Sunday, July 18, 2021

उपसंहार भारतीय चरित्र- भविष्यकी झांकी

 उपसंहार 

भारतीय चरित्र- भविष्यकी झांकी

पिछले सारे विवेचनसे यह स्पष्ट है कि भारतका भविष्य वैसा ही बनेगा जैसा उसका चरित्र होगा।

मनुष्यके सहज स्वभाव पर जब संस्कारके पुट चढते हैं तब उसका चरित्र बनता है। यही बात व्यक्तिके लिए और समाज या राष्ट्रके लिए भी सही है। संस्कार करनेवालेको गुरु कहा गया है। प्रयत्नके बिना संस्कार नहीं होते।

चरित्रकी दो विशेषताएँ है - यह व्यक्तिके जीवनपर्यंत बना रहता हैं और संकट समयमें अधिक दृश्यमान या प्रकट हो जाता है। तभी इसकी सही पहचान होती है।

चरित्रकी पहचान गुणोंसे होती है। चरित्र निर्माणमें समय लगता है। वैदिककालसे समाज मनपर जो संस्कृति उकेरती चली गई, उसकी साक्ष्य हमारे ग्रंथोंमें प्रतिबिम्बित होकर अन्तत: हमतक पहुँची। उससे हमने भारतीय चरित्रमें उदात्त कहे गए गुणोंको जाना यथा स्वाध्याय, सत्यवादिता, ज्ञान, विज्ञान, विवेक, शौर्य, शक्ति, न्याय, कौशल्य, अस्तेय, अहिंसा, धर्म, समृद्धि, श्रद्धा, सौहार्द, मेधा, शांति, समता, यज्ञक्रियाएँ, नीति, तुष्टि, तप, दान, यशलाभ, श्री, कलासमृद्धि, सम्मान, संतोष, त्याग, अध्यपन, मैत्री, सौहार्द, उपासना, श्रद्धा, ज्ञान, विज्ञान, विवेक, मेधा, प्रज्ञा, कीर्ति, वाङ्मय-शुचिता प्रयोगशीलता, ब्रह्माण्डका वेध, निसर्गसे समन्वय, आतिथ्य, भ्रमणशीलता, पर्यावरणका रक्षण आदि। ये भारतीयताके लक्षण या परिचायक कहे जा सकते हैं। इनसे भी महत्वपूर्ण और एक लक्षण है - अनुभवसिद्धता तथा अनुभूति-प्रामाण्य

भारतमें ऋषि-कृषि संस्कृति फली फूली। अर्थात अध्ययन- अन्वेषणाका कार्य और अन्न उपजानेका कार्यअध्ययन हेतु सत्यके प्रभावको स्वीकारना सत्यको अपनाना आवश्यक है और कृषि हेतु अस्तेय- ताकि तीन- चार महीनोंकी मेहनतसे उपजी फसल कोई चोरी ना करे। सत्य व अस्तेयके अलावा भारतीय समाजकी अन्य कई मान्यताओंको हम पहले समझ चुके हैं।

पहले ही अध्यायमें हमने विचारा कि भारतीय संस्कृति तथा भारत राष्ट्रको चिरंतन एवं समृद्ध बनाये रखनेमें श्रद्धाका कितना योगदान था। इतने सारे उहापोहके पश्चात् हम निश्चयात्मक रूपसे प्रतिपादन कर सकते हैं कि श्रद्धाके विना राष्ट्र चिरंतनतासे नही टिक सकता।

अतः विचारणीय है कि किन किन श्रद्धाओंको बचाना है। यहाँ हम उन विषयोंकी चर्चा करेंगे जिनपरसे हमारी श्रद्धा समाप्तीकी कगार पर है और इससे भविष्यमें क्या हानियाँ हैं। खण्ड चारमें विशेषरूपसे संकटचर्चा है। संस्कारितापर संकट, सेक्यूलरताका संकट, इतिहासबोधके ध्वंस होनेका, भाषाई प्रभुसत्ताकी समाप्तिका, नारीशक्तिपर आघातका, अर्थकारणके दुश्चक्रका, भौण्डापनका, परिवार संस्थाका संकट – कुल मिलाकर भारतीय इकोसिस्टम पर ही संकट हैं। भविष्यकालीन नीतिके हेतु एक समग्र सूची कर सकते हैं।



) आत्मग्लानि व आत्मकुंठा के कारण हम अज्ञानमें हैं - हमारे शास्त्र पढे-पढाये नहीं जाते। परंतु अंधश्रद्ध, अवैज्ञानिक, भेदभावयुक्त, अघोरी, अनपढ, नेटिव, जाहिल, अनाधुनिक इत्यादि शब्दोंद्वारा भारतीय संस्कृतिके समर्थकोंका मनोबल तोडनेके प्रयास जारी रहता है। अज्ञान आत्मकुंठा एक दूसरेको और भी दृढ करते हैं- इन्हें विशेष प्रयासोंसे ही निरस्त करना होगा।

) एक भ्रष्ट नीतिके अंतर्गत भारतके लोगोंको अपनी भाषासे दूर करते हुए उन्हें अंगरेजी-शरणताकी ओर मोडा जा रहा है और उनकी अंगरेजी शिक्षा-दीक्षाके बहाने अरबों-खरबों रुपयोंका व्यापार देशमें पनप रहा है। सभी सरकारें इस व्यापारसे लाभान्वित होनेके कारण राष्ट्र, देशी भाषाएं, और संस्कृतिपर छाये संकटको कोई देखना नही चाहता।

) वैश्विक अर्थकारण आसुरीशक्तिसे संपन्न है और उसका फांस हम पर है। यह पर्यावरण भक्षक एवं चरित्र भक्षक अर्थव्यवस्था है। इसके बातको जब तक हम लोगोंमें स्पष्ट नहीं करते तब तक उससे बचना संभव नहीं है। इसे हमने पिछले अध्यायमें विस्तारसे समझ लिया है।

) स्वर्गका संकट - यह मान्यता है कि अमेरिका स्वर्ग है और भारत स्वर्ग नहीं है। अतः उस स्वर्गमें जानेके लिए आतुर जनता अंग्रेजीकी तरफ और पश्चिमी शास्त्रोंकी तरफ मुड़ गई है। पहले लोग पढने के लिये भारत आते थे- गणित, भूगोल, खगोल, संगीत, धर्म, शस्त्रविद्या, व्यापार, नीति, समाज व्यवस्थापन, आदि। आज सारे भारतीय विश्वविद्यालयके लिये पश्चिमी यूनिवर्सिटीजका संरक्षण व सर्टिफिकेट और उन्हींका सिलेबस अनिवार्य हो गया है। केम्ब्रिज स्कूल इत्यादि की भारतीय ब्रांचें भी एक तरहसे स्वर्गकी लालच देकर भारतीयताको तोडनेका ही माध्यम हैं। इसमें एक ओर भारतीय शिक्षासंस्थाओंकी धनलालसा है तो दूसरी ओर कुछ श्रेष्ठ परंपरा निर्माण करनेकी क्षमताका अभाव भी है।

) कई बार विदेशी व्यक्ति या संस्थाएँ हमारी धार्मिक संस्थाएँ भी अपने अधीन कर रहे हैं यथा - अय्यंगार योग स्कूल, ब्रह्माकुमारी, कैवल्यधाम।

) देशमें इस्रो एवं डीआरडीओ इन दो संस्थाओंको छोडें तो अन्यत्र रिसर्चकी सुविधाएँ लगभग शून्य हैं।उद्यमिता कमजोर है क्योंकि कौशल्यशिक्षा पर हमने ध्यान नही दिया। अस्वच्छता, करप्शन तथा सरकारी ढिलाई भी उद्यमिताको हतोत्साह करती है।

) भारतीयताको तोड़नेमें भोगवादी फलसफा जो कम्युनिज्मका आधुनिक रूप है, उसका बहुत बड़ा हाथ है। वह पूरी तरहसे विवाह परंपरा, परिवार, बच्चोंकी देखभाल इत्यादिको रिडंडेंट बता रहे हैं। हालमें ही कर्नाटक उच्च न्यायालयमें दाखिल हुई एक याचिकामें आग्रह किया है कि परिवार संस्थाको अनावश्यक या गैरकानूनी घोषित किया जाये – लिव्ह-इन को कानूनी मान्यता हो और बच्चोंको गोद लेकर पालनेका कार्य सरकार अंगीकार करे।

) हमारे मंदिर श्रद्धास्थल जागृत देवास्थान स्थापत्य शिल्प कलाके अद्भूत नमूने तथा शिक्षास्थल रह चुके हैं। कालगणनाके लिये हमारी पुरातनताके बडे ऐतिहासिक साक्ष्य हैं। पूर्वकालीन अखण्ड भारतका जो भूप्रदेश भारतसे बाहर हो गया है उसमें इन कालगणनाके तंत्रोंको जाने बिना केवल घृणाके आधारपर मंदिरोंको मिटाया जा रहा है। यही काम बडी मात्रामें देशमें भी हो रहा है।

) हमारा पर्यावरण, नदियाँ, पर्वत, bio-diversity आदि भी आर्थिक लालसाके कारण खनन माफिया द्वारा ध्वस्त हो रहे हैं। उन्हें बचानेमें सरकारी तंत्र अपर्याप्त है। जब स्थानीय जनतामें भी उनके प्रति श्रद्धाका भाव अपर्याप्त हो तो इन प्राकृतिक संपदाओंको स्थानीय जनगणका संरक्षण नही मिलता है।

१०) हमारी भाषाओंका उन्नयन नहीं हो पा रहा, क्योंकि आधुनिक विज्ञानके शास्त्र-ग्रंथ हमारी भाषाओंमें नहीं लिखे जा रहे। इस कारण हमारी भाषाएं शीघ्र लोपकी स्थितिमें हैं।

११) समाजमें अपप्रवृत्तियोंका महिमामंडन हो रहा है। सिनेमा, टीवी सीरियल, एवं सोशल मीडिया भी बुरे चरित्रको प्रमोट कर रहे हैं। गालियां देना, बुजुर्गोंका अनादर, शराब, जुआ और नशेके लिए सम्माननीयता इत्यादि प्रमोट किए जा रहे हैं। इनके विपरीत अच्छे आदर्श दिखानेवाले चरित्रोंका फिल्मांकन नही होता।

१२) धर्म परिवर्तनका वेग – गरीबी, हिंदूओंद्वारा विभेदकी भावनाको न मिटा पाना, दबावतंत्र, लवजिहाद इत्यादिके कारण यह वेग बढ रहा है। इसे रोकनेमें जागरूक नागरिकोंकी क्षमता कम पड रही है।

१३) विश्वकी लोकसंख्याके अनुपातमें हिंदू लोकसंख्याका घटना अतीव बडा संकट है। जो भी जनसंख्या है उसमें शौर्य व बलोपासना शून्यवत् है - आत्मकुंठा बढनेका यह भी बडा कारण है।

कुल मिलाकर संकट हमारी भाषाएँ, दर्शन, शास्त्र, हमारी परंपरा इत्यादि पर है जिन्हें अंधश्रद्धा, गँवारपन और अवैज्ञानिक कहा जाता है।

हम इसका प्रतिवाद नही कर सकते क्योंकि क) शिक्षाप्रणालीमें हमें अपने शास्त्रोंके ज्ञानसे दूर रखा गया है। ख) अमरीका नामक स्वर्गमें जानेको आतुर होनेके कारण हम शिक्षाप्रणालीमें सुधार नही माँगते। ग) भारत स्वर्ग नही बन सकता जबतक यहाँ रिसर्चका अभाव, छोटे छोटे पिनप्रिक्स, औद्योगिक केंद्रीकरण, करप्शन एवं प्रदूषण-(अन्न-जल-दूध-खेती-हवा-ध्वनि) ये चार दोष विद्यमान हैं। ) ऊपर जो उदात्त गुण बताये उन्हें संस्कारमें ढालनेका काम आजकी शिक्षाप्रणालीमें नही हो सकता क्योंकि यह शिक्षाप्रणाली उस हेतु बनी ही नही है।

आज हमारे सामने इस्राइलका उदाहरण है। यह एक ऐसा समाज है जो खदेेेेडा जाकर व बिखरकर जगभरमें आश्रयके लिये पहुँचा। जहाँ गया वहाँकी भाषा और संस्कृतिको अपनानेके लिये मजबूर हुआ लेकिन अपनी भाषाको जीवित रखा। आधुनिकताको नही ठुकराया लेकिन अपनी परंपराओंको भी नही छोडा। इसीसे आज हजारों वर्षोंके बाद भी उनकी प्रथाओंको कोई दकियानूसी नही कह पाता। अपनी परंपराओंपर अटूट श्रद्धा ही उन्हें एकत्रित लाकर एक राष्ट्रके रूपमें फिरसे बसा सकी। आज उन्हें पक्का पता है कि संस्कृतिको क्यों और कैसे टिकाया जाता है। उसके लिये लडाइयाँ भी लडनी पडें, तो वह सही है।

हमें भी समझना पडेगा कि अपनी संस्कृतिमें अनिष्टसे अन्य जो कुछ भी है वह अपना है। उसकी रक्षा करनी ही पडेगी। कुछ अनिष्ट बातें संस्कृतिमें आ भी गई हों, परन्तु संस्कृतिको नकार देनेसे हम उससे विभक्त नही हो जाते हैं, उलटा हम दूसरोंकी संस्कृतिके गुलाम बनते चलते हैं। इसलिये नकारना नही वरन स्वीकार व सुधार ही इसका उपाय है।

अन्तमें ऋग्वेदकी ऋचाकी भाँति हमें भी श्रद्धासे प्रार्थना करनी होगी कि - राष्ट्रमें, सत्यमें, अस्तेयमें, मेधा-अन्वेषणामें, बलोपासना व शौर्यमें, नारीसम्मानमें, गुरुपरंपरामें वह हमारी श्रद्धा बढाये। सत्य-शिव-सुंदरकी ओर हमारी यात्रा चलती रहे।

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