Sunday, July 18, 2021

अध्याय १६ राष्ट्रचेतना

 

अध्याय १६

राष्ट्रचेतना

आधुनिक विज्ञान भी इसे मानता है कि पशु-पक्षी-कीट और मनुष्य प्राणिमें भी समूहात्मक बुद्धि होती है। इसे कलेक्टिव्ह कान्शन्स कहा जाता है। ऐसा समझा जाता है कि उस उस समूहने हजारों सदियोंतक जो सुख-दुख या संकट झेले हैं वह अगली सैकडों पीढियोंतक उनका साझा जन्मजात ज्ञान बन जाता है। भविष्यमें आनेवाले उसी प्रकारके संकटों या दुखोंसे बचनेहेतु या सुख बटोरनेहेतु यही ज्ञान उनका संबल बनता है।

हमारे प्राचीन ऋषिमुनि जो इस प्रक्रियाके मर्मको समझ गये थे उन्होंने इसे राष्ट्रचेतनाका नाम दिया। ऐसा लगता है मानों इस विषयमें उनकी पहुँच आधुनिक विज्ञानसे कहीं अधिक थी। क्योंकि उन्होंने उन तंत्रों अथवा प्रणालियोंको भी समझा जिनके माध्यमसे राष्ट्रचेतनाको तीव्र गतिसे ऊँचे आयामोंतक ले जाना संभव था। उन प्रणालियोंको ही संस्कार कहा गया है। हमारा समाज सुसंस्कारित हो इसके निरंतर प्रयास पूर्वजोंने किये। सैकडों श्लोकोंके माध्यमसे हमें पूर्वजोंकी प्राथमिकताका बोध होता है कि वे कैसा समाज, कैसे संस्कार और कैसे उपाय चाहते और आचरणमें लाते थे।

राष्ट्र क्या है, राष्ट्रचेतना क्या है, भारतीय राष्ट्रचेतनामें लक्षित संस्कार क्या थे? यहाँ मैं क्रमशः ऐसे कुछ श्लोकोंका उदाहरण रखूँगी जिनका उपयोग पूर्वकालमें भारतराष्ट्रकी चेतना बनानेमें और व्याख्यायित करनेमें हुआ है।

लेकिन पहले ये समझते है कि भारतदेश क्या है। वर्तमानमें यह लगभग १४० करोड जैसी प्रचंड जनशक्ति रखनेवाला लगभग ३३ लाख वर्ग किलोमीटरमें फैला हुआ भूभाग है जो सप्त महापर्वत और सप्त महानदियोंसे अलंकृत है। विश्वकी सर्वाधिक जनसंख्या रखनेवाला चीन हमसे केवल १० करोडसे आगे है और विश्वमें तिसरा स्थान रखनेवाले अमेरिकाकी जनसंख्या ३५ करोड अर्थात हमसे एक चौथाई ही है। पूरे विश्वमें ९७ भाषाओंकी जनसंख्या करोडसे अधिक है और इनमेंसे १६ भाषाएँ भारतकी हैं। बोलियाँ, स्थानीय ज्ञानसंग्रहका आधार हैं, उनकी संख्या भारतमें ५००० से अधिक है। विश्वकी सर्वाधिक वनस्पति प्रजातियाँ और प्राणी प्रजातियाँ हमारे देश में है। सर्वाधिक सौर ऊर्जा प्राप्त करनेवाला हमारा ही देश है।

एक देश को, उसकी जनसंख्याको जब पुरुषार्थसे ज्ञान और बौद्धिक विकासकी प्राप्ती होती है, तब देशकी संज्ञासे आगे राष्ट्रकी संज्ञाकी ओर यात्राका आरंभ होता है। जब ज्ञान एवं संस्कार साझे किये जाते हैं, साझा पुरुषार्थ होता है, तब राष्ट्र बनता है। राजते इति राष्ट्रः अर्थात् जो हर प्रकारसे शोभायमान है, प्रभामय है, वैभवशाली है, वह देश राष्ट्र है। ऐसा राष्ट्र सर्वदा समष्टिगत (साझेदारीसे प्राप्त) एवं पुरुषार्थसिद्ध ही रहेगा।

हमारे समष्टिगत संस्कार -यज्ञ, सत्य, साझेदारी, निर्मत्सर, संतोष, कृतज्ञता, शौर्य, वर्णाश्रम, मातृशक्तिका समादर, प्रकृतिरक्षण आदि हैं।

ज्ञानी व्यक्ति विचारते हैं कि हमें अपनी भावी पीढीयाँ कैसी चाहियें - उनके अस्तित्वका अधिष्ठान क्या हो? फिर वैसी व्यवस्था बनानेके लिये जो साझा पुरुषार्थ प्रकट होता है उसे राष्ट्रचेतना कहते हैं। हमारे मनीषियोंने चार पुरुषार्थ बताये -- धर्म अर्थ काम मोक्ष। ये वैयक्तिक और राष्ट्रीय, दोनों स्तरोंपर हैं।

यह स्फटिकमणिके समान स्वच्छ है कि किसी देशमें ज्ञानका विस्तार और उसकी साझेदारी जिस प्रकार अग्रेसर होगी उसी प्रकार उसकी राष्ट्रचेतना होगी।

पुष्पांजलीके मंत्रमें कहा गया है -- यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः तानि धर्माणि प्रथमानि आसन् ।।

अर्थात् जो सबसे पहली श्रेणीके धर्म हैं वे हैं यज्ञद्वारा यज्ञका यजन करना -- पूजा करना । यह यज्ञ एक टीमवर्क है। समष्टिकी खातिर समष्टिद्वारा मिलकर किये गये कार्य ही यज्ञ हैं जिनके करनेसे देवतागण देवत्वको प्राप्त हुए। वही राष्ट्रनिर्माणका मंत्र है। इस सामूहिक मेलजोलकी भावनाको बनाये रखना हमारे राष्ट्रकी विशेषता है। वही पहला धर्म है।

कोई कह सकता है कि हमें तो आजके भारतमें मतभिन्नता ही अधिकतासे दीखती है। वे इसलिये गलत हैं कि उन्होंने यहाँकी मतैक्यताको समझनेका प्रयास ही नही किया है। मैं इसे ऐसे समझती हूं मान लो पर्वतशिखरपर चढने कुछ पर्वतारोहियोंकी टीम जा रही है। हरेकके पास अपनी रस्सी, अपने अपने पत्थरमें गाडनेवाले हूक्स, हथोडे इत्यादि हैं। सब एकदूसरेसे बतियाते,, एकदूसरेका धैर्य बढाते लेकिन अपने अपने हुक्स ठोंकते हुए अपनी अपनी रस्सीपर ऊपरकी ओर जा रहे हैं। तो जो दूरसे उनकी ऐक्यभावनाको नही देख सकेगा वह यही कहेगा कि इनके तो रास्ते अलग अलग हैं। लेकिन जो टीमसदस्य हैं वे अपनी एकात्मताको जानते हैं।

हमारी दृश्य मतभिन्नतापर तुलसीदासजीका एक वर्णन लागू पडता है -- सागर लहर समाना अर्थात मतभिन्नता बस इतनी छोटेे स्तरपर है और वैसी ही रहनी चाहिये -- भले ही वह निरंतर हो- आनीजानी हो।

ज्ञानका आदिमूल है सत् और असत् को जानना। उस परमात्माके अस्तित्वका बोध जो सृष्टिके पहले भी था, सृष्टिके दौरान भी होगा और सृष्टिके लयके बाद भी होगा, वह सत् है और प्रकारान्तरसे वही सत्य है। असत् का अर्थ है वह बोध होना। तो अबोधतासे बोधकी ओर, असत्य से सत्य की ओर, अज्ञानके अंधेरेसे प्रकाशकी ओर ले चलनेकी प्रार्थना हम करते हैं। इसी क्रममें ज्ञानके प्रकाशसे हम अमृतकी ओर चलते है जो शांतिदायक भी है।

ॐ असतो मा सद्गमय । तमसो मा ज्योतिर्गमय । मृत्योर्मा अमृतं गमय ।। ॐ शांतिः शांतिः शांतिः।

यह प्रार्थना जो भारतकी सांस्कृतिक चेतना की परिचायक है यह सहस्त्रों वर्ष पुरातन है, सनातन है। सत्य, ज्ञान अमृतत्वकी अन्वेषणा ही भारतराष्ट्रकी पहचान अधिष्ठान है और इस पहचानकी अनुभूति ही राष्ट्रचेतना है। इस अन्वेषणामें साझेदारी या टीमवर्कका बडा ही महत्व है।

जब हम भारतदेशसे अलग भारतराष्ट्रकी बात करते है तो क्यों? क्या अंतर है दोनों में? यह जो चेतना है, ज्ञानकी व सत्यकी अन्वेषणासे उत्पन्न होनेवाली यह चेतना जब जनजीवनकी साझा अन्वेषणा बनती है तब देशसे राष्ट्रका निर्माण होता है।

ऐसा राष्ट्र हमारे देशमें सहस्त्रों वर्षपूर्व उदित हुआ। वह सत्य व ज्ञानकी पिपासा, वह खोज, जो इस प्रार्थनामें एक व्यक्तिकी थी, वह जब संपूर्ण जनगणकी अन्वेषणाका विषय बनी, तब राष्ट्र उदय हुआ। लेकिन यह प्रवास सरल नही था। व्यक्ति समष्टि दोनोंकी अन्वेषणा सत्य और ज्ञानके साथ जुडे इसके लिये कई अनिवार्यताएँ होती हैं। इसका पहला तत्व है साझेदारीका। इसीकारण हमारी यह प्रार्थना सहनाववतु कहती है आओ, हम दोनों साथसाथ खायें, साथसाथ उपभोग लें, साथ रहकर अपना शौर्य और वीरता दिखायें, बुलन्दियोंको छुएँ और सबसे महत्वपूर्ण कि यह करते हुए हमारे मनमें एक दूसरेका विद्वेष उत्पन्न हो।

कितनी कठिन शर्त है यह। जब भी दो क्षमतावान व्यक्ति किसी ध्येयको पहुँच रहे होते हैं, तो उनमें आगे-पीछे, उन्नीस-बीस होना अत्यंत स्वाभाविक है। ऐसी स्थितिमें दूसरा व्यक्ति मुझसे आगे निकल जाये और फिर भी मेरे मनमें जलन, ईर्ष्या, मत्सर, कुढन, या विद्वेष उत्पन्न ना हो ! यह तभी संभव है जब तीन तत्वोंका अभ्यास मुझे हो। पहला कि मुझमें सत्ता लालसा हो। दूसरा मुझे सर्वदा भान रहे कि मैं समष्टिकी ध्येयपूर्ती के लिये समर्पित हूँ। तिसरा कि मैं अपने आप में इतना संतोषी रहूँ कि दूसरेके यशसे मुझे ईर्ष्या-विद्वेष हो, वरन् प्रसन्नता हो। यही है राष्ट्रचेतनाका चरित्र। संतुष्टः सततं योगी।

यह समष्टिभाव जागृत हो सके इसके लिये हमारे मनीषयोंने कई पथ्यापथ्य बताये। इनमेंसे एक पथ्य है कृतज्ञताके साथ आदरकी भावना जिसमें माता, पिता, आचार्य, अतिथी तथा राष्ट्रको सदैव देवतारूप बताया गया। इनका सम्मान करेंगे तभी पूरे राष्ट्रका विकास होगा। यहॉं अतिथी देवो भव एवं राष्ट्रदेवो भवका विशेष चिंतन आवश्यक है

गुरु महिमाको हमारे मनीषियोंने अति प्राचीन कालसे ही जाना था। गुरुमें ही हमारे ब्रम्हा-विष्णु-महेश वास करते है। सद्गुरु ही हमें अमृतकी राह दिखा सकता है क्यों कि वह अमृतयात्रा अनुभूतिजन्य यात्रा है जिसके साक्षात्कारके गुर बताने हेतु गुरु आवश्यक है।

गुरुद्वारा दिये गये ऐसे ज्ञानको अधोक्षज ज्ञानकी संज्ञा है। यह श्रद्धाके बिना प्राप्त नही हो सकता।

राष्ट्र उत्थानकी दिशामें सबका योगदान भी होता है और सबका उत्थान भी। लेकिन जहॉं नवनिर्माणके लिये सत्यके ज्ञानकी आवश्यकता है, वही संरक्षण हेतु दो आवश्यकताएं हैं - अचौर्य एवं शौर्य। अचौर्य अर्थात अस्तेयका बोध दिलानेहेतु हमारे प्रथम उपनिषत् की प्रथम पंक्तियाँ हैं -- ईशावास्यमिदं सर्वं.... चराचरको ईश्वरने व्याप्त कर रखा है। उसमें वह वास करता है। तुम उसे भोगो, उसका उपभोग करो -- भुञ्जीथः। लेकिन कैसे? अपने परिश्रमसे। दूसरेके धनको मत ग्रहण करो। क्योंकि उपभोगके लिए जो परिश्रम तुमने किया वही तुम्हारा ईश्वरसे साक्षात्कार भी करवायेगा। उस परिश्रमके बिना, कोई साक्षात्कार संभव नही है। वह परिश्रम और वह कौशल्य है तभी योग है, तभी साक्षात्कार है।

इसी उपनिषदमें आगे शौर्यके संबंधमें एक श्लोकमें असंभूति या विनाशी तत्त्वकी बात आती है --

अन्धं तमः प्रविशन्ति ये असंभूतिं उपासते।

जो समाज असंभूति अर्थात चोरी, डकैती, लूट आदि रास्तेपर चलता है वह घोर अंधःकारमें घिरता है, क्योंकि वहां हर क्षण भय बना रहता है कि मेरी उपलब्धियोंको कोई लूट लेगा। तो मैं उपलब्धिमें लगी रहूँ या मैं भी लुटेरोंकी टोलीका भाग बनूँ? अगली पंक्ति कहती है --

ततो भूय इव ते तमो य ऊ संभूत्यां रताः

--जो केवल सृजनमें या सज्जनतामें लगे रहते हैं और आवश्यकता होनेपर शौर्य प्रकट नही करते वे उससे भी घोर अंधःकारमें गिरते हैं।

सृजन करना और शौर्यके माध्यमसे उसकी रक्षा करना, रक्षाहेतु आवश्यक होनेपर दुष्टोंका विनाश करना -- ये दोनें ही गुण जिस समाजमें होंगे वही समाज असंभूति अर्थात दुष्टोंका विनाश करते हुए संभूतिकी राह चलेगा। वह स्वयं असंभूतिमें नही डूबेगा लेकिन यदि कहीं असंभूति गहरा रही है तो वह असावधान भी मही रहेगा - सदैव जागरूकता, सदैव सावधानता, और आवश्यक होनेपर शौर्यप्रकटनसे ही संभूति और असंभूतिके बीच संतुलन बना रहेगा। ऐसे समाजको अमृत अर्थात ऐश्वर्य प्राप्त होगा।

ऐसी संभूति व असंभूति पानेके लिए उठो, जागो। वरं क्या है, श्रेष्ठ क्या है, उसे जानो और उसे पानेके लिये श्रम भी करो। लेकिन वह क्षुरस्य धारा है – तलवारकी धारपर चलनेके समान हे, कठिन है वह रास्ता। लेकिन राष्ट्रभावना है तो उसी कठिन पथपर चलना है।

हमारे मनीषीयोंने राष्ट्रपुरुषकी एक उदात्त कल्पना की है। अन्वेषणा, सरंक्षण, समृध्दि और गति ये चार अंग हैं राष्ट्रपुरुषके। समाजमें जो मेधाका धनि है उसे अन्वेषणा, अध्ययन अध्यापनका काम देकर कहा गया कि आपको अपरिग्रह रखना है अर्थात् भोगोंका त्याग। हमारे ऋषियोंने इस बातको समझा कि अन्वेषणाके लिये आवश्यक तीव्र मेधा रखनेवाला सहस्रोंमें एक ही होता है। ऐसा व्यक्ति यदि धनसंचय और भोगमें प्रवृत्त हो जाये तो उसका ज्ञान समष्टि उपयोगी नही रहेगा, वह राष्ट्रोत्थानसे पहले अपने धनकी सोचेगा। ज्ञान मेधा रखते हुए भी अपरिग्रही होना उस छुरेकी धारपर चलने जैसा है। इस व्रतको असिधाराव्रत कहा गया है।

जो समाजका संरक्षण करता है उसे हमारे मनीषियोंने सत्ताका अधिकार दण्ड देनेका अधिकार दिया। लेकिन बहुत बडा भार भी दिया -- न्याय करनेका और प्रजाके हर नागरिकको खुश रखनेका। रामराज्यका वर्णन करते हुए रामका कथन है कि एक भी नागरिक दुखी हो और अन्यायग्रस्त हो तो राजाको अपना पद त्याग देना चाहिये। यह असिधाराव्रत है।

जो उत्तम व्यवस्थापन अर्थात पाचनसे पोषण कर सके वह राष्ट्रपुरुषका उदर है और समष्टिका वैश्य है। वह कृषि, गोपालन और व्यापार करे औऱ इस प्रकार राष्ट्रको समृद्ध करे। अपने व्यापारमें हर प्रयत्नसे प्रमाण व प्रामाणिकता को ही प्रश्रय दे। उसपर एक उत्तरदायित्व और है कि हर स्थितिमें वह अपरिग्रही ब्राम्हणके योगक्षेमकी व्यवस्था अपनी ओरसे बिना अपेक्षा करता रहे। इस प्रकार असिधाराव्रत उसके लिये भी है।

इन तीनों समूहोंके कार्योंको सुचारूरूपसे चलानेमें जो जो सहायक है वही राष्ट्रपुरुषको गति देते हैं। मेधा, शौर्य या व्यवस्थापन के गुण हर व्यक्तिमें नही हो सकते। परन्तु बडी जनसंख्याकी विभिन्न बडी जरूरतोंकी पूर्ति हेतु उत्पादनकी बहुलता आवश्यक है। सामान्य गुणवाले भी कुशल कारीगरी सीखकर उतापादन बढानेमें हर प्रकारका सहयोग देते हैं। वे अपनी कला व कौशल्यको निखारें यही उनका असिधाराव्रत है।

इस प्रकार जिसके पास जो गुण है उसीके माध्यमसे वह ऊँचाईतक पहुँचे और असिधाराव्रत निभाते हुए एक दूसरेके सामंजस्यसे अपना पुरुषार्थ प्रकट करे और राष्ट्रपुरुषको वैभवशाली बनाये।

एक साक्षात्कारकी कथा हमारे भृगूपनिषत् में आती है। अपने पिता गुरुसे मार्गदर्शित भृगुने ब्रह्म जाननेके हेतू तपस्या की और जाना कि अन्न ब्रह्म है। फिर क्रमशः अपने तपको अधिकाधिक बढाते हुए जाना कि प्राण ब्रह्म है, मन ब्रह्म है, विज्ञान ब्रह्म है और आनन्द ब्रह्म है। यह आनन्द ब्रह्म समाजके हर व्यक्तितक पहुँचाना है।

तब भृगुने समाजका प्रबोधन किया अन्नं निंद्यात्, परिचक्षीत। अन्नं बहु कुर्यात्, बहु प्राप्नुयात्। कञ्चनवसतौ प्रत्याचक्षीत। अर्थात् अन्नकी निंदा अथवा बरबादी मत करो। बहुत अन्न उपजाओ, उसका अच्छा भंडारण करो। और घरमें आया कोई भी व्यक्ति भरपेट भोजनसे विमुख ना रहे इसका ध्यान रखो। इस प्रकार समाजके प्रत्येक व्यक्तिका भरण पोषण होनेसे उनके शरीरकी रक्षा, पर्यावरणकी शुद्धतासे प्राणोंकी रक्षा, अंतःशुद्धिसे मनकी रक्षा, विवेकयुक्त बुद्धिसे विज्ञानकी रक्षा होती रहे तो मनुष्य और समाज स्थैर्य, समृद्धि आनन्दको प्राप्त होते हैं।

समाज या देश बनता है उसके नागरिकोंसे और यह आवश्यक नही कि हर नागरिक असिधाराव्रतका पालन करे। समाजमें ऐसे भी व्यक्ति होंगे जो स्वयंको समष्टिसे ऊपर माने। यदि उनके पास ज्ञान है या बल है या धन है तो उसका प्रयोग उनके स्वयंके उपभोगके लिये करना चाहेंगे। ऐसे व्यक्ति उन्नतिकी ओर बढते हुए शीघ्रही सत्ताकी ओर चलेंगे। इस पूरी श्रृंखलाको आसुरी संपत्ति कहा गया है। दैवी संपदाकी रक्षा और आसुरी प्रवृत्तिका विनाश वारंवार होता रहा तो राष्ट्रचेतना अविरल रहेगी। इसके हेतु ही पुरुषार्थपूर्वक असिधाराव्रत निभानेके लिये हमारे मनीषियोंने कहा उत्तिष्ठत, जाग्रत

ऐसे व्रतीजनोंके संबलस्वरूप जगदंबाका आवाहन किया गया है। इस विश्वको चलानेवाली विभिन्न आयामोंमें प्रकट होनेवाली वरदायिनी देवीका महत्व राष्ट्रचेतनामें कैसे अलक्षित रह सकता है? वह जो देवी है, जो विष्णुमाया है, वही हमें अपने चारों ओर दृग्गोचर हो रही है। यह सारा उसीका प्रकटन है। वह पूरी सृष्टिमें और चेतनामें अलग अलग रुपोंमे संस्थित है और प्रकट होती रहती है। कभी वह विद्या है तो कभी क्षुधा, कभी निद्रा है, तो कभी तुष्टि, कभी कीर्ति है तो कभी लक्ष्मी, कभी दया है तो कभी बुद्धि, कभी तृष्णा है तो कभी स्वधा (आपूर्ति), कभी तृप्ति है तो कभी शांति। यों कहे कि राष्ट्रवैभवमें जिन गुणोंकी आवश्यकता है वे सारे जगदंबाके ही प्रकटन हैं और उस जगदम्बाको उपासनासे जानना ही राष्ट्रचेतना है।

जब यह भारतराष्ट्र विराजेगा तब वह सर्वोच्च प्रार्थना भी सिद्ध होगी - सर्वे भवन्तु सुखिनः। सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु। मा कश्चित् दुःखभाग्भवेत् ।। इस प्रार्थनाके माध्यमसे भारतीय मनीषियोंने कामना करी है एक सर्वमान्य और सबके हृदयंगम प्रणालीकी जो चिरंतन और शाश्वत रूपसे सबके उत्थानका कारण बने। सबको मोक्षदायी हो।

आज आवश्यकता इस बातकी है कि इन संकल्पनाओंको हम फिरसे समझें। हम जानें कि भारतराष्ट्रका अधिष्ठान क्या है। किस प्रकारका समाज हम अपने लिये, अपने बच्चोंके लिये, उनकी कई एक अगली पीढियोंके लिये चाहते हैं? उसके निर्माणहेतु हमारे लिये नियत असिधाराव्रत क्या है और जिस आत्मबलके आधारसे हम उसे निभा सकते हैं उस आत्मबलको, उस पुरुषार्थको हम कैसे प्राप्त करें। यहाँ हमने राष्ट्रतेजकी वृद्धि कर सकें ऐसे कुछ नियमोंकी चर्चा की ये पुरातन कालसे हमारे जनमन संस्कृतिमें उतर चुके हैं। इन सहस्रों वर्षोंमें हमने एक विशाल चिंतन किया - उसके आदानप्रदानहेतु हमारी भाषाएँ शब्दावलियाँ बनीं। उनसे परिचित रहेंगे तभी वह चिंतन हमारी अगली सैंकडों पीढीयोंके लिये पथदर्शक बनेगा।

यह उदाहरण समझो कि एक बार व्यक्ति कार चलानेमें माहिर हो जाये तो वह विनासायास ही कार चला लेता है। उसे प्रतिपल बहुत सोचविचारना नही पडता क्योंकि उसका संस्कार गढ चुका है। वैसे ही हमारी चिरपरिचित शब्दावलियोंके कारण अपने पूर्वजोंके गहन चिन्तनसे हम परिचित होते हैं और विनासायास हम उनका पालन करते रहे हैं।

व्यक्तिगत संस्कार

राष्ट्रजीवनमें एक समष्टि अपने एकत्रित उपलब्ध संसाधनोंके द्वारा व्यक्तिकी रक्षा और पोषण करती है वहीं दूसरी ओर व्यक्ति अपने गुणोंसे समष्टिको अधिकाधिक समृद्ध और क्षमतावान बनाता है इस प्रकार दोनों एक दूसरेके पूरक होकर राष्ट्रको तथा विश्वको भी अभ्युदयकी दिशामें ले चलते हैं। भारत राष्ट्रकी श्रद्धा रही है कि योग्य संस्कारोंके संप्रेषणसे पूरे विश्वमें ही आर्यता - उदात्तता और सद्गुण फैलाये जा सकते हैं।

लेकिन समष्टिको आगे ले जा सके इसके लिए व्यक्तिमें कुछ गुणोंको सतर्कता पूर्वक स्थापित करना और सम्मानित करना यह समाजधूरिणोंका प्रथम कर्तव्य है हाँ हम उन आवश्यक गुणोंकी चर्चा करेंगे

. सत्यनिष्ठा-- यदि एक शब्दमें भारतीय दर्शनका परिचय देना हो तो मेरे विचारसे शब्द है सत्यनिष्ठा सत्यके बिना जीवन नहीं है, सृष्टि नहीं है, सृजन नहीं है और ज्ञा नहीं है हमारे वेदोंका मूलमंत्र है - सत्यमेव जयते नानृम्। इससे अधिक विज्ञानवाक्य कोई नहीं है सत्यनिष्ठा संपूर्णता वैज्ञानिक अवधारणा है, क्योंकि सत्य जाननेसे ही क्रिया संपन्न होती है या ज्ञानका सोपान चढ़ा जा सकता है

सत्यनिष्ठा जीवनमें दो प्रकारसे कार्य करती है मनुष्यके मनमें जो विचार हैं वही वाणीसे प्रकट हों और वही कर्मको भी निर्देशित करते हों तो ऊर्जाकी बचत होती है यदि विचार-वाणी-कर्मोंमें एकवाक्यता ना हो तो मस्तिष्कको वही काम तीन बार करना पड़ेगा और इसमें तीन गुनी ऊर्जा व्यर्थ ही खपत होगी ऊर्जाका अपव्यय मृत्युकी ओर ले जाता है और उसका सही व्यय जीवन देता है

दूसरी ओर सत्यनिष्ठासे ही ज्ञानका उदय, प्रसार या वृद्धि हो सकती है इसलिए सत्यनिष्ठाको एक व्रतके रूपमें स्वीकार कर लेनेसे वाणीकी शक्ति बढ़ती है और ऐसा मनुष्य वाचासिद्ध हो जाता है उसमें आशीर्वादकी शक्ति आती है हमारे राष्ट्रका बोध वाक्य भी है सत्यमेव जयते

. श्रमजीविका अर्थात् मेहनतकी कमाई मनुष्यको अपना जीवन निर्वाह करने हेतु परिश्रम करना पड़ता है यही परिश्रम उसे विविध अनुभव तथा अनुभूतियां दे जाता है जो ज्ञानप्राप्तिमें महत्वपूर्ण हैं। हमारी संस्कृति कहती है - परिश्रमसे कमाओ और उपभोग करो परंतु दूसरेके परिश्रमकी कमाईको मत छुओ। चोरी मत करो अर्थात में अपने परिश्रमसे जो धन अर्जित रूँ वही मैं सुयोग्य मानूँ परन्तु कभी भी दूसरेके अर्जित और संचित धनके लिये मोह ना करूं समाजमें यह भावना ना रहे तो हर कोई दूसरेकी वस्तुएं हड़पनेका प्रयास करेगा ऐसे समाजमें कोई नया ज्ञान या कला नहीं पनप सकती कोई स्थापत्य, कोई स्थैर्य भी नहीं सकता वह समाज चोर लुटेरोंका समाज बन जाता है फिर उसमें कोई समृद्धि नहीं हो सकती अतः वैयक्तिक जीवनमें यह अचौर्य या अस्तेय का व्रत ना रखना आवश्यक है इसी कारण हमारा प्रथम उपनिषद शावास्य हता है - मा गृधः स्यस्विद्धनम्।

. नियमबद्धता या अभ्यास के गुणसे व्यक्तिकी इच्छाशक्ति दृढ़ होती है किसी भी कार्यको नियमपूर्वक, निरंतरतासे और प्रसन्नतासे करते रहना ही अभ्यास है मनकी चंचलताको दूर करनेके लिए, एकाग्रताके लिए और संकल्पित कार्यको पूरा करनेके लिए जो दृढ़ इच्छाशक्ति होनी चाहिए वह नियमबद्धता से आती है इसी कारण हमारे बड़े बूढ़े कहते हैं कि अपने लिए कोई एक छोटासा नियम स्वीकार कर लो और प्रतिदिन उसका स्मरणपूर्वक निर्वाह करो तो उससे लाभकारी परिणाम अवश्य मिलते हैं आजकल हमारे समाजमें एक दो गया है कि हम किसी कामको निरंतरतासे करनेके स्थानपर उसे एक ही बार भव्यतासे उत्सवका रूप देकर करते हैं और फिर इस कार्यको और उसके उद्देश्यको भी भूल जाते हैं यह ऐसा ही है कि कोई व्यक्ति रुद्राभिषेक करने बैठे और अधीर होकर पूरे घड़ेका जल एक ही बार शिव पर उंडेल दे निरंतरताके गुणको आत्मसात करनेहेतु हमें पूर्वजोंने कुछ युक्तियां बताई हैं जैसे प्रतिदिन किसी पेड़को पानी देना या प्रातः जल्दी उठना, नियमित समयपर पढ़ाई करना, इत्यादि इस प्रकारसे नियमपूर्वक कार्य करनेको ही व्रतकी संज्ञा दी गई है

. राष्ट्रहेतु सावधानता - अपने नजदीकी परिवेश या समाजके चिंतनका विराट रूप है राष्ट्रप्रेम राष्ट्र शब्दमें ही राट् अर्थात विस्तृत स्तरपर एकमान्यता होनेका भाव समाहित है मनुष्य अपने जीवनमें जो भी कर रहा है उसके साथ उसे अपनी विरासतका बोध हो, आत्मगौरव हो और उसकी सुरक्षा हेतु वह विचारशील प्रयत्नशील हो वह दूरतक सोच सके, सुदूर भविष्यको देख सके और एक विस्तृत प्रदेशके निवासियोंके प्रति साझा विचार कर सके तब उसे राष्ट्र विचारक कहा जाएगा हमारे यज्ञोंमें जो विश्वदेवके प्रति चिंताहन करनेका भाव है वही विचार एक प्रकारसे आजकी शताब्दीमें भारत राष्ट्रके प्रति राष्ट्रप्रेमका प्रतीक है राष्ट्रचिंतन ना करनेसे हमारी पूरी विरासत, संस्कृति तथा भविष्य भी संकटमें हो सकते हैं उस संकटके प्रति सजग होकर कार्य करना यह गुण भी आज के युवाओंमें अत्यावश्यक हो जाता है

. शुचिता - हमारे जीवनमें शुचिताका बड़ा ही महत्व है क्योंकि इसके बिना हम जीवनके नहीं वरन मृत्युके मार्ग पर घसीटे जाते हैं शरीरकी शुद्धि और न्नकी शुद्धि हमारे शारीरिक स्वास्थ्य हेतु अत्यावश्यक है इसी प्रकार मनकी शुद्धि मानसिक स्वास्थ्य हेतु आवश्यक है एक शुद्ध मन क्रोध एवं हिंसासे रहित होता है विचारोंकी शुद्धिसे हम ईर्ष्या त्स द्वेष इत्यादिसे बच बचते हैं एवंच, हमारे आहार-विहार तथा आचार-विचार में शुचिताका अति महत्व है

. शौर्य और सौहार्द - यह गुण-युग्म प्रत्येक व्यक्तिमें होना आवश्यक है संकटकी घड़ियोंका सामना करनेके लिए शौर्य चाहिए और समाजमें बंधुभाव, समरसता तथा शांति बनाए रखनेके लिए सौहार्द चाहिए सुरक्षा सृजन हेतु शौर्य तथा सौहार्द ये दो गुण अनन्यरूपसे महत्वके है

. ज्ञानसाधना- कहते हैं कि जिसे मनुष्य जीवन मिला है, समझो कि वह उसके पुण्यप्रतापसे ही मिला है क्योंकि इस योनिमें जी अपनी साधनासे सतत अपने ज्ञानकी बढ़ोतरी कर सकता है और आकाशकी ऊंचाइयोंको भी छू सकता है साधनाके बिना ज्ञानकी अभिवृद्धि नहीं होती और ज्ञानके बिना साधना करनेकी बुद्धि नहीं होती ज्ञानसाधना के बिना मनुष्य निरा पशू ही रह जाएगा गीताका वचन है कि ज्ञानसे अधिक पवित्र कुछ भी नही है।

प्रत्येक परिवारके माता-पिता और ज्ञानीजनोंको चाहिए कि बच्चोंको इन गुणोंके संस्कार बचपनसे ही डालें, क्योंकि संस्कारसे ही व्यक्तित्व बनता है

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