Sunday, July 18, 2021

अध्याय ११ श्रद्धाके विषय – उत्पत्तिविज्ञान

 

अध्याय ११

श्रद्धाके विषय – उत्पत्तिविज्ञान

मानव बुद्धिमान प्राणी है, साथ-साध उसे भावपूर्ण हृदय भी मिला है। इसलिए सृष्टि केवल एक संयोग है ऐसा वह सहजता से नहीं मान सकता। सृष्टि के पीछे कोई निश्चित शक्ति काम करती है, ऐसी प्रतीती उसे सतत होती है। उस सृष्टि चालकके स्वरूप और उसके साथ अपने संबंधोंके बारेमें मनुष्य हजारों वर्षोंसे विचार करता रहा है। शास्त्रोंके वाक्य, महापुरुषोंके अनुभव और सृष्टिके प्रेरक दृश्य उसकी विचारधारामें सहायक हुए हैं। भारतीय वाङ्मयमें सृष्टि उत्पत्तिकी व्याख्या कई प्रकारसे की गई है।

यह तो निश्चित है कि सृष्टिका सर्जन हुआ है, उसका पालन हो रहा है और उसका विसर्जन भी निश्चित है। इस न्यायसे बुद्धिने सृष्टिकी कल्पना करी और सर्जक, पालक तथा संहारक ऐसे ब्रह्मा, विष्णु और महेशको साकार रूपमें स्वीकार किया। ये तीनों तत्त्व एक ही हैं, यद्यपि उनकी विभिन्न लीलाओंके कारण प्रत्येक साकार रूपके साथ अलग अलग गुण-कर्म जुडते गये। विभिन्न जनोंने अपनी अपनी भावनाके अनुरूप उनमेंसे अपना आराध्य चुना है। वास्तव में ब्रह्मा, विष्णु और महेश एक ही शक्तिको दिए गए अलग-अलग नाम हैं। सृष्टिके पीछे रही हुई शक्ति एकात्म और अविच्छिन्न है। उसके द्वारा जब अलग-अलग काम होते हैं, तब उसे अलग-अलग नाम देनेका शास्त्रकारोंका संकेत है।

उसी चिरंतन शक्तिकी स्त्री रूपकी महिमाको भी शास्त्रकारोंने जाना और वर्णित किया है। वास्तवमें वह शक्ति न तो पुरुष है और न ही स्त्री है। उसके पौरुष और कर्तव्यकी कल्पना करके हमारे ऋषियोंने उसे पुरुष ठहराया है, तो उसमें उपस्थित प्रेम और कारुण्यको देखकर उसकी स्त्री रूपमें कल्पना की है। 'त्वमेव माता च पिता त्वमेव' यहांं मांं भी है और पिता भी है। ऋषियोंकी दिव्य अनुभूतिका भान इससे होता है कि इन दोनोंके गुणोंका समावेश जिसमें हो ऐसे रूपको उन्होंने देखा - साम्बशिव अर्थात अम्बासहित शिव। उस रूपके कारण शिवजी अर्धनारी नटेश्वर कहाए।

कालिदासने रघुवंशमें लिखा है- 'जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ'। यहां पितरौ शब्दकी व्याख्यामें माता भी छिपी हुई है। 'माता च पिता च पितरौ'। स्त्रीत्वके गुण और पुरुषत्वके गुण जिस एक मानवमें एकत्र होते हैं, वहीं मानव ज्ञानका परमोच्च रूप है। केवल नारीके गुण मुक्तिके लिए उपयोगी नहीं हैं। मुक्ति पानेके लिए नर और नारीके गुण इकट्ठे आने चाहिए। इसलिए द्वैत निर्माण होते ही भगवानमें नरनारी दोनोंके गुण एकत्र हुए। उमा-महेश्वर में पौरुष, कर्तव्य, ज्ञान और विवेक जैसे नरके गुण हैं, उसके साथ-साथ स्नेह, प्रेम, वात्सल्य जैसे नारीके गुण भी हैं, इसलिए वह पूर्ण जीवन है। वही योगियोंका ईश्वर योगीश्वर है।

भगवानको द्विलिंगी प्रजा उत्पन्न करनेका कोई कारण नहीं था। भगवान एकलिंगी प्रजा उत्पन्न कर सकते थे। प्राणिशास्त्रका अभ्यास करनेसे मालूम होगा कि बहुत-सी प्रजा एकलिंगी है। प्राचीन भारतीय ग्रंथोंमें जो सृष्टिमें प्रजाकी उत्पत्तिका उत्क्रम बताया उसमें भी मानस-संतति (मनके द्वारा उत्पन्न यथा नारद) या दर्शनसे या स्पर्शमात्रसे उत्पन्न संसतिका वर्णन है परन्तु वह अधिक फलवती न होनेपर मैथुनी सृष्टि बनाई गई।

द्विलिंगी प्रजा अधिक विकसित है, इसके लिए बाप भी चाहिए और माँ भी चाहिए। बालकको बापके गुण मिलने चाहिए और मांके गुण भी मिलने चाहिए, तभी वह विकसित जीव कहा जाता है। स्त्रीको पुरुष और पुरुषको स्त्री बनना चाहिए, अर्थात्‌ पुरुषमें स्त्रीके और स्त्रीमें पुरुषके गुण आने चाहिए। इस तरह मिलकर ही विकास होता है। स्त्रीके गुण पुरुष लें और पुरुषके गुण स्त्रियाँ लें, यही विकास है।

इसीलिए हमें जन्म देनेके लिए मां और बाप दोनोंकी जरूरत पड़ी। स्त्री-पुरुष विवाह करनेपर ही पूर्ण होते हैं, ऐसा हम कहते हैं। पुरुषके विवेक, कर्त्तव्य, पौरुष, निर्भयता, ज्ञान- ये सभी गुण स्त्रीमें आने चाहिए और स्त्रीके लज्जा, स्नेह, प्रेम, दया, माया, ममता, इत्यादि गुण पुरुषमें आने चाहिए। स्त्री-पुरुषके गुणोंके मिलनेसे ही उत्कृष्ट मानवका सर्जन होता है। जब भगवानने सृष्टि निर्माण की तब उसके पास नर और नारीके गुण एक साथ थे। इसका अर्थ यही है कि नरत्व और नारीत्व परस्पर चिपक बैठे थे।

'अर्धाङ्गे पार्वती दधौ।' यह वर्णन कहता है कि भगवानने आधा अंग पार्वतीको दे दिया। कारण वही है। दार्शनिक दृष्टिसे स्त्री पुरुषके गुण जहाँ एकत्र हों, उसे ही पार्वती-परमेश्वर कहते हैं। भगवान सिर्फ कर्त्तव्यवान नहीं, वे कृपालु हैं, दयालु हैं, मायालु हैं, वत्सल हैं और स्नेहपूर्ण भी हैं। उसी तरह उनमें पौरुष, निर्भयता, विवेक भी है। ये सब मिलकर ही शिवजी होते हैं, वही उमामहेश्वर कहलाते हैं।

परस्पराश्लिष्टवपुर्धराभ्याम्‌- शिव और पार्वती इन दोनों एक-दूसरे के दृढ आलिंगनमें निबद्ध हैं। एक ही परब्रह्मका रूप है, लेकिन उसमें नरगुणों और नारीगुणों का मिश्रण हुआ है। उसका अर्धनारी-नटेश्वरके रूपमें चित्रण है। पुराण बताते हैं कि शिव-पार्वती का रतिसंभव अनादिकालसे अनंतकाल तक है। सही अर्थ में स्त्री-पुरुषके गुण अनंतकालतक परस्पराश्लिष्ट हैं। भगवानका पौरुष कभी भी कारुण्यको छोड़कर नहीं रहता। पूर्ण जीवनके लिए पौरुषके साथ-साथ कारुण्य होना चाहिए। कर्त्तव्यके साथ वत्सलता होनी चाहिए, और विवेकके साथ प्रेम होना चाहिए। भगवानमें ये गुण चिपककर बैठे हैं, स्त्रीगुण और पुरुषगुण आलिंगन दे बैठे हैं।

इसे समझना हमारे संपूर्ण पौराणिक वाङ्मय समझ लेने जैसा है। विश्वमें रहा हुआ नर रूप शिव है और नारीरूप उमा है और ये दोनों मिलकर ही जगत्‌ के कारण रूप हैं। उपनिषदमें इसका स्पष्ट उल्लेख है।

'रुद्रो नर उमा नारी तस्मै तस्यै नमो नमः।

रुद्रो ब्रह्म उमा वाणी तस्मै तस्यै नमो नमः।

रुद्रो विष्णु उमा लक्ष्मी तस्मै तस्यै नमो नमः।'

रुद्र, सूर्य है और उमा उसकी प्रभा है, रुद्र फूल है और उमा उसकी सुगंध है, रुद्र यज्ञ है और उमा उसकी वेदी है।

वस्तुतः सृष्टिके मूलमें प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व हैं ऐसा सांख्यदर्शनका स्पष्ट मत है। श्रीकृष्ण भगवान भी गीतामें कहते हैं 'प्रकृतिं पुरुषं चैव विद्धयनादी उभावपि।' प्रकृति और पुरुष दोनोंके आधार पर यह सृष्टि निर्माण हुई है। एक तत्वके बिना दूसरा तत्व पंगु है।

स्त्री-पुरुष गुणोंके अद्वैतके परिणामस्वरूप पुरुषके अंतःकरणमें जब स्त्रीभावका उदात्तीकरण होता है, तब वह करुणामय, प्रेमपूर्ण वात्सल्यमय बनता है, कवि और कलाकार बनता है, संवेदनाक्षम बनता है। इसी तरह स्त्री का भी है। स्त्रीमें 'पुरुष' जागृत होते ही वह धीर और दृढ़ सावित्री बनती है, उसमेंसे रणचंडी दुर्गा या लक्ष्मीबाई प्रकट होती है, यज्ञाग्निमें जलनेवाली सती या फिर जौहर करनेवाली पद्मिनीका रूप जागता है।

संक्षेपमें अर्धनारी नटेश्वर पुरुष और प्रकृति, उमा और महेश, नर और नारीके संयोगका प्रतीक है। स्त्री और पुरुषके श्रेष्ठ गुणोंको जोड़कर यदि हम पूर्ण जीवनकी ओर प्रयाग करेंगे, तभी हमने अर्धनारी नटेश्वरकी पूजा की है, ऐसा माना जाएगा।

स्त्री रूपिणी शक्तिकी महिमाको न केवल हमारे ग्रंथोंने वरन हमारे देशके व्यवहारमें भी गहराईसे प्रस्थापित किया गया है। भारतीय संस्कृति विश्वमें एकमात्र संस्कृति है जिसमें स्त्रीरूपकी महिमा पुरुषरूपके समान और कहीं कहीं उससे भी ऊपर है। हमारे जितने भी पर्वतशिखर हैं उनपर प्रतिष्ठित देवियाँ यथा चामुण्डा, विध्यवासिनी, वैष्णोंदेवी, कामाख्या, ज्वालादेवी देखे लें या गांवगांवमें प्रतिष्ठित देवताएँ। उपासना में भी असुरनाशिनी दुर्गा व काली के साथ साथ महालक्ष्मी व महासरस्वतिकी साधना अविरत रूपसे चली आ रही है। वह आदिशक्ति और ॐकारस्वरूपा भी है।

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हर देशकालमें सदा ही यह कौतुहलका विषय बना रहा है कि सृष्टिकी उत्पत्ति कैसे हुई। इसका आध्यात्मिक उत्तर भी ढूँढा जाता रहा है और आधिभौतिक अर्थात विज्ञानवादी भी। बीसवीं सदिमें विश्वभरसे जो विज्ञानवादी इस खोजमें लगे हुए हैं वे क्रमशः उन सिद्धान्तोंसे तुलना कर रहे हैं जो भारतीय संस्कृतिमें वर्णित हैं। अतः भारतीय ग्रंथोंमें दिये गये उत्पत्ति वर्णनोंको संक्षेपमें जानना और समझना आवश्यक है।

पहला सिद्धान्त है कि परब्रह्म या पराशक्तिसे सर्वप्रथम ॐकार का नाद प्रकट हुआ। मुख्यतः मुण्डकोपनिषद में इसका विस्तृत वर्णन है। ॐकार के प्रकटनके पश्चात् और उसी कारणसे सारी सृष्टि बनी। यह ॐकार प्रकटन साम्बशिव अर्य़थात उमासहित महेश्वरके रूपमें था जिसके चर्चा हमने उपरोक्त अनुसार की है।

दूसरा सांख्य- सिद्धान्त है जिसके अनुसार अनादिकालसे प्रकृति और पुरुष ये दो तत्त्व विद्यमान हैं। प्रकृति तत्त्व कौतुकमय या क्रीडामय है। अतः इसने पूरा विश्व निर्माण किया और पुरुषको इस क्रीडामें खींचकर ला रखा। उसके कारण पुरुष या जीवात्मा भी दो भावोंमें बँट गया -- मुग्धभावसे वह प्रकृतिकी क्रीडामें निमग्न है, पर उसी जीवात्माका दूसरा साक्षीभाव है जिस कारण वह केवल साक्षी रूपमें प्रकृतिके प्रति बिना लिप्त हुए व्यवहार करता है।

सांख्यसिद्धान्तके अनुसार प्रकृति (या प्रधान) ने महत यानी बुद्धिको उत्पन्न किया -- महतसे अहंता और उससे मनकी उत्पत्ति हुई। अहंकार से ही पंच ज्ञानेंद्रिय पंच कर्मेंद्रिय व पंच तन्मात्रा, और तन्मात्राओंसे पंच महाभूत बने। इस प्रकार कुल २३ व्यक्त तत्त्व हुए, प्रकृतिको अव्यक्त और पुरुषको चेतन तत्व कहते हैं। प्रकृति त्रिगुणात्मक और साक्षीभावमें स्थित पुरुष गुणातीत है। प्रकृतिके तीन गुण सत्व-रज-तम साम्यावस्थामें हों तो प्रकृति शांत (या लयको प्राप्त) है। लेकिन उनकी विषम अवस्था हो तो विकृति अथवा व्यक्त तत्व प्रकट होते हैं।

परम सत्ताका प्रथम रूप पुरूष है, अव्यक्त प्रकृति और व्यक्त महत्तत्व आदि उसके अन्य रूप हैं तथा काल जो सबको क्षोभित करता है उसका परम रूप है। उस मूल सर्वभूतेश्वर परमात्माने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी पुरूषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया। प्रधानमें विक्षोभका प्रथम परिणाम महत्तत्व या बुद्धितत्व है। गुणोंकी साम्यावस्था रूप प्रधान जब विष्णुके क्षेत्रज्ञ रूपसे अधिष्ठित हुआ तव उससे महत् तत्व की उत्पत्ति हुई।

इस प्रकार बनी सृष्टिके इन्हीं २४ तत्त्वोंमें जीवात्मा मुग्धभावसे अपने सारे क्रिया कलाप करता है, जो आज हम अपनी ज्ञानेंद्रियोंके आधारसे जानते हैं। उसके भावोंको तीनों गुण ऊँचा-नीचा उठाते रहते हैं।

इस सिद्धान्तके अनुसार हम सभी जीवधारी प्राणि जीवात्मा ही हैं जो प्रकृतिमें रममाण होनेके कारण अपने मूलस्वरूपको भूल जाते हैं और इस कारण प्रकृतिके प्रति साक्षीभाव नही रख पाते हैं। प्रकृति अपने तीन गुणोंके आधारसे जीवात्माको संसारबंधनमें क्रीडामग्न रखती है जहाँ उसे सुखके साथ दुख भी झेलने पडते हैं। मनुष्य योनिके जीवात्माको अतिरिक्त बुद्धि है जिसके सहारे आकुल जीवात्मा इस खोजमें निकलता है कि दुखोंसे छुटकारा पानेका क्या उपाय हो सकता है। तब उसे ज्ञान होता है कि मुग्धभावको छोडकर साक्षीभावमें आकर ही दुखोंसे छुटकारा है। इसी ज्ञानके आचरणको सांख्यशास्त्रमें कैवल्यका नाम है। सांख्य शास्त्रमें वर्णित प्रकृति-पुरुष सिद्धान्त और विशेषतः प्रकृतिके २४ घटक तत्त्वोंका सूत्र सभी वेदोंने व दर्शनोंमें मान्य किया है।

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उत्पत्तिके विषयमें ऋग्वेदका नासदीय सूक्त भी प्रसिद्ध है जिसमें सात ऋचाओंके माध्यमसेे मंत्रद्रष्टा ऋषिने वर्णन किया है कि सृष्टिका उत्पत्तिक्रम क्या था। मजेकी बात है कि इस मंत्रके ऋषि स्वयं परमेष्टी प्रजापति अर्थात ब्रह्मदेव हैं और देवता अर्थात मंत्रकी विषयवस्तु है सृष्टि-स्थित-प्रलय-कर्ता परमात्मा। तो उस परमात्माद्वारा सृष्ट होकर जिसने अगली समस्त सृष्टिकी रचना की वही ब्रह्मा स्वयं परमात्माके विषयमें वर्णन करते हैं --

नासदासीन्नो सदासात्तदानीं नासीद्रजो नोव्योमा परोयत्।
नासदासीन्नो सदासीत्तदानीं नासीद्रजो नो व्योमा परो यत्।

किमावरीवः कुह कस्य शर्मन्नंभः किमासीद्गहनं गभीरम् ॥१॥

इस जगत् की उत्पत्ति से पहले प्रलय दशा में असत् अर्थात् अभावात्मक तत्त्व नहीं था। सत् यानी भाव तत्त्व भी नहीं था, ना ही कोई का अनस्तित्व था और ना ही अस्तित्व। तो जगत् का आरंभ शून्यसे हुआ। तब ना तो रजतत्वसे बने ये भू, भुव, स्वर्ग आदि लोक थे। ना कोई व्योम था और ना उसके परे कुछ था। यह जो आवरण करने वाला नभतत्त्व है वह तब कहाँ था और किसके संरक्षण में था (कोई नही जानता)। चारों ओर अनन्त समुन्द्रकी भांति गहनगंभीर अंधकार के सिवा कुछ नहीं था।

न मृत्युरासीदमृतं न तर्हि न रात्र्या अह्न आसीत्प्रकेतः।

अनीदवातं स्वधया तदेकं तस्माद्धान्यन्न परः किं च नास ॥२॥

उस अव्यक्त कालमें न ही मृत्यु थी और न ही अमरता, रात्री और दिन का कोई चिह्न भी नहीं था। उस समय केवल वह अनाम तत्व अपने ही सत्वसामर्थ्यसे युक्त, मायाके साथ जुड़ा हुआ परन्तु क्रियासे शून्य सदासे बना चला आ रहा था। उससे परे या अन्य और कुछ भी नही था।

तम आसीत्तमसा गूढमग्रेऽप्रकेतं सलिलं सर्वमा इदं।

तुच्छ्येनाभ्वपिहितं यदासीत्तपसस्तन्महिना जायतैकं॥३॥

. आरंभमें केवल अंधकार में ही लिपटा गूढ अंधकार ही उसका चिह्न था। जिसका कोई अवयव नही होता और जो अपना आयतन न बदलते हुए अपना रूप बदल सकता है ऐसे जलरूपमें वह था। वह अनादि सर्वव्यापी (आभु), अभाव रूप तुच्छ यानी शून्यसे ही आच्छादित था क्योंकि उस समय कार्य और कारण दोंनों मिले हुए थे। फिर एक महान निरंतर तपसे उसमें एक संकल्प प्रकट हुआ।

कामस्तदग्रे समवर्तताधि मनसो रेतः प्रथमं यदासीत् ।

सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि प्रतीष्या कवयो मनीषा ॥४॥

. सबसे पहले रचयिता को सृष्टिकी रचनाकी कामना हुई। यह उत्तम कामना ही सृष्टि उत्पत्तिका पहला बीज रूप कारण था। इस तरह रचयिता ने विचार कर अस्तित्व और अनस्तित्व की खाई पाटने का काम किया। तो इस भौतिकजगत् के बन्धन-कामरूप कारण को क्रान्तदर्शी ऋषियोंने अपनी मनीषाद्वारा अपने हृदय-अंतरिक्षमें भाव से विलक्षण अभावमें खोज डाला।

मनीषियोंने अपनी मनीषा - विवेकी ज्ञान के द्वारा जाना कि उस शून्यसे, अभावसे यह जो भावरूप संसार प्रकट हुआ उसका मूल बीज वह कामना एवं संकल्प थे जो उस अनादि परमात्माके तपके कारण उदित हुए।

तिरश्चीनो विततो रश्मिरेषामधः स्विदासीदुपरि स्विदासीत् ।

रेतोधा आसन्महिमान आसन्त्स्वधा अवस्तात्प्रयतिः परस्तात् ।।५।।

फिर उस कामना रुपी बीजसे चारों ओर आडी-तिरछी सूर्य किरणोंके समान ऊर्जाकी व्यापक तरंगें निकलीं, जो नीचे-ऊपर सर्वत्र थीं और उनसे सृष्टि रचनाका आरंभ हुआ। क्या पहले वह तत्त्व नीचे विद्यमान था या ऊपर विद्यमान था इस प्रकार पूछना निरर्थक है क्योंकि वह सर्वत्र समान भाव से उत्पन्न था। इस प्रकार उत्पन्न जगत् में कुछ पदार्थ बीज रूप कर्मको धारण करने वाले और कुछ तत्त्व आकाशादि महान प्रकृति रूप थे।

कुछ भोग्य पदार्थ थे तो कोई उत्कृष्टता से परिपूर्ण भोक्ता थे।

को अद्धा वेद क इह प्र वोचत्कुत आजाता कुत इयं विसृष्टिः।

अर्वाग्देवा अस्य विसर्जनेनाथा को वेद यत आबभूव ॥६॥

अभी वर्तमानमें कौन पूरी तरह से ठीक-ठीक बता सकता है कि यह विविधा सृष्टि बननेसे पूर्व क्या था और इसके बननेका कारण क्या था। विद्वान लोग या देवगण भी तो खुद सृष्टि रचनाके बाद आये। अतः ये भी अपनेसे पहलेकी बातके विषयमें नहीं बता सकते। कोई भी इस बातको वास्तविक रूपसे नही जानता कि सृष्टिके उत्पन्न होनेके विवरण या उपादान कारण क्या है।

इयं विसृष्टिर्यत आबभूव यदि वा दधे यदि वा न ।

यो अस्याध्यक्षः परमे व्योमन्त्सो अङ्ग वेद यदि वा न वेद ॥७॥

यह विविधा सृष्टि कदाचित ईश्वरके द्वारा उत्पन्न और उसीके द्वारा इसे धारण करनेसे चली हुई है। या हम नही जानते, कदाचित वह भी धारण नहीं करता। वह ईश्वर जो परमव्योममें स्थित है, कदाचित वही इस विषयको जानता है या कदाचित वह भी नहीं जानता है।

यह अन्तिम वाक्य सुननेमें थोडा अटपटा लग सकता है कि सूक्तका द्रष्टा ऋषि ईश्वरकी सर्वज्ञताके प्रति अश्रद्ध है। लेकिन ऐसा नही है। वस्तुतः वह बडी विनम्रतासे अपनी स्वयंकी सीमा बता रहा है कि परम रचयिता ईश्वरके विषयमें निश्चिततासे कुछ भी कह पाना उसकी सामर्थ्यसे परे है।

नासदीयसे मिलताजुलता एक वर्णन पुराणोंमें आता है कि जलमें निमग्न होकर नारायण नामक परमेश्वरने जो तप किया तो उसकी नाभिसे एक कमल निकला। उसपर सोनेकी आभावाला ब्रह्माण्ड अवस्थित था जिसीसे ब्रह्मा, अंतरिक्ष तथा भूलोक और स्वर्लोक निकले और ब्रह्माने सृष्टिनिर्मितीका कार्य आरंभ किया। नारायण तो निद्राधीन हो गये। परन्तु उसी जलसे नारायणके कानसे निकले मैलद्वारा मधु व कैटभ राक्षसोंका जन्म हुआ जो सृष्टिकार्यमें व्यवधान बने। तब ब्रह्माने नारायणको निद्रामें डालनेवाली उनकी योगमायासे प्रार्थना कर विष्णुको जगाया। मधुकैटभके वधके पश्चात ही सृष्टिका कार्य पुनः आरंभ हुआ।

उत्पत्तिके ये सभी भारतीय सिद्धान्त युग्मकी बात करते हैं -- शिवशक्तिका युग्म, प्रकृति-पुरुषका तथा परमात्मा एवं स्वधाका जिसका अन्य नाम माया भी दिया गया है। यह माया विष्णुका आवरण बनकर जीवको बाह्य जगतकी ओर प्रेरित करती है और शक्ति-सामर्थ्य-उपभोग देती है, परन्तु विष्णुबोधको भी बनाये रखती है ताकि मनुष्य धर्ममें प्रवृत्त रहे। वही सर्वभूतोंमें निद्रा, तृष्णा, क्षुधा, भ्रान्ति, छाया रूपके साथसाथ बुद्धि, स्मृति, शांति, लक्ष्मी, लज्जा, वृत्ति, जाति, तुष्टि, कान्ति, श्रद्धा, क्षान्ति, चेतना, दया, शक्ति और मातृरूपसे स्थित रहती है। अतः उसे हमारा सतत नमस्कार है।

इस प्रकार हमारा उत्पत्तिसिद्धान्त और विशेषकर उसमें नारीशक्तिका महत्व हमारी श्रद्धाका प्रथम मानबिंदु है।

---------------------------------शब्दसंख्या २४४० पन्ने ८ -----------------कुल पन्ने ७२ --------------

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