Sunday, July 18, 2021

अध्याय २५ बेमानी होता कम्युनिजम

 अध्याय २५

बेमानी होता कम्युनिजम

यहां हम यह चर्चा करेंगे कि कम्युनिज्म जिसने श्रद्धा भावनाका कभी सम्मान नहीं किया वह कम्युनिज्म आज कालबाह्य हो चुका है हाँ हम उसके उदय और अस्तके इतिहास कारणोंको समझेंगे। साथ ही देखेंगे कि श्रद्धा विषयके साथ उसका क्या संबंध है।

कम्युनिज्मका उदय १९वीं सदिके यूरोपमें हुआ। उस समयके यूरोपकी परिस्थितिको पहले समझना पड़ेगा यूरोपमें १८वीं सदीतक गुलामीकी प्रथा चली रही थी इस प्रथाका अंत पहले स्पेनमें (१८११) फिर ब्रिटेन इत्यादि होते हुए अंततः अमेरिकन सिविल वॉरके साथ अमेरिकामें और पूरे विश्वमें हो गया लेकिन गुलामी एवं गुलामोंपर अत्याचारका सिलसिला एक प्रकारसे समाजकी मानसिकतामें मान्यताप्राप्त था।

इसके कुछ ही समय पहले सन १७७५ के आसपास जेम्स वॉटने भापसे चलनेवाला इंजन बनाया जिसे हम संसारकी पहली मशीन कह सकते हैं। यहांसे इंडस्ट्रियल रिवॉल्यूशन अर्थात औद्योगिक क्रांतिकी नींव पड़ी औद्योगिक क्रांतिका अर्थ यह था कि इसनेे उत्पादन विधिको पूरी तरह से बदल दिया पहलेकी उत्पादन विधीमें प्रत्येक उत्पादित वस्तुको उसे बनाने वाला कारीगर हाथोंसे एक-एक करके बनाता था प्रत्येक वस्तु एक दूसरेसे आपसमें थोड़ी ना थोड़ी भिन्न अवश्य होती थी तो शत-प्रतिशत यूनीफॉर्मिटी ना होना एक-एक करके धीमी गतिसे उत्पाद नना यह दो बातें औद्योगिक क्रांतिसे पहले प्रचलित थी भापके इंजनके बाद ये नये मशीन ने जिनके द्वारा बनाया गया उत्पाद शत प्रतिशत एक जैसा होता है और उनके बननेकी गति भी अधिक होती है। क्योंकि उसे बनानेके लिए मशीन काम कर रहा होता है ना कि मानवीय हाथ लेकिन इन सबसे बड़ी बात यह थी की एक मशीनकी सहायतासे हम दूसरे प्रकारकी, दूसरे प्रयोजनकी मशीन भी बना सकते थे अर्थात मशीनोंसे मशीनोंकी निर्मिती और उन मशीनोंको अलग-अलग जगहोंपर स्थापित करके उत्पादन क्षमताको हजारों गुना अधिक बढ़ाया जा सकता था

औद्योगिक क्रांतिकी इन तकनीकी बातोंको समझना आवश्यक है क्योंकि क्रांतिके समाजिक प्रभावको हम तभी समझ सकते हैं हाथसे उत्पाद बनाने वाले जो कारीगर थे अब उनकी आवश्यकता नहीं बची लेकिन ऐसे दूसरे कारीगरोंकी आवश्यकता बनी जो मशीनोंको चलाना जानते हों, उनके साथ काम कर सकते हों। पहले जैसे गुलाम अब किसीके पास नही थे लेकिन बडी संख्यामें मशीन चलानेवाले मजदूर चाहिये थे। पहली तरहके कौशल्य और औद्योगिक क्रांतिके बादके आवश्यक कौशल्योंमें बहुत अंतर था एक तर पुरातन कौशल्य रखने वाले कारीगर बेरोजगार हो रहे थे तो दूसरी तरफ मशीनी उत्पादन क्षमताको चलाए रखनेके लिए बहुत बड़ी मात्रामें नए प्रकारके कौशल्यको जानने वाले कारीगरोंकी आवश्यकता थी एक एक केंद्रपर ही भारी मात्रामें उत्पादन होना था अतः वहाँ एक साथ अधिक मजदूर अर्थात घनी आबादी चाहिये थी, उन्हें रोटी-कपडा-मकान उपलब्ध करानेकी आवश्यकता थी। और इस प्रकार वहाँ शहरीकरण होता चला गया जिसके लिये ग्रामीण इलाकोंसे लोग आते गये।

साथ ही नए वातावरणमें उद्योगोंके लिए बड़ी संपत्ति निवेश तथा मालको खपानेके लिए बाजारका मैनिपुलेशन भी आवश्यक था जिसने संपत्तिनिवेश किया उसके लिये अधिकाधिक उत्पादन करते हुए अपनी संपत्ति वसूल करना पहली प्राथमिकता थी। इन परिस्थितियोंमें कारखानेंमें काम करनेवाले मजदूर सबसे अधिक दुष्प्रभावमें घिर गए। गुलामोंपर अत्याचारको मान्यता देनेवाले समाजको इसमें अधिक दुख नही था। लेकिन कुछ आधुनिकताका दावा करनेवाले मजदूरोंकी स्थितिमें सुधारकी वकालत करते थे। छोटे-मोटे लेब युनियनोंद्वारा मजदूरोंकी सुख सुविधाएं बढ़ानेका भी प्रयास हुआ उदाहरणस्वरूप जब एक शोध अध्ययनमें पाया गया कि उनको थोडी छुट्टी देनेसे उनकी उत्पादनक्षमता बढती है, तो सप्ताहमें एक दिन छुट्टीकी प्रथा चल पडी, वरना पहले मजदूर सप्ताहके सातों दिन फॅक्टरीमें काम करते थे वह भी १६-१८ घंटेतक।

लेकिन थोडे सुधारोंसे मजदूरकी स्थितिमें आमूलाग्र परिवर्तन असंभव था नई फॅक्टरीमें निवेश करने लायक सांपत्तिक स्थिती उनकी हो नही सकती थी। हमें समझना पड़ेगा कि कार्ल मार्क्स द्वारा जो कम्यूनिज्मका लसफा बताया गया उसका यही निचोड़ था कि मजदूरोंकी श्रेणीवाले मजदूर ही रहेगी, उनकी हालत तबतक सुधर नहीं सकती जबतक कोई बहुत बड़ा क्रांतिकारी कदम ना उठाया जाए मार्क्सने अपने सिद्धान्तको क्लैश ऑफ दी क्लासेस -Clash of the classes कहा उसने समाजमें दो ही वर्ग गिनाए - एक वह जो धनी था, नए नए निवेश करके नये कल-कारखाने खोल सकता था और आर्थिक सत्ता चला सकता था यही आर्थिक सत्ता उसे राजकीय सत्ता भी दे सकती थी। जो मजदूर थे वे गरीब थे, न्हें फॅक्टरी मालिकोंके आदेशका पालन करना होता था, औरनके आवाज या मतकी कोई सत्ता नही थी। जैसे जैसे कारखानदारी बढी, और बड़े पैमानेपर मजदूरोंकी संख्या बढी, ग्रामीण इलाकोंसे पलायन तथा बड़ी मात्रामें शहरीकरण होने लगा, वैसे वैसे इन दोनों क्लासेजका अंतर अधिकाधिक दृश्यमान होता गया

कार्ल मार्क्सकी फिलॉसफी माने तो उनकी परिस्थितिमें सुधार होनेका एक ही मार्ग था कि संघर्ष द्वारा मालिकाना हकको हासिल करो और सत्ताको छीन लो। इसे उसने विक्ट्री टू प्रोलिटेरिएट का नाम दिया Victory to the Proletariet तथा इसके लिये सशस्त्र संघर्षको सही एवं न्याय्य बताया। उसने मजदूरोंसे कहा कि संपत्ति निवेश करनेवाला मालिक केवल पहली बार संपत्ति निवेश करता है लेकिन बादमें उस कारखानेको निरंतरतासे चलाने वाला मजदूर ही होता है इसलिए कारखानेपर मालिकको बेदखल कर मजदूर अगर कारखानेका अधिकार अपने हाथमें ले ले, अपना मालिकाना हक जताये तो वह सही है। उसने मजदूरोंसे कहा -- you have nothing to lose except your chains

लेकिन मालिक अपने हकको आसानीसे नहीं छोड़ेगा वह कोर्टका भी सहारा ले सकता है और बल प्रयोग भी कर सकता है इन दोनोंके विरुद्ध मजदूरके पास उसकी संगठनकी शक्ति है, आंदोलनके माध्यमसे कारखाना बंद रखनेका रास्ता है, और सशस्त्र संघर्षके लिए तैयार रहनेका जज्बा है। यह सब करते हुए मजदूरको कोई आत्मग्लानि नहीं होनी चाहिए कि शायद वह किसी दूसरेके मालिकाना हकको छीन रहा है इस प्रकारसे मार्क्सने केवल मालिकाना हककी फिलॉसफीको ही नहीं बदला वरु उससे जुडी नीति और धर्मकी संकल्पनापर भी प्रहार किया दूसरेके धनके अधिकारका सम्मान करना यदि नीति और धर्म है, तो ऐसे धर्मको छोडनेकी सलाह मार्क्सने दी उसने एक नया प्रतिपादन किया कि धर्म एक अफीमकी गोलीके समान है। Religion is Opium, जो उसके पालनकर्ताको पीनकमें, नशेमें रखता है और जागरूक होकर अपना हक छीन लेनेसे रोकता है।

यह वह काल था जब फ्रेंच रिवॉल्यूशनके कारण समानता, बंधुता, सम्मानके साथ जीवन- डिग्निटी टू लाइफ, मानवी हक और डिग्निटी ऑफ लेबर इत्यादि शब्द यूरोपीय समाजमें नए नए चर्चामें थे। पूरी उन्नीसवीं सदीमें औद्योगिक क्रांति तथा उपनिवेशवादके कारण यूरोपमें धन संचय हो रहा था। राजकीय सत्ताके समीकरण भी बदल रहे थे। फ्रांस, इंग्लैंड, जर्मनी, रशिया, इटली, अमेरिका इत्यादि देश एकके बाद एक अपनी राजकीय ऑडियोलॉजीमें परिवर्तन देख रहे थे और इनमें आपसी टकराव भी शुरू हो गये थे। बीसवीं सदि आते आते विश्वयुद्धके बादल मंडराने लगे थे।

अभीतक विचारवंतोंके बीच मार्क्सको केवल पढ़ा ही जा रहा था। सब यही मानते थे कि इस सिद्धांतका कोई प्रैक्टिकल या व्यवहारिक प्रयोग नहीं हो सकता। विश्वयुद्धके पहले यूरोपसे हर देशमें राजघरानोंकी सत्ता समाप्त हो चुकी थी - सिवा रशियाके। तो जब पहले विश्व युद्धमें रशिया हारनेकी तरफ बढ़ रहा था तब वहां किसानों और मजदूरोंको साथ लेकर अचानक एक क्रांति करी गई जिसमें राजघरानेका अंत करते हुए कम्युनिज्मके आधार पर लेनिनने अपनी सत्ता संभाली। यहाँसे कम्युनिज्मके राजसत्तामें आनेका इतिहास आरंभ होता है। द्वितीय विश्वयुद्धमें रशियाकी स्थिती काफी मजबूत रहनेके कारण ऐसा लगने लगा मानो कम्युनिजम एक अत्यंत उपयोगी व्यावहारिक सिद्धांत है। इसी कारण १९४५ में विश्वयुद्ध समाप्तिके बाद हंगेरी, क्यूबा, चीन, पोलैंड इत्यादि देशोंमें कम्युनिज्मको बढ़ावा मिला। जो यूरोपीय देश पूरी तरहसे कम्यूनिस्ट नहीं हुए वहाँ उसीसे मिलताजुलता एक अन्य मृदु सिद्धान्त सोशलिज्मके नामसे प्रचलित हुआ।

इस पूरी पृष्ठभूमि में १९०० के बादके भारतको और भारतीय मानसिकताको समझना आवश्यक है।

अठारहवीं, उन्नीसवीं बीसवीं सदिमें जब यूरोपमें औद्योगिक क्रांतिके कारण आर्थिक प्रगति,, विज्ञानकी अन्वेषणाएँ, और साम्यवाद जैसे नये सिद्धान्तोंका उदय इत्यादि हो रहे थे वहीं अंगरेजी राज्य आनेके कारण भारतीय मानस एक अजीब सी कुंठामें घिरा हुआ था। पराजित मानसिकता पनप रही थी। उन्नीसवीं सदिमें यहाँके छोटे-बडे राज्योंने अंगरेजोंसे लडाइयाँ लडीं थीं और एक के बाद एक हार चुके थे।

सदियोंसे भारतकी विशेषता यह रही कि ग्रामीण भारतीय समाजका ढाँचा एक सरीखा और स्वयंपूर्ण था। गाँवोंके व्यवस्थापनमें ही शिक्षा प्रणाली अंतर्निहित थी। उसमें सैद्धान्तिक शिक्षा, समाजव्यवहारकी शिक्षा और कौशल्य शिक्षा तीनों समाविष्ट थीं। राजाओंने कभी इसे नहीं छेडा था। लेकिन अंगरेज कालमें यह पद्धती बिखरने लगी और उनकी लाई हुई नई शिक्षा प्रणाली व्यवहारमें आने लगी जिसपर अंगरेजोंकी राज्यव्यवस्थाकी आवश्यकताएँ और औद्योगिक क्रांतिकी छाप पडना अवश्यंभावी था। मशीनीकरणका तंत्र जब भारतमें लाया गया तो निश्‍चित रूपसे नये-नये कौशल्योंकी गरज बढती गई जो पुरानी शिक्षा पद्धतिसे नहीं सिखाये जा सकते थे -- मसलन रेलकी पटरियाँ बिछाना जो एक नितान्त नया कौशल्य था। मसलन अंगरेजी भाषषामें तारसंदेश भेज पाना जिसके लिये वह भाषाकौशल्य आवश्यक था। इन नये कौशल्योंको सीखनेकी गरजमें गांवोंके पुराने कौशल्य उन कारीगरोंसे छूटते चले गये।

कभी कभी कौशल्य छिपाना भी जीवित रहनेकी शर्त बन रही थी, अन्यथा अंगरेजोंके अत्याचार होते थे। उदाहरण में कुशल जुलाहोंकी उंगलियाँ काटी जाना या पारंपारिक पद्धतिसे शीतला माताके टीके लगानेवाले ब्राहमण, नाई व सुनार परिवारोंको जेलमें ठूँसना जैसी सजाएँ भी अंगरेजोंद्वारा दी जाती थीं।

अंगरेजोंके आरंभिक कालके कुछ मुख्य कार्यक्रम यों थे -- देशमें रेल डाकघरोंका जाल बिछाना, मिल्सकी स्थापना, विशेषकर कपडा और चीनीकी मिलें, वन्य उपजोंपर सरकारी कब्जा और लगानव्यवस्थाके अनुकूल शासनप्रणाली। इनके कारण सरकारी नौकरी रोजगारके द्वार भी खुलते दीख रहे थे। अंगरेजी शिक्षाप्राप्त होनेवालोंकी आभासी संपन्नता दीखने लगी थी।

एक ओर पराजयका सन्निकट इतिहास था और उसके साथ अंगरेजी शासनद्वारा की जानेवाली आर्थिक लूट थे। दूसरी ओर अंगरेजी भाषाका ज्ञान आवश्यक हो गया था और नये हुनर हासिल किये बगैर गरीबी जा नहीं सकती थी। मिल उत्पादोंके कारण ग्रामीण रोजगार कम होते जा रहे थे। ऐसेमें भारतीयोंकी मानसिकता बन गई कि जो अंगरेज करते हैं वहीं सही है और जो भारतीय करते हैं वह गलत है। विवेकानन्दने इसका विरोध डटकर किया। विवेकानन्द, आर्य समाज, तिलक द्वारा चलाये गये आयुर्वेद महाविद्यालय आदि कुछ गिने-चुने प्रयासही बचे रहे। अधिकांश भारतीयोंकी यही मान्यता रही कि अंगरेजी शिक्षा, पश्‍चिमी सभ्यता, पश्‍चिमकी विज्ञान-निष्ठा और वहाँके सैद्धान्तिक विचार अपनाये बिना उन्नति संभव नही है। जिसने उसे अपनाया, उसीका उत्कर्ष हुआ - उसे सामाजिक प्रतिष्ठा मान्यता मिलती रही - वही "सक्सेस स्टोरीज" बनी। जिन्होंने उसे नही अपनाया उन्हे कोई मानसम्मान मिले ऐसी व्यवस्था लाई गई, बल्कि कई बार तो उनकी प्रताडना हुई जैसा कि हम चेचकके वैक्सीनेशनके संबंधमें या आयुर्वेदके साथ देखते हैं। यहाँ तक कि संस्कृत व भारतीय दर्शनकी पढाई भी अंगरेज शिक्षकोंद्वारा और अंगरेजी भाषामेंही करनेका नियम बना। पारंपारिक संस्कृत विद्यालयके छात्र सरकारी नोकरीसे बाहर कर दिये गये।

तो १८५० में जबसे अंगरेजोंने अपनी नई शिक्षा प्रणाली लागू की तबसे यह तय हो गया कि अंगरेजी भाषा, पश्‍चिमी विचार, पश्‍चिमी विज्ञानको अपनाना और जिसे जिसे अंगरेजोंने अंधविश्‍वास बताया हो उसे त्यागना, यही उत्कर्षका रास्ता है। फिर लोक उसी राह पर बढने लगे। भारतीयताको छोडनाही गौरवान्वित होनेकी पहली सीढी बन गई थी। पश्चिमी विचारोंकी शिक्षामें जिस किसीने मार्क्सको पढा उसे यही लगना स्वाभाविक था कि गरीब, पीडित, साधनहीन भारतीय समाजकी उन्नतिके लिये कम्यूनिजम ही सही रास्ता है। पिछले दोसौ वर्षोंमें यही अवधारणा भारतमें दृढमूल होती गई, यद्यपि थोडा दूरस्थ होकर देखनेपर उसके विरोधाभास स्पष्ट हो जाते हैं।

कम्युनिज्मके सिद्धांतकी यूरोपीय पार्श्वभूमि और भारतीय स्थिति दोनोंमें बहुत अंतर है। भारतमें करीब १००० वर्ष पूर्व मुसलमान आक्रमणकारी आए। पहले वह केवल लूटमार करके जाते थे। अनंतर उन्होंने यहां राज्य आरंभ किया, धर्मांतरण भी किया। किंतु भारतकी ग्रामीण अर्थव्यवस्थामें कोई बदलाव नहीं किया। यह व्यवस्था कृषि और ग्रामीण कारीगरोंपर निर्भर थी। कोई भी -१० गांव मिलकर जो पंचक्रोशी बनती थी वह अपने आपमें उद्योग व्यवसायोंमें स्वयंपूर्ण एवं कौशल्यपूर्ण हुआ करती थी। प्रायः हर गांवमें शिक्षाकी सुविधा थी जहां लेखन वाचन गणितके साथ समाजव्यवहार कौशल्यकी शिक्षा भी दी जाती थी। सन १६०० तक भारत सोनेकी चिड़िया बना रहा। उत्तर-पश्चिममें इसका व्यापार पहाड़ी रास्तेसे और दक्षिण-पूर्वमें तथा दक्षिण-पश्चिम में इसका व्यापार समुद्री जहाजोंके मार्फत हुआ करता था।

अंग्रेज जब यहां आए तो मिल उत्पादोंको बाजार मिलनेकी गरजसे उन्होंने सबसे पहले यहांकी ग्रामीण अर्थव्यवस्थाको तोड़ दिया। कारीगरोंकी उंगलियां तोड़ना, मृत्युदंड देना, चाबुकसे पीटना और कई बार उन्हें कॉन्ट्रैक्ट लेबरके रूपमें दूसरे देशोंमें भेजना इत्यादि कार्य अंग्रेजोंने किये। किसानोंकी इच्छाके विरुद्ध उन्हें अफीम और नीलकी खेती करनेके लिए बाध्य किया गया। इस प्रकार हम देखते हैं कि यूरोपमें जो आर्थिक विषमता फैली उसके पीछे वहांकी औद्योगिक क्रांति एक बड़ा कारण थी। जबकि भारतीय दरिद्रता आर्थिक विषमता प्रायः अंगरेजी शासनका परिणाम थी। यहाँ पनपती जातिगत विषमता तथा असौहार्द भी अंगरेजी शासनकी कूटनीतिका परिणाम था। लेकिन जिन भारतीय विचारकोंने कम्युनिज्मको इसका उत्तर माना उन्होंने यूरोप और भारतकी स्थितिके इस अंतरके विषयमें कोई चिंतन किया हो ऐसा नहीं दिखाई पडता है।

यूरोपमें कम्यूनिजमकी यात्राको देखें तो वहाँ सैद्धान्तिक तौरपर आर्थिक विषमताके विरुद्ध सशस्त्र एवं हिंसक लड़ाईका समर्थन था परन्तु तरफ सत्ता पर आते ही उन्हीं पुराने मार्गोंके सहारे अन्य मतोंको कुचलना भी इस सिद्धांतमें शामिल हो गया। इसका उदाहरण है रशियामें स्टालिन और चीनमें माओ त्से तुंग जैसे डिक्टेटरोंका व्यवहार। हंगेरी, क्यूबा, उत्तरी कोरिया जैसे देशोंमें भी हम प्रायः यही व्यवहार देख सकते हैं। जिन यूरोपीय देशोंको कम्युनिज्म प्रणित हिंसाचारमें आपत्ति रही उन्होंने वापस डेमोक्रेसीके मूल्य और उसके साथ साथ सोशलिज्मका स्वीकार किया। इस प्रकार पश्चिममें डेमोक्रेसीको अपनानेवाले दो मतप्रवाह बने जिनमें अमेरिकाने पूरी तरहसे कैपिटलिजमको अपनाया जबकि कई यूरोपीय देशोंमें सोशलिज्म स्वीकृत हुआ।समें सभी नागरिकोंके लिए न्यूनतम आवश्यकताओंकी पूर्ति अर्थात रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य एवं सामाजिक सुरक्षा सरकारका उत्तरदायित्व बन जाता है।

आज पीछे मुडकर देखते हुए हम समझ पाते हैं कि कम्यूनिजमके आरंभिक यशलाभके बाद १९९० आते आते यूनियन ऑफ सोविएट सोशलिस्ट रिपब्लिक टूट कर वापस कई देशोंमें बिखर गया। चीनने भी डिक्टेटरशिपको कायम रखते हुए बड़े पैमानेपर कैपिटलिजमका मॉडेल अपनाया है। भारतमें स्वतंत्रता आंदोलनके समय कई धुरंधर कम्यूनिस्ट राजनेता हुए और स्वतंत्रताके बाद वे लोकतंत्रके तरीकेसे जीतकर कुछ राज्योंमें सरकार बनानेमें भी सफल रहे। लेकिन शीघ्रही जनताने जान लिया कि आर्थिक विपन्नतासे उभरते भारतके लिये क्रांतिकी अपेक्षा शांति और सुचारु उत्पादनव्यवस्थाकी आवश्यकता है। फिर जनताने स्वयं ही आंदोलन, उत्पादन-बंदी, हिंसाचार, नक्षलवाद जैसे सिद्धान्तोंको अस्वीकृत कर दिया।

कम्युनिज्मके विषयमें एक बातको अत्यंत स्पष्ट रूपसे समझना आवश्यक है। कम्युनिज्मके दो पहलू हैं। एक राजनीतिक सत्तासे जुड़ा हुआ है जहां विक्ट्री टू प्रोलिटेरिएटके नारेपर सत्तामें आना मुख्य लक्ष्य है। लेकिन दूसरा पहलू विचार प्रणालीसे संबंधित है। समता, बंधुता, सबके लिए रोटी कपड़ा मकान, आर्थिक विषमताको न्यून करना इत्यादि आदर्श हर समाजमें सबके लिए वांछित ही होते हैं। लेकिन इन्हें समाजमें स्थापित करनेका तरीका अलग अलग होता है। तरीका क्या हो यह अत्यंत विचारणीय है। भारतसहित सभी संस्कृतियोंमें कुछ सिद्धांत ऐसे थे जिन्हें अनुल्लंघनीय कहा गया था। ऐसे नियमोंका या नीतियोंका जितना गहन अध्ययन भारतमें हुआ उतना शायद ही किसी अन्य भूभागमें हुआ हो। लेकिन मोटे तौर पर सबके लिए स्वीकार्य पहला विचार था कि जो उन्नति किसी व्यक्तिने अपने परिश्रम और अपनी मेधासे प्राप्त की हो उसपर केवल उसीका अधिकार होगा अन्य किसीका नहीं। हालांकि हर मानव समुदायमें आत्यंतिक आर्थिक विषमताको अवांछनीय माना गया परन्तु इस बातको भी स्वीकारा गया कि दो अलग व्यक्तियोंकी प्रतिभा अलग होगी। उनके काम करनेका उत्साह, कौशल्य और ज्ञानस्तर भी अलग-अलग होंगे। तितिक्षा, त्याग समर्पण, मेघा इत्यादि व्यक्तिगत गुण भी अलग-अलग परिमाणमें होंगे। अतः प्रत्येक व्यक्तिका यशलाभ भी अलग अलग होगा और इस विषमताका सम्मान किया जाना चाहिए। कम्युनिज्ममें मूलतः इस सिद्धांतको अस्वीकार किया गया है। सबको एक स्तरपर लानेकी जिदमें प्रतिभा और परिश्रमसे प्राप्त संपत्तिको भी छीननेका अधिकार यदि लोगोंको दिया जाये तो परिश्रम कर पानेवाली जमात ही समाप्त हो जायगी।

यहां हम मार्क्सकी फिलॉसफी तथा गांधीजीकी फिलॉसफीमें तुलना कर सकते हैं। मार्क्स ने कहा एवरीवन मस्ट गेट एज पर हिज नीड जबकि गांधीजीने कहा कि देयर इज इनफ फॉर एवरीवन्स नीड बट नॉट फॉर एवरीवन्स ग्रीड। गांधीजी नीड और ग्रीडके अंतरको तथा ग्रीडकी अस्वीकार्यताको उजागर करते हैं। परंतु मार्क्सके सिद्धांतमें नीडको सर्वोपरि तो बता दिया लेकिन यह व्याख्या नहीं बताई की किसी व्यक्तिकी नीड को कैसे परिभाषित किया जाये और उसके हेतु कितने परिश्रमके अनिवार्य माना जाये। इसलिए ऐसा चित्र बनता है मानो प्रत्येक व्यक्ति स्वयंकी आवश्यकताके लिए जो भी निर्णय करें वही पानेका अधिकारी है और जहां यह अधिकार समाजमान्य व्यवहारोंसे पूरा नहीं होता हो वहां समाजनियमोंको तोडकर उसे छीन लेना अनुचित नहीं है। इस प्रकार हम देखते हैं कि कम्युनिजममें व्यक्तिगत परिश्रम, मेघा, प्रतिभा, त्याग, अभ्यास, प्रयास इत्यादिको महत्वहीन करार दे दिया है। इन गुणोंसे उत्पन्न किसी अन्यकी उपलब्धियोंको सशस्त्र संघर्ष द्वारा स्वयंके लिये हासिल करना अनुचित नही माना गया है।

इसी क्रममें कम्युनिज्मने धर्मको अफीमकी गोली बताते हुए कई ऐसे धर्म-नियमोंका तिरस्कार किया जो नियम सदियोंसे समाजको सुव्यवस्थित तथा समृद्ध बनानेमें यशस्वी थे। मानवी श्रद्धा जिसके साथ समर्पण, भक्ति, तितिक्षा, निरंतर प्रयास इत्यादि गुण स्वयं ही जुड़ जाते हैं उन सभी गुणोंको एक तरहसे कम्युनिज्मने नकार दिया है या अनावश्यक करार दिया है। यही कारण है कि समता, बंधुता, सबके लिये सुखका बराबर बँटवारा और आर्थिक विषमताका अंत इत्यादि सुंदर शब्दोंका प्रयोग एवं उद्देश्य रखते हुए भी इनकी प्राप्तिके लिए जिस मार्गकी अनुशंसा कम्युनिज्म करता है वह मार्ग व्यक्तिको और फलतः समाजको भी उन्नतिकी अपेक्षा अवनतिकी तरफ ढकेलता है।

जहां तक भारतकी बात है, वर्तमान भारतमें हमें एक नहीं वरन दो आभासी सफलता-प्रतीक दीखते हैं। पहला वह जो उपरोक्त कम्युनिज्मका उद्देश्य है। दूसरा आभासी यश है विज्ञानवाद एवं संपत्तिवादकी पराकाष्ठा। इस आभासी यशके कारण विज्ञानवादसे ऊपर उठकर जो श्रद्धा उपासना तत्व भारतीय दर्शनमें आवश्यक बताया गया या जिसका गहनतासे विचार किया गया उसे जाने अनजानेमें हम ठुकरा रहे हैं और यह संकट हमपर भारी पड़ने वाला है। ऐसे संकटोंकी चर्चा हम आगे करेंगे।

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