Sunday, July 18, 2021

जानिए क्यों आवश्यक है संस्कार जीवनमें

श्रद्धासंस्कारोंके विषय

जानिए क्यों आवश्यक है संस्कार जीवन में

संस्कार” शब्द का अर्थ है शुद्ध करना, संवारना, उन्नत करना। फूलों में जो स्थान सुगंध का है, फलों में जो अर्थ मिठास का है, भोजन में जो स्थान स्वाद का है, ठीक वही स्थान जीवन में संस्कार का है।

संस्कार के 4 अलग-अलग मत हैं –

वेदांती मत (वेदांत संस्कार) अशुद्धि मिटाकर तत्वज्ञान की प्राप्ति।

योगी मत (योग संस्कार) विक्षेप मिटाकर ईश्वर की प्राप्ति।

उपासक मत (उपासना संस्कार) वासनायें मिटाकर तेज की प्राप्ति।

धार्मिक मत (धार्मिक संस्कार) दुश्चरित्रता मिटाकर ऐश्वर्य की प्राप्ति।

संस्कार मुख्यतः 3 प्रकार के होते हैं

दोषापनयन या मलापनयन संस्कार जैसे किसी दर्पण पर पड़ी धूल को साफ किया जाता है वैसे ही जीव के दोषों को दूर करने वाले संस्कार। (गर्भाधान संस्कार से मुंडन संस्कार तक के 8 संस्कार)

गुणधान या अतिशयाधन संस्कार - जैसे दर्पण को रंग लगाकर प्रकाशमय बनाते है, वैसे ही जीव के गुणों को निखारने वाले संस्कार। (विवाह संस्कार को छोड़कर उपनयन संस्कारसे अंत्येष्ठि संस्कार तक के 6 संस्कार)

पूर्णता या हीनतापूर्ति संस्कार - जीवन में कमियों को पूरा करने वाले संस्कार। (कर्णवेध संस्कार एवं विवाह संस्कार

ऋषियों के अनुसार संस्कार

महर्षि गौतम के अनुसार 48 संस्कार

महर्षि अंगिरा के अनुसार 25 संस्कार

महर्षि व्यास के अनुसार 16 संस्कार

महर्षि दयानंद सरस्वती ने इन 16 संस्कारों की व्याख्या निम्न की है –

गर्भाधान संस्कार उत्तम संतान उत्पति हेतु गर्भधारण के समय किया गया संस्कार

पुंसवन संस्कार गर्भ के दूसरे या तीसरे महीने में गर्भ की रक्षा के लिए पति-पत्नी प्रतिज्ञा करे

सीमान्तोंनयन संस्कार गर्भ के चौथे मास में पति द्वारा बच्चे की मानसिक शक्तियों की वृद्धि तथा पत्नी की सांत्वना के लिये निकट संबंधियों के माध्य किया जाए।

जातकर्म संस्कार बालक के जन्म लेने पर बालक की शारीरिक शुद्धता एवं इंद्रियों की सजगता के लिये।

नामकरण संस्कार जन्म के 11वें अथवा 101वें दिन या दूसरे वर्ष के आरंभ में व्यवहारिक सार्थक जीवन बोध के लिए।

निष्क्रमण संस्कार जन्म के चौथे महीने में बालक के शरीर तथा मन के विकास के लिये खुली हवा एवं प्रकाश में घर से बाहर निकालने के लिये।

अन्नप्राशन संस्कार जन्म के छठे या आठवें महीनें में बालक को अन्न का भोजन देने के लिये।

मुंडन संस्कार पहले या तीसरे वर्ष में मस्तिष्क के विकास के लिये गर्भवस्था के बालों को उतारने के लिये।

कर्णवेध संस्कार तीसरे या पांचवे वर्ष में बालक की शारीरिक निरोगता के लिए।

उपनयन संस्कार जन्म वर्ष से 8 वें वर्ष में ब्राह्मण, 11 वें वर्ष में क्षत्रिय, 12 वें वर्ष में वैश्य के बालक की शारीरिक शुद्धि एवं ब्रह्मचर्य के नियमों के पालन के लिये।

वेदारंभ संस्कार उपनयन संस्कार के उपरांत वेद शिक्षा प्राप्त हेतु।

समावर्तन संस्कार विद्या-अध्ययन के पाश्चात् घर आने पर।

विवाह संस्कार – ब्रह्मचर्य आश्रम के 25 वें वर्ष पाश्चात् गृहस्थ आश्रम में प्रवेश के लिये।

वानप्रस्थ संस्कार 50 वर्ष के उपरांत सभी उत्तरदायित्वों से मुक्ति एवं संसारिक निवृति के लिये।

सन्यास संस्कार 75 वें वर्ष के उपारांत परोपकार की भावना से गृहत्याग कर भ्रमण के लिये।

अंत्येष्ठि संस्कार मृतक शरीर की अंतिम क्रिया करने के लिये।

गर्भाधान संस्कार से कर्णवेध संस्कार तक के 9 संस्कार अमंत्रक किये जाते हैं। विवाह संस्कार से अंत्येष्ठि संस्कार तक के सभी संस्कार मंत्रक किये जाते हैं।

सोलह संस्कार के दायित्व -

पति-पत्नी के दायित्व जीव के उत्पन्न होने से पहले किये गये 3 संस्कार (गर्भधान, पुंसवन और सीमांतोनयन संस्कार)

माता-पिता के साथ परिवार के दायित्व 5 वर्ष का बच्चा होने तक किये गये 6 संस्कार (जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नाप्रशन, मुंडन और कर्णवेध संस्कार)

समाज के दायित्व 5 वर्ष के बाद किये जाने वाले 7 संस्कार (उपनयन, वेदारंभ, समावर्तन, विवाह, वानप्रस्थ, सन्यास और अंत्येष्ट संस्कार)

जीव के जन्म के साथ आये संस्कार

पूर्व जन्म के कर्मों के आधार पर प्राप्त संस्कार।

वंशानुगत संस्कार माता-पिता के वंश से प्राप्त होते हैं। इन संस्कारों से रूप, रंग, गुण, स्वभाव तथा कुछ रोग भी आते हैं। जीन के शरीर में 24 क्रोमोजोन्स होते हैं जो माता के वंश की पांच पीढ़ी व पिता के सात पीढ़ी के गुण को ग्रहण करते हैं।

जीव को गर्भ में आने से लेकर वाह्य वातावरण से प्रभावित होकर प्राप्त संस्कार -

गर्भधारण संस्कार – पति-पत्नी को नये जीव को पैदा करने हेतु मानसिक रूप से तैयार करने के लिए

पुंसवन संस्कार – नये जीवन के लिए पति-पत्नी में सांमजस्य के लिए

सीमान्तोनयन संस्कार – गोद भराई के रूप में पति-पत्नी में पति के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करने के लिए पूर्वजन्म के संस्कार बच्चे के सुक्ष्म शरीर (आत्मा) अपने साथ लाता है। जिसमें कुछ अच्छा और कुछ बुरा प्रभाव पड़ता है। इसी अशुद्धता एवं अपूर्णता को दूर करने के लिए अल्प आयु और शरीर संवर्धन के समय यज्ञ द्वारा जल व अग्नि को साक्षी मानकर “संस्कार की विधि” की जाती है। “जल” शरीर शुद्ध करता है और “अग्नि” के प्रभाव से आत्मा की दुर्भावनाओं की मैल छट जाती है। “माटी” से बने हुए मनुष्य शरीर पर यदि “संस्कार” की एक माया चढ़ जाये तो वही मनुष्य “माटी” से “मोती” बन जाता है।

जीव में दोषों को दूर करने के लिए किये जाने वाले संस्कार –

3 संस्कार - जीव के पैदा होने से पूर्व किये जाने वाले 3 संस्कार (गर्भधान, पुंसवन और सीमांतोनयन संस्कार) पिता के वीर्य और माता की रज (जिससे जीव की उत्पति होती है और जो माता-पिता के मल-मुत्र स्थानापन्न हैं) के दोष निवारण के लिए किये जाते हैं।

5 संस्कार - जीव के पैदा होने के पाश्चात किये जाने वाले 5 संस्कार (जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नाप्रशन, मुंडन और कर्णवेध संस्कार) माता के गर्भ में 9 माह तक मल-मूत्र, रक्त आदि अपवित्र पदार्थों के बीच पड़े रहने पर आये दोष के निवारण के लिए किये जाते हैं।

संस्कारों के प्रभाव के उदाहरण – स्वाति नक्षत्र की एक बूंद ओस सर्प के मुख में पड़ने से वह भयंकर विष बन जाता है। वही एक बूंद ओस केले के पत्ते पर पड़ने से वह कपूर बन जाता है। समुद्र के सीप के मुख के अंदर पड़ने से वहीं ओस का एक बूंद मोती बन जाता है।

संस्कार का सार -

वेदानुसार संस्कार सर्व प्रकार के दुःखों से मुक्ति पाने की योजना है।

प्राणी जैसे संस्कार के सम्पर्क में पड़ता है, बढ़ता है, वह वैसा ही बन जाना है।

अपने कल्याण के लिए मनुष्य को संस्कारों की शरण में जाना चाहिए।

संस्कारों से मनुष्य के शरीर व मन सुसंस्कृत होते हैं।

संस्कारों से जीवन में वर्चस, कार्यों में तेजस, व्यवहार में प्रेयस और परहित में श्रेयस आ जाता है।

संस्कारों का प्रभाव स्थूल शरीर व सुक्ष्म शरीर (आत्मा) दोनों पर पड़ता है।

संस्कार विहीन मनुष्य कामज-पशुतुल्य होता है और संस्कार युक्त मनुष्य धर्मज, संयमी और सदाचारी होता है।

अच्छे संस्कारों के लिए जो सोचो वही बोलो और वही करो।

अपने बच्चों को अच्छे संस्कार देकर धर्म का वारिस अवश्य बनायें। चाहे उन्हें धन-सम्पति का वारिस न भी बनाये।

पूर्वजन्म के अच्छे बूरे संस्कार अगले जन्म में प्रारब्ध बनकर साथ रहते हैं।

सत्संग से संस्कारों की प्राप्ति होती है।

संस्कारों से ही चरित्र बनता है।

जीवन का आध्यात्मिक होने के लिए संस्कारित होना आवश्यक है।

संस्कार जीव के होते हैं, आत्मा के नहीं। आत्मा तो साक्षी होती है।

संस्कार द्वारा जीव मानव बनता है।

बचपन में दिये गये संस्कार अमिट होते हैं।

मां संस्कारदाता, पिता स्वभावदाता और आचार्य ज्ञानदाता होते हैं।

संस्कारों से मन की शुद्धिकरण होता है।

धन से सुख नहीं मिलता। सुख मिलता है, अच्छे संस्कारों से।

पूर्व जन्म के संस्कारों के कारण जीव को मृत्यु से डर लगता है।

पूर्व जन्म के संस्कार स्मरण रहने के कारण कोई-कोई जीव को पिछले जन्म की घटनाएं याद रहती है।

पूर्वजन्म के संस्कार दो प्रकार के होते है।

स्थाई संस्कार जिसका परिणाम भोगना ही पड़ता है।

अस्थाई संस्कार जिनको दान, पुण्य, यज्ञ, तप और भगवान नाम के द्वारा मिटाया जा सकता है।

इस घोर कलयुग में अवतार नहीं, संस्कार चाहिए।

संस्कार विहीन का संग बुद्धि का नाश करता है।

संस्कार के लिए सत्संग आवश्यक है।

अच्छे संस्कारों से मनुष्य के तालमेल अच्छे रहते हैं।

संस्कार इहलोक और परलोक दोनों को पवित्र करने वाले होते है।

संस्कारहीनता के लक्षण चोरी, विश्वासघात और अपशब्द है।

संस्कार के लिए आत्मीयता, दयालुता और सरलता आवश्यक है।

No comments:

Post a Comment