स्तरप हों उनके लिए श्रद्धा रखी जाती है -- जैसे गुरुजन, माता, पिता, गीता, संत, पंडित, देवता इत्यादि।

जब हम श्रद्धा शब्दको स्वीकारते हैं तो अंधश्रद्धा शब्द स्वयमेव नकारा जाता है। संस्कृत व्याकरणकी दृष्टिसे यदि देखा जाए तो अंधश्रद्धा नामक कोई वस्तु या कोई शब्द हो ही नहीं सकता क्योंकि अंध शब्द स्वतः असत् की ओर इंगित करता है, औौर श्रद्धा शब्द सत्यकी ओर। तो अंधके साथ श्रद्धा शब्द नहीं जोडा जा सकता। इसलिए मूलतः अंधश्रद्धा यह शब्द ही व्याकरणकी दृष्टिसे अस्तित्वहीन, या अस्तित्वरहित है। श्रद्धा शब्दके साथ सत् जुड़ा होनेके कारण परब्रह्मको भी व्यक्त करता है। भारतीय दर्शनमें यह परिकल्पना स्वीकार्य है कि परब्रह्म अपनी विभूतियोंके माध्यमसे सामान्य लौकिक जनोंको अपने अस्तित्वका बोध कराता है। ऐसी विभूतियोंके प्रति श्रद्धा रखना सर्वथा उचित है, उदाहरणस्वरूप हम गंगाके प्रति श्रद्धा रखते हैं गौके प्रति श्रद्धा रखते हैं इत्यादि। इसके लिये हम किसी वैज्ञानिक समर्थनकी प्रतीक्षा नही करते।

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