Sunday, July 18, 2021

अध्याय ६ देवोपासना

 अध्याय ६

देवोपासना

देवता शब्दकी व्याख्याके लिये उसे सत्यके साथ जोडा गया है। सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः। इसी सत्यनिष्ठा व समाजधारणाकी भावनासे वे मनुष्योंका प्रिय करते हुए उनकी कामनाओंको सुफल देते हैं। ग्रंथोंमें, विशेषकर वेदोंमे, देवताओंके आवाहन व स्तुतिके विषयमें विस्तारसे कहा गया है। व्यावहारिक जगतमें स्वास्थ, सुख, सुविधा, समृद्धि आदिके हेतु श्रद्धापूर्वक देवोंकी प्रार्थना की जाती है

वैसे तो देवोपासनाकी पद्धति संसारकी सभी सभ्यताओंमें थी, लेकिन वह इतनी विकसित व ज्ञानगम्य नही हुई थी जितनी भारतमें। देवताके साथ साथ असुरोंके अस्तित्वको भी हमें समझना पडेगा और उनके प्रति सजगता और सतर्कता रखनी पडेगी। सारांशमें कहें तो देवतत्त्व वह है जो समाज व राष्ट्रको जोडे रखकर ऐश्वर्य एवं अभ्युदयकी ओर ले जाता है। यह परस्पर देते रहनेकी भावनासे ही संभव होता है। अतः यज्ञमें यज्ञकर्ता देवताओंके निमित्त आहुति देते हैं और देवता भी यजमानसहित सभी सहभागियोंके लिये वे प्राकृतिक पोषण तत्त्व उपलब्ध कराते हैं जो समृद्धि लाते हैं। आसुरी तत्त्व वे हैं जो बाँटनेमें विश्वास नही रखते नही वरन स्वयंके उपभोग हेतु सारी सृष्टिका दोहन करते हैं और प्रकारान्तरसे समाजभावनाको क्षति पहुँचाते हैं।

भारतमें हर व्यक्तिकी इष्ट देवता होती है - प्रत्येक व्यक्ति अपनी इष्ट देवता चुन सकता है और उसीके आदर्श गुण अपने आपमें उतारनेकी चेष्टा करता है। लेकिन पूर्ण वंशकी रक्षा करने हेतु तथा पितरोंको सद्गति देने हेतु कुलदेवताका भी अलगसे अस्तित्व माना गया है। पूरे परिवारकी सुख शांति और अभीष्टकामनाके साथ साथ हर मंगल कार्यमें कुलदेवताका आवाहन करनेकी रीति है। कुलदेवताको सर्वप्रथम स्थान देकर कुलके हर धार्मिक कार्यमें उपस्थित रहकर आशीर्वाद देने हेतु प्रार्थना की जाती है। ठीक उसी प्रकार जैसे घरके बडे बूढोंसे की जाती है। प्रत्येक कुलकी देवताके लिये नैवेद्य या भोगके अन्नपदार्थ अलग- अलग होते हैं जिन्हें बनानेकी खास विधी होती है। हर कुलमें अलग अलग प्रकारके खाद्यन्नकी विधी उस उस कुलकी विरासत है। इस प्रकार देशकी सांस्कृतिक धरोहरमें हजारों लाखों प्रकारके वैविध्यपूर्ण खाद्यान्न बनानेका ज्ञान संजोकर रखा गया है। प्रत्येक कुलका एक वृक्ष भी नियत होता है जो उस कुलके हेतु सुख समृद्घिका वाहक बनता है। दूसरी ओर उस वृक्षप्रजातिकी रक्षा उस कुलका दायित्व माना गया है। आयुर्वेदकी मान्यता देकें तो प्रत्येक वृक्ष भिन्न भिन्न व्यक्तियों पर उनकी कफ-पित्त-वातात्मक प्रवृत्तिके अनुसार भिन्न प्रभाव डालता है। वृक्षोंका वंशगत प्रभाव भी देखा जा सकता है। कदाचित इसी कारण कुलके लिये वृक्ष नियत किये गये होंगे।

इसके अन्य हर ग्रामकी भी ग्रामदेवता होती है जिसका आशीर्वाद समस्त ग्रामके लिये मांगा जाता है। गांवोमें अक्सर शीतला माताके विविध रूपोंके मंदिर प्रायः गांवकी सीमापर होते हैं ताकि वह माता आनेवाले संकटोंसे, खासकर महामारियोंसे पूरे गांवकी रक्षा करे। इसी प्रकार मंगला माता, शेरांवाली माता, हनुमान, रूद्र, महायक्ष आदि ग्रामदेवता होते हैं। गांव पर आए संकट निवारण हेतु अथवा पूरे गांवके मंगलकारी उत्सवोंमें ग्राम देवताकी पूजा होती है विशेष रूपसे जो घुमंतू जातियां हैं वह वर्षमें एक बार अपने अपने गांवमें एकत्र होती हैं। उनके लिए ग्राम देवताका विशेष महत्व होता है।

पूरे क्षेत्रकी समृद्धिके लिये अथवा विशेष प्रकारके प्राकृतिक संसाधनोंके लिये क्षेत्र देवताएँ भी होती हैं। पर्जन्यके लिये इंद्र और उजालेके लिये वेदोंमें उषा तथा सूर्यकी उपासना कही गई है। अग्नी भी देवताओंको यज्ञकी आहूति पहुँचानेवाली देवता है। प्रायः कोई पर्वत, या नदी या पर्वतपर स्थित देवी उस उस क्षेत्रकी रक्षक देवता मानी जाती रही है। गोवर्धन पर्वतकी अथवा गंगा मैयाके पूजनकी परंपरा भी इसी पद्धतिका रूप है।

राष्ट्रके लिये देवताका स्थान और पूरे राष्ट्रके ऐश्वर्य व समृद्धिके लिये प्रार्थनाएँ कई स्थानोंपर कही गई हैं। यजुर्वेदमें एक राष्ट्र प्रार्थनात्मक ऋचा आती है –(पुस्तकसे देखें)( -- २५४) मेरे राष्ट्रमें समृद्धिके हेतु हे ब्रह्मा, तुम गुणवान प्रजाकी निर्मितिका वरदान दो। प्रजामें अध्ययनशील ब्रह्मतेजसंपन्न ब्राह्मण हों। अचूक शरसंधानसे शत्रुसैन्यका और उनके सहस्रों रथोंका विध्वंस कर सके ऐसै महारथी क्षत्रिय हों। प्रजाके पास भरपूर दूध देनेवाली गायें और भारवाहक बलशाली वृषभ तथा तीव्रगतिसे दौडनेवाले घोडे हं। समाज सर्वगुणसंपन्न स्त्रियोंसे शोभित हो। मेरे यजमानको जयवान, रथस्वामी, सभापंडित एवं तरुणाईसे भरापूरा पुत्र प्राप्त हो। वर्षा अपने समयसे हो। फलवाले वृक्ष फलोंसे समृद्ध हों। खेत विविध धान्योंसे लहलहाते हों। राष्ट्रके प्रत्येक व्यक्तिको उसके लिये अबतक अप्राप्य रही हों ऐसी वस्तुएं प्राप्त हों तथा उनके उचित उपभोगकी सामर्थ्य भी उसमें हो। यजुर्वेदका ही अन्य मंत्र कहता है -- वये राष्ट्रे जाग्रयाम पुरोहितः। अर्थात् हम जो पुरोंका हित करनेकी चाहवाले पुरोहित हैं हम राष्ट्रमें ही जागें अर्थात राष्ट्रके लिये ही हमारे क्रियााकलाप हों। श्रीसुक्त का मंत्र कहता है -- इस राष्ट्रमें मेरा प्रादुर्भाव हुआ इसलिये कुबेर अपने वैभवसमेत मुझे कीर्ति व ऋद्धि दें।

अंतरिक्षके देवता – अग्नि, इंद्र, सवितृ, पृथ्वी, वरुण, कहे गये हैं। साथ ही मृत्यु के उपरांत पथ प्रदर्शक के रूपमें पितर व यम देवताका महत्व है।

इस पूरी देव उपासना प्रणालीको शिवके साथ जोड़कर देखा जाता है। शिवके पांच तत्व या कार्य कहे गए हैं - उत्पत्ति पोषण विलय तिरोधान अर्थात तिरोहित करना और अनुग्रह अर्थात आशीर्वाद देना। इन्हें पंचमहाभूतोंके साथ भी जोडा गया है। उत्पत्ति -- सृष्टिके आरंभको सर्ग कहते हैं, इसका तत्त्व है पृथ्वी। पोषणको वृद्धि या स्थिति भी कहते हैं, इसका तत्त्व है जलसंहार या नष्ट करनेका कार्य अग्नि तत्त्वका है। तिरोभाव अर्थात अणुके स्तरतक ले जाकर विलय करना। इसे उद्धार या उत्क्रम भी कहते हैं इसका तत्त्व है वायु। अनुग्रहसे ही मोक्षप्राप्ति होती है, इसका तत्त्व है आकाश। यही शिवके पंचकृत्य एवं ही पंचमुख कहे गये हैं।

देवता शब्दका प्रयोग विभिन्न अर्थोंमें किया गया है। वेदोंके सूक्तोंमें प्रत्येकके देवताका नाम दिया होता है। यहाँ देवताका अर्थ वह विषयवस्तु है जिसके गुणोंका या उपयोगोंका या सिद्धिप्राप्तिका वर्णन है – यथा अग्नि, श्रद्धा, वर्षा, गौ, गंगा आदि। देवता वे भी हैं जो सुदूर अंतरिक्षमें बैठकर हमारे लिये समृद्धिका मार्ग प्रशस्त करते हैं यथा सूर्य, इंद्र, लक्ष्मी आदि। इसके अलावा समाजमें जिनके प्र्ति कृतज्ञताका हमारा दायित्व है उन्हें भी देवस्वरूप जाननेका निर्देश है। प्रथम उपदेश है - मातृदेवो भव अर्थात माता ही जिसकी पूज्य देवता है ऐसे मातृदेव तुम बनो। इसी प्रकार हर व्यक्तिको पितृदेव, आचार्यदेव, अतिथीदेव और राष्ट्रदेव बननेके लिये निर्देश हैं। इनका ऋण मानते हुए उऋण होने हेतु पांच प्रकारके यज्ञ या इष्टि नित्यप्रति किये जाने चाहिये। ऋण-व्यवस्थामें पितृऋण, ऋषिऋण, देवऋण, मनुष्य ऋण और राष्ट्रऋण कहे गये। उऋण होने हेतु ब्रह्मयज्ञ (अध्ययन), पितृयज्ञ (तर्पण), देवयज्ञ (हवन), भूतयज्ञ जिसे विश्वदेव या पंचबलि भी कहा जाता है, और अतिथियज्ञ (अतिथि सत्कार) का विधान है। भूतयज्ञ या पंचबलिका व्रत लेकर भोजनसे पहले पांच समूहोंके लिये अन्न निकालकर रखना बताया गया है -- चींटी, कीट, कौए, कुकुर, व गाय । ऐसी ऋण व्यवस्थामें केवल वैचारिक कृतज्ञता अभिप्रेत नही है वरन प्रत्येकने आचरण व कृतिद्वारा उसका निर्वाह करना है। विश्वेदेव इत्यादि के पीछे वही भावना है और यह सर्वथा प्रकृति रक्षणके अनुकूल है।

अन्य सभ्यताओंसे भिन्न भारतीय देवोंके आकार प्रकार, कार्यक्षेत्र, उपासना आदिमें अनन्त प्रकारान्तर हैं। देवताओंका अस्तित्व केवल यज्ञकर्मतक ही सीमित नही है वरन सारी कलाओं और लोकगाथाओंमें भी इन्हें अलग अलग रीतियोंसे बखाना गया है।

इस प्रकार देवोपासना और देवताओंके प्रति श्रद्धाके कारण केवल आध्यात्मिक वरन कलाजीवन भी पुष्ट हुआ है। उदाहरण स्वरूप यदि हम एक गणेशको ही लेते है तो वह आद्यपूजित देवता है। नाटय या नृत्य भी उसके पूजन, स्तुति आदिसे आरंभ होंगे इस कारण हमें सैकडों प्रकारके गणेश-परण गणेशनृत्य और चित्र तथा शिल्पमें गणेश मिलते हैं। प्रायः हर मंदिरमें एक गणेश मूर्ति भी स्थापित होती है। दोवताओंको मंत्र शक्ति और आरोग्यसे जोडा गया है। गणेशपर चढाई जानेवाली दूर्वा या शिवके बेलपत्र या विष्णुकी तुलसी इन सबका आयुर्वेदमें अत्यंत महत्व है। चूंकि भारतीय प्रणालीमें देवताओंके साथ संपर्क, संवाद इत्यादि किये जानेकी संकल्पना है और यह प्रणाली हजारों वर्ष पुरातन है, इसलिये इन देवोंके स्वरूप, और उनसे जुडी कथाएँ भी विस्तृत हैं। हमारे वाङ्मयमें एक पंक्ति प्रायः सभी भाषाओंमें पाई जाती है जिसका अर्थ है -- हरि अनंत, हरि कथा अनंता। यह हमारी श्रद्धाको ही दर्शाता है।

दूसरी विशेषता यह है कि हजारों वर्षोंमें देवोंके स्वरूप ही नही वरन स्वयं देव भी बदले हैं। वेदकालीन देवताओंका प्रभाव वर्तमान भारतके बाहर भी था। खासकर दक्षिण पूर्व एशियामें। अंकोरवटका विष्णुमंदिर तथा बँकॉकका ब्रह्मा मंदिर इसके प्रमाण हैं। वेदोंमें इन्द्रको मनःशान्ति की देवता कहा गया है। प्रकृति भी देवता है। और आनन्द को भी देवता माना गया है क्योंकि प्रत्येक प्राणी आनंदकी प्राप्ति चाहता है। पंचमहाभूत, बुद्धि, विवेक, सत्य, मन्यु, धृति तथा श्रद्धाको भी देवताका स्थान दिया गया है। यहाँ तक कि मृत्यु भी देवता है। इस प्रकार श्रद्धाकी महत्ताके कारण भारतीय दर्शनमें यम अथवा मृत्युको भयप्रद नही माना जाता है, यज्ञमें उनके लिये भी आहुतिका विधान है।

समाजमें एक्यकी स्थापना निमित्त अथवा ज्ञान संजोनेके निमित्त समय-समय पर कुछ परंपराएं चलाई जाती हैं। कई सौ वर्ष पूर्व आदि शंकराचार्यने अद्वैत दर्शनके साथ ही पंचायतन पूजाकी परंपरा चलाई। इसके अनुसार गांव-गांवमें पंचायतन मंदिर बने। प्रत्येक मंदिरमें शिव दुर्गा गणेश विष्णु सूर्य इन पांचोंके मंदिर होते हैं जिनमें से किसी एकको प्रमुख विग्रहके तौरपर और अन्य चारको उपमुख्य विग्रहके रूपसे प्रतिष्ठित किया जाता है।

कुल सारांश यह है कि मानवी मनमें देवताओंके अस्तित्वकी सारी धारणाएँ, ज्ञान एवं अनुभूतियां श्रद्धाके कारण ही अस्तित्वयुक्त हैं। उनके होनेको- "अस्ति" को श्रद्धापूर्वक प्रमाण मानना ही आस्तिकता है।

कुछ संदर्भ पं. ह्दयनारायण दीक्षित से

-----------------------ंंंंंंंंंंंंंंंं-------------शब्द १२२३ – ४ पन्ने --------------- कुल ३८ पन्ने



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